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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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अदरी संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप बोरी होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से आदि स्त्रर 'अ' सहिन परवर्ती स्वर सहित 'द' के स्थान पर 'ओ' आदेश की प्राप्ति; अर्थात 'बद' के स्थान पर 'बी' की प्रापि, संस्कृन विधान से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति तथा प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' को इत्संज्ञा; और १-२१ से शेष म्' प्रत्यय का लोप होकर बोरी रूप सिद्ध हो जाता है
नवमालिका संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नोमालिया होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७१ से आदि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'द के स्थान पर 'श्री' श्रादेश की प्राप्ति; (अर्थात् 'नव' के स्थान पर 'नो' की प्राप्ति); १-१७७ से 'क' का लोप; संस्कृत-विधान से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति तथा प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' की इत्संज्ञा और १-११ से शेष 'स्' प्रत्यय का लोप होकर नोमालिया रूप सिद्ध हो जाता है । नषफालका संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नोहलिया होता है । इममें सूत्र संख्या १-१७२ से अादि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'व' के स्थान पर 'ओ' आदेश की प्राप्ति (अर्थात् 'नव' के स्थान पर 'नो' की प्राप्ति) १-२३६ से 'फ' का 'ह'; १-१७७ से 'क् का लोप; संस्कृत-विधान से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति तथा प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' की इत्मज्ञा और १-११ से शेष 'स्' प्रत्यय का लोप होकर नोहलिआ रूप सिद्ध हो जाता है।
पूग कलम संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पोकलं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१० से आदि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर माहित 'ग' के स्थान पर 'श्रो' आदेश की प्राप्ति (अर्थात् 'पूग' के स्थान पर 'पो' की प्राभिः) २-८६ से 'फ' का द्वित्व 'फ्फ'; २-६० से प्राप्त पूर्व 'फ्' को 'प' की प्रति ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्रापि और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पोष्फलं रूप सिद्ध हो जाता है।
पगफली संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पोरफली होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१ से श्रादि स्वर 'उ' सहित पर वर्ती स्वर सहित 'ग' के स्थान पर 'ओ' आदेश की प्राप्ति; (अर्थात् 'पूग' के स्थान पर 'पो' की प्राप्तिः) २-८६. से 'फ' का द्वित्व 'क'; २-६० से प्राप्त पूर्व ' को 'प' की प्राप्ति; संस्कृत-विधान के अनुस्वार स्त्रीलिंग के प्रथमा त्रिभक्ति के एक वचन में 'सि' प्रत्यय की प्रामि; इस में 'सि' प्रत्यय में स्थित्त 'इ' की इत्संज्ञा और १-११ से 'स्' का लोप होकर पोप्फली रूप सिद्ध हो जाता है। न वा मयूख-लवण-चतुर्गण-चतुर्थ-चतुर्दश-चतुर्वार-सुकमार
कुतूहलोदूखलोलूखले ॥ १-१७१ ॥ मयूखादितु आदेस्वरस्य परेण सस्वर पञ्जनेन सह औद् वा भवति ॥ मोही मऊहो । लोणं । इस लपणुग्गमा । चोग्गुणो । चउग्गुणो । चोत्थो चउत्थो । चोत्थी चउत्थी । चोदह ।