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* प्राकृत व्याकरण *
चउदछ । घोदसी चउडसी। चोव्वारी चउठवारो। सोमालो सुकुमाली। कोहल कोउहल्लं । तह भने कोहलिए । मोहलो उऊहली । ओक्खलं । उलूहलं ।। मोरी मऊ इति तु मीर-मयूर शब्दाभ्यां सिद्धम् ।।
अर्थ:-मयूख; लवण; लवणोद्गमा, चतुर्गुण. चतुर्थ, चतुर्थी, चतुर्दश, चतुर्दशी, चतुर, सुकुमार, कुतूहल, कुतूहलिका और उदूखल, इत्यादि शब्दों में रहे हुए आदि स्वर का परवर्ती स्वर सहित यजन के साथ विकल्प से 'श्रो' होता है। जैसे-मयूख: मोहो और मकहो । लवणम् = लोणं और लवणं । चतुर्गुणः = चोरगुरणो और घउग्गुणों । चतुर्थः = चोत्थो और चउत्थो । चतुर्थी =चोयी और चउत्थी ! चतुर्दशः = चोदहो और चउदहो । चतुर्दशीचोहसी और घरहमी । चतुर्धारः- चाव्वारो और चउव्वारो । सुकुमारः =सोमाली और सुकुमोलो । कुतूहलम् = कोहल और कोहल्लं । कुतूहस्लिके - कोहलिए और कुऊहलिए । उदूखलः = ओहलो और उऊहलो । उलूखलम् = प्रोक्खलं और उलूहलं । इत्यादि ।। प्राकृत शब्द मोरो और मऊरो संस्कृत शब्द मोरः और मयूरः इन अलग अलग शब्दों से रूपान्तरित हुए है; अतः इन शब्दों में सूत्र संख्या १-१७१ का विधान नहीं होता है।
मयूखः संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप मोहो और मऊहीं होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१७१ से आदि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'य' व्यजन के स्थान पर अर्थात् 'अयू' शब्दांश के स्थान पर बैकल्पिक रूप से 'नो' को प्राप्ति; १-१८७ से 'ख' का 'ह'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रुप मोहो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप मऊही में वैकल्पिक-विधान होने से सूत्र संख्या १- ७७ से 'य' का लोप; और शेष मिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप मऊहो भी सिद्ध हो जाता है।
लषणम् संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप लोणं और लवणं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१७१ से आदि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'व' व्यजन के स्थान पर अाम् 'श्रय' शब्दोश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'श्रो की प्राति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप लोणे सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप लवणं में वैकल्पिक-विधान होने से सूत्र संख्या 1-१७१ की प्राप्ति का अभाव, और शेष सिद्धि प्रश्रम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप लषणं भी सिद्ध हो जाता है।
इति संस्कृत श्रव्यय है। इसका प्राकृत रूप इन होता है । इसमें सूत्र संख्या १-६१ से 'ति' में स्थित 'इ' का 'अ'; और १-१४७ से 'त्' का लोप होकर इअ रूप सिद्ध हो जाता है। .