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* प्राकृत व्याकरण *
कौक्षेयकम् संस्कृत रूप हैं। इसके प्राकृत रूप कुच्छेयं और कोकोअवं होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१६१ से वैकल्पिक रूप से 'औ' के स्थान पर 'उ' को प्राप्ति २-१७ से च् के स्थान पर 'छ' का आदेश; २-०६ से प्राप्त 'छ' का द्रित्व छन; २६० से प्राप्त पूर्व 'छं' का 'च' १-७७ से 'य्' और 'क' का लोप; १९८० से शेष अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'य्' की प्राप्तिः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'मू' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप कुच्छेअयं सिद्ध हो जाता है ।
द्वितीय रूप ( कोच्छेयं) में सूत्र संख्या १५६ से 'औ' के स्थान पर 'यो' की प्राप्ति; शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना यों कोच्छ्रयं रूप सिद्ध हुआ ।। १६२ ।।
उः पौरादौ च ॥ १-१६२ ॥
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कौक्षेय पौरादिषु च श्रांत उरादेशो भवति ॥ कउच्छेयं ॥ पौरः । पउरो । पउरजणो ॥ कौरवः । करवी || कौशलम् । कउसलं । पौरुपम् | उरिसं । सौचम् | सउहं ॥ गौडः | गउचो || मौलिः | मउली । मौनम् । मउ || सौराः । सउरा ॥ कौलाः । कउला ||
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अर्थ:- कौक्षेयक; पौर-जन; कौरव; कौशल; पौरुष; सौध; गौड और कौल इत्यादि शब्दों में रहे हुए 'औ' के स्थान पर 'अ' का आदेश होता है। जैसे- कौक्षेयकम् = कउन्छेर्य पौरः = पउशे; पौरजनः - पर- जो; कौरवः = कडरबो; कौशलम् = कसलं पौरुषम् परिसं; सौधम् = सउह गौड: गउडो; मौलिः = मडली; मौनम् = मंडणं; सौरा:1:- सउरा और कौलाः - कउला इत्यादि ॥
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कौक्षेयकम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कच्छेयं होता है। इसमें सूत्र संख्या - १६२ से 'औ' के स्थान पर 'अ' का आदेश और शेप - सिद्धि सूत्र संख्या १-१६ में लिखित नियमानुसार जानना | यो फउच्छ्रेयं रूप सिद्ध होता हैं ।
चौरः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप पडसे होता हैं । इस में सूत्र संख्या १-१६२ से 'द्यौ' के स्थान पर 'उ' का आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पउरो रूप सिद्ध हो जाता है ।
पार-जनः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पर जो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१६२ से 'श्री' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति १-२ से 'न' का 'ण' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर यउर-जणी रूप सिद्ध हो जाता है ।
कौरवः संस्कृत रूप हैं । इसका प्राकृत रूप कउरवो होता है। इसमें सूत्र संख्या १- १६२ से 'औ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कउरवी रूप सिद्ध हो जाता है ।
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