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* प्राकृत व्याकरण *
आच्च गौरवे ॥ १-१६३ ॥
गौरव शब्द श्रौत श्रात्वम् अश्च भवति || गारवं गउर |
अर्थ :- गौरव शब्द में रहे हुए 'औ' के स्थान पर क्रम से 'आ' अथवा 'अ' की प्राप्ति होती है | जैसे-गौरवम् = गारवं और गउरखं ।।
गौरवम्, संस्कृत रूप है ! इसके प्राकृत रूप गार और गडरवं होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सत्र संख्या १-१६३ से क्रमिक पक्ष होने से 'श्री' के स्थानपर 'था' की प्राप्तिः ३००५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर गार रूप सिद्ध हो जाता है ।
द्वितीय रूप (गउर) में सूत्र संख्या १-१६३ से ही क्रमिक पक्ष होने से 'औ' के स्थानपर 'उ' की प्राप्ति और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना । इस प्रकार द्वितीय रूप गउर भी सिद्ध हो जाता है । ।।१-१६३।।
नाव्यावः ॥ १-१६४ ॥
नौ शब्दे श्रौत भावादेशो भवति ॥ नात्रा ||
अर्थः- नौ शब्द में रहे हुए 'औ' के स्थान पर 'भाव' आदेश की प्राप्ति होती है। जैसेनौ = नावा ॥
मौ संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूपः नावा होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१६४ से 'औ' के स्थान पर 'व' आदेश की प्राप्तिः १-१५ स्त्री लिंग रूप-रचना में 'आ' प्रत्यय की प्राप्तिः संस्कृत विधान प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'द्द' की इत्संज्ञा और १-११ से शेष अन्य ..व्यञ्जन 'सू' का लोप होकर नावा रूप सिद्ध हो जाता है ।
एत त्रयोदशादौ स्वरस्य सस्वर व्यञ्जनेन ॥ १-१६५ ॥
दश इत्येवंप्रकारेषु संख्या शब्देषु प्रादेः स्वरस्य परेण सस्वरेण व्यञ्जनेन सह एव भवति || तेरह । तेवीसा । तेतीसा ॥
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अर्थः- त्रयोदश इत्यादि इस प्रकार के संख्या वाचक शब्दों में आदि में रहे हुए 'स्वर' का पर स्वर सहित व्यजन के साथ 'ए' हो जाता है । जैसे - त्रयोदश - तेरह त्रयोविंशतिः = तेबीसा और त्रयस्त्रिंशत् - तेतीसा । ॥ इत्यादि ॥
त्रयोदश संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप तेरह होता है। इसमें सूत्र संख्या २०७४ से ''
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