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प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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पैद्यः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप धेजो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१४८ से 'ऐ' का 'ग'; -२४ से 'र' का 'ज'; २-1 से प्राप्त ‘ज का द्वित्व 'उज'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्जिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वेज्जो रूप सिद्ध हो जाता है।
कटमः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप फेढवो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२४८ से 'ऐ' का '; १-१६६ से 'ट' का 'द'; १- ४० सेभ' का 'व'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर केला प सिद्ध हो जाता है ।
वैधव्यम, संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत का वेटो गेता है। इसमें पर मंगल्या :-०४८ से ऐ' का 'क'; १-८७ से 'ध' का 'ह'; २-७८ से 'य्' का लोप; २८ से शेष 'व' का द्वित्व 'व्व'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुसके लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-३ से प्राप्त म्' का अनुस्वार होकर बेहवं रूप सिद्ध हो जाता है। ।। १४८ ।।
इत्सैन्धव-शनैश्चरे ॥ १-१४६ ॥
एतयोरत इच्वं भवति ।। सिन्धवं । सणिकरो ॥ अर्थ:-सैन्धव और शनैश्वर इन दोनों शब्दों में रही हुई 'ऐ' को 'इ' होती है। जैसे-सैन्धवम् -सिन्धर्व और शनैश्वरः = सणिच्छरो!।
सैन्धवम् संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप सिन्धर्च होता है । इसमें स्त्र संख्या १-१४६ से रे की 'इ'; ३-२५ से प्रथमो विभक्ति के एक पचन में नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सिन्धर्व रूप सिद्ध जाता है।
निश्चर संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सरिणच्छरो होता है। इसमें सूत्र संख्या -६० से 'श' का 'स'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; १.१४६ से 'ऐ' की 'इ'; २-२१ से श्च' का 'छ'; २.८८ से प्राप्त 'छ' फा द्वित्व 'छछ': २-६० से प्रान पूर्व 'छ' का 'च'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सणिच्छरोप सिद्ध हो जाता है । ॥ ४ ॥
सैये वा ॥ १-१५० ॥ सैन्य शब्दे ऐत हद् वा भरति ॥ सिमं से ॥ अर्थ:- सैन्य शम्म में रही हुई ऐ' की विकल्प से 'इ' होती है। जैसे-सैन्यम्-सि ॥
सन्यम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप सिन्नं और सेनं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १.१५० से ऐ' की विकल्प से 'इ' और १-१४८ से 'ऐ' की 'ए'; २-७८ से 'य' का लोप; २८८ से शेष 'न' का हित्य