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* प्राकृत व्याकरण *
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अर्थ:--उच्चैः और नीः इन दोनों शब्दों में रही हुई 'ऐ' के स्थान पर 'अन' का आदेश होता है । जैसे-उच्चैः = उच्चभं और नीचः-नीचरं । उच्चैः और नीचैः शकों की सिद्धि कैसे होती है ? इस प्रश्न के दृष्टि कोण से ही यह बतलाना है कि इन दोनों शवों के अन्य रूप नहीं होते हैं; क्यों कि ये अव्यय है अतः अन्य विभक्तियों में इन के रूप नहीं बनते हैं। . उच्चैम् संस्कृत श्रव्यय है । इसका प्राकृत रूप उच्च होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१५४ से 'ऐ' के स्थान पर 'अ' का आदेश १-१४ की वृत्ति से 'स्' के स्थान पर 'म की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म'का अनुस्वार होकर उच्च रूप सिद्ध हो जाता है।
नीचैस् संस्कृत श्रन्यय है । इसका प्राकृत रूप नीच होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१५४ से 'ऐ' के स्थान पर 'अन' का आदेश; ५-२४ की वृत्ति से 'स्' के स्थान पर 'म' की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म का अनुस्वार होकर मीयो कप सिद्ध हो जाता है ।
ईद्धये ॥ १-१५५॥ धैर्य शब्दे ऐत ईद् भवति ॥ धीरं हरइ विसाप्रो ।।
अर्थः-धैर्य शब्द में रही हुई 'ऐ की 'ई' होती है। जैसे-धैर्य हरति विषादः-धीरं हर३ विसाश्रो॥
धैर्यम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप धीरं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१५५ से '' की ६२-६४ से 'र्य का विकल्प से 'र';३-५ से द्वितीय विभक्ति के एक वचन में नपुसक लिंग में अम्' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर धीर रूप सिद्ध हो जाता है।
हरति संस्कृत सकर्मक क्रिया है । इसका प्राकृत रूप हरइ होता है । इसमें सूत्र-संख्या ३-१३६ से समान-कास में प्रथम पुरुष के एक बचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर प्रत्यय की प्राप्ति होकर हरइ रूप सिद्ध हो जाता है।
. विषादः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप विसाओ होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२६० से '' का 'स'; १-१४७ से 'द' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पिसाओ कप सिद्ध हो जाता है॥1-५५५ ।।
श्रोतोद्वान्योन्य-प्रकोष्ठातोद्य-शिरोवेदना-मनोहर.
सरोरुहेतोच वः ॥१-१५६ ॥ एषु ओतोच वा भवति तत्संनियोगे च यथा संभवं ककार तकारयोर्चादेशः ॥ अमन