________________
* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
[१६६
पर 'स्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप
से सिद्ध हो जाता है
द्वितीय रूप (से) में सूत्र संख्या १-१४ से 'मे' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना । यो वेसिअं रूप सिद्ध हो जाता है ।
चैत्रः संस्कृत रूप हैं। इसके प्राकृत रूप तो और चेत्तो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्रसंख्या १-१५२ से 'ऐ' स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ऋ' की प्राप्तिः २०७६ से 'र्' का लोपः २-८६ से 'ल' का द्वित्व 'त'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर '' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप तो सिद्ध हो जाता है ।
द्वितीय रूप ( चेत्तो) में सूत्र संख्या १-१४८ से 'के' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और शेष - सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना । यो चेत्ती रूप सिद्ध हुआ ।। १-१५२ ।।
एच्च दैवे ।। १-१५३ ।।
देव शब्दे ऐत एव अादेशो भवति || देव्वं दव्वं दहवं ॥
अर्थ:-- 'देव' शब्द में रही हुई 'ऐ' के स्थान पर 'ए' और 'आह' का आदेश हुआ करता हैं। जैसे-दैवम् = देव्यं और दवं । इसी प्रकार से दैवम् = दइवं ।।
१
1
में
दैवम् संस्कृत रूप हैं । इसके प्राकृत रूप देव दयं और दहवं होते हैं। इन में से प्रथम रूप सूत्र संख्या १-१५३ से 'ऐ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति २-६६ से 'ब' को विकल्प रूप से द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति ३२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वच में नपुंसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप देवं रूप सिद्ध हो जाता है ।
द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१५३ से 'ऐ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति और शेष सिद्ध प्रथम रूप के समान ही जानना । वो दध्वं रूप सिद्ध हो जाता है ।
तृतीय रूप में सूत्र संख्या १०:५३ से 'रे' के स्थान पर 'अ' की प्राप्तिः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - ३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर हर्ष रूप भी सिद्ध हो जाता है। ॥ ५३|१
-
उच्चैनाचस्यैः ॥ १-१५४
अनयोः प्रम इत्यादेशो भवति । उच्चयं । नीच उच्चनीवाभ्याम् के सिद्धम् । उच्चनीचैसोस्तु रूपान्तर निवृत्यर्थं वचनम् ॥