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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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नकः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप नत्ति और नस श्रो होते हैं। इनमें सूत्र- संख्या-२-७७ से 'प' का लोन, १-१३७ से 'ऋ' की क्रम से और विकल्प से 'इ' और 'उ'; २८६ से 'तू' का द्वित्व ख ९- १७७ से 'कू' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'भ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से नसिओ एवं नत्तु रूप सिद्ध हो जाते हैं ॥ १-१३७॥
वा बृहस्पतौ ॥
१-१३= ॥
बृहस्पतिशब्दे ऋतौ वा भत्रतः ।
बिष्फई बुहप्फई | पक्षे
कई ॥
अर्थ:--- बृहस्पति शब्द में रही हुई 'ऋ' की विकल्प से एवं क्रम से 'इ' और 'उ' होते हैं। जैसे. बृहस्पतिः न बिहाफई और हफई । पक्ष में बहकाई भी होता है ।
बृहस्पतिः संस्कृत रूप है। इस रूप कई कई और बहफई होते हैं। इनमें सूत्रसंख्या १-१३८ से 'ऋ' की क्रम से और विकल्प से 'इ' और 'उ'; तथा पक्ष में १-१२२ से 'ऋ' को 'अ'; २०५३ से 'रूप' का 'फ' २-५६ से प्राप्त 'फ' का द्वित्व 'क' २०६० से प्राप्त पूर्व 'फू' का 'प्'; १-१७७ से 'सू' का लोप और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्डिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर क्रम से किई; बुहफई और पक्ष में बैकल्पिक रूप से बहफई रूप सिद्ध हो जाते हैं । ॥ १-१३८ ॥
इदेदोवृन्ते ॥ १-१३६ ॥
वृन् शब्दे तहत् एत् श्रोग्च भवन्ति ॥ त्रिएट वेराटं वोएटं ॥
अर्थ:- न्स शब्द में रही हुई '' की 'इ'; 'ए' और 'ओ' कम से एवं विकल्प से होते हैं । जैसे - वन्तम् - [विराट, बेस्ट अथवा बोटं ।
बोरदं होते है । इन में सूत्र- मंख्या
वृतम् संस्कृत रुप है । इनके प्राकृत रूप विएदं, वेष्टं और १-९३६ से 'ऋ' की क्रम से और वैकल्पिक रूप से 'इ' 'र' और 'ओ'; २-३१ से मंयुक्त 'त' का 'एट': ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुसार होकर क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से विटं वेष्टं और बोटं रूप सिद्ध हो जाते हैं ।। १-१३६ ॥
रिः केवलस्य ॥ १-१४० ॥
केवलस्य व्यञ्जने नासंपृक्तस्य ऋतो रिरादेशो भवति ।। रिद्धी । रिच्छों ॥
अर्थः- किसी भी शब्द में यदि 'ऋ' किसी अन्य व्यक्जन के साथ जुड़ी हुई नहीं हो, अर्थात् स्वतंत्र