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*पियोस हिन्दी माझ्या सहित *
पिनुकः संस्कृत रुप है। इसका प्राकृत रूप पिउश्रो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-७७ से 'त्' और 'क्' का लोप; २-१३१ से 'ऋ' का 'उ' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर श्री प्रत्यय की प्राप्ति होकर पिउओ रूप सिद्ध हो जाता है।
पृथ्वी संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पुहवी होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-१३१ से 'ऋ' का 'उ'; २-११३ से अन्त्य व्यञ्जन 'वी' के पूर्व में 'उ' की प्राप्ति; १-१८७ से 'थ' का 'ह' होकर पुछपी रुप सिद्ध हो जाता है।
निवृत्त-वृन्दारके वा ॥ १-१३२ ।। अनयो त उद् वा भवति ॥ निवुत्तं निअत्तं । वुन्दारया बन्दारया ॥
अर्थ:-निवृत्त और वृन्दारक इन दोनों शब्दों में रही हुई 'ऋ' का विकल्प से 'उ' होता है। जैसे निवृत्तम् =निवृत्तं श्रथवा नियन्तं । वृन्दारकाः- बुन्दारया अथवा बन्दारया ॥
निवृत्तम् संस्कृत विशेषस है। इसके प्राकृत रूप निवुत्तं और निअर्स होते हैं इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या-१-१३२ 'ऋ' का विकल्प से ''; ३-२५ प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसकलिंग में 'स' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर निथुतं रूप सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में -१२६ से 'ऋ' का 'अ'; १-१७७ से 'व' का लोप और शेष साधनिका प्रथम रूप वत् होकर निअसं रुप सिद्ध हो जाता है।।
वृन्दारकाः संस्कृत विशेषण है । इसके प्राकृत रूप वुन्दारया और वन्दारया होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या-१-९३२ से '' का विकल्प से 'उ'; १-९७७ से 'क्' का लोप; १-१८० सं शेष 'अ' का 'य'; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में पुल्लिंग में "जस्' प्रत्यय की प्राप्ति और प्राम प्रत्यय का लोप, तथा ३-१२ से अन्त्य स्वर 'अ' का दीर्घ स्वर 'आ' होकर घुन्दारया रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में १२६ से 'ऋ' का 'अ'; और शेष साधनिका प्रथम रुप वत् होकर पन्दारया रूप सिद्ध हो जाना है। ॥ १-१३२॥
वृषभे वा वा ॥ १.१३३ ॥ अपभे ऋतो बेन सह उद् वा भवति ॥ उसह) वसहो ॥
अर्थः-चूषभ शब्द में रहीं हुई 'म' का विकल्प से '' के साथ 'उ' होता है। अर्थात् '' व्यञ्जन सहित 'ऋ' का विकल्प से 'उ' होता है। जैसे-वृषभः = उसहो और पसहो । इस प्रकार विकल्प पक्ष होने से प्रथम रूप में 'वृ' का 'ख' हुश्रा है और द्वितीय रूप में केवल 'ऋ' का 'अ' हुआ है।