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* प्राकृत व्याकरण *
उसहों रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३१ में की गई है। वसहो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१२६ में की गई है।।। १-१३३ ॥
गोणान्त्यस्य ॥ १-१३४ ॥ गौण शब्दस्य योन्त्य ऋत् तस्य उद् भवति ।। माउ-मण्डलं । माउ-हरं । पिउ-हरं । माउ-सिमा । पिउ-सिधा । पिउ-बणं । पिउ-वई ॥
अर्थ:--दो अथवा अधिक शब्दों से निर्मित संयुक्त शब्द में गौण रूप से रहे हुए शब्द के अन्त में यदि 'ऋ' हो तो उस 'ऋ' का '' होता है। जैसे-मातृ-मण्डलम् =माउ-मण्डलं । मातृ-गृहम् = माजहरम् । पितृ-गृहम् =पिउ-हरं । मातृ-ब्वमा=माउ-सिधा । पितृ-ध्वसा=पिउ-सिश्रा । पित-वनम् - पिन वणं । पितृ-पतिः पिउ-वई ॥
मातृ-मण्डलम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप माउ-मण्डलं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१३४ से 'ऋ' का '७'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नमक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर माउ-मण्डलं रूप सिद्ध हो जाता है।
मानु-गृहम् संस्कृत 'रूप है । इसका प्राकृत रूप माउ-हर होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१५७ से 'तु का लोप; १-१३४ से अदि '' का 'उ'; २-१४४ से 'गृह' के स्थान पर 'घर' का आदेश; १-१८७ से प्राप्त 'घ' का 'ह); ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर "म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर माउ-हर रूप सिद्ध हो जाता है।
पितृ-गृहम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पिउन्हरं होता है। इसकी साधनिका उपर वर्णित • 'मातृ-गृहम् =माउ-हरे' रूप के समान ही जानना ।
मातृ-वसा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप माउ-सिआ होता है । इसमें सत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप, १.१३४ से 'ऋ' का 'उ', २-१४२ से 'ज्वसा' शब्द के स्थान पर 'सिया' का आदेश होकर माउसिआ रूप सिटू हो जाता है। पितृ-स्वसा संस्कृत रुप है। इसका प्राकृत रूप पिउ-
तिआ होता है। इसकी साधनिका ऊपर• वर्णित मातृ-प्यसा=माउ-सिआ ।। रुप के समान ही जानना ।
पितृ-वनम् संस्कृत रुप है। इसका प्राकृत रुप पिउ-वर्ण होता है। इसमें सूत्र-मख्या-१-१४७ से म् का लोप; १.१३४ 'ऋ' का 'उ'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पिउ-वर्ण रुप सिद्ध हो जाता है।