________________
१५० ]
********
का 'उ'; २–४० से 'द्ध' का 'ढ'; २-८९ से प्राप्त 'ढ' का द्वित्व 'ढ'; ६-६० से प्राप्त पूर्व 'व्' का 'ड'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रूप सिद्ध हो जाता है ।
* प्राकृत व्याकरण
ट्राई का प्राकृत रूप वुड ही होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१३१ से 'ऋ' का 'उ'; २-४० से संयुक्त व्यजन 'द्ध' का 'ढ'; से प्राप्त 'ढ' का द्वित्व 'ढ' ६० से प्राप्त पूर्व 'द' का ड; और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर बुड्ढी रूप सिद्ध हो जाता है ।
ऋषभः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप उसही होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१३१ से 'ऋ' का 'उ'; १-२६० से 'ष' का 'स' ११८७ से 'भ' का 'ह' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर उसही रूप सिद्ध हो जाता है । मृणालं संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप मुणालं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१३' से 'ऋ' का 'उ'; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर मृणाल रूप सिद्ध हो जाता है ।
ऋजुः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप उज्जू होता है। इसमें सूत्र संख्या ९-१३१ से '' का 'उ'; २०६८ से 'ज्' का द्वित्व 'जू'; और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' का दीर्घ स्वर 'ऊ' होकर उज्जू सिद्ध हो जाता है ।
जामातृकः संस्कृत रूप हैं । इसका प्राकृत रूप जामा 'तू' और 'क्रू' का लोपः १-१३१ से 'ऋ' का ''; और ३-२ से
में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जामाजको रूप सिद्ध हो जाता है।
होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग
argh: संस्कृत विशेषण हैं। इसका प्राकृत रूप माउ होता है । इसमें सूत्र संख्या १- १७७ से 'सू' और 'क्' का लोप; १-१३१ से 'ऋ' का 'उ'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर माउओ रूप सिद्ध हो जाता है।
मातृका संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप माउश्रा होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'न्' और 'क्रू' का लोप और १-१३१ से 'ऋ' का 'उ' होकर माउआ रूप सिद्ध हो जाता है।
भ्रातृकः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप भाउओ होता है। का लोप; १-१७७ से 'स्' और 'क' का लोप; १-१३१ से 'ऋ' का 'उ' एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय भाउओ रूप सिद्ध हो जाता है।
के स्थान पर 'श्री'
इसमें सूत्र संख्या २-७६ से 'र' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के प्रत्यय की प्राप्ति होकर
F