________________
* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित #
में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर निउ रूप सिद्ध हो जाता है।
संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप विउ 'व्' और 'सू' का लोप, १-१३१ से 'ऋ' का 'उ'; ३-२४ से में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और free रूप सिद्ध हो जाता है ।
[१४६
+++
होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से प्रथमा विभक्ति के एक चचत में नपुंसक लिंग १००३ से प्राप्त म् का अनुस्वार होकर
संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप मं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१३१ से 'ऋ' का 'उ'; १-१७७ से 'स्' का लोप ३-०५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर संयुर्ण रूप सिद्ध हो जाता है ।
वृत्तः संस्कृत रूप है | इसका प्राकृत रूप वुप्तन्तो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१३१ से 'ऋ' का 'उ'; १–८४ से 'आ' का 'अ'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रस्थय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सन्तो रूप सिद्ध हो जाता है।
निस् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप निष्युचं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१३१ से 'ऋ' का 'उ'; २२७६ से ' का लोप २-८६ से 'धू' का द्वित्व 'व्व'; १-१७७ से 'तू' का लोपः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'भू' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर निष्टुभं रुप सिद्ध हो जाता है।
निर्वृतिः संस्कृत रूप है | इसका प्राकृत रूप frogई होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१३१ से 'व' का 'उ'; २-७६ से 'र्' का लोपः २-८६ से 'य्' का द्वित्व 'हव' १-१७७ से 'तू' का लोप; और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में स्त्री लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' का दीर्घ स्वर 'ई' होकर निव्वुई रूप सिद्ध हो जाता है।
सून्वं संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप युन्दं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१३१ से 'छ' का ''; ३-२५ ले प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर सुन्दै रूप सिद्ध हो जाता है ।
पुन्वायनः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप बुन्दाषणो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१३१ से 'ऋ' का 'उ'; १-१०८ से 'न' का 'ए' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सुन्द्रावणो रूप सिद्ध हो जाता है।
बुद्ध' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप वुड, ढो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१३ से''