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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित
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अर्थ:---कृपा आदि शब्दों में रही हुई आदि 'ऋ' की 'इ' होती है। जैसे -कृपा = किया । हृदयम् हिययं । सृष्टम् == ( रस चाचक अर्थ में हो ) मिटु । मृष्टम् = ( रंम से अतिरिक्त अर्थ में ) मट्ठ । म् =दि | दृष्टिः = विडी | सृष्टम् सिहं । सृष्टिः मिट्टी । गृष्टि = गिट्टी और गिष्ठी । पृथ्वी = पिच्छी । भृगुः =भिक । भृङ्गः भिङ्गो । भृङ्गारः भिकारी । शृङ्गारः = सिङ्गारो 1 श्रृगालः = सियालो । घृणा - घिरा । घुसृणम् = घुमिरणम् । वृद्ध कविः = वि-कई । समृद्धिः समिद्धी । ऋद्धिः = इद्धि । गृद्धिः = गिद्धी । कुशः = किसो | कृशानुः = किसाणू | दुसरा = किसरा | कुच्छम् = किच्छं । नृप्तम् = तिप्पं । कृषितः=किंसिष्यो ! नृपः =नियो । कृत्या = किया | कृतिः = किई । घृतिः धिई | कृपः = किवी । 'कृपणः किञ्चिरणे । कृपार्णम किवाणं । वृश्चिक: वित्रुओं । वृत्तम् = वित्त' | वृत्तिः वित्ती हृतमयं । व्याहनम =वाहित | बृंहितः हि । वृसी विसी । ऋषिः इसी । वितृष्णः = : विरहो | स्पृहा बिहार सकृत् = सह | टम उफ्रिकटु । नृशंसः = निसंसो । किसी किसी शब्द में 'ऋ' को 'इ' नहीं भी होती है । जैसे ऋद्धि रिद्धी 1.
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कृपा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप किवा होता है। इसमें सूत्र संख्या १- १२८ से आदि 'ऋ' को 'इ'; और (-२३१ से 'ए' का 'ष' होकर किंवा रूप सिद्ध हो जाता है ।
हृदयम् संस्कृत रूप है | इसका प्राकृत रूप हिय होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२५ से '' को 'इ' १-१७७ से 'इ' का लोप १-१८० से शेष 'अ' का 'ब' ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और ४०२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर हिचर्य रूप सिद्ध हो जाता है ।
सृष्टम् संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप मिट्ठ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२ से 'ऋ' की 'इ'; २-३४ से 'ष्ट' का '': २८६ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व '' २०६० से प्राप्त पूर्व 'ट' का 'ट; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक चञ्चन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यक के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-९३ से प्राप्त 'ग' का अनुस्वार भिट्ट रूप सिद्ध हो जाता है ।
· मुष्टम् संस्कृत रूप हैं । इसका प्राकृत रूप मट्ठ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-९२६ से 'ऋ' का 'अ'; २-३४ से 'ष्ट' का 'उसे प्राप्त 'ठ' का द्वित्व ''; २६० से प्राप्त पूर्व 'टू' का '': ३-२५ से अश्वमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राति; और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर मई रूप सिद्ध हो जाता है ।
दिट्ठ रूप की सिद्धी सूत्र संख्या १-४२ में की गई है।
इष्टः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप द्विी होता है, इसमें सूत्र संख्या १-१२ से 'ऋ' की ''इ'; २-३४ से 'ष्ट' का 'य'; २८ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ठ' २६० से प्राप्त पूर्व 'व्' का 'ट्; ३-१६ से प्रथमा विभति के एक वचन में स्त्रीलिंग से 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' की दीर्घ 'ई' लेकर सिद्ध हो जाता है ।
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