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* प्राकृत व्याकरण -
कृसरा संस्थत रूप है । इसका प्राकृत रूप किसरा होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१९८ से '' की 'इ'; होकर किसरा रूप सिद्ध हो जाता है।
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. कृन्म संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप किच्छ होता है। इसमें संख्या १९८ से 'ऋ' की 'इ': २१७६ से अन्य 'र' का लोप; २-८६ से शेष 'छ' का द्वित्व 'छ छ'; २-४.० से प्राप्त पूर्व छ' का 'च'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नमक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म् का अनुस्वार होकर किच्छे रूप सिद्ध हो जाता है।
.. हप्तं संस्कृत विशेषरण है । इसका प्राकृत रूप तिप्पं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-६२८ से 'ऋ' की इ;२-७७ से 'तू' का लोप, २-८८ से शेष 'प' का द्वित्व 'एप', ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर तिप्पं रूप सिद्ध हो जाता है।
कृषितः संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप किमिश्रो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-६२८ से 'यू' की 'इ ; १९६० से 'ए' का 'स'; १-१५७ से 'त्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर किसी रूप सिद्ध हो जाता है।
नृयः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप निको होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-२३१ से 'प' का 'व';और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर नियो रूप सिद्ध हो जाता है। - कृत्या स्त्री लिंग शब्द है । इसका प्रकृत रूप किसा होता है। इसमें सूत्र-संग्ख्या १५२८ से 'ऋ' की 'इ'; २-१३ से 'त्य' का 'च'; और २-८८ से प्राप्त 'च' का द्वित्य सच' होकर किच्चा कप सिद्ध हो जाता है।
कृति संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप किई होता है। इसमें सूत्र संख्या १.१२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-१५५ से 'न' का लोप; और ३-१६. से प्रथमा विभक्ति के एक बधम में स्त्री लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर किई रूप सिद्ध होता है।
तिः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप धिई होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' को 'इ'; १.१४४ से 'त्' का लोप; और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में स्त्री लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर पिई रूप सिद्ध हो जाता है। ... कृपः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप किंवो होता है । इममें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-२३१से 'प' का 'ब' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' की प्राप्ति होकर कियो रूप सिद्ध हो जाता है।