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* प्राकृत व्याकरण *
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मण संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप मसिर और मसणं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या * १३० से 'ऋ' की विकल्प से 'इ' और १-९२६ से 'ऋ' का 'अ' ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार, होकर क्रम से मसिणं और मसणं रूप सिद्ध हो जाते हैं ।
मृगांकः संस्कृत रूप है । इस प्राकृत रूप मिश्री और मयको होते हैं। इनमें सूत्र संख्या - १३० से 'ऋ' की विकल्प से 'इ' १ ९७७ से 'गु' का लोप; १-८४ से शेष 'आ' का ''; और ३-२ से प्रथमा विभक्त के एक बंधन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप कि अंकों सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-९२६ से ऋ' का 'अ'; १-१७७ से 'ग्' का लोप; ३-८४ से शेष 'आ' का ''; १-१८० से प्राप्त 'अ' वा 'य' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्रति होकर मयंको रूप सिद्ध हो जाता है !
मृत्युः संस्कृत रूप हैं । इसके प्राकृत रूप मिळवू और मच्चू होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १.६३० से 'ऋ' की विवरुप से 'इ'; २-१३ से ६य् के स्थान पर 'च्' का आदेश; २८६ से आदेश प्राप्त का द्वित्व और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्व हस्व स्वर ' ं' का दीर्घ स्वर 'ऊ' होकर मिच्छु रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' का 'श्च'; और शेष साधनिका प्रथम रूप वत् होकर मह रूप सिद्ध हो जाता है ।
संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप सिङ्ग और सन' होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१३० से 'ऋ' की विकल्प से 'इ'; और द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-९२६ से 'ऋ' का 'अ' १-२६० मे 'शु' का 'स्; ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर ''प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर श्रम से सिंगं और संगं रूप सिद्ध हो जाते हैं ।
हृष्टः संस्कृत विशेषण है । इसके प्राकृत रूप धिट्ठो और धट्टो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१३० से 'ऋ' की विकल्प से 'इ' और द्वित्य रूप सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' का 'अ'; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; २०१६ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ठ' २-६० से प्राप्त पूर्व 'ठू' का टू' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से fver और घो रूप सिद्ध हो जाते हैं। ।। १-१३० ।।
उत्त्रादौ ।। १-१३१ ॥
ऋतु इत्यादिषु शब्देषु श्रादे'त उद् भवति ॥ उ । परामुट्ठी । पृट्ठी । पउट्ठों हई । पउत्ती । पाउसो पाउयो । भुई । पहुडि । पाहुडं । परहु । निहुअं । निउ । चिउ ! संकुद्धं । वृत्तन्तो । निध्वु । निव्वुई । वृन्द । वृन्दावणो । त्रुड़ो । बुड्डी । उसहो ।