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* प्राकृत व्याकरण *
पृष्टम् संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप सिट्ट' होना है। इसमें सूत्र संख्या १-१२० से 'ऋ' की 'इ'; २-३४ से 'ष्ट' का ठ'; २-८८ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'छ'; २-६० से प्राप्त पूर्व 'र' का 'द्', ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपु'सक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सिदई रूप सिद्ध हो जाता है।
सृष्टिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सिट्ठी होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' को 'इ'२-३४ से 'ट' का ठू', २-८८ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'छ; २-६० से प्राप्त पूर्व '' का 'ट'; ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में स्त्री लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य द्वस्व स्वर 'इ' की दीर्घ 'ई' होकर सिदठी रूप सिद्ध हो जाता है।
गुष्टिः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप गिट्टी और गिराठी होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-६२८ से 'ऋ' की 'इ'; २-३४ से 'ष्ट का 'ठ'; २-८८ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ठ'; २.१० से प्राप्त पूर्व '' का 'द'; और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में स्त्री लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व 'इ' की दीर्घ 'ई' होकर गिछी रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सुत्र संख्या १-५२८ से 'ऋ' की 'इ'; २-३४ से' का 'ठ'; १-२६ मे प्रथम आदि स्वर 'इ' के धागे पागम रूप अनुस्वार की प्राप्ति;
और ३-.१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में स्त्री लिंग में सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ 'ई' होकर गिण्ठी रूप सिद्ध हो जाता है।
पृथ्वी संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पिच्छी होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२८ से 'ऋ. की 'इ'; २-१५ से 'थ्व का 'छ'; २-८८ से प्राप्त छ' का द्वित्य 'कुछ'; २-६० से प्राप्त पूर्व 'छ,' का " होकर पिच्छी रूप सिद्ध हो जाता है।
भृगुः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप मिऊ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-१४७ से 'ग्' का लोप; और. ३.१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' का दीर्घ स्वर 'ॐ' होकर भिऊ रूप सिद्ध हो जाता है।
भुंग : संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप भिङ्गो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२८ से 'ऋ' की और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय फी प्राप्ति होकर भिल्गी रूप सिद्ध हो जाता है।
भुंगार: संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप भिकारी होता है। इसमें सूत्र संख्या १.१२८ से 'ऋ' की 'इ'; और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में सि' प्रत्यय के स्थात पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भिंगारो रूप सिद्ध हो जाता है।
श्रकारः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सिङ्गारो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१२८ से ''