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* नियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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'कि' शब्द को सिद्धि १.६९ में की गई है।
केन संस्कृत सर्वनाम है। इसका प्राकृत रूप केण होता है। इसमें मूत्र-संख्स ३.७१से 'किम' का 'क'; 1-६ से तुलीया एक वचन में 'दा' प्रत्यय के स्थान पर 'ण'; ३-१४ से 'क' के 'अ' का 'ए'; होकर 'ण' रूप सिद्ध हो जाता है। इसी के साथ प 'अपि' अपय है; अतः ण' में स्थित 'अ' और 'अपि' का 'अ' बोनों की सधि १५ से होकर केणावि रूप सिद्ध हो जाता है।
कथमपि संस्कृत अध्यय है । इसका प्राकृत रूप कहमचि होता है। इसको सिदि १.२१ में करको
इतेः स्वरात् तश्च द्विः ॥ १-४२ ॥ पदात परस्य इतरादे लुग भवति स्वरात परश्च तकारी द्विभवति ।। कि ति । जति । दिट्ठति । न जुत्तं ति ॥ स्वरात् । तह त्ति । म ति । पिलो ति । पुरिसो ति ॥ पदादित्येव । इस विझ-गुहा-निलयाए ।
अर्थ:-यदि 'इति' अव्यय किसी पद के मार्ग हो तो इस 'इति' को आदि 'इ' का लोप हो जाया करता है। और यदि '' लोप हो जाने के बाद शेष रहे हए 'ति' के पूर्व-पर के अंत में स्वर रहा हुआ हो तो इस पति के 'त' का द्वित्व 'त' हो जाता है । जैसे-"किम् इति' का कि ति'; 'यत इति' का जति'; 'दृष्टम् इति' का 'विट्ठति' और 'न सक्तम् इति' का 'न जसं ति । इन उदाहरणों में 'इति' अश्यप पदों के आगे रहा हा हं; अतः इनमें 'इ' का लोप रेखा जा रहा है। वर-संबंधित उदाहरण इस प्रकार है:-'तथा इति' का तह ति'; 'ज्ञा इति' का जत्ति'; 'प्रियः इति' का 'पिओ ति'; 'पुरुषः इति' का 'पुरिलो त्ति' इन उदाहरणों में 'इति' के शेष रूप 'ति' के पूर्व पदों के अंत में स्वर है। अत: ति' के 'त्' का द्विस्व 'त' हो गया है ।
'पवात' ऐसे शन का उल्लेख करने का तात्पर्य यह है कि यदि 'इति' अव्यय किसी पर के आगे न रह कर बाक्य के आवि में ही आ जाय तो 'इ' का लोर नहीं होता असा कि हम विन-गुहा-निलयाए' में देखा जामकता है।
'क' शम्म की सिद्धि-१-२९ में को गई है।
(किम् इति संस्कृत अध्यय है। इनका प्राकृत रूप कि ति' होता है। सूत्रसंख्या १-४२ से 'हमि' के 'इ' का लोप होकर 'ति' रूप हो जाता है । 'यद इति संरकृत अव्यय है। इनका प्राकृत 'जति होता है । 'ज' को सिद्धि-१-३४ में कर दी गई है । और इति' के 'ति' को सिद्धि भी इसी सत्र में कार दी गई है।
दृध्द इति संस्कृत शब्द है । इनका प्राकृत रूप बिट्ट ति होता है । इनमें सूत्र-संस्पा १-१२८ से 'ऋ' का '; २-३४० से 'ट' का 'ठ'; २-८. से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'क'; २-९० से प्राप्त पूर्व '8' का 'ट; ३-५ से हितोया के एक वचन में 'अम्' प्रत्यय के 'अ' का लोप १-२३ 'म्' का अनुस्वार होकर दिलं रूप सिद्ध हो जाता है । मौर १-४२ से 'इति' के ''का लोप होकर विदठति सिद्ध हो जाता है ।