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* प्राकृत व्याकरण *
दूसह रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३ में की गई है।
सहः ( दुस्सहः ) संस्कृत विशेषण है इसका प्राकृत रूप दुसही होता है। इसमें सूत्र संख्या १~१३ से 'र्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दुसह रूप सिद्ध हो जाता है ।
दुर्भगः संस्कृत विशेषण हैं। इसके प्राकृत रूप दूवो और दुहओ होते हैं । इसमें सूत्र संख्या १-१३ से 'र्' का लोप; १-११५ से आदि 'उ' का विकल्प से 'ऊ'; (१८७ से 'भ' का 'ह'; १-१६२ से आदि दीर्घ 'ऊ' वाले प्रथम रूप में 'ग' का 'व' और १-२७७ से हस्त्र 'उ' वाले द्वितीय रूप में 'ग्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से हो और दुहओ रूप सिद्ध हो जाते हैं ।
दुस्सही रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३ में की गई है।
विरहः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप विरहो होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विरही रूप सिद्ध हो जाता है ।। ११५ ।।
प्रोत्संयोगे ।। १-११६ ॥
संयोगे परे श्रादेरुत्वं भवति ।। तोराई | मोराडं पोक्खरं कोडिमं पोरथयो । लो ! मोत्या । मोग्गरो पोग्गलं । कोण्ढो । कोन्तो । वोकन्तं ॥
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अर्थः-- शब्द में रहे हुए आदि 'उ' के आगे यदि संयुक्त अक्षर था जोथ; तो उस 'उ' का 'ओ' हो जाया करता है। जैसे- तुण्डम् = तोण्ड' । मुण्ड = मोण्ढ पुष्करम् = पोक्खरं । कुट्टिमम् = कोट्टिमम् । पुस्तकः = पोत्थओ | लुब्धकः = लोढयो | मस्ता = मोत्था मुद्गरः = मोग्गरो । दुद्गतं = पोग्गलं । कुष्ठः कोटो | कुतः = कोन्तो । व्युत्क्रान्तम् = वोचन्तं ॥
तुण्डम् संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप तोयद्ध' होता है । इसमें सूत्र संख्या १-११६ से आदि 'ङ' का 'श्रो'; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म् का अनुस्वार होकर तोण्डम् रूप सिद्ध हो जाता है ।
भुण्डम् संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप मोड होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११६ से आदि '' का 'ओ' ३२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'भू' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर भी रूप सिद्ध हो जाता है ।