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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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उत्सरति संस्कृत अकर्मक क्रिया पर है। इसका प्राकृत रूप ऊसरइ होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-११४ से श्रादि 'उ' का 'ऊ'; २-४७ से 'त' का लोप; और ३-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर ऊसरह रूप सिद्ध हो जाता है।
___ उरक. - ( उत् + शुकः )-संस्कृत विशेषरण है। इसका प्राकृत रूप मसुत्रो होता है। इसमें सूत्रसंख्या-१-७६४ से श्रादि 'उ' का 'ऊ';२-७७ से 'तू' का लोप, १-२६० से 'श' का 'स';१-१७७ से 'क' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्रामि होकर ऊमुभो रुप सिद्ध हो जाता है।
उपसति (उत्श्वसति) - संस्कृत सकर्मक क्रिया पद है। इसका प्राकृत रूप उससह होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-११४ से श्रादि 'उ' का 'ऊ'; २-४ से 'तू' का लोप, १-५४७ से 'व्' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर ऊससह रूप सिद्ध हो जाता है।
उत्साहः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप उच्छाहो होता है। इसमें-सूत्र-संख्या २-२१ से 'स' का 'छ; २-८६ से प्राप्त 'छ' का द्वित्व 'छ, छ'; २-६० से प्राप्त पूर्व 'छ' का 'च'; और ३-२ से प्रथमा के एक यचम में पुल्लिग 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर उछाहो रुप सिद्ध हो जाता है।
उन्सन्नः संस्कृत विशेषरण है । इसका प्राकृत रूप उच्छन्नो होता है। इसमें सूत्र-संख्या-२-२१ से 'ल्स' का 'छ', २-८८ से प्राप्त छ' का द्वित्व 'छ छ' २-६० से प्राप्त पूर्व 'छ'; का 'च'; और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर उच्चनो रुप सिद्ध हो जाता है ।। ११४॥
लुकि दुरो वा ॥ १.११५ ।। दुपसर्गस्य रेफस्य लोपे सति उत उत्धं वा भवति ।। दूसही दुसहो । दूहको दृहभो ॥ लुकीति किम् । दुस्सहो विरही ।।
अर्थ:--'दुर्' उपसर्ग में रहे हुए 'र' का लोप होने पर 'टु' में रहे हुए 'उ' का विकल्प से 'ऊ' होता है। जैसे:-दुःसहः= दूसहो और दुसहो ॥ दुर्भगः-दूहयो और दुहश्रो 'र' का लोप होने पर ऐसा उल्लेख क्यों किया ?
___ उत्सरः-पदि 'दुर्' 'उपसर्ग में रहे हुए 'र' का लोप नहीं होगा तो 'दु' में रखे हुए 'उ' का भी धीर्ष 'क' नहीं होगा । जैसे:-दुस्सहः विरह-दुस्सहो विरहो । यहाँ पर '' का म् हो गया है और उसका लोप नहीं हुआ है; अतः 'दु' में स्थित 'ड' का भी 'अ' नहीं हुआ है। ऐसा मानना ।