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* प्राकृत व्याकरण *
प्रकटन संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप पायडं और पयडं होते हैं । इनमें सूत्र संख्या २७१ से 'र्' का लोपः १-४४ से आदि 'अ' का 'मा' विकल्प से होता है । १-१७७ से 'कृ' का लोग १ - १८० से शेष 'अ' का 'य' १०९९५ से 'ट' का '' ३२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रस्थम के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर पायर्ड पथडं रूप सिद्ध हो जाते हैं।
प्रतिपदा संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप पाडियआ और पडिव होते हैं। इसमें सूत्र संख्या २७९ से 'र्' का लोप १-४४ से आदि 'अ' का 'आ' विकल्प से होता है: १- २०६ से '' का '१-२३१ से ''का 'व' १-१५ से अत्स्य व्यञ्जन अर्थात् '' के स्थान पर 'अ' होकर पाfree और पडिव रूप सिद्ध हो जाते हैं।
प्रसुप्तः संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप पासो पत्तो होते हैं। हमें सूत्र संख्या २७९ से '९' का लोप: १-४४ से आवि 'अ' का विकल्प से 'आ'; २-७७ से द्वितीय 'प्' का लोप २-८९ शेष 'त' का द्वित्व 'त'; और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' अथवा 'विसर्ग' के स्थान पर पासुत्तों और पशु रूप सिद्ध हो जाते हैं ।
'नो' होकर
प्रतिसिद्धिः संस्कृत शब्द है इसके प्राकृत रूप पासिद्धी और परिसिद्धी होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७९ से 'ए' का लोप १-४४ से आदि 'अ' का विकल्प से 'आ'; १-२०६ से त' का 'ड' ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर ह्रस्व '' की दीर्घ होकर पाडिसिद्धी और पडिसिटी रूप सिद्ध हो जाते हैं।
सहक्षः संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप सारियो और सरिच्छो होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१४२ से 'ट' का 'रि' १-४४ से आदि-'म' का विकल्प से 'आ' २-३ से' 'क्ष' का 'छ' २-८९ से प्राप्त 'छ' का द्विव 'छ' २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ' का '' और ३-२ से प्रथमा पुल्लिंग एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'शो' होकर सारिच्छों और सरिच्छो रूप सिद्ध हो जाते हैं ।
मर्णसी की सिद्धि १ - २६ में की गई है।
मासी की सिद्धि-१-४४ से जावि 'अ' का वीर्य 'आ' होकर होती है। शेष सिद्ध मणंसी के समान जाना!
मणसिप्पी की सिद्धि- १ - २६ में की गई है।
प्राणंसिणी में १-४४ ले आदि 'अ' का दीर्घ 'आ' होकर यह रूप सिद्ध हो जाता है।
अभियाती संस्कृति शय है । इसके प्राकृत रूप आहिआई और अहिमाई होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'भ' का 'ई' १-४४ से आणि 'अ' का विकल्प से 'अ'; १-१७७ से 'य्' का और 'त्' का लोप तथा ३-१८२ से बात श्री प्राप्त होक आहिआई और अहिआई रूप सिद्ध हो जाते है।