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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में लिंग के भेद से पुल्लिग मान लेने पर ३-२ से प्रथमा के एक वचन में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर माउलो रूप सिद्ध हो जाता है।
मुकुर संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप मउरं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१०७ से प्रादि 'उ' का 'श्र'; १.१७७ से 'क' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म् का अनुस्वार होकर मउरं रूप सिद्ध हो जाता है।
मुकुट संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप मउई होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१०७ से श्रादि 'उ' का 'अ'; १-१७७ से 'क' का लोप; १-१६५ से 'ट' का ''; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्रापि; और 2 में प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर मउर रूप सिद्ध हो जाता है।
अगुरू संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'अगरु' होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१०७ से आदि 'उ' का 'अ'; ३-२५ से ७.थमा के एक वचन में नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर अगर रूप सिद्ध हो जाता है।
गुषी संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप गरुई होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१०७ से 'उ' का 'अ'; २-११३ से 'वी' का 'रुबी'; १-१७७ से प्राप्त "रुवी' में से 'व्' का लोप होकर गलई रूप सिद्ध हो जाता है।
बहुहिलो और जहिहिलो शब्दों की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६६ में की गई है।
सौकुमार्यम् संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप सोचमल्ल होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१०७ से 'उ' का 'अ'; १-१७७ से 'क' का लोप; १-१५E से 'औ' का 'ओ'; १-८४ से 'आ' का 'अ';२-६८ से 'य' का द्वित्व 'ल्ल'; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म् का अनुरवार होकर सोअमल्ल रूप सिद्ध हो जाता है।
गुसूची संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रुप गलोई होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१०७ से श्रादि 'उ' का अ'; १-१२४ से 'ऊ' का 'ओ'; १-२०२ से 'ड' का 'ल'; १-६४७ से 'च्' का लोप होकर गल्लोई रूप सिद्ध हो जाता है।
पिद्रुतः संस्कृत विशेषरण है। इसका प्राकृत प विहानी होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-४ से 'र' का लोप; १-१०७ की वृश्चि से: 'उ' का 'आ'; २-८ से 'द' का द्वित्व 'द'; १-१७७ से 'न' का लोप; और ३.२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पिट्दाभोप सिद्ध हो जाता है ।।१०।।
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