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* प्राकृत व्याकरगा
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... . वोपरी ॥ १-१०॥ . . उपरावृतोद् वा भवति ।। अवरि । उवरि ।।
अर्थः-उपरि शब्द में रहे हुए, 'उ' का विकल्प से 'अ' हुआ करता है। जैसे उपरि = प्रवरि और उवरि ।।
अवरिं शब्द की सिद्धि सूत्र-संख्या १-८६ में की गई है
उपरि संस्कृत अन्यय है। इसका प्राकृत रूप उपरि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १.२३१ सेप' का 'व'; और १-२६ से अनुस्वार की प्राप्ति होकर उरि रूप सिद्ध हो जाता है।
गुरो के वा ।। १-१०६ ॥ - गुरौ स्वार्थ के सति आदेरुतो वा भवति ॥ गरुषो गुरुयो॥ क इति किम् ? गुरू ॥
अर्थ:-गुरु शब्द में स्वार्थ-वाचक 'क' प्रत्यय लगा हुआ हो तो 'गुरु' के आदि में रहे. हुए 'उ' का विकल्प से 'अ' होता है । जैसे:--गुरुकः = गो और गुरुयो । 'क' ऐसा क्यों लिखा है ?
उत्तर:- यदि स्वार्थ-वाचक 'क' प्रत्यय नहीं लगा हुअा हो तो 'गुरु' के आदि 'उ' का 'अ' नहीं होगा । जैसे-गुरुः गुरू ।
गुरूकः संस्कृत विशेषण है । इसके प्राकृत रूप गरी और गुरुयो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ६-१०६ से आदि 'उ' का विकल्प से 'अ'; १-१५७ से 'क्' का लाप; और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर क्रम से गरूओ और गुमओ रूप सिद्ध हो जाते हैं।
गुरूः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप गुरू होता है। इस में सूत्र-संख्या ३-१६ से प्रथमा के क वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्य स्व स्वर का दीर्घ स्वर होकर गुरू रूप सिद्ध हो जाता है। . . . . .. ..
.. . इधं कुटौ ॥१-११० ॥ ... भृकुटावादैरुत हर्भवति ॥ भिउठी ॥ अर्थ:-भृ कृटि शब्द में रहे हुए आदि 'उ' की 'इ' होती है। जैसे-भ कुटिः भिउही 11 · श्रृकुटि संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप भिडनी होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७ से फा लोपः १-११० से आदि 'ज' की 'ई'; १-१७४ से 'क' का लोप; १.११५ से 'ट' का और ३-१६ से
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