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* प्राकृत व्याकरण *
है। द्वितीय रूप में हे०२-४-६८ से प्रथमा के एक बचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'मा होकर हलहा रुप सिद्ध हो जाता है।
शिथिलेगुदे वा ॥ १-८६ ॥ .. अनगोरादेरितोद् वा भवति । सहिल | पसढिल । सिढिल' । पसिविल ॥ अङ्ग अं इङ्ग अ॥ निर्मित शब्दे तु वा आत्वं न विधेयम् । निर्मात निर्मित शब्दाभ्यामेव सिद्धः।।
अर्थ:-शिथिल और इंगुव शठनों में आदि 'इ' का विकल्प से 'श्र' होता है। जैसे-शिथिलम् - सदिल और सिढिलं । प्रशिथिलम् = पसढिलं और पमिटिलं । इंगुदम् = अंगुझं और इंगुअं । निर्मित शन में तो विकल्प रूप से 'इ' का 'आ' करने की आवश्यकता नहीं है । निर्मात संस्कृत शठद से निम्माश्रो होगा; और निर्मित शब्द से निम्मिश्रो होगा । अतः इनमें 'श्रादि 'इ" का 'अ" ऐसे सूत्र की मावश्यकता नहीं है।
शिथिलमं संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप सदिलं और सिढिलं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-८६ से श्रादि 'ई' का विकल्प से 'अ'; १-२६० से 'श' का 'स'; १-२१५ से 'थ" का 'ढ'; ३-२५ मे प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से सडिर्स और सितिलं रूप सिद्ध हो जाते हैं।
प्रशिथिलम् संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप पसढिलं और पसिदिलं होते हैं। इनमें सूत्रसंख्या-२-७६ से 'र' का लोप; १-८४ से आदि 'इ' का विकल्प से 'अ'; १-२६० से 'श' का 'स'; १-२१५ से 'थ' का 'ढ'; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थानपर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से पसहिले और पसिहिलं रूप सिद्ध हो जाते है।
इंगुदम् संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप अंगुनं और इंगुरं होते हैं । इनमें सूत्र संख्न्यो-१-१ से 'इ' का विकल्प से 'अ'; १-१४७ से 'द्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्वय की प्राप्तिः, और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से अंगु और इंगुभं रूप सिद्ध हो जाता है।
तित्तिरोरः॥ १.६० ॥ तिचिरिशब्दे रस्येतोद् भवति ॥ तित्तिरी ।। अर्थ:-तित्तिरि शङद में 'र' में रही हुई 'इ' का 'अ' होता है। जैसे-तित्तिरिः तितिरो॥