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'दू', ३- २५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में सिं' प्रत्यय के स्थान पर 'में' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से पेट और पिट्ठ रूप सिद्ध हो जाते हैं ।
* प्राकृत व्याकरण *
बिल्वम् संस्कृत शब्द है | इसके प्राकृत रूप बेल्लं और बिल्लं होते हैं। इनमें सूत्र- संख्या-१-८५ से 'इ' का विकल्प से 'ए' १-१७७ से 'व' का लोप २६ से 'ल' का द्वित्व 'ल्ल'; ३–२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से बेल्लं और बिल्लं रूप सिद्ध हो जाते हैं।
चिन्ता संस्कृत शब्द है और इसका प्राकृत रूप मी चिन्ता ही होता है ॥ ८५ ॥
किंशुके वा ॥
१ ८६ ॥
किंशुक शब्दे आदेरित एकारो वा भवति ॥ केयं किंसु ॥ अर्थ:- किंशुक शब्द में आदि 'इ' का विकल्प से '' होता है। जैसेकिंसुनं ॥ केयं और किसुयं की सिद्धि सूत्र संख्या १ - २६ में की गई है ।
मिरायाम् ।। १-८७ ॥
मिरा शब्दे इत एकारो भवति || मेरा ||
अर्थ:- मिरा शब्द में रही हुई 'इ' का 'ए' होता है । जैसे मिरा = मेरा ॥
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केतु और
मिरा देशज शब्द है । इसका प्राकृत रूप मेरा होता है। इसमें सूत्र संख्या १२७ से 'इ' का 'ए' होकर मेरा रूप सिद्ध हो जाता है ।
पथि - पृथिवी - प्रति न्मूषिक- हरिद्रा - विभीतकेष्वत् ॥ १-८८ ॥
एषु श्रादेरितोकारो भवति ॥ पहो । पुहई । पृढवी | पडँसुआ । मूसओ । हलद्दी । हलदा | बहेडओ || पन्थं किर देसित्तेति तु पथि शब्द समानार्थस्य पन्थ शब्दस्य भविष्यति । हरिद्रायां विकल्प इत्यन्ये । इलिद्दी इलिदा ॥
अर्थ :--- पथि - पृथिवी -प्रतिश्रुत मूषिक-हरिद्रा, और विभीतक इन शब्दों में रही हुई 'आदि' का 'अ' होता है । जैसे--पथिन् ( पन्था ) = पहो; पृथिवी - पुहई और पुढवी । प्रतिश्रुत् = पढौंसुआ ।। मूषिकः = मूसश्रो ॥ हरिद्रा - हलही और हला || बिभीतकः = बहे || पन्थ शब्द का जो उल्लेख किया गया है; वह पनि शब्द का नहीं बना हुआ है। किन्तु 'मार्ग - वाचक' और यही अर्थ रखने वाले 'पन्थ' शब्द से बना हुआ है। ऐसा जानना । कोई २ आचार्य 'हरिद्रा' शब्द में रही हुई 'इ' का 'अ' विकल्प रूप से मानते हैं । जैसे- हरिद्रा हलिदी और हलदा ये दो रूप उपरोक्त हलिड़ी और हलद्दा से
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