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* प्राकृत व्याकरण *
जिब्रूवा संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप जीहा होता है। इसमें सूत्र संख्या- १-६२ से 'इ' की 'ई'; १-१७७ से 'व्' का लोप; हे० २-४-१८ से स्त्रीलिंग आकारान्त में प्रथमा के एक वचन में 'सि' के स्थान पर 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जीद्दा रूप सिद्ध हो जाता है ।
प्रत्यय
सीहो शब्द की सिद्धि सूत्र संख्या १ २६ में की गई है। तीसा और वीसा शब्दों को सिद्धि सूत्र संख्या - १-२८ में गई है ।
सिंह-वृत्तः संस्कृत विशेषण है; इसका प्राकृत रूप सिंह दत्तो होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा के एक बचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय आकर सिंह-रत्तो रूप सिद्ध हो जाता है।
सिंह -राजः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप सिंह राम्रो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-१७७ से 'ज' का लोप और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय होकर सिंह राओ रूप सिद्ध हो जाता है। ।। ६२॥
लुकि निरः ॥ १-६३ ॥
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निर् उपसर्गस्य रेफलोपे सति हत ईकारो भवति ॥ नीखरइ | नीसासो || लुकीति किम् । निष्य | निरसहा हूँ अङ्गाई ॥
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अर्थ: जिस शब्द में 'निर्' उपसर्ग हो; और ऐसे 'निर' के 'र' का याने रेफ' का लोप होने पर 'नि' में रही हुई 'इ' की दीर्घ 'ई' हो जाती है । जैसे- निर्सरति = नीसरह । निश्र्वास = नीमासो || 'लुक' ऐसा क्यों कहा गया है। उत्तर जिन शब्दों में इस सूत्र का उपयोग नहीं किया जायगा; वहाँ पर 'नि' में रही हुई 'इ' की दीर्घ 'ई' नहीं होकर 'नि' के परवर्ती व्यजन का अन्य सूत्रानुसार द्वित्व हो जायगा | जैसे-निर्णय: निरपत्र । निर्संहानि अङ्गानि निस्सहाऍं अनाहं । इन उदाहरणों में व्यञ्जन का हो गया है।
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निर्संराप्तिं संस्कृत क्रिया है । इसका प्राकृत रूप नीसरह होता है। इसमें सूत्र- संख्या - १-१३ से 'निर्' के 'र्' का लोप; १-६३ से आदि 'इ' की दीर्घ 'ई'; ३-१३६ से प्रथम पुरुष में वर्तमान काल में एक वचन 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' होकर नौसरह रूप सिद्ध हो जाता है ।
free: संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप नीसासो होता है। इसमें सूत्र संख्या-१-१३ से 'नर' के 'र' का लोप; १६३ से 'इ' की दीर्घ 'ई' १-१७० से 'व' का लोप १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा के एक बचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर teri रूप सिद्ध हो जाता है ।
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