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* त्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित
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परीहः - संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप पारोहो और परोहो होते हैं । इनमें सूत्र संस्था- २ - ७९ से 'र्' का लोप ९-४४ से आदि 'अ' का विकल्प से 'आ' ३-२ से प्रथमा में पुल्लिंग के एक वचन के 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर यारोहों और परोहों रूप सिद्ध हो जाते है।
प्रवासी संस्कृत शब्द है । इसका मूल प्रवासिन् है । इसके प्राकृत रूप पावासू और पवासू होते हैं। इनमें सूत्र संख्या - २ - ७९ से 'र' का लीप; १-४४ से आदि 'अ' का विकल्प से 'आ' १-१५ से ६' का 'उ' १-११ से अन्य व्यञ्जन 'न' का लोप और ३-१९ से अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' का वो स्वर 'ॐ' होकर पावासू और पवासू रूप सिद्ध हो जाते हैं ।
प्रतिस्पर्धी संस्कृत शब्द है । इसका मूल रूप प्रतिस्पद्धित् है । इसके प्राकृत रूपी पडी होते हैं । इनमें सूत्र संख्या-२-७९ से दोनों '' का लोपः १-४४ से आदि 'अ' का विकल्प से दीर्घ आ; १- २०६ से 'स' का 'ड', २-५३ से 'स्प' का 'क' २८९ से प्राप्त 'क' का द्वित्व 'फफ' २-९० से प्राप्त पूर्व 'फू' का ''; पाडि फर्सी और १-११ सेन 'म्' का लोप और ३-१९ से अन्त्य 'इ' की बोर्घ 'ई' होकर डिप्फी रूप सिद्ध हो जाते हैं ।
अस्पर्शः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप आफंसो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-४४ की वृत्ति से आणि 'अ' का 'आ'; ४-१८२ से स्पर्श के स्थान पर 'फेस' का आवेश; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आफंसो रूप सिद्ध हो जाता है ।
परकीय संस्कृत शब्द हूं। इसके प्राकृत रूप पारकेएं और पारवर्क होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-४४ की वृत्ति से 'आदि-अ' का 'आ' २०१४८ से कीयम् के स्थान पर केर और एक की प्राप्ति; ३ २५ से नपुंसकलिंग में प्रथमा के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर पारकरें और पारक्कं रूप सिद्ध हो जाते हैं
प्रवचनम् संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप पावणं होता है। इसमें सूत्र संख्या २७९ से 'र्' का लोप १-४४ से आदि 'अ' का 'आ'; १-१७७ से '' कालाप: १-१८० से शेव 'अ' का 'य' १-२२८ से 'न' का 'ण' ३ २५ से नपुंसक लिंग में प्रथमा के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' को प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर पावयणं रूप सिद्ध हो जाता है।
चतुरन्तम्, संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप चाउरन्तं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-४४ से आदि 'अ' का 'आ'; १-१७७ से 'तू' का लोप ३ २५ से नपुंसक लिंग में प्रथम के एक वचन में सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' को प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर वाउरन्तं रूप सिद्ध हो जाता है ॥ ४४ ॥
दक्षिणे हे ॥ १-४५ ॥
दक्षिण शब्दे आदेरतो हे परे दीर्घो भवति । दाहिणो || ६ इति किम् । दक्खियो !!