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* प्राकृत व्याकरण *
महाराष्ट्रः = 'मरहट्ठो' शब पुल्लिग और नपुसक लिंग कोनो लिग वाला होने से पुल्लिा में ३-२ से 'सि' के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर मरहट्टो रूप सिद्ध हो जाता है।
मांसादिष्पगुस्वारे ॥ १-३८ ।। ___ मांसप्रकारेषु अनुस्वारे सति आदेरातः अद् भाति । मंसं । पम् । पंसणो । कसं । कासियो । वंसियो । पंडवो । संसिद्धिो । संजत्तियो ।। अनुस्वार इति किम् । मास । पाम् ॥ मांस । पां। पसिन । कास्य । कांसिक । वांशिक । पाण्डव । सांसिद्धिक । सांयात्रिक । इत्यादि ।
अर्थ:-मांस आदि जैसे शब्दों में अनुस्वार करने पर आदि 'आ' का 'अ'होता है। जैसे-मांसम् = मंस । पांश: - पंस ।। पांसनः पंसणी । कास्यम् - कसं । कोसिक-कसियो 1 वांशिक:- सिओ। पाण्डवः =पंडवो। सासिद्धिकः= संसिद्धियो । सायानिकः = संजत्तिओ। सूत्र में अनुस्वार का उल्लेख पर्यों किया ?
उत्तर-यवि अनुस्वार नहीं किया आपगा तो 'आदि आ' का 'अ' भी नहीं होगा ! जैसे-मांसम् = मासम् । पांशुः=पान । इन उधाहरणों में नादि 'मा' का 'म' नहीं किया गया है । क्योंकि मनुस्वार नहीं है।
मसंसद की सिद्धि .-२९ में की गई है। पंसू गाय को सिखि १-२६ में की गई है।
पांसनः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप पंसणो होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-७० से 'बा' का
१-२८ से 'म'का 'ण': ३-२ से पुल्लिग में प्रथमा के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओहोकर पंसणो रूप सिद्ध होता जाता है ।।
कंसं की सिद्धि १-२९ में की गई है।
कासिकः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप कसिलो होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-१७७ से द्वितीय 'क' का लोप; १-७० से आदि 'n' का 'अ'; ३-२ से प्रपमा के वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'हो' प्रत्यय होकर कसिमी कप सिद्ध हो जाता है।
वांशिकः संस्कृत शम्व है। इसका प्राकृत रूप बसियो होता है । इसमें प्रत्र-संध्या-१-२६० से 'श' का 'स'; १-७० से 'आदि-जा' का 'अ'; १-१७७ से 'क' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर वंसिओ रूप सिद्ध हो जाता है ।
पाण्डवः साकृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप पंजो होता है। इसमें सत्र-संस्था-१५० से 'मावि-आ' का ''; १.२५ से 'ण' का अनुस्वार; और ३-२ से प्रथमा के एक बचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थानपर 'ओ' प्रत्यय होकर पंडवो रूप सिद्ध हो जाता है।