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* प्राकृत व्याकरण *
श्राचार्थे चोच्च ।। १-७३ ॥ श्राचार्य शब्दे चस्य श्रात इत्वम् श्रत्वं च भवति ।। आइरिश्रो, आयरिश्रो ।।
अर्थ:-आचार्य शब्द में 'चा' के 'आ' की 'इ' और 'अ' होता है । जैसे-त्राचार्यः= आइरिओ और पायरियो ।
आचार्यः-संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप श्राइरिओ और आयरिओ होते हैं । इनमें सूत्र-संख्या-१-७३ से 'चा' के 'था' की 'इ' और 'अ'; २-१०४ से 'य' के पूर्व में 'इ' का आगम होकर 'रिथ' रूपः १-१४७ से 'च' और 'य' का लोप द्वितीय रूप में ५-१८० से प्रात 'च' के 'अ' का 'य'
और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थानपर 'बो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आइरिओ और आयरिओ रूप सिद्ध हो जाते हैं। ॥७३॥
ई: स्त्यान-खल्वाटे ।। १-७४ ॥ स्त्यान खल्बाटयोरादेरात ईर्भवति।। ठीणं । थीणं । थिएणं । खन्लीडो ॥ संखायं इति तु समः स्त्पः खा (४-१५) इति खादेशे सिद्धम् ।।
____ अर्थ:-स्त्यान और खल्वाट शब्दों के आदि 'श्रा' की ई होती है। जैसे-स्थानम् =ठीणं, थीणं. थिएणं । खल्बादः = खल्लीडो । संखायं-ऐमा प्रयोग तो मम् उपप्तरी के बाद में आने वाली स्य धातु के स्थान पर (४-१५) से होने वाले 'खा' श्रादेश से सिद्ध होता है।
स्त्यामम् संस्कृत विशेषण है । इसके प्राकृत रूप ठीणं, थीणं और थिरणं होते हैं । इन में सूत्र-संख्या -२-७८ से 'य' का लोप; २-३३ से 'रत' का 'ठ'; १-७४ से 'या' की 'ई'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; यों ठीण हुश्रा । द्वितीय रूप में स्त' का २-४५ से 'थ'; थों थीण हुश्रा । तृतीय रूप में २-६६ से प्राप्त 'ए' का द्वित्व 'एण'; और १-८४ से 'थी' के 'ई' की हस्व 'इ'; यों थिरण" हुश्रा । बाद में ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से ठीणं, थीर्ण और थिण्णं रूप सिद्ध हो जाते हैं ।
खल्वाटः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप खल्लीडो होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-१७७ से 'व्' का लोप; २-८८ से 'ल' का द्वित्व 'ल्ल': १-४४ से 'श्रा' की 'ई'; १-१६५ से 'ट' का 'उ', और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर खल्लाडो रूप सिद्ध हो जाता है।
___ संस्थागम्संस्कृत शठद है । इसका प्राकृत रूप संस्खाय होता है । इसमें सूत्र-संख्या-४-१५ से 'स्त्या' के स्थान पर 'खा' का आदेश; २-७८ से 'न्' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' का 'य'; ३-२५ से