________________
७८ ]
* प्राकृत व्याकरण *
अर्थ:-शिम शग्व में यषि नियमानुसार 'क्ष' का है हो जाप तो ऐसा 'ह' आगे रहने पर 'द' में रहे हुए 'अ' का 'मा' होता है। जैसे कि-वक्षिणः = दाहियो ।'' ऐसा क्यों कहा? क्योंकि यदि 'ह' नहीं होगा तो 'ब' के 'अ'का 'आ' महीं होगा। जैसे कि-रक्षिण: रक्षिणो॥
दक्षिणः संस्कृत कम है। इसके का और दबिगो जैगों होते हैं। इनम सूत्र संख्या २-७२ से विकल्प से 'भ' का 'ह! १-४५ से आदि 'अ' का 'या'; ३-२ से पुल्लिग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर दाहिणो रूप सिस हो जाता है। द्वितीय रूप में प्रत्र संख्या २-३ से 'क्ष' का 'ख'; २-८९ से प्राप्त 'ख' का द्वित्व 'ख'; २-९० से प्राप्त पूर्व '' का 'क'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर दक्षिणो रूप सिद्ध हो जाता है ।। ४५ ॥
इः स्वप्नादौ ॥ १-४६ ॥ स्वप्न इत्येवमादिषु आदेरस्य इत्वं भवति ॥ सिविणो । सिमिणो ॥ आर्षे उकारोपि । सुमिणो । ईसि । वेडिसी। विलियं । विअणं । मुइङ्गो। किविणी। उत्तिमो । मिरिक्षं। दिएणं । बहुलाधिकारापणत्वाभावे न भवति । दचं । देवदत्तो॥ स्वप्न । ईषत् । वेतस | व्यलीक । व्यजन । मृदङ्ग । कृपण । उत्तम । मरिच । दत्त इत्यादि ।।
अर्थ:-स्वप्न आदि इन शब्दों में आदि 'अ' को 'इ' होती है। जैसे-स्वप्नः - सिविणो और सिभिषो । आर्षरूप में 'उ' भी होता है-जैसे-सुमिणी ।। ईषः = ईसि | वेतसः- येडिसो । व्यालीकम् = विलिऊँ । व्यजनम् = विअणं | मृदङ्ग = मुइंगो । कृपणः किषिणो ॥ उत्तमः = उत्तिमो मरिचम् = मिरि ॥ वत्तम् - वि ||
'बहुलम्' के अधिकार से जब वत्तम् में 'प' नहीं होता है। अर्यात दिण्णं रूप नहीं होता है; तब बत्तम् में आदि 'अ' को 'इ' भी नहीं होती है । जैस-दसम् = इत्तं ।। देवदत्तः = देवदत्तो ।। इत्यादि ।
स्वप्नः संस्कृत शम्व है। इसके प्राकृत रूप सिविणो; सिमिणो; और आप में सुमिणो होते है। इनमें सूत्र संख्या १-४६ से 'व' के 'अ' को 'इ'; १-१७७ से ' का लोप; २-१०८ से 'न' से पूर्व 'प' में की प्राप्ति; १.२३१ से '' का 'द'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२ से प्रथमा के एक पचन में पुल्लिग में 'सि' के स्थान पर 'नो' होकर 'सिविणो रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप सिमिणो में सूत्र संख्या १-२५९ से '' के स्थान पर 'म' होता है; तव सिमिणो रूप सिद्ध हो जाता है।
तृतीय रूप में पत्र संख्या १-४६ को पत्ति के अनुसार 'आप' में आदि 'अ' का 'उ' भी हो जाता है । यों सुमिणो रूप सिद्ध हो जाता है। शेष सिद्धि ऊपर के समान प्रानना।
ईषत् संस्कृत अम्पय है । इसका प्राकृत रूप ईसि होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-२६० से 'ष' का 'स'१-४६ से 'स' के 'अकी '१-११ से अन्त्य म्यञ्जन 'त'का लोप होकर 'ईसि रूप सिद्ध हो जाता है।