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* प्राकृत व्याकरण *
अम्हे + एत्य = अम्हेत्थ; यहाँ पर सूत्र संख्या १-४० से एत्य के आदि 'ए का विकल्प से लोप होकर एवं संधि होकर अम्हेत्स रूप सिद्ध हुआ । तथा जहाँ लोप नहीं होता है। वहाँ पर अम्हे एत्य होगा । यदि संस्कृत अध्यय है । इसका प्राकृत रूप जह होता है । इसमें सत्र संख्या-१-२४५ से 'य' का 'ज'; और १-१७७ से 'द' का लोप होकर जइ रूप सिद्ध हो जाता है।
इयम् संस्कृत सर्वनाम है । इसका प्राकृत रूप दमा होता है । इसमें सूत्र संख्या-३-७२ से स्त्रीलिंग में प्रथमा के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के परे रहन पर मूल शब्द इरम् का 'इम' आदेश होता है । तत्पश्चात् सिद्ध हेम व्याकरण के ४-४-१८ से स्त्रीलिंग में 'आ' प्रत्यय लगा कर इमा' रूप सिद्ध हो जाता है ।
ज+इमा = जामा; यहाँ पर पत्र संख्या १-४० से 'हमा के आदि हवर 'इ' का विकल्प से लोम होकर एवं संधि होकर जइमा रूप सिद्ध हो जाता है । तया जहाँ लोप नहीं होता है। वहाँ पर जड़ जमा होगा।
अहम् संस्कृत सर्वनाम है । इसका प्राकृत रूप भी अहं ही होता है। अस्मन् मूल शब्ब में सूत्र संस्था ३-१०५ से प्रथमा के एक वमन में 'सि' प्रत्यय परे रहने पर अस्मद् का अहं आवेश होता है । यो अहं रूख सिद्ध हो जाता है।
जइ + अ = जाह; यहाँ पर सूत्र-संख्या १-४० से 'महम् के आविस्वर 'अ' का विकल्प से लोप होकर एवं संघि होकर जइह रूप सिद्ध हो जाता है । तथा जहाँ लोप नहीं होता है, वहां पर जड़ अहं होगा ।। ४० ।।
पदादपेर्वा ॥१-४१॥ पदात् परस्य अपेरव्ययस्यादे लुग वा भवति ॥ तं पि तमचि । किं पि किमवि । केण वि । केणावि । कहं पि कहमवि ।।
अर्थ:-पद के आगे रहने वाले अपि अध्यय के आदि स्वर 'अ' का विकल्प से लोप हुआ करता है । जैसेतं पि तमवि । इत्यादि रूप से शेष सदाहरणों में भी समान लेना । इन उदाहरणों में एक स्थान पर तो लोप हुआ है।
और दूसरे स्थान पर लोप नहीं हुआ है । लोप नहीं होने की दशा में संधि-योग्य स्थानों पर संधि भी हो मामा करती है।
'' की सिद्धि सूत्र-संख्या १-७ में की गई है।
अपि संस्कृत अध्यय है । इसका प्राकृत रूप यहाँ पर 'पि' है। इसमें मूत्र संख्या १-४१ से 'अ' का लोप होकर 'पि रूप सिद्ध हो जाता है ।
अयि संस्कृत अध्यय हैं। इसका प्राकृत रूप अपि है। इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प'का 'होकर अधि स्प सिब हो जाता है।