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* प्राकृत व्याकरण *
बुझ्नम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप बुध होता है : इपर्ने सूत्र-संश्या १-२६ से '' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-७८ से 'न' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर धुंध रूप सिद्ध हो जाता है।
___ कर्कोटः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप ककोडी होता है । इसमें सूत्र संख्या १.२६ से प्रयम
पर आगम रूप, अनुस्वार को प्राप्ति २-७१ से हलन्त 'र' का लोर, १-१९५ से 'द' के स्थान पर '' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पहिलग में 'सि प्रत्यय के स्थान पर औं प्रत्यय की प्राप्ति होकर ककोडो रूप सिद्ध हो जाता है।
कुलमलम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप कुंग्लं होता है। इसमें सूत्र-संस्था १-२६ से 'कु पर आगम स्प अनुस्वार को प्राप्ति; २-५२ से 'इम' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक मन में अकारान्त नपुस लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' श्यप की प्राप्ति और १-२३ से 'म' के स्थान पर अनुधार को प्राप्ति होकर पल रूप सिद्ध हो जाता है।
दर्शनम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप दसणं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६ से 'ब' पर आपम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोग; १-२६० से 'व' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-२२८ में 'न' को 'ग' की प्राप्ति और ३-२५ से प्रथमा विमति के एक बचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म' का अनुम्बार होकर देसणं रूप मित्र हो आता है।
वृश्चिकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप दिछिओ होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१८ से 'का' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-२६ से प्राप्त वि' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति, २-२१ से 'इच के स्थान पर '' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क' का लोप और ३.२ से प्रपमा विभक्ति के एक बयान में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पिंछिमो रूप सिद्ध हो जाता है ।
गृष्टिः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप गिठी और गिट्ठी होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में शुत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्तिः १-२६ से प्राप्त गि' पर आगम व अनुस्वार को प्राप्ति; २-३४ से 'द में स्थान पर 'इ' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एक यवन में इकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर ६' को दीधं स्वर ई की प्राप्ति होकर गिठी रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-( गृष्टिः = ) गिट्ठी में सूत्र-संगमा १-१२८ सं 'क' के स्थान पर 'इ' को प्राप्ति २-३४ से 'ष्ट्र के स्थान पर ह' की प्राप्ति २-८९ से प्राप्त '' को द्वित्व '' को प्राप्ति : २-९० से प्राप्त पूर्व के स्थान पर की प्राप्ति और ३.११ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में इकारान्त स्त्री लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हृस्व स्वर 'ई' को दीर्घ स्वर की प्राप्ति होकर द्वितीय रुप गिदठी भी सिठ हो जाता है।