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* प्राकृत व्याकरण *
रूप से हलन्त्र 'म्' ध्यनन की प्राप्ति, ४-२३९ से प्राप्त धातु-रूप 'व' और 'व' में विकरण प्रत्यय 'अ' को प्राप्ति और ३-१३१ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप पम्फड़ और फइ सिद्ध हो जाते हैं।
कलम्बः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप कलम्बो और कलंबो होते हैं। इनमें भूत्र-संख्या १-२३ की वृत्ति से हलन्त 'म्' व्यञ्जन के स्थान पर अनुस्वार को प्राप्ति; १-३० से प्राप्त अन स्वार के स्थान पर वैकल्पिक हा से हलन्त 'म्' व्यजन की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक चयन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप कलम्बो और कलबी सिद्ध हो जाते हैं।
आरम्भः सस्कृत का है । इसके प्राकृत रूप आरम्भो और आरंभो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२३ की वत्ति से हलन्त 'म्' व्यम्जन के स्थान पर अनुस्वार को प्राप्ति, १-३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर बैकल्पिक रूप से हलन्त 'म' ध्यञ्जन की प्राप्ति और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप आरम्मी और आरंभी सिद्ध हो जाते हैं।
संशयः सस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप संसओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' को प्राप्ति, १-१७७ से '' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक पचन मे अकारान्त पुल्लिा में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर संसओ रूप सिद्ध हो जाता है।
संहरति संस्कृत क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप संहरा होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से भूल प्राकृत धातु 'संहर्' में विकरण प्ररपय 'अ' की प्राप्ति और ३.१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रस्थय को प्रारित होकर संहरड़ रूप सिम हो जाता है। १-३०॥
प्रावृद्-शरत्तरणयः पुंसि ॥ १-३१ ॥ प्रावृष शरद् तरणि इत्येते शब्दाः पुसि पुल्लिङ्ग प्रयोक्तव्याः ।पाउसो । सरभो । एस तरणी ॥ तरणि शब्दस्य पुस्त्रीलिङ्गत्वेन नियमार्थमुपादानम् ।।
अर्थ:-संस्कृत भाषा में प्राथषु (अर्थात् वर्षा ऋतु) शरद (अर्थात् ठंड ऋतु) और तरणि (अर्थात् नौका नाव विशेष) शम्न स्त्रीलिंग रूप में प्रयुक्त किये जाते हैं। परन्तु प्रकृत-भाषा में इन शब्दों का लिग-परिवर्तन हो जाता है और ये पुल्लिंग रूप से प्रयुक्त किये जाते हैं । जैसे:-प्रावृष् = पाउसो; शरद = सरओ और एषा तरणिः = एस तरणो । संस्कृत भाषा में 'तरगि' शब्द के दो अर्थ होते हैं। १ सुर्य और २ नौका; तवनुसार 'सूर्य-अयं' में तरणि शब्द पुल्लिग होता है और 'मौका-अर्थ' में यही तरणि शतम स्त्रीलिए वाला हो जाता है। किन्तु प्राकृत भाषा में 'तरणि' शब्द नित्य पुल्लिग ही होता है। इसी तात्पर्य-विशेष को प्रकट करने के लिये यहाँ पर 'तरणि' शब्द का मुख्यतः उल्लेख किया गया है।