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* प्राकृत व्याकरण *
३-२६ से प्रथमा बहुवचन के 'जस' प्रस्थय के स्थान पर प्रत्यय को प्राप्टिस के माय पूर्व स्व स्वर को दीर्घता प्राप्त होकर घरसूई रूप सिद्ध होता है ।
नयनानि संस्कृत शन्न है । इसके प्राकृत ताप नषणा और नयणाई होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' का 'ण'; १.३३ से वैकल्पिक रूप से पुल्लिगता को प्राप्तिा ३-१० से 'जस्-शास' या प्रथमा और द्वितीया के बहुवचन को प्राप्ति होकर इनका लोप; ३.१२ से अंतिम 'ण' के 'अ' का 'आ' हो हर नया रूप सिद्ध होता है। एवं जय पुल्लिग नहीं होकर नपुंसक लिंग हो तो ३०२६ से प्रयमा-द्वितीया के बहुपवन के 'जस-शम्' प्रत्यों के स्थान पर '' प्रत्यय को प्राप्ति होकर नयणाई रूप सिद्ध हो जाता है।
लोचनानि संस्कृत शा है । इसके प्राकृत रूप लोअगा और लोप्रणाई होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'म्' का लोप; १.२२८ से 'न' का 'ग'; १.३३ से वैकल्पिक स से पुलिलगता को प्राप्ति; ३-४ से 'जम्-शस्' गने प्रथमा और द्वितीया के बहुवचन की प्राप्ति होकर इनका लोर, ३-१२ से अंतेम 'ण' के 'अ' का 'आ' होकर लोअणा रूप सिद्ध होता है । एवं जब पुल्लिग नहीं होकर नपुसक लिग हो तो ३-२६ से प्रयमा द्वितीया के बहुवचन के 'अस्-शस्' प्रत्ययों के स्थान पर '' प्रत्यय को प्राप्ति होकर लागणाई रूप सिद्ध हो जाता है।
वचनानि संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप वयणा और वयणाई होते है इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'च'का लोप१-१८० से शेष 'अ' का 'य'; १-२२८ से. 'न' का 'ण'; १-३ से कल्पिक रूप से पुस्लिगता की प्राप्ति; ३.४ से 'चस-शस याने प्रथमा और द्वितीया कं बहुवचन को प्राप्ति होकर इनका लोप; ३-१२ से अतिम 'ग' के 'अ' का 'आ' होकर वयणा रूप सिद्ध होता है । एवं जब पुल्लिग नहीं होकर नपुसक लिंग हो तो ३-२६ से प्रथमा द्वितीया के बहुवचन के 'जस्-शस्' प्रत्ययों के स्थान पर '' प्रत्यय होकर क्यणाई रूप सिद्ध हो जाता है।
विद्युत मूल संस्कृत पाय है । इसके प्राकृत रूप विरजणा और विरए होते हैं। इसमें सूत्र संल्पा २-२४ से 'ग' का 'ज'; २.८९ से प्राप्त 'ज' का द्वित्व 'जन'; १-११ से अन्त्य 'त्' का लोपः १-३३ से वैकल्पिक ससे पुल्लिगता की प्राप्ति; ३०२४ से तृतीया एक वचन में 'टा' प्रत्यय के स्थान पर 'णा' को प्राप्ति होकर विज्जुणा शाम्ब को सिद्धि हो जाती है । एवं स्त्रीलिंग होने को वशा में ३-२९ से तृतीया एक वचन में 'टा प्रत्यय के स्थान पर एमावेश; एवं 'उनु' केहस्व उ' को वोर्ध 'क' की प्राप्ति होकर विज्जुए रूप सिद्ध हो जाता है।
- कुल मूल संस्कृत शम्ब है । इसके प्राकृत रूप कुलो और कुलं होते हैं। इसमें सूत्र संया ३-२ से प्रथमा एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'नो' प्राप्त होकर कुलो रूप सिद्ध हो जाता है । और १-३३ से नपुंसक होने पर ३.२५ से प्रथमा एक बचन में 'सि' के स्थान पर 'म्' की प्राप्तिा १.२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर कुलं रूप सिद्ध हो जाता है।
छन्दम् मूल संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप छन्दो और छन्में होते हैं । इसमें सूत्र संख्या १.१. से 'स्' का लोप; १-३२ से वैकल्पिक रूप से पुल्लिारता की प्राप्ति, ३-२ से प्रथमा एक वचन में 'सि' प्रस्पय के स्थान पर 'ओं प्राप्त होकर छन् र सिख हो जाता है । और नपुंसक होने पर ३.२५ से श्पमा एक वचन में 'सि' के स्थान पर 'म' की प्राप्ति, १-२३ से 'म्' का अनुरुषार होकर 'छन्हें प सिद्ध हो जाता है।