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* प्राकृत व्याकरण *
प्राप्ति -२५ से प्रथमा विभक्ति के एक पचन में अकारान्त मपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप लञ्छशं और लंधणे सिस हो जाते हैं।
अजितम संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत अजिन और जिन होते हैं। इनमें सत्र संख्या १-२५ से हलन्त 'ब' के स्थान पर मनुस्वार की प्राप्ति; १-३० से प्राप्त अनुस्कर के स्थान पर अकल्पिक रूप से 'म' व्यञ्जन की प्राप्ति; १.१७७ से 'त्' व्यञ्जन का लोप; ३-२५ से प्रणमा विभक्ति के एक घधन में अकारान्त मपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुष्यार होकर आज और अंजिभ योनों रूप श्रम से सिद्ध हो जाते हैं।
सन्ध्या संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रुप सम्मा और संशा होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १.२५ से हल-त म्पनन 'न्" के स्थान पर अनुरवार को प्राप्ति; २-२६ से संयुक्त व्यञ्जन ध्या के स्थान पर 'आ' को प्राप्ति
और १-३० से पूर्व में प्राप्त अनु चार के स्थान पर बैकल्पिक रूप से हुलम्त '' व्यञ्जन की प्राप्ति होकर कम से बोनों रूप समझा और संझा सिद्ध हो जाते हैं।
कण्टक: संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप कष्टओ और कटओ होते हैं। इनमें सुत्र संख्या १.२५ से हलात व्यञ्जन 'ण' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; १-३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर कल्पिक रूप से '' यजन की प्राप्ति १-.७७ से मितीय '' म्यञ्जन का लोप और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर श्रम से दोनों पकण्टओ और कंटको सिद्ध हो जाते हैं।
उत्कण्ठा संस्कृत कम है । इसके प्राकृत रूप वाष्ठा ओर उठा होते हैं । हन सूत्र-संश्या २-७७ से हलम्स उपन्जन 'त्' का लोप; २८९ से लोप हुए 'स्' के पश्चात शेष रदे हुए 'क' को द्वित्व 'क' को प्राप्ति; १-२५ से हलन्त व्यञ्जन 'ण' के स्थान पर अनुस्वार को प्राप्ति और १-३० से प्राप्त अनुग्वार के स्थान पर बैकल्पिक रूप से हलन्त 'ग्' व्यञ्जन की प्राप्ति होकर पाम से सोनों रूप उक्कण्ठा और उक्कंठा सिद्ध हो जाते हैं।
काण्डम् भंस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप फण्ड और फंड होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १.८४ से 'का' में स्थित 'आ' के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति; १.२५ से हलन्त ग्यजन 'ण' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति १.३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हलन्त 'ग' पञ्जन को प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एक वचन में '' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से 'म्' के स्थान र अनुस्वार की प्राप्ति होकर ऋम से दोनों रूप कण्डं और केंड सिद्ध हो जाते हैं।
पण्डः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप सण्डो और संडो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२६० से '' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-२५ से हलन्त म्यम्जन 'ण' के स्थान पर अनुस्वार को प्राप्ति; १.३० से प्राप्त