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* ग्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
क्वायाः स्यादीनां च यो गस्तयोरनुस्वारोन्तो वा भवति ॥ क्त्वा || काऊणं काउमा काउाणं काउमाण ।। स्यादि । बच्छेग वच्छेण । वच्छेसु' वच्छेमु ।। णस्वोरितिकिम् । करिश्र । अग्गियो ।।
अर्थ:-संस्कृत-भाषा में संबंध भूत कृदन्त के अर्थ में क्रियाओं में करवा' प्रत्यय को संशेजना होती है। इसी 'कला' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत-भाषा में सत्र संख्या-२-१४६ से 'तू' और 'तुआण' अथवा 'अण' और 'आप' प्रस्पयों की प्राप्ति का विधान है। सबनसार इन प्राप्तव्य प्रत्ययों में स्थित अंतिम '' स्यम्भन पर स्पिक रूप से अनुस्वार की प्राप्तिहमा करती है । जैसे-कृत्वा-काऊर्ग अथवा कामण, और काउअरणं; अथवा काउमाण इसी प्रकार से प्राकृत भाषा में संशाओं में तृतीया विभक्ति के एक वचन में, षष्ठो विमति के पहुवचन में तथा सप्तभी विभक्ति के बहुवचन में प्रम से 'ण' और 'सु' प्रत्यय को प्रशस्ति का विधान है। तनुसार इन प्राप्तव्य प्रत्ययों पर वैकल्पिक रूप से अनुस्वार को प्राप्ति होती है । जैसे-वृक्षेम = इच्छेमं अथवा मणक्षाणाम् = इच्छाण पयवा बच्छाण भौर वझे-अच्छेनु अथवा वस्छेसुः इत्यादि ।
प्रश्न-प्राप्तम्य प्रत्यय 'प' और 'सु' पर ही बैकल्पिक रूप से अनुस्वार को प्राधि होती है। ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तर प्राप्तब्य रत्यय ज' और 'सु' के अतिरिक्त यदि अन्य प्रत्यय रहे एए हों उन पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति का कोई विधान नहीं है। तदनुसार अन्य प्रत्ययों के सम्बन्ध में अगम रूप अनुस्वार को प्राप्ति का अभाव हो समयमा चाहिये । जैसे - कृत्वा - करिअ; यह उदाहरण सम्बन्ध भूत कृवन्त का होता हया भी इसमें 'ण' संयुक्त प्रत्यय का अभाव है। अतएव इसमें आगम रूप अनुस्वार को प्राप्ति का भी अमाव हो प्रशित किया गया है। विभक्ति योधक प्रत्यम का उदाहरण इस प्रकार है-अग्नयः - अपवा अग्नोन अगिगणो; स बाहरण में प्रथमा अथना द्वितीया के बहुवचन का प्रदर्शक प्रत्यय संयोजित है। परन्तु इस प्रत्यय में 'म' अथवा 'मु' का अभाव है; तदनुसार इसमें आगम रूप अनस्थार की प्राप्ति का भी अभाव ही प्रदर्शित किया गया है। यो 'प' अथवा 'सु' के सदभाव में ही इन पर अगम रूप अनुस्वार को प्राप्ति बैकल्पिक रूप से हुआ करती है। यह तात्पर्य ही इस सूत्र का है।
कृाषा संस्कृत कृवन्त रूप है, इसके प्राकृत रूप काऊणं कारुण, काउआण, काउआण और करिश होते हैं। इन में मे प्रथम चार रूपों में पत्र संख्या-४-.२१४ से मूल संस्कृत धातु "कृ" के स्थान पर प्राकृत में 'का' को प्राप्ति; २-१४६ से कूदन्त अर्थ में संस्कृत प्रत्यय 'त्या' के स्थान पर प्राकृत में कम से 'तण' और 'प्राण' के
मिक स्थानीय रुप 'ऊग' और 'कआण' प्रत्यमों की प्राप्ति १-२७ से प्राप्त प्रत्यय 'ऊण' और 'ऊमाण' में स्थित अस्य यजन 'ण' पर वैकल्पिक रूपम रूप अनाचार की प्राप्ति होकर फ्रम से चारों रूप-साडणे. काऊण, काऊआषं, और काऊमाण सिम हो जाते हैं।