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* प्राकृत व्याकरण *
पांचवे रूप. ( कुत्वा = ) करिम में सूत्र-संख्या-४-२३४ से मूल संस्कृत पातु 'क' में स्थित 'ऋ' के स्थान पर'मर' आदेश की प्राप्ति; ४-२३९ से प्राप्त हलन्त घातु 'कर' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति, ३.१५७से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ के स्थान पर '६' को प्राप्ति ५-१४६ से सबंध भूतकृयन्त सूचक प्रत्यय 'क्वा' के स्थार. पर प्राकृत में अत्' प्रत्यय को प्राप्ति और १-११ से प्राप्त प्रत्यय 'अत्' के अन्त में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप होकर करिअ रूप सिद्ध हो जाता है।
वृक्षण संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप वच्छेणं और वच्छेग होते हैं । इनमें सत्र-संख्या- १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर की प्राप्ति; २-३ से 'म' के स्थान पर 'छ' को प्राप्ति -४९ से प्राप्त 'छु' को विरव 'छ. को प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व छ' के स्थान पर 'च' को प्राप्ति; ३-६ से तृतीया बिभक्ति के एक बस में अरु - राम्त पुल्लिा में संस्कृत प्रत्यय 'टा = आ' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति, ३-१४ से प्राप्त प्रस्थय '' के पूर्वस्व बच्छ' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर "अ' के स्थान पर 'ए' को प्राप्ति और १.२७ से प्राप्त प्रत्यय 'ग' पर वैकल्पिक रूप से अनुस्वार को प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप बच्छेणे और वच्छेण सिद्ध हो जाते हैं।
वृक्षा संस्कृत रुप है । इस के प्राकृत रूप वच्छ और वच्छतु होते हैं इनमें 'घाछ कप मूल अंग को प्राप्ति उपरोक्त रौति मनुसार तत्पश्चात् सत्र संख्या ४-४४८ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सु' प्रत्यय को प्राप्ति; ३-१५ से प्राप्त प्रत्यय 'सु' के पूर्वस्य 'वरुद्व में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'म' के स्थान पर 'ए' को प्राप्ति और १-२७ से प्राप्त प्रत्यय 'सु' पर वैकल्पिक रूप से अनुस्वार को प्राप्ति होकर ऋम से बोनों रूप परछे हुँ और बच्छेनु सिब हो जाते हैं।
अग्नयः और अग्नीन संस्कृत के प्रथमान्त द्वितीयात बहवमान क्रमिक रूप है । इनका प्राकुन रूप अग्गिणो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७८ से 'न्' का लोप; २-८१ से लोप हुए 'न्' के पश्चात शेष रहे हुए '' को विस्व 'ग' को प्राप्ति; और ३-२२ से प्रपमा विभक्ति तथा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में इकारान्त पुल्लिग में 'अस् = अस्' और 'शस्' प्रत्यय के स्थान पर 'गरे प्रत्यप को प्राप्ति होकर ग्गियो रूप सिद्ध हो जाता है । १-२
विंशत्यादे लुक ।। १-२८ ॥ विंशत्यादीनाम् अनुस्वारस्य लुग् भवति । विंशतिः । वीसा ॥ त्रिंशत् । तीसा । संस्कृतम् । सक्कयं ॥ संस्कार : । सकारो इत्यादि ।।
अर्थ-विशति आदि संस्कृत शब्दों का प्राकृत-रूपान्तर करने पर इन शब्दों में आदि अफर पर स्थित अनुस्वार का लोप हो जाता है । जैसे -विशति:- वोसा; त्रिंशत् = तोसा, संस्कृतम् : सक्कर्ष और संस्कार = सक्कारो; त्यादि।
पिंशतिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप बौसा होता है। इसमें सूत्र-संक्पा १.२८ से अनुस्वार का