Book Title: Tiloypannatti Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री वीतरागाय नमः श्री-यतिवृषभाचार्य-विरचिता तिलोय-पण्णत्ती ( त्रिलोकप्रज्ञप्तिः) ( जैन-लोकमान-सिद्धान्तविषयक-प्राचीन प्राकृतग्रन्थ ) प्राचीन कानडी प्रतियों के आधार पर प्रथम बार सम्पादित [प्रथम खण्ड] टीकाकी : आर्यिका १०५ श्री विशुद्धमती माताजी मम्पादक: डॉ० चेतनप्रकाश पाटनी ___ प्राध्यापक, हिन्दी विभाग जोधपुर विश्वविद्यालय, जोधपुर प्रकाशक प्रकाशन विभाग, श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री यतिवृषभाचार्य विरचिता तिलोप्पण्णत्ती-प्रथम खण्ड . ( प्रथम तीन महाधिकार ) पुरोवाक् : जपमालाल जैन साहित्याचार्य, सागर ! म.प्र.) भाषा टीका: पायिका १०५ भी गिगुगमती मातामो सम्पादम: में. चेतमप्रकाश पाटनी, जोषपुर (राज.) प्रकाशक 1 भी भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा प्राप्ति स्थान : केन्द्रीय साहित्य मण्डार भी भारतीय दिगम्बर जैन महासभा 10/३ नई धान मण्डी, कोटा ( राज) कहसरतपया, ६. सन् १९८४ ] प्रथम संस्करण वीर निर्वाग संवत २५१० [वि.सं. २०४० मुद्रक : पाँचलाल जैन कमल प्रिन्टर्स, मदनगंज-किशनगढ़ (राज.) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܪ की 卐 त्रि लो का कृ ति !5 फ का श का नह 烧 . 대 ེ མཱ ལྷ ཤྲཱ ཎཱ ༔ पु कमल प्रति ति त्य धन जल ch तू - एक शर्क ''धूम おぎち NEM WIT Loha PUNJ भा का - सहकार की महक काविष -xxx श्रीका पंक प्रा च - या का FIT बा काका आकर उस प्रभा महातम मन्थल K agr کاسالا ETM मीन 132... Kar दलय 24000 ने 녹 Sawhn प्लॅन 1x500 ल रा द तय से एम०० २००० २००० के. उप BASAR -Ke लो का का Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरोवाक श्री यतिवृषभाचार्य द्वारा विरचित 'तिलोय पण्णत्ती' ग्रंथ जैन वाङ्मय के अन्तर्गत करणानुयोग का प्राचीन ग्रन्थ है। इसमें लोक प्ररूपणा के साथ अनेक प्रमेयों का दिग्दर्शन उपलब्ध है । राजवार्तिक, हरिवंश पुराण, त्रिलोकसार, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति तथा सिद्धान्तसार दीपक प्रादि ग्रंथों का यह मूल स्रोत कहा जाता है । इसका पहली बार प्रकाशन डा० हीरालालजी, डा० ए० एन. उपाध्ये के संपातमा में पं० बालबदली झाली पाहिन्नी अनुवाद के साथ जीवराज ग्रन्थमाला सोलापुर से हुआ था, जो अब अप्राप्य है। इस संस्करण में गणित सम्बन्धी कुछ संदर्भ अस्पष्ट रह गये थे जिन्हें इस संस्करण में टीकाकी श्री १०५ धार्यिका विशुद्धमतीजी ने अनेक प्राचीन प्रतियों के आधार पर स्पष्ट किया है। त्रिलोकसार तथा सिद्धान्तसार दीपक को टीका करने के पश्चात् आपने 'तिलोय पण्णत्ती' को प्राचीन प्रतियों के आधार से संशोधित कर हिन्दी अनुवाद से युक्त किया है तथा प्रसङ्गानुसार आगत अनेक आकृतियों, संदृष्टियों एवं विशेषार्थों से अलंकृत किया है, यह प्रसन्नता की बात है। संपूर्ण ग्रन्थ नौ अधिकारों में विभाजित है जिनमें से प्रारम्भिक तीन अधिकारों का यह प्रथम भाग प्रकाशित किया जा रहा है। चतुर्थ अधिकार को अनुवाद के साथ द्वितीय भाग और शेष अधिकारों को अनुवाद के साथ तृतीय भाग के रूप में प्रकाशित करने की योजना है । पूज्य माताजी श्री विशुद्धमतीजी अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग वाली आर्यिका हैं। इनका समग्र समय स्वाध्याय और तत्त्व चिन्तन में व्यतीत होता है । तपश्चरण के प्रभाव से इनके क्षयोपशम में आश्चर्यकारक वृद्धि हुई है । इसो क्षयोपशम के कारण श्राप इन गहन ग्रंथों को टीका करने में सक्षम हो सकी हैं। श्री चेतनप्रकाशजी पाटनी ने ग्रन्थ का संपादन बहुत परिश्रम से किया है तथा प्रस्तावना में सम्बद्ध समस्त विषयों की पर्याप्त जानकारी दी है । गणित के प्रसिद्ध विद्वान् प्रो. लक्ष्मीचन्द्रजी ने 'तिलोय पण्णत्ती और उसका गणित' शीर्षक अपने लेख में गणित की विविध धाराओं को स्पष्ट किया है । माताजी ने अपने 'आद्यमिताक्षर' में ग्रन्थ के उपोद्घात का पूर्ण विवरण दिया है। भारतवर्षीय दि० जन महासभा के उत्माही-कर्मठ अध्यक्ष श्री निर्मल कुमारजी सेठी ने महासभा के प्रकाशन विभाग द्वारा इस महान् ग्रंथ का प्रकाशन कर प्रकाशन विभाग को गौरवान्वित किया है। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ ग्रंथ के संपादक श्री चेतनप्रकाशजी पाटनी, दिवंगत पूज्य मुनिराज श्री १०८ समतासागरजी के सुपुत्र हैं तथा उन्हें पैतृक सम्पत्ति के रूप में अपार समता तथा श्रुताराधना की अपूर्व अभिरुचि ( लगन ) प्राप्त हुई है। टीकाकर्त्री माताजी प्रारम्भ में भले ही मेरी शिष्या रही हों पर अब तो मैं उनमें अपने आपको पढ़ा देने की क्षमता देख रहा हूं। टीकाकर्त्री माताजी और संपादक श्री चेतन प्रकाशजी पाटनी के स्वस्थ दीर्घजीवन की कामना करता हुआ अपना पुरोवाक् समाप्त करता हूं | विनीत : पन्नालाल साहित्याचार्य सागर Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी बात जीवन में परिस्थितिजन्य अनुकूलता-प्रतिकूलता तो चलती ही रहती है परन्तु प्रतिकूल परिस्थितियों में भी उनका अधिकाधिक सदुपयोग कर लेना विशिष्ट प्रतिभानों की ही विशेषता है। 'तिलोयपण्णत्तो' के प्रस्तुत संस्करण को अपने वर्तमान रूप में प्रस्तुत करने वाली विदुषा आर्यिका पूज्य १०५ श्री विशुद्धमती माताजी भी उन्हीं प्रतिभाओं में से एक हैं ! जून १९५१ में सीढ़ियों से गिर जाने के कारण आपको उदयपुर में ठहरना पड़ा और तभी ति० प० की टीका का काम प्रारम्भ हुआ । काम सहज नहीं था परन्तु बुद्धि पौर श्रम मिलकर क्या नहीं कर सकते । साधन और सहयोग संकेत मिलते ही जुटने लगे । अनेक हस्तलिखित प्रतियां तथा उनकी फोटो स्टेट कॉपियाँ मंगवाने की व्यवस्था की गई । कनड़ की प्राचीन प्रतियों को भी पाठभेद व लिप्यन्तरण के माध्यम से प्राप्त किया गया। डा. उदयचन्दजी जैन ( सहायक आचार्य, जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर ) से प्रतियों के पाठभेद ग्रहण करने में तथा प्राकृतभाषा एवं व्याकरण सम्बन्धी संशोधनों में सहयोग मिला। इस प्रकार प्रथम चार महाधिकारों की पाण्डुलिपि तैयार करने में ही अब तक लगभग १३,०००) रुपये व्यय हो चुके हैं । 'सेठी ट्रस्ट' लखनऊ से यह आर्थिक सहयोग प्राप्त हुमा और महासभा ने इसके प्रकाशन का उत्तरदायित्व वहन किया । श्रीमान् नीरजजी और निर्मल जी जैन ने सतना से प्रेसकापी हेतु न केवल कागज भेजा अपितु वे कई बार प्रत्यक्ष रूप से भी और पत्रों के माध्यम से भी सतत प्रेरणात्मक सहयोग देते रहे। डा० चेतनप्रकाशजी पाटनी ने सम्पादन का गुरुतर भार संभाला और अनेक रूपों में उनका सक्रिय सहयोग प्राप्त हुआ । यह सब पूज्य माताजी के पुरुषार्थ का ही सुपरिणाम है । पूज्य माताजी "यथानाम तथा गुरण' के अनुसार विशुद्धमति को धारण करने वाली हैं तभी तो गणित के इस जटिल ग्रंथ का प्रस्तुत सरल रूप हमें प्राप्त हो सका है । पांवों में चोट लगने के बाद से पूज्य माताजी प्रायः स्वस्थ नहीं रहती तथापि अभीक्षाज्ञानोपयोग प्रवृत्ति से कभी विरत नहीं होती। सतत परिश्रम करते रहना आपकी अनुपम विशेषता है। आज से ८ वर्ष पूर्व में माताजी के सम्पर्क में आया था और यह मेरा सौभाग्य है कि तबसे मुझे पूज्य माताजी का अनवरत सान्निध्य प्राप्त रहा है। माताजी की श्रमशीलता का अनुमान मुझ जैसा कोई उनके निकट रहने वाला व्यक्ति ही कर सकता है। आज उपलब्ध सभी साधनों के बावजूद Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माताजी सम्पुर्ण लेखनकार्य स्वयं अपने हाथ से ही करती हैं--न कभी एक अक्षर टाइप करवाती हैं और न किसी से लिखवाती हैं। सम्पूर्ण संशोधन-परिष्कारों को भी फिर हाथ से ही लिखकर संयुक्त करती हैं। मैं प्रायः सोचा करता हूं कि धन्य हैं ये जो ( आहार में ) इतना अल्प लेकर भी कितना अधिक नही। इनकी देव भिरकाल तक समाज को समुपलब्ध रहेगी। इस महान् कृति की टीका के अतिरिक्त पूर्व में आप 'त्रिलोकसार' और 'सिद्धान्तसार दीपक' जैसे बृहत्काय ग्रंथों की टीका भी कर चुकी हैं और लगभग १०-१२ सम्पादित एवं मौलिक लघु कृतियां भी आपने प्रस्तुत की हैं। मैं एक अल्पज्ञ श्रावक हूं-अधिक पढ़ा लिखा भी नहीं हूं किन्तु पूर्व पुण्योदय से जो मुझे यह पवित्र समागम प्राप्त हुआ है इसे मैं साक्षात् सरस्वती का ही समागम समझता हूं। जिन ग्रंथों के नाम भी मैंने कभी नहीं सुने थे उनकी सेवा का सुअवसर मुझे पूज्य माताजी के माध्यम से प्राप्त हो रहा है, यह मेरे महान् पुण्य का फल तो है ही किन्तु इसमें आपका अनुग्रहपूर्ण वात्सल्य भी कम नहीं। जैसे काष्ठ में लगी लोहे की कील स्वयं भी सर जाती है और दूसरों को भी तरने में सहायक होती है, उसी प्रकार सतत ज्ञानाराधना में संलग्न पूज्य माताजी भी मेरी दृष्टि में तरह-तारण हैं। आपके सान्निध्य से मैं भी ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय का सामर्थ्य प्राप्त करू', यही भावना है । में पूज्य माताजी के स्वस्थ एवं दीर्घजीवन की कामना करता हूं। विनीत4. कजोड़ीमल कामबार, जोबनेर LIM Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राद्यमिताक्षर जैनधर्मं सम्यक् श्रद्धा, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र परक धर्म है इस धर्म के प्रणेता रहंतदेव हैं । जो वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी होते हैं। इनकी दिव्य वाणी से प्रवाहित तत्त्वों की संज्ञा श्रागम है । इन्हीं समीचीन तत्त्वों के स्वरूप का प्रसार-प्रचार एवं आचरण करने वाले आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठी सच्चे गुरु हैं । वर्तमान में जितना भी आगम उपलब्ध है वह सब हमारे निर्ग्रन्थ गुरुनों की अनुकम्पा एवं धर्म वात्सल्य का ही फल है । यह आगम प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग के नाम से चार भेदों में विभाजित है । 'त्रिलोकसार' ग्रंथ के संस्कृत टीकाकार श्रीमन्माधवचन्द्राचार्य त्रैविद्य देव ने कररणानुयोग के विषय में कहा है कि - "तदर्थं - ज्ञान-विज्ञान सम्पन्न - पापवयं भीरुगुरु- पर्वक्रमेाव्युच्छिनतया प्रवर्तमानमविनष्ट सूत्रार्थत्वेन केवलज्ञान-समानं करणानुयोग नामानं परमागमं | अर्थात् जिस अर्थका निरूपण श्री वीतराग सर्वंश वर्षमान स्वामी ने किया था। उसी अर्थ के विद्यमान रहने से वह करणानुयोग परमागम केवलज्ञान के समान है । *********...?! आचार्य यतिवृषभ ने भी तिलोय पण्णत्ती के प्रथमाधिकार की गाथा ८६-८७ में कहा है कि- "पवाह रूवत्तणेण.......माइरियअणुक्क माबाद तिलोयपण्पत्ति अहं वोच्छामि.........” । अर्थात् आचार्य परम्परा से प्रवाह रूप में आये हुए 'त्रिलोक प्रज्ञप्ति' शास्त्र को मैं कहता हूं। इसी प्रकार प्रथमाधिकार की गाथा १४८ में भी कहा है कि - "भणामो णिस्संदं दिट्टिवादादो" अर्थात् मैं वैसा ही वर्णन करता हूं, जैसा कि दृष्टिवाद अंग से निकला है । आचार्यों की इस वाणी से ग्रन्थ की प्रामाणिकता निर्विवाद सिद्ध है । बीजारोपण - सन् १९७२ सं० २०२६ आसोज कु० १३ गुरुवार को अजमेर नगर स्थित छोटे धड़ा की नशियाँ में त्रिलोकसार ग्रंथ की टीका प्रारम्भ कर सं० २०३० ज्येष्ठ शुक्ला शुक्रवार को जयपुर खानियों में पूर्ण हो चुकी थी। ग्रंथ का विमोचन भी सन् १९७४ में हो चुका था । पश्चात् सन् १९७५ के जून माह में परम पूज्य परमोपकारी शिक्षा गुरु आ० क० १०८ श्री श्रुतसागरजी एवं प० ० परम श्रद्धेय विद्यागुरु १०८ श्री अजितसागर म० जी के सान्निध्य में तिलोयपण्णत्ती Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ग्रन्थराज का स्वाध्याय प्रारम्भ किया किन्तु १५० गाथा के बाद जगह जगह शंकाएँ उत्पन्न होने लगीं तथा उनके समाधान न होने के कारण स्वाध्याय में नीरसता श्रा गई । फलस्वरूप आत्मा में निरन्तर यही खरोंच लगती रहती कि त्रिलोकसार जैसे ग्रन्थ की टीका करने के बाद तिलोय प० का प्रमेय शेय नहीं बन पा रहा...... उसी वर्ष (सन् १९७५ में ) सवाईमाधोपुर में ससंघ वर्षायोग हो रहा था । कररणानुयोग के प्रकाण्ड विद्वान सिद्धान्त भूषण स्व० पं० रतनचन्दजी मुख्तार सहारनपुर वाले सिद्धांतसार दीपक की पाण्डुलिपि देखने हेतु प्राये । हृदय स्थित शल्य की चर्चा पण्डितजी से की । आपने प्रथमाधिकार की गाथा नं० १४० १४५-४७, १६३, १६८, १६६, १७८-७९, १८०.१५१, १८४ से १६१, १६६-६७, २०० से २१२, २१४ से २३४, २३८ से २६६ तक का विषय स्पष्ट कर समझा दिया जिसे मैंने व्यवस्थित कर आकृतियों सहित नोट कर लिया। इसके पश्चात् सन् १९८१ तक इसकी कोई चर्चा नहीं उठी । कभी कभी मन में अवश्य यह बात उठती रहती कि यदि ये ८३ गाथाएं प्रकाशित हो जावें तो स्वाध्याय प्रेमियों को प्रचुर लाभ हो सकता है । यह बात सन् १९७७ में जीवराज ग्रंथमाला को भी लिखाई थी कि यदि आप तिलोयपण्णत्ती का पुनः प्रकाशन करावें तो प्रथमाधिकार की कुछ गाथाओं का गणित हम उसमें देना चाहते हैं । अंकुरारोपण - श्रीमान् धर्मनिष्ठ मोहनलालजी शांतिलालजी भोजन ने उदयपुर में स्वमव्य से श्री महावीर जिन मन्दिर का निर्माण कराया था। जिसकी प्रतिष्ठा हेतु वे मुझे उदयपुर लाये । सन् १९८१ में प्रतिष्ठा कार्य विशाल संघ के सान्निध्य में सानन्द सम्पन्न हुआ । पश्चात् वर्षायोग के लिए अन्यत्र विहार होने वाला था किन्तु श्रनायास सीढ़ियों से गिर जाने के कारण दोनों पैरों की हड्डियों में खराबी हो गई और चातुर्मास संसंघ उदयपुर ही हुआ । एक दिन तिलोयपण्णत्ती की पुरानी फाइल अनायास हाथ में आ गई । उन गाथानों को देखकर विकल्प उठा कि जैसे अचानक पैर पंगु हो गये हैं उसी प्रकार एक दिन ये प्राण पखेरु उड़ जायेंगे और यह फाइल बन्द ही पड़ी रहेगी । अतः इन गाथाओं सहित प्रथमाधिकार के गणित का कुछ विशेष खुलासा कर प्रकाशित करा देना चाहिए। उसी समय श्रीमान् पं० पन्नालालजी को सागर पत्र दिलाया। श्री पण्डित सा० का प्रेरणाप्रद उत्तर आया कि आपको पूरे ग्रन्थ की टीका करनी हैं। श्री धर्मचन्द्रजी शास्त्री भी पीछे पड़ गये । इसी बीच श्री निर्मलकुमारजी सेठी संघ के दर्शनार्थ यहाँ आये । श्राप से मेरा परिचय प्रथम ही था । दो-ढाई घण्टे अनेक महत्वपूर्ण चर्चाएं हुईं। इसी बीच आपने कहा कि इस समय आपका लेखन कार्य क्या चल रहा है । मैंने कहा लेखन कार्य प्रारम्भ करने की प्रेरणा बहुत प्राप्त हो रही है किन्तु कार्य प्रारम्भ करने का भाव नहीं है। कारण पूछे जाने पर मैंने कहा कि ग्रन्थ लेखनादि के कार्यों में संलग्न रहना साधु का परम कर्तव्य है किन्तु उसकी व्यवस्था आदि के व्यय की जो आकुलता एवं याचना Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि की प्रवृत्ति होती है उसे देखते हुए तो शास्त्र नहीं लिखना ही सर्वोत्तम है । यथार्थ में इस प्रक्रिया से साधु को बहुत दोष लगता है यह बात ध्यान में प्राते ही आपने तुरन्त आश्वासन दिया कि आप टीका का कार्य प्रारम्भ कीजिए लेखन कार्य के सिवा पापको अन्य किसी प्रकार की चिन्ता करने का अवसर प्राप्त नहीं होगा। इसी बीच परम पूज्य प्रातः स्मरणीय १०८ श्री सन्मतिसागर म० जी ने यम सल्लेखना धारण कर लो। क्रमश : आहार का त्याग करते हुए मात्र जल पर आ चुके थे। शरीर की स्थिति अत्यन्त कमजोर हो चुकी थी । मेरे मन में अनायास ही भाव जागृत हुए कि यदि तिलोयपणती की टीका करनी ही है तो पूज्य महाराज श्री में प्राशीर्वाद लेकर आपके जीवन काल में ही कार्य प्रारम्भ कर देना चाहिए । किन्तु दूसरी पोर पागम की आज्ञा सामने थी कि "यदि संघ में कोई भी साधु समाधिस्थ हो तो सिद्धान्त ग्रन्थों का पठन-पाठन एवं लेखनादि कार्य नहीं करना चाहिए"। इस प्रकार के द्वन्द्व में झूलता हुआ मेरा मन महाराज श्री से आशीर्वाद लेने वाले लोभ का संवरण नहीं कर सका और सं० २०३८ मार्गशीर्ष कृष्णा ११ रविवार को हस्त नक्षत्र के उदित रहते ग्रंथ प्रारम्भ करने का निश्चय किया तथा प्रातःकाल जाकर महाराज श्री से प्राशीर्वाद की याचना की। उस समय महाराज श्री का शरीर बहुत कमजोर हो चुका था । जीवन केवल तीन दिन का अवशेष था फिर भी धन्य है अापका साहस और धैर्य । तुरन्त उठ कर बैठ गये, उस समय मुग्वारविन्द से प्रफुल्लता टपक रही थी, हृदय वात्सल्य रस से उछल रहा था, वागी से अमृत झर रहा था, उस अनुपम पुण्य वेला में श्रापने क्या क्या दिया और मैंने क्या लिया यह लिखा नहीं जा सकता किन्तु इतना अवश्य है कि यदि वह समय मैं चूक जाती तो इतने उदारता पूर्ण आशीर्वाद से जीवनपर्यन्त वञ्चित रह जाती तब शायद यह ग्रन्थ हो भी नहीं पाता। पश्चात् विद्यागुरु १०८ श्री अजितसागर म० जी से आशीर्वाद लेकर हूमड़ों के नोहरे में भगवान् जिनेन्द्रदेव के समीप बैठकर ग्रंथ का शुभारम्भ किया । उस समय धन लग्न का उदय था । लाभ भवन का स्वामी शुक्र लग्न में और लग्नेश गुरु तथा कार्येश बुध लाभ भवन में बैठकर विद्या भवन को पूर्ण रूपेण देख रहे थे । गुरु पराक्रम और सप्तम भवन को पूर्ण देख रहा था। कन्या राशिस्थ शनि और चन्द्र दशम में, मंगल नवम में और सूर्य प्रष्टम भवन में स्थित थे। इस प्रकार दि० २२-११-१९८१ को ग्रन्थ प्रारम्भ किया और २५-११-८२ बुधवार को णमोकार मन्त्र का उच्चारण करते हए परमोपकारी महाराज श्री स्वर्ग पधार गये। तुषारपात-दिनांक १-१-८२ को प्रथमाधिकार पूर्ण हो चुका था किन्तु इसकी गाथा १३८, १४१-४२, २०८ प्रौर २१७ के विषयों का समुचित संदर्भ नहीं बैठा गा० २३४ का प्रारम्भ तो 'त' पद से हुआ था । अर्थात् इसको ३५ से गुणा करके...... ! किस संख्या को ३५ से गुणित करना है यह बात गा० में स्पष्ट नहीं थी। दि० १६.२.१२ को दुसरा अधिकार पूर्ण हो गया किन्तु इसमें भी गाथा Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ नं० ८५, ५६, ६५, १६५, २०२ प्रौर २८८ की संदृष्टियों का भाव समझ में नहीं आया, फिर भी कार्य प्रगति पर रहा और २०-३-८२ को तीसरा अधिकार भी पूर्ण हो गया किन्तु इसमें भी गा. २५, २६, २७ प्रादि के अर्थ पूर्ण रूपेण बुद्धिगत नहीं हुए। इतना होते हुए भी कार्य चाल रहा क्योंकि प्रारम्भ में ही यह निर्णय ले लिया था कि पर्व सम्पादक द्वय एवं हिन्दी कर्ता विद्वानों के अपूर्व श्रम के फल को सुरक्षित रखने के लिए ग्रन्थ का मात्र गरिणत भाग स्पष्ट करना है । अन्य किन्हीं विषयों को स्पर्श नहीं करना। इसी भावना के साथ चतुर्थाधिकार प्रारम्भ किया जिसमें गा० ५७ और ६४ तो प्रश्न चिह्न युक्त थी ही किन्तु गणित की दृष्टि से गा० ६१ के बाद निश्चित ही एक गाथा छूटी हुई ज्ञात हुई। इसी बीच हस्तलिखित प्रतियां एकत्रित करने की बहुत चेष्टा की किन्तु कहीं से भी सफलता प्राप्त नहीं हुई, तब यही भाव उत्पन्न हुआ कि इस प्रकार अशुद्ध कृति लिखने से कोई लाभ नहीं । अन्ततोगत्वा अनिश्चित समय के लिए टीका का कार्य बन्द कर दिया। प्रगति का पुरुषार्थ-उत्तर भारत के प्रायः सभी प्रमुख शास्त्र भण्डारों से हस्तलिखित प्रतियों की याचना की। जिनमें मात्र श्री महाबीरप्रसाद विश्वम्बरदासजी सर्राफ चांदनी चौक दिल्ली, श्रीमान् कस्तूरचन्द्रजी काशलीवाल जयपुर पौर श्री रतनलालजी सा० व्यवस्थापक श्री १००८ शान्तिनाथ दि० जैन खंडेलवाल पंचायती दीवान मन्दिर कामा ( भरतपुर ) के सौजन्य से। १+२+ १ = ) चार प्रतियां प्राप्त हुईं। शपथ स्वीकार कर लेने के बाद भी जब अन्य कहीं से सफलता नहीं मिली तम उज्जैन और ब्यावर की प्रतियों से केवल चतुर्थाधिकार की फोटो कॉपी करवाई गई। इस प्रकार कुछ प्रतियां प्राप्त अवश्य हुई किन्तु बे सब मुद्रित प्रति के सदृश एक ही परम्परा की लिखी हुई थीं। यहां तक कि पूर्व सम्पादकों को प्राप्त हुई बम्बई की प्रति ही उज्जैन की प्रति है और इसी को प्रतिलिपि कामा की प्रति है, मात्र प्रतिलिपि के लेखनकाल में अन्तर है। इस कारण कुछ पाठ भेदों के सिवा गाथाए आदि प्राप्त न होने से गरिणतादि की मुत्थियां ज्यों की त्यों उलझी ही रहीं । उस समय परम पूज्य आचार्यवयं १०८ विमलसागरजी म. और प० पूज्य १०८ श्री विद्यानन्दजी महाराज दक्षिण प्रान्त में ही विराज रहे थे। इन युगल गुरुराजों को पत्र लिखे कि मूलबिद्री के शास्त्र भण्डार से कन्नड़ की प्रति प्राप्त कराने की कृपा कीजिए । महाराज श्री ने तुरन्त श्री भट्टारकजी को पत्र लिखवा दिया और उदयपुर से भी श्रीमान् पं० प्यारेलालजी कोठड़िया ने पत्र दिया। जिसका उत्तर पं. देवकुमारजी शास्त्री (वीरवाणी भवन, मूल बिद्री) ने दिनांक २१-४-१९८२ को दिया कि यहां तिलोयपत्ती की दो ताड़पत्रीय प्राचीन प्रतियां मौजूद हैं। उनमें से एक प्रति मुलमात्र है और पर्ण है । दूसरी प्रति में टीका भी है लेकिन उसमें अन्तिम भाग नहीं है पर संख्या की Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदृष्टियां वगैरह साफ हैं" इत्यादि। टीका की बात सुनते ही मन मयूर नाच उठा । उसके लिए प्रयास भी बहुत किए। किन्तु अन्त में ज्ञात हुआ कि टीका नहीं है । इसी बीच ( सन् १९८२ के मई या जून में ) ज्ञानयोगी भट्टारक श्री चारुकीतिजी (मूलविद्री) उदयपुर आए । चर्चा हुई और आपने प्रतिलिपि भेजने का विशेष आश्वासन भी दिया किन्तु अन्त में वहां से चतुर्थाधिकार की गाथा सं० २२३८ पर्यन्त मात्र पाठभेद ही प्राए। साथ में सूचना प्राप्त हुई कि 'आगे के पत्र नहीं हैं। एक अन्य प्रति की खोज की गई जिसमें चतुर्थाधिकार की गाथा सं० २५२७ से प्रारम्भ होकर पांचवें अधिकार की गाथा सं० २८० तक के पाठभेदों के साथ ( चौथा अधिकार भी पूरा नहीं हुआ, उसमें २८६ गाथाओं के पाठभेद नहीं पाए। ) दिनांक २५-२-८३ को सूचना प्राप्त हुई कि ग्रन्थ यहाँ तक पाकर अधूरा रह गया है अब आगे कोई पत्र नहीं हैं । इस सूचना ने हृदय को कितनी पीड़ा पहुंचाई इसकी अभिव्यञ्जना कराने में यह जड़ लेखनी असमर्थ है। संशोधन-मूलविद्री से प्राप्त पाठभेदों से पूर्व लिखित तीनों अधिकारों का संशोधन कर अर्थात् पाठभेदों के माध्यम से यथोचित परिवर्तन एवं परिवर्धन कर प्रेसकॉपी दिनांक १०-६-८३ को प्रेस में भेज दी और यह निर्णय ले लिया कि इन तीन अधिकारों का ही प्रकाशन होगा, क्योंकि पूरी गाथाओं के पाठ भेद न आने के कारण चतुर्थाधिकार शुद्ध हो ही नहीं सकता। यहां प्रशोकनगरस्थ समाधिस्थल पर श्री १००८ शान्तिनाथ जिनालय का निर्माण दि० जैन समाज की ओर से कराया गया था । पुण्ययोग से मन्दिरजी को प्रतिष्ठा हेतु कर्मयोगी भट्टारक श्री चारुकीर्तिजी जैनविद्री वाले मई मास १९५३ में यहां पधारे ! ग्रन्ध के विषय में विशेष चर्चा हुई। आपने विश्वासपूर्वक पाश्वासन दिया कि हमारे यहां एक ही प्रति है और पूर्ण है किन्तु अभी वहां कोई उभय भाषाविज्ञ विद्वान नहीं है । जिसकी व्यवस्था मैं वहां पहुंचते ही करूगा और ग्रन्थ का कार्य पूर्ण करने का प्रयास करूंगा। आप कर्मनिष्ठ, सत्यभाषी, गम्भीर और शान्त प्रकृति के हैं। अपने वचनानुसार सितम्बर माह (१९८३) के प्रथम सप्ताह में ही प्रथमाधिकार की लिप्यन्तरण गाथायें आ गई और सबसे प्राज पर्यंत यह कार्य अनवरत चालू है । गाथाएँ आने के तुरन्त बाद प्रेस से प्रेसकॉपी मंगाकर उन्हें पुनः संशोधित किया और इस टीका का मूलाधार इसी प्रति को बनाया। इसप्रकार जनविद्री से सं० १२६६ की प्राचीन कन्नडप्रति की देवनागरी प्रतिलिपि प्राप्त हो जाने से और उसमें नवीन अनेक गाथाएँ, पाठभेद और शुद्ध संदृष्टियाँ आदि प्राप्त हो जाने से विषम एवं भाषा आदि में स्वयमेव परिवर्तन/परिवर्धन आदि हो गया, जिसके फलस्वरूप ग्रन्थ का नवीनीकरण जैसा ही हो गया है । अन्तर्वेदना-हस्तलिखित प्रतियां प्राप्त करने में कितना संक्लेश और उनके पाठों एवं गाथाओं आदि का चयन करने में कितना श्रम हुआ है, इसका बेदन सम्पादक समाज तो मेरे लिखे Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिना ही अनुभव कर लेगी क्योंकि वह भुक्तभोगी है और अन्य भव्यजन लिख देने पर भी उसका अनुभव नहीं कर सकेंगे क्योंकि न हि वन्ध्या विजानाति पर-प्रसव-वेदनाम् । __ कार्यक्षेत्र --बीर प्रसविनी भीलों की नगरी उदयपुर अपने नगर-उपनगरों में स्थित लगभग पन्द्रह-सोलह जिनालयों से एवं देव-शास्त्र-गुरु भक्त और धर्म-निष्ठ समाज से गौरवान्वित है । नगर के मध्य मण्डी की नाल में स्थित १००८ श्री पाश्र्वनाथ दि० अन खण्डेलवाल मन्दिर इस ग्रन्थ का रचना क्षेत्र रहा है । यह स्थान सभी साधन सुविधाओं से युक्त है । यहीं बैठकर ग्रन्थ के तीन महाधिकार पूर्ण होकर प्रथम खण्ड के रूप में प्रकाशित हो रहे हैं और चतुर्थ महाधिकार का कार्य पूर्ण हो चुका है। सम्बल-इस भव्य जिनालय में स्थित भूगर्भ प्राप्त, श्याम वर्ण, खड्गासन, लगभग ३' उत्तुग, अतिशयवान् प्रति मनोज्ञ १००८ श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिनेन्द्र की चरण रज एवं हृदयस्थित आपकी अनुपम भक्ति, आगमनिष्ठा और परम पूज्य परम श्रद्धेय साधु परमेष्ठियों का शुभाशीर्वाद रूप वरद हस्त ही मेरा सबल सम्बल रहा है। क्योंकि जैसे लकड़ी के आधार बिना अंधा व्यक्ति चल नहीं सकता बैसे ही देव, शास्त्र, गुरु की भक्ति बिना मैं यह महान कार्य नहीं कर सकती थी। ऐसे तारण-तरण देव, शास्त्र, गुरु को मेरा कोटिश: त्रिकाल नमोऽस्तु ! नमोऽस्तु !! नमोऽस्तु ! ! ! प्राधार-प्रो० आदिनाथ उपाध्याय एवं प्रो० हीरालालजी द्वारा सम्पादित, पं० बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री द्वारा हिन्दी भाषानुवादित एवं जीवराज ग्रन्थमाला से प्रकाशित तिलोयपत्ती और जनविद्री स्थित अन मठ को कन्नड प्रति से की हुई देवनागरी लिपि ही इस ग्रन्थ की आधारशिला है। कार्य के प्रारम्भ में तो मूल विद्री की कन्नड प्रांत के पाठभेदों का ही आधार था किन्तु यह प्रति प्रधूरी ही प्राप्त हुई। यदि मुद्रित प्रति न होती तो मैं अल्पमति इसकी हिन्दी टीका कर ही नहीं सकती थी और यदि कन्नड प्रतियाँ प्राप्त न होती तो पाठों की शुद्धता, विषयों की संबद्धता तथा ग्रंथ की प्रामाणिकता प्रादि अनेक विशेषतायें प्रन्थ को प्राप्त नहीं हो सकती थीं। सहयोग-नीच के पत्थर सदृश सर्व प्रथम सहयोग उदयपुर को उन भोली भाली माता-बहिनों का है जो तीन वर्ष के दीर्घकाल से संयम और नानाराधन के कारणभूत अाहारादि दान प्रवृत्ति में यात्सल्य पूर्वक तत्पर रहीं हैं। श्री ज्ञानयोगो भट्टारक चारुकीतिजी एवं पं० श्री देवकुमार शास्त्री, मूलविद्री तथा श्री धर्मपोगी भट्टारक चारकोसिजो एवं पं० श्री देवकुमारजी शास्त्री, जैनधित्री का प्रमुख सहयोग प्राप्त हुप्रा । प्राचीन कन्नड की देवनागरी लिपि देकर इस ग्रन्थ को शुद्ध बनाने का पूर्ण श्रेय आपको ही है । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ तिलोयपात्ती ग्रन्थ प्राकृत भाषा में है और यहां प्राकृत भाषाविज्ञ डा. कमलबन्द्र जी सोगानी, डा० मानो जैन मौर डाली जैज रनकोटि के विद्वान हैं। समय-समय पर आपके सुझाव आदि बराबर प्राप्त होते रहे हैं । प्रतियों के मिलान एवं पाठों के चयन आदि में मा० उदयचन्द्रजो का पूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ है। सम्पारक श्री चेतनप्रकाशजी पाटनो सौम्य मुद्रा, सरल हृदय, संयमित जीवन और समीचीन ज्ञान भण्डार के धनी हैं । सम्पादन-कार्य के अतिरिक्त समय-समय पर आपका बहुत सहयोग प्राप्त होता रहा है। आपको कार्यक्षमता बहुत कुछ अंशों में श्री रतनचन्द्रजी मुख्तार के रिक्त स्थान को पूर्ति में सक्षम सिद्ध हुई है। पूर्व अवस्था के विद्यागुरु, अनेक ग्रन्थों के टीकाकार, सरल प्रकृति, सौम्याकृति, अपूर्व विद्वत्ता से परिपूर्ण, विवच्छिरोमणि वयोवृद्ध पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य की सत्प्रेरणा मुझे निरन्तर मिलती रही है और भविष्य में भी दीर्घकाल पर्यंत मिलती रहे. ऐसी भावना है। श्रीमान् उदारवेत्ता दानशील श्री निर्मल कुमारजी सेठी इस ज्ञानयज्ञ के प्रमुख यजमान हैं। वे धर्म कार्यों में इसी प्रकार अग्रसर रह कर धर्म उद्योत करने में निरन्तर प्रयत्नशील बने रहें। श्रीमान् कजोड़ीमली कामदार, श्री धर्मचन्द्रजी शास्त्रो, श्रीमान् मीरजली, प. चंचलबाई, ब० कुमारी पंकज, प्रेस मालिक श्री पाँचलाली, श्री विमलप्रकाशजी ड्राफ्ट्स मेन अजमेर, श्री रमेशचन्दजी मेहता जदयपुर और मुनिमक्त दि० जैन समाज उदयपुर का पूर्ण सहयोग प्राप्त होने से ही आज यह ग्रन्थ नवीन परिधान में प्रकाशित हो पाया है। प्राशीव-इस सम्यग्ज्ञान रूपी महायज्ञ में तन, मन एवं धन आदि से जिन-जिन भव्य जीवों ने किञ्चित् भी सहयोग दिया है वे सब परम्पराय शीघ्र ही विशुद्ध ज्ञान को प्राप्त करें । यही मेरा आशीर्वाद है। अन्तिम-मुझे प्राकृत भाषा का किञ्चित् भी ज्ञान नहीं है। बुद्धि अलप होनेसे विषयज्ञान भी न्यूनतम है। स्मरण शक्ति पीर शारीरिक शवित क्षीण होती जा रही है। इस कारण स्वर, व्यंजन, पद, अर्थ एवं गणित प्रादि की भूल हो जाना स्वाभाविक है क्योंकि–'को न विमुह्यति शास्त्र-समुद्रे' । प्रतः परम पूज्य गुरुजनों से इसके लिए क्षमाप्रार्थी हूं । विद्वज्जन ग्रन्थ को शुद्ध करके ही अर्थ ग्रहण करें। इत्यलम् । भद्रं भूयात् । सं० २०४० -प्रायिका विशुबमती बसन्त पंचमी दिनांक ७-२-१९८४ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय जदिवसह कृत तिलोयपण्णत्ती प्राकृत भाषा में जैन करणानुयोग का एक प्राचीन ग्रंथ है। प्रसंगवश इसमें जैन सिद्धान्त, इतिहास व पुराण सम्बन्धी भी बहुत सी सामग्री उपलब्ध होती है । मुख्यतः इसमें तीन लोक का वर्णन है । जैन धर्म और जैन बाङमय के इतिहास का पूरा ज्ञान प्राप्त करने के लिए लोक विवरण सम्बन्धी ग्रंथ भी उतने ही मनत्वपूर्ण हैं जितने कोई भी अन्य ग्रन्थ हो सकते हैं । "तिलोयपण्णत्ती' इस दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इसका प्रथम प्रकाशन जीवराज ग्रन्थमाला, सोलापूर से डा. हीरालाल जैन व डा. ए. एन. उपाध्ये के सम्पादकत्व में पं० बालचन्दजी शास्त्रीकृत हिन्दी अनुवाद के साथ हुआ था जो अब अप्राप्य है । गणित सम्बन्धी जटिलता के कारण इस संस्करण में कुछ सन्दर्भ अस्पष्ट रह गये थे। प्रथमाधिकार के स्वाध्याय के दौरान ही टीकाकर्ती पूज्य माताजी विशुद्धमतीजी को इस अस्पष्टता की प्रतीति हुई जिसे उन्होंने स्व. पं. रतनचन्दजी मुख्तार, सहारनपुर वालों से समझा । अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी पूज्य माताजी इससे पूर्व 'त्रिलोकसार' व 'सिद्धांतसार दीपक' जैसे लोक विधररण सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की हिन्दी टीका कर चुकी थी। उदयपुर में, उन्होंने इस प्राचीन ग्रंथ की अन्य हस्तलिखित प्रतियों को आधार बनाकर पाठ संशोधन किया और विषय को चित्रों व संदृष्टियों के माध्यम से सुबोध बना कर भाषा टीका की। संयोग से, श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा के अध्यक्ष श्री निर्मलकुमारजी सेठी पूज्य माताजी के दर्शनार्थ उदयपुर पधारे । ग्रन्थ के प्रकाशन की चर्चा चली तो माननीय सेठीजी ने इसे सभा से प्रकाशित करना सहर्ष स्वीकार कर लिया। महासभा का प्रकाशन विभाग अभी दो-तीन वर्षों से ही सक्रिय हुआ है और 'तिलोयपण्णत्ती' जैसे ऐतिहासिक महत्त्व के प्राचीन ग्रन्थ का प्रकाशन कर अपने आपको गौरवान्वित अनुभव करता है। महासभा सच्चे देव शास्त्र गुरु में अटूट निष्ठा रखने वाले दिगम्बर जैन समाज की लगभग ६० वर्षों से सक्रिय रहने वाली एक प्राचीन संस्था है जिसके कार्यकलापों की जानकारी इसके मुखपत्र "जैन गजट" के माध्यम से पाठकों को मिलती रहती है। श्री सेठीजी ने १९८१ में महासभा की अध्यक्षता ग्रहण की थी तबसे आपके मार्गदर्शन में यह संस्था निरन्तर अपने उद्देश्यों की पूर्ति में पूर्णतः प्रयत्नशील है। श्री सेठीजी ने न केवल ग्रन्थ के प्रकाशन की स्वीकृति ही दी है अपितु पारमार्थिक कार्यों के लिए निर्मित अपने 'सेठी ट्रस्ट' से इसके प्रकाशन के लिए उदारतापूर्वक अर्थ सहयोग भी प्रदान किया है, एतदर्थ महासभा का प्रकाशन विभाग आपका अतिशय आभार मानता है और यही कामना करता Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है कि देव शास्त्र गुरु में प्रापकी भक्ति निरन्तर वृद्धिंगत हो । अनेक समितियों, संस्थाओं व क्षेत्रों को आपका उदार संरक्षण प्राप्त है । श्रावकाचित आपकी सभी प्रवृत्तियाँ सराहनीय एवं अनुमोदनीय हैं। "तिलोयपण्णत्ती' ग्रन्थ नौ अधिकारों का विशालकाय ग्रंथ है । आपके हाथों में तीन अधिकारों का यह पहला खण्ड देते हुए हमें हार्दिक प्रसन्नता है। दूसरा और तीसरा खण्ड भी निकट भविष्य में म उदार दातारों के सहयोग से आपके स्वाध्यायार्थ प्रस्तुत कर सकेंगे, ऐसी आशा है । ग्रंथ प्रकाशन एक महदनुष्ठान है जिसमें अनेक लोगों का सहयोग सम्प्राप्त होता है । महासभा का प्रकाशन विभाग अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी प. पू. १०५ आर्यिका श्री विशुद्धमती माताजी के चरणों में शतशः नमोस्तु निवेदन करता है जिनके ज्ञान का सुफल इस नवीन हिन्दी टीका के माध्यम से हमें प्राप्त हुआ है । आशा है, पू. माताजी को ज्ञानाराधना शीघ्र ही हमें दूसरा व तीसरा खण्ड भी प्रकाशित करने का गौरव प्रदान करेगी। महासभा का प्रकाशन विभाग ग्रन्थ के सम्पादक डा. चेतनप्रकाशजी पाटनी, गणित के प्रसिद्ध विद्वान् प्रो. लक्ष्मीचंदजी जैन और पुरोवाक् लेखक जैन जगत् के वयोवृद्ध संयमी विद्वान पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य का भी अतिशय कृतज्ञ है जिनके सहयोग से प्रस्तुत संस्करण अपना वर्तमान रूप पा सका है । लेखन, सम्पादन, संशोधन कार्यों के अतिरिक्त भी ग्रंथ प्रकाशन के अनेक कार्य बच रहते हैं वे भी कम महत्वपूर्ण नहीं होते । समस्त पत्राचार पू. माताजी के संघस्थ ब्र• कजोड़ीमलजी कामदार ने किया है और वे ग्रन्थ सूजन में प्राने वाली तात्कालिक कठिनाइयों का भी निवारण करते रहे हैं । श्री सेठीजी से सम्पर्क कर प्रेस को कागज आदि पहुंचाने की व्यवस्था के गुरु भार का निर्वाह अ. धर्मचंदजी जैन शास्त्री ने किया है। महासभा का प्रकाशन विभाग इन दोनों महानुभावों का आभारी है । गणितीय जटिल ग्रंथ के सुरुचिपूर्ण मुद्रण के लिए मुद्रक श्री पाँचूलालजी जैन कमत प्रिन्टर्स भी धन्यवाद के पात्र हैं। प्राशा है, महासभा का यह गौरवपूर्ण प्रकाशन वीतराग की वाणी के सम्यक् प्रचार में कृतकार्य होगा। इति शुभम् राजकुमार सेठो मंत्री:प्रकाशन विभाग श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना तिलोयपण्णत्ती : प्रथम खण्ड ( प्रथम तीन महाधिकार ) १. ग्रन्थ-परिचय : समग्र जैन वाङमय प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग और द्रव्यानुयोग रूप से चार अनुयोगों में व्यवस्थित है। करणानुयोग के अन्तर्गत जीव और कर्म विषयक साहित्य तथा भूगोलखगोल विषयक साहित्य गभित है। वैदिक वाङमय और बौद्ध वाट मय में भी लोक रचना से सम्बन्धित बातों का समावेश तो है परन्तु ये स्वतन्त्र गंथ जैट परपरा में उपलब्ध हैं वैसे उन परम्पराओं में नहीं देखे जाते । तिलोयपण्णत्ती ( त्रिलोकप्रज्ञप्ति ) करणानुयोग के अन्तर्गत लोकविषयक साहित्य की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृति है। यह प्राकृत भाषा में लिखी गई है। यद्यपि इसका प्रधान विषय लोकरचना का स्वरूप वर्णन है तथापि प्रसंगवश धर्म, संस्कृति व पुराण-इतिहास से सम्बन्धित अनेक बातों का वर्णन इसमें उपलब्ध है। ग्रंथकर्ता यतिवृषभ ने इस रचना में परम्परागत प्राचीन ज्ञान का संग्रह किया है न कि किसी नवीन विषय का । ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही ग्रंथकार ने लिखा है मंगलपहुदिच्छक्कं वक्खाणिय विबिह-गंथ-जुत्तीहि । जिरणबर मुहणिक्कतं गणहरदेवेहिं गथित पदमालं ।।८५। सासद-पदमावण्णं पवाह-रुवत्तणेण-दोसेहिं । णिस्सेसेहि विमुनकं आइरिय-अणुवकमानादं ।।६।। भब्व-जणाणंदयरं वौच्छामि अहं तिलोयपण्णत्ति । रिणब्भर-भत्ति-पसादिद-वर-गुरु-चलणाणुभावेण ॥७॥ रचनाकार ने कई स्थानों पर यह भी स्वीकार किया है कि इस विषय का विवरण और उपदेश उन्हें परम्परा से गुरु द्वारा प्राप्त नहीं हुआ है अथवा नष्ट हो गया है । इसप्रकार यतिवृषभाचार्य प्राचीन सम्माननीय ग्रंथकार हैं । धवलाकार ने तिलोयपण्णत्ती के अनेक उद्धरण अपनी टीका में उद्धृत किए हैं । आचार्य यतिवृषभ ने एकाधिकबार यह उल्लेख किया है कि 'ऐसा दृष्टिवाद अंग में Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ निर्दिष्ट है । इय दिट्ठ' दिट्टिवादम्हि (१ / ६६), 'वास उदयं भणामो निस्संदं दिट्ठि-वादादो' (१/१४८ ) । यह उल्लेख दर्शाता है कि ग्रंथ का स्रोत दृष्टिवाद नामक अंग है । गौतम गणधर ने तीर्थंकर महावीर की दिव्यध्वनि सुनकर द्वादशांग रूप जिनवाणी की रचना की थी। इसमें दृष्टिवाद नामका बारहवाँ अंग अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और विशाल था। इस अंग के ५ भेद हैं १. परिकर्म, २. सूत्र, ३. प्रथमानुयोग, ४. पूर्वगत और ५. चूलिका । परिकर्म के भी ५ भेद हैं- १. व्याख्याप्रज्ञप्ति २. द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, ३. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ४. सूर्यप्रज्ञप्ति और ५. चन्द्रप्रज्ञप्ति । ये सब ग्रंथ आज लुप्त हैं । इनके आधार पर रचित ग्रंथ इनके प्रभाव की प्रांशिक पूर्ति अवश्य करते हैं । तिलोथपण्णत्ती ऐसा ही ग्रन्थ है, बाद के अनेक ग्रन्थ इसके आधार से बने प्रतीत होते हैं। डा० हीरालाल जैन के अनुसार " उसकी प्राचीनता के कारण यह प्रषं मागधी श्रुतांग ग्रंथों के साथ तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन करने योग्य है और अन्ततः भारतीय पुरातत्व, धर्म एवं भाषा के अध्येताओं के लिए इस ग्रंथ के विविध विषय और इसकी प्राकृत भाषा रोचकता से रहित नहीं है ।" सम्पूर्ण ग्रंथ को रचयिता आचार्य ने योजनापूर्वक नौ महाधिकारों में सँवारा है सामण्णजगसरूवं तम्मिठियं रणारयाणलोयं च । " भावरण* गरम् - तिरियाणं, तर जोइसिका ॥ सिद्धार्ण लोगो त्तिय, श्रहियारे पयद दिट्ठ एव भेए । तम्मि बिद्ध जीवे, पसिद्ध-वर वण्णणा-सहिए ॥ ८९ ॥ वोच्छामि सयलभेदे, भब्वजणारद-पसर-संजणणं । जिणमुहकमलविणिग्गिय तिलोयपष्पत्ति सामाए ॥ ९० ॥ - उपर्युक्त नौ महाधिकारों में अनेक अवान्तर अधिकार हैं। अधिकांश ग्रन्थ पद्यमय है किन्तु खण्ड भो आये हैं । प्रारम्भिक मंगलाचरण में पंचपरमेष्ठी का स्तवन हुआ है परन्तु सिद्धों का स्तवन पहले है, अरहन्तों का बाद में । फिर पहले महाधिकार के अन्त से प्रारम्भ कर प्रत्येक महाधिकार के आदि और अन्त में क्रमशः एक-एक तीर्थंकर को नमस्कार किया गया है और अर से वर्धमान तक तीर्थंकरों को अन्तिम महाधिकार के अन्त में नमस्कार किया गया है । इस ग्रंथ का पहली बार सम्पादन दो भागों में प्रो० हीरालाल जैन व प्रो. ए. एन. उपाध्ये द्वारा १९४३ व १६५१ में सम्पन्न हुआ था । पं० बालचन्द्रजी सिद्धान्त शास्त्री का मूलानुगामी हिन्दी अनुवाद भी इसमें है । इसका प्रकाशन जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर से जीवराज जैन ग्रंथमाला के प्रथम ग्रंथ के रूप में हुआ था। उस समय सम्पादकद्वय को उत्तर भारत की दो ही महत्त्वपूर्ण प्रतियां सुलभ हुई थी अत: इन्हींके आधार पर तथा अपनी तीक्ष्ण मेघा शक्ति के बल पर उन्होंने यह Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ दुष्कर कार्य सम्पन्न किया था। ये कोटि-कोटि बधाई के पात्र है। इन मुद्रित प्रतियों के होने से हमें वर्तमान संस्करण को प्रस्तुत करने में भरपूर सहायता प्राप्त हुई है, हम उनके अत्यन्त ऋणी हैं। इन मुद्रित प्रतियों में सम्पूर्ण ग्रन्थ' का स्थूल रूप इस प्रकार है क्रम सं. विषय अन्तराधिकार कुल पद्य गद्य गाथा के अतिरिक्त छंद मंगलाचरण प्रस्तावना व लोक का सामान्य निरूपण x २६३ गद्य पंचपरमेष्ठी/मादि० २. नारकलोक भवनवासीलोक ४, मनुष्यलोक १५ अधि० ३६७ ४ ४ इन्द्रवज्ञा। अजित/सम्भव १ स्वागता । २४ अधिक २४३ ४ २ इन्द्रवजा । अभिनंदन/सुमति ४ उपजाति । १६ अधि० २६६१ गद्य ७६.व.,रदोधक । पद्मप्रभमुपाव व.ति, शा.वि. १६ अधि० ३२१ गद्य चन्द्रप्रभ/पुष्पदन्त शीतल/श्रेयांस १७ अधि० ६१६ गद्य - वासुपूज्य/विमल २१ अधि० ७०३ गद्य १ शार्दूल वि० अनन्त/धर्मनाथ ___५ अधि०७७ x १ मालिनी शांति,कुन्थुअर से वर्ध. तियरलोक १७अधि०१०३X व्यन्तरलोक ज्योतिर्लोक देवलोक ६. सिद्धलोक अपनी सीमानों के बावजूद इसके प्रथम सम्पादकों ने जो श्रम किया है वह नूनमेव स्तुत्य है । सम्भव पाठ, विचारणीय स्थल आदि की योजना कर मूल पाठ को उन्होंने अधिकाधिक शुद्ध करने का प्रयास किया है। उनकी निष्ठा और श्रम की जितनी सराहना की जाए कम है । २. टोका व सम्पादन का उपक्रम : ___ प्रार्यारत्न १०५ श्री विशुद्धमती माताजी अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी विदुषी' साध्वी हैं। आपने त्रिलोकसार (नेमिनन्द्राचार्यकृत ) और सिद्धान्तसार दीपक ( भट्टारक सकलकीति ) जैसे महत्त्वपूर्ण विशालकाय ग्रन्थों की विस्तृत हिन्दी टीका प्रस्तुत की है। ये दोनों ग्रंथ क्रमशः भगवान महावीर के २५०० वें परिनिर्वाण वर्ष और बाहुबली सहस्राब्दी प्रतिष्ठापना-महामस्तकाभिषेक महोत्सव वर्ष के Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्य प्रसंगों पर प्रकाशित होकर विद्वजमों में समादरणीय हुए हैं । इन अंथों की तैयारियों में कई बार तिलोयपण्णत्ती का अवलोकन करना होता था क्योंकि विषय की समानता है और साथ ही तिलोयपणती प्राचीन ग्रन्थ भी है। 'सिद्धांतसारदीपक' के प्रकाशन के बाद माताजी की यह भावना बनी कि तिलोयपणती की अन्य हस्तलिखित प्रतियाँ जुटा कर एक प्रामाणिक संस्करण विस्तृत हिन्दी टीका सहित प्रकाशित किया जाए। आप तभी से अपने संकल्प को मूर्त रूप देने में जुट गई और अनेक स्थानों से आपने हस्तलिखित प्रतियां भी मंगवा लीं। पर प्रतियों के मिलान करने से ज्ञात हुआ कि उत्तर भारत की लगभग सभी प्रतियां एकसी हैं । जो कमियाँ दिल्ली और बम्बई की प्रतियों में हैं वे ही लगभग सब में हैं । अतः कुछ विशेष लाभ नहीं दिखाई दिया। अब दक्षिण भारत में प्रतियों के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने की कोशिश की गई। संयोग से मूडबद्री मठ के भट्टारक स्वामी ज्ञानयोगी चारुकीतिजी का आगमन हुआ। वे उदयपुर माताजी के दर्शनार्थ भी पधारे। माताजी ने तिलोयपगत्ती के सम्बन्ध में चर्चा की तो वे बोले कि मूडबद्री में श्रीमती रमारानी जैन शोध संस्थान में प्रतियाँ हैं पर वे कन्नड़ लिपि में हैं अत: वहीं एक विद्वान बैठाकर पाठान्तर भेजने की व्यवस्था करनी होगी । वहाँ जाकर उन्होंने पाठभेद भिजवाये भी परन्तु ज्ञात हुआ कि वहाँ की दोनों प्रतियाँ अपूर्ण हैं । इन पाठान्तरों में कुछ अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं, कुछ छूटी हुई गाथाएं भी इनमें मिली हैं अत: बड़ी व्यग्रता थी कि कोई पूर्ण प्रांत मिल जाए। खोज के प्रयत्न चलते रहे तभी अशोकनगर उदयपुर में आयोजित पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव के अवसर पर श्रवणबेलगोला मठ के भट्टारक स्वामी कर्मयोगी चारुकीतिजी पधारे । उन्होंने बताया कि वहां एक पूर्ण प्रति है, शीघ्र ही लिप्यन्तरण मंगाने की योजना बनी और वहाँ एक विद्वान रख कर लिप्यन्तरण मँगाया गया, यह प्रति काफी शुद्ध, विश्वसनीय और प्राचीन है । फलतः इसी प्रति को प्रस्तुत संस्करण को आधार प्रति बनाया गया है । यों अन्य सभी प्रतियों के पाठ भेद टिप्पण में दिये हैं। तिलोयपण्णत्ती विशालकाय नंथ है। पहले यह छोटे टाइप में दो भागों में छपा है। परंतु विस्तृत हिंदी टीका एवं चित्रों के कारण इसकी स्थूलता बहुत बढ़ गई है अतः अब इसे तीन खण्डों में प्रकाशित करने की योजना बनी है। प्रस्तुत कृति (तीन महाधिकारों का) प्रथम खंड है । दूसरे खंड में केवल चौथा अधिकार-लगभग ३००० गाथाओं का होगा। तीसरे अर्थात् अंतिम खड में शेष पांच अधिकार रहेंगे। श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा इसके प्रकाशन का व्ययभार बहन कर रही है, एतदर्थ हम महासभा के अतीव आभारी हैं । पूज्य माताजी का संकल्प प्राज मूर्त हो रहा है, यह हमारे लिये प्रत्यंत प्रसन्नता का विषय है । पूर्णतया समालोचक दृष्टि से सम्पादित तो नहीं किंतु अधिकाधिक प्रामाणिकता पूर्वक सम्पादित Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ संस्करण प्रकाशित करने का हमारा लक्ष्य आज पूरा हो रहा है, यह प्रात्मसंतोष मेरे लिए महार्य है। ३. हस्तलिखित प्रतियों का परिचय : तिलोयपणती का प्रस्तुत संस्करण निम्नलिखित प्रतियों के आधार से तैयार किया गया है द-दिल्ली से पार होने के कारण दर प्रति का नाम 'द' प्रति है। इसके मुखपृष्ठ पर 'श्री दिगम्बर जैन सरस्वती भण्डार धर्मपुरा, दिल्ली ( लाला हरसुखराय सुगनचंदजी) नं० आ ८ (क) श्री नवामंदिरजी' अंकित है । यह १६"x५" प्रकार की है । कुल २०४ पत्र हैं। प्रत्येक पत्र में १४ पंक्तियां हैं और प्रति पंक्ति में ५० से ५२ वर्ण है। पूरी प्रति काली स्याही से लिखी गई है । प्रत्येक पृष्ठ का अलवारण है। एक ओर पृष्ठ के मध्यभाग में लाल रंग का एक वृत्त है, दूसरी ओर तीन वृत्त । एक स्थान पर मध्य में १६ गाथायें छुट गई है जो अन्त में एक स्वतन्त्र पत्र पर लिख दी गई हैं। साथ में यह टिप्परा है- इति गाहा १६ त्रैलोक्यप्रज्ञप्तौ पश्चात् प्रक्षिप्ताः ।" सम्पूर्ण प्रति बहुत सावधानी से लिखी हुई मालूम होती है तो भी अनेक ग्निपिदोष तो मिलते ही हैं। देखने में यह प्रति बम्बई की प्रति से प्राचीन मालूम पड़ती है ।। प्रारम्भ में मङ्गल चिह्न के बाद प्रति इस प्रकार प्रारम्भ होती है-ॐ नमः सिद्ध भ्यः । प्रति के अन्त में लिपिकार की प्रशस्ति इस प्रकार है प्रशस्तिः स्वस्ति श्री सं० १५१७ वर्षे मार्ग सुदि ५ भौमबारे श्री मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारकीपद्मनंदिदेवास्तत्पट्टे भट्टारकधीशुभचन्द्रदेवाः तत्पट्टालङ्कारभट्टारकश्रीजिन चन्द्रदेवाः । मु. श्रीमदनकीर्ति तच्छिष्य ब्रह्मनरस्यंघकस्य खंडेलवालान्वये पाटणीगोत्रे सं० वी धू भार्या बहुश्री तत्पुत्र सा० तिहुणा भार्या तिहणश्री सुपुत्राः देवगुरुचरणकमलसंसेवनमधुकराः द्वादशवतप्रतिपालनतत्परा: सा० महिराजभ्रातृ ष्यो राजसुपुत्रजालप। महिराजभार्या महराश्रीष्यो राजभार्याष्यो श्री सहिते त्प: एतद् अन्धं त्रैलोक्य प्रज्ञप्तिसिद्धान्तं लिखाप्य व नरस्य॑धकृते कर्मक्षयनिमित्तेः प्रदत्तं 11छ।। यावज्जिनेन्द्रधमोऽयं लोलोके स्मिन् प्रवर्तते । यावत्सुरनदीवाहास्तावन्नन्दतु पुस्तकः ।।१।। इदं पुस्तकं चिरं नंद्यात् ॥छ।। शुभमस्तु ।। लिखितं पं० नरसिंहेन छ।। श्रीझ झुणुपुरे लिखितमेतत्पुस्तकम् ॥छ।। ( पूर्व सम्पादन भी इसी प्रति से हुभा था।) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२] क -कामां ( भरतपुर ) राजस्थान से प्राप्त होने के कारण इस प्रति का नाम 'क' प्रति है । यह कामां के श्री १००८ शान्तिनाथ दिगम्बर जैन खण्डेलवाल पंचायती दीवान मन्दिर से प्राप्त हुई है । यह १२३"४७" आकार की है और इसके कुल पत्रों की संख्या ३१६ है। प्रत्येक पत्र में १३ पंक्तियाँ हैं । प्रति पंक्ति में ३७ से ४० वर्ण हैं । लेखन में काली व लाल स्याही का प्रयोग किया गया है । पानी एवं नमी का असर पत्रों पर हुमा दिखाई देता है तथापि प्रति पूर्णतः सुरक्षित और अच्छी स्थिति में है। यह बम्बई प्रति की नकल ज्ञात होती है, क्योंकि वही प्रशस्ति ज्यों की त्यों लिखी गई है। लिपिकाल का अन्तर है "संवत् १८१४ वर्षे मिती माघ शुक्ला नवम्यां गुरुवारे । इदं पुस्तकं लिपीकृत कामावतीनगरमध्ये । श्रूतं भूयात् ।। श्रीः ।। १३] ठ-इस प्रति का नाम '४' प्रति है । यह डॉ. कस्तूरचन्दजी कासलीवाल के सौजन्य से श्री दिगम्बर जैन सरस्वती भवन, मन्दिरको ठोलियान, जयपुर से प्राप्त हुई है । इसके वेष्टन पर 'नं० ३३२, श्री त्रिलोकप्रज्ञप्ति प्राकृत' अंकित है। प्रति १२३" x ५" आकार की है । कुल पत्र संख्या २८३ है परन्तु पत्र संख्या ८८ से १०३ और १५१ से २५० प्रति में उपलब्ध नहीं हैं । पत्र संख्या १ से ८६ तक की लिपि एक सी है । पत्र ८७ एक ओर ही लिखा गया है। दूसरी ओर बिल्कुल खाली है । इसके हाशिए में वायें कोने में १०३ संख्या अंकित है और दायें कोने में नीचे हाशिए में संख्या ८७ अंकित है। यह पृष्ठ अलिखित है। पत्र संख्या १०४ से १५० और २५१ से २८३ तक के पत्रों की लिपि भी भिन्न भिन्न है। इस प्रकार इस प्रति में तीन लिपियाँ हैं । प्रति अच्छी दशा में है । कागज भी मोटा और अच्छा है। पत्र संख्या १०४ से १५० तक के हाशिये में बायीं तरफ ऊपर 'त्रिलोक प्रज्ञप्ति' लिखा गया है । शेष पत्रों में नहीं लिखा गया है। इसका लिपि काल ठीक तरह से नहीं पढ़ा जाता। उसे काट कर अस्पष्ट कर दिया है, वह १८३० भी पढ़ा जा सकता है और १८३१ भी । प्रशस्ति भी अपूर्ण है संवत् १८३१ चतुर्दशोतिथी रविवासरे..." Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ तैलाद्रक्षेजलाद्रक्षेत्, रक्षेद् शिथिलबन्धनात् । मूर्खहस्ते न दातव्या, एवं वदति पुस्तगा ॥ ६६ ॥ श्री श्री श्री ************* [ ***** [४] ज--इस प्रति का नाम 'ज' प्रति है । यह भी डॉ० कस्तूरचन्दजी कासलीवाल के सौजन्य से श्री दिगम्बर जैन सरस्वती भवन, मन्दिरजी ठोलियान, जयपुर से प्राप्त हुई है । इसका आकार १३ " × ५" है । इसमें कुल २०६ पत्र हैं । १८ में क्रम के दो पत्र हैं और २१ वाँ पत्र नहीं है अत: गाथा संख्या २२६ से २७२ ( प्रथम अधिकार ) तक नहीं है । पृष्ठ २२ तक की लिपि एक्सी है, फिर भिन्नता है । पत्र संख्या १८२ भी नहीं है जबकि १८५ संख्या वाले दो पत्र हैं । X इस प्रति में प्रशस्ति पत्र नहीं है । ****** *** [५] य - इस प्रति का नाम 'य' प्रति है । यह श्री दिगम्बर जैन सरस्वती भवन, ब्यावर से प्राप्त हुई है । वहाँ इसका वि० नं० १०३६ और जन० नं० "अंकित है । यह ११३”× <६३" श्राकार की है। कुल पत्र २४६ हैं । प्रत्येक पत्र में बारह पंक्तियाँ हैं और प्रति पंक्ति में ३८-३९ अक्षर हैं। पत्रों की दशा ठीक है, अक्षर सुपाठध हैं एवं सुन्दरतापूर्वक लिखे गए हैं। 'ॐ नमः सिद्ध ेभ्यः' से ग्रन्थ का प्रारम्भ हुआ है । अन्त में प्रशस्ति इस प्रकार लिखी गई है 1 संवत् १७४५ वर्षे शाके १६१० प्रवर्त्तमाने आषाढ़ वदि ५ पंचमी श्रीशुक्रवासरे। सग्गामपुरे मथेनविद्या विनोदेनाले खि प्रतिरियं समाप्ता । पं० श्रीबिहारीदास शिष्य घासीरामदयाराम पठनार्थम् । श्री ऐलक पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवन झालरापाटन इत्यस्यार्थ पन्नालाल सोनीत्यस्य प्रबन्धेन लेखक नेमिचन्द्र माले श्रीपालवासिनालेखि त्रिलोकसार प्रज्ञप्तिरियम् । विक्रमार्क १९६४ तमे वर्षे वैशाख कृष्णपक्षे सप्तम्यां तिथों रविवासरे । ( फोटो कापी करा कर इसका मात्र चतुर्थाधिकार मंगाया गया है ) ६ यहाँ तिलोय पणत्ति की एक अन्य हस्तलिखित प्रति और भी है जिसका वि० नं० ३८९ और जन० नं० ४११ है । इसमें ५१८ पत्र है । पत्र का आकार ११" x ४" है । प्रत्येक पत्र में पंक्तियाँ हैं और प्रति पंक्ति में ३१-३२ अक्षर पत्र जीर्ण हैं अक्षर विशेषसुपाठ्य नहीं हैं । ॐ नमः सिद्धेभ्यः' से ग्रन्थ का लेखन प्रारम्भ हुआ है और अन्त में लिखा है Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत् १७४५ वर्षे शाके १६१० प्रवर्तमाने प्राषाढ़ बदि ५ पंचमी श्री शुक्रवासरे। संग्रामपुरे मथेन विद्याबिनोदेनालेखि प्रतिरियं समाप्ता। पं० श्री बिहारीलालशिष्य घासीरामदयारामपठनार्थम् । श्रीरस्तु कल्याणमस्तु । उपयुक्त प्रति इसी प्रति की प्रतिलिपि है। [६] ब-बम्बई से प्राप्त होने के कारण इस प्रति का नाम 'ब' प्रति है। श्री ऐलक पन्नालाल जैन सरस्वती भवन सुखानन्द धर्मशाला बम्बई के संग्रह की है। यह प्रति देवनागरी लिपि में देशी पृष्ट कागज पर काली स्याही से लिखी गई है। प्रारम्भिक व समाप्तिसूचक शब्दों, दण्डों, संख्याओं, हाशिए की रेखाओं तथा यत्र-तत्र अधिकारशीर्षकों के लिए लाल स्याही का भी उपयोग किया गया है । प्रति सुरक्षित है और हस्तलिपि सर्वत्र एकसी है । यह प्रति लगभग ६" चौड़ी, १२३" लम्बी तथा लगभग २५" मोटी है। कुल पत्रों की संख्या ३३९ है । प्रथम और अन्तिम पृष्ठ कोरे हैं। प्रत्येक पृष्ठ में १० पंक्तियां हैं और प्रतिपंक्ति में लगभग ४०-४५ अक्षर हैं। हाशिए पर शीर्षक है-त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति । मंगलचिह्न के पश्चात् प्रति के प्रारम्भिक शब्द हैं-ॐ नमः सिद्ध भ्यः । ३३३ वें पत्र पर अन्तिम पुष्पिका है-तिलोयपहात्ती समत्ता । इसके बाद संस्कृल के विविध छन्दों में रचित्त १२४ श्लोकों की एक लम्बी प्रशस्ति है जिसकी पुष्पिका इस प्रकार है इति सरि श्रीजिन चन्द्रान्तेवासिना पण्डितमेधाविना विरचिता प्रशस्ता प्रशस्तिः समाप्सा । संवत् १८०३ का मिती प्रासोजवदि १ लिखितं मया सागरश्री सवाईजयपुरनगरे । श्रीरस्तुः ॥कल्पां।। इसके बाद किसी दूसरे या हलके हाथ से लिखा हुमा वाक्य इस प्रकार है-'पोथी त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति की भट्टारकजी ने साधन करवी ने दीनी दुसरी प्रति मोती धावरण सुदि १३ संवत् १९५६ । इस प्रति के प्रथम ८ पत्रों के हाशिए पर कुछ शब्दों व पंक्तिखंडों की संस्कृत छाया है। ५ वें पत्र पर टिप्पण में त्रैलोक्यदीपक से एक पद्य उद्घृत है । आदि के कुछ पत्र शेष पत्रों की अपेक्षा अधिक मलिन हैं। लिपि की काफी त्रुटियां है प्रति में । गद्य भाग का और गाथानों का भी पाठ बहत भ्रष्ट है। कुछ गद्यभाग में गणनाक लिखे हैं मानों वे माथायें हों। ( पूर्व सम्पादन भी इसी प्रति से हुअा था।) [७] उ-उज्जैन से प्राप्त होने के कारण इस प्रति का नाम 'उ' प्रति है। इसके मात्र चतुर्थ अधिकार की फोटो कॉपी कराई गई थी। इसका प्राकार १३३" ४८," है । प्रत्येक पत्र में Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ १० पंक्तियां और प्रत्येक पंक्ति में ४४ - ४५ वर्ण हैं। काली स्याही का प्रयोग किया गया है। प्रति पूर्णतः सुरक्षित और अच्छी दशा में है । यह बम्बई प्रति की ही नकल है क्योंकि वहीं प्रशस्ति ज्यों की त्यों लिखी गई है । लिपिकाल का भी अन्तर नहीं दिया गया है । सूडबिद्रो की प्रतियाँ : ज्ञानयोगी स्वस्तिश्री भट्टारक चारुकीति पण्डिताचार्यवर्य स्वामीजी के सौजन्य से श्रीमती रमारानी जंन शोधसंस्थान, श्री दिगम्बर जैन मठ, मूडबिद्री से हमें तिलोय पण्णत्ती की हस्तलिखित कानड़ी प्रतियों से पं० देवकुमारजी जैन शास्त्री ने पाठान्तर भिजवाए थे। उन प्रतियों का परिचय भी उन्होंने लिख भेजा है, जो इस प्रकार है- प्रान्तीय ताडपत्रीय ग्रन्थसूची पृ० सं० १७० - १७१ विषय : लोकविज्ञान ग्रन्थ सं० ४६८ : (१) तिलोयपण्णत्ति : [ त्रिलोक प्रज्ञप्ति ] - आचार्य यतिवृषभ । पत्र सं० १५१ । प्रतिपत्र पंक्ति-६ । प्रक्षर प्रतिपंक्ति ६६ । लिपि कन्नड़ । भाषा प्राकृत विषय लोकविज्ञान | अपूर्ण प्रति । शुद्ध है; जीर्णदशा है। इसमें संदृष्टियों बहुत सुन्दर एवं स्पष्ट है । टीका नहीं है । ॐ नमः सिद्धमर्हतम् ॥ श्री सरस्वत्यं नमः || श्री गणेशाय नमः || श्री नित्यविशालकीर्तिमुदये नमः || इस प्रकार के मंगलाचरण से ग्रन्थारम्भ होता है । इस प्रति के उपलब्ध सभी ताड़पत्रों के पाठभेद भेजने के बाद पण्डितजी ने लिखा है"यहां तक मुद्रित (शोलापुर ) तिलोयपण्णन्ति भाग १ का पाठान्तर कार्य समाप्त होता है। मुद्रित तिलोपत्ति भाग-२ में ताड़पत्र प्रति पूर्ण नहीं है, केवल नं० १९ से ४३ तक २५ ताड़पत्र मात्र मिलते हैं। शायद बाकी ताड़पत्र लुप्त, खण्डित या अन्य ग्रन्थों के साथ मिल गये हों । यह खोज करने की चीज है ।" ग्रन्थ सं० ६४३ : (२) तिलोयपष्णति ( त्रिलोकप्रज्ञप्ति) : प्राचार्य यतिवृषभ । पत्र संख्या ८८ पंक्तिप्रतिपत्र ७ । अक्षर प्रतिपंक्ति ४० । लिपि कन्नड़ भाषा प्राकृत । तिलोपपत्ति का एक विभाग मात्र इसमें है । शुद्ध एवं सामान्य प्रति है। इसमें भी संदृष्टियां हैं। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनबद्री (श्रवणबेलगोला) से प्राप्त प्रति का परिचय : ___ कर्मयोगी स्वस्ति श्री भट्टारक चारुकीति स्वामीजी महाराज के सौजन्य से श्रवणबेलगोला के श्रीमठ के ग्रन्थ भण्डार में उपलब्ध तिलोयपष्णत्ती की एक मात्र पूर्ण प्रति का देवनागरी लिप्यन्तरण श्रीमान् पं० एस० बी० देवकुमार शास्त्री के माध्यम से हमें प्राप्त हुआ है। प्रस्तुत संस्करण की आधार प्रति यही है । प्रति प्रायः शुद्ध है और संदृष्टियों से परिपूर्ण है । इस प्रति का पण्डितजी द्वारा प्रेषित परिचय इस प्रकार है श्रवणबेलगोला के श्रीमठ के ग्रन्थ भण्डार में यह प्रति एक ही है । ग्रन्थ ताड़पत्रों का है; इसमें अक्षरों को सूचीविशेष से उकेरा न जाकर स्याही से लिख दिया गया है । सीधे पंक्तिवार अक्षर लिखे गए हैं । अक्षर सुन्दर हैं । कुछ अक्षरों को समान रूप से थोड़ा सा अन्तर रखकर लिखा गया है । उस अन्तर को ठीक-ठीक समझने में बड़ी कठिनाई होती है । ताड़पत्र की इस प्रति में कुल पत्रसंख्या १७४ हैं। प्रति पूर्ण है। कहीं-कहीं पत्रों को अगल-बगल में कीड़ों ने खा लिया है या पत्र भी टूट गए हैं । सात पत्रों में क्रमसंख्या नहीं है । उस जगह को कीड़ों ने खा लिया है। पत्र तो मौजद हैं; उन पत्रों की संख्या है- .१०१,१०९, १३६, १३७, १४६. १५५ और १५६ । एक पत्र में बोच का 3 भाग बचा है । पत्रों की लम्बाई १८ इंच और चौड़ाई ३३ इंच है । प्रत्येक पत्र में ६ या १० पंक्तियाँ हैं । प्रत्येक पंक्ति में ७७-७८ अक्षर हैं । एक पत्र में करीब ४६ गाथायें हैं। कन्नड़ से देवनागरी में लिप्यन्तरण करते हुए लिप्यन्तरकर्ता उक्त पण्डितजी को कई कठिनाइयाँ झेलनी पड़ी हैं । कतिपय कठिनाइयों का उल्लेख उन्होंने इस प्रकार किया है १. 'च' और 'ब' को एक सा लिखते हैं, सूक्ष्म अन्तर रहता है। इसके निश्चय में कष्ट होता है। २. इत्व और ईत्व का कुछ फरक नहीं करते; ऐसी जगह ह्रस्व दीर्घ का निश्चय करना कठिन होता है। ३. संयुक्ताक्षर लिखना हो तो जिस अक्षर का द्वित्व करना हो तो उस अक्षर के पीछे शून्य लगा देते हैं। उदाहरणार्थ 'धम्मा' लिखना हो तो 'घमा' ऐसा लिख देते हैं । जहाँ 'घंमा' ही पढ़ना हो तो कैसे लिखा जाए, इसकी प्रत्येक व्यवस्था' ताड़पत्र की लिखावट में नहीं है । जहाँ 'वंसाए' लिखा हो वहाँ 'वस्साए' क्यों न पढ़ा जाए इसकी भी अलग कोई व्यवस्था नहीं है। ४. मूल प्रति में किसी भी गाथा की संख्या नहीं दी गई है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAP : 18 HHORDPREMinitiatimPAHILOPERATE MINIKITARAIGARH t indinister EMARATHERHITEN 1001124 ::HAMREENHANNEnt Fination HITNIRAHIRATH THHOTASTEREDM hinitithiashliltinापरताIRENA maritali RETRIORailhini .. MAHEmaithi RAH ANT जैनबद्री की ताड़पत्रीय प्रति के पत्र सं० ४ का फोटो : Hinline MAH ti12151 m RAM MPLAINEET PARTIME Partitative IMBAKASH N EPAL Hipimara ti HetanA HAR istratime Hi' ३० U RTHIAREALHAR H si ATRNATHERE intentiy H amarte. PAHainments: .. .. . AMATIRTH. H ANI MH THHHithaita सर HEALLivil HHHHHHEL सभी ताड़पत्र १६" लम्बे और ३१" चौड़े हैं । ताड़पत्र संख्या ४ की तीन टुकड़ों में ली हुई फोटो ऊपर मुद्रित है । ताड़पत्र को मध्य के हिस्से में कीड़ों ने खा लिया है । परन्तु लिपि, संदृष्टि और चित्र सब कुछ स्पष्ट हैं। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रति के अन्तिम पत्र का पाठ इसप्रकार है पणमह जिणवरवसहं गणहरदसहं तहेव गुष्णहदवसहं । सहपरिसहवसह, अदिवसहं धम्मसुत्तपाठर मसहं ॥ एवमाइरियपरंपरागय तिलोयपण्णत्तीए सिद्धलोय सरू (ब) णिरुवण पाणती णाम गवमो महाहियारो समत्तो। 6666 मगप्पभावण8 पवयणभत्तिप्पचोदिदेण मया । मणिदंग...............वरं सोहंतु बहस्सुदाइरिया ॥१॥ घुण्णिसरूवं अर्द्ध करपदमहमाण किं जंतं । अटुसहस्सपमागं, तिलोयपणत्तिणामाये ॥ २॥666 णटुपमावं पण?-अट्टमवं, विट्ठ सयलपरमट्ठ। णिहरवयणविरामुक्क, नमामि अमरकित्तिमुषि ॥३॥ वीरमुहकमणिग्गह, विडलामलसुदसमुद्दवढदल । ससधरकर किरगामं, गमामि तं अमरकिसिमणि ॥४॥ पंचमहव्ययपुग्णं तिसल्लविरवं तिगुसिजुस छ । सुयसागरपारंगव सुरकित्सिमुणिदभिबंदे ॥ ५ ॥ सुखरखुम्मलकहम सोसणतरणि समत्तससविदं । सरगं वजामि बहुतुक्खसलिलपूरिद संसार समुद्दाहगभएण ॥६॥ मित्त तिमिर भाणु विगसिबबरभव कमल मंडलियं । सुद्धोपयोगजुत्त, सुरकित्तिमुणीसरं वंदे ॥७॥ सिरिमवुअखंडिवविवहाखंडलमंडलियमणिमउडमरीचिपिजरिवभगवररुहप्परमैसरमुहपदुमविणिग्गवसप्तमंगिणीपरवादिपावपमूलं कसषचण सकिलपक्यालिद कम्ममसकेहि । णिखिल सत्य सामोपलकसणसैमुसीमुसितपुरुहूतपुरोहिद गठवेहिं ।' दुग्यारवादिपरिसदवलेवपथ्वदपाडणपडिजस्सहादवन्नेहि । उबारदारोररवरिगिवेसिवासादिसुमपिसाची वस गासेस पुरुस परिसपरिवेसिद पुरुसत्तमामासभासिमिछावाशोधकारगिवहरणसहसकिरहेहि । रामराजगुरुमंडलाइरिय महावाववादोसर सकल विद्दजण वक्फटि वादिव थिसालकित्तियति....... सिरिमदमरकित्सियदीसरपिसिस्सभडारगधम परिपागपेसलं विमलमुत्ताफससारिच्छ अक्खरेहि समवरुस १२६६ दिम स्वमाणुसंवच्छर महपसुद्द ५ सो रिणे सुरताण पातसहां... .................... विजयरऊले ओडगे अमहापुरे अणंतसंसारविच्छेवणकर अणंततिस्थयपादमले अणवरद अपमावरचं लिखिदमिर तिलोयपण्णसोगाम परमागर्म महामुणिसेव्यमाणं समत्तो।।66 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ................लं सुबोधकगलं सग्मंगवीणीचर्य, गंभीर मिणिलट्ठपालिकलितं सच्चाधु हंसाकुरूं। पग्णाधीसडिट्ठ पाथगरवगट्ठाष्णियजीयारदुग्गदितापवृद्धिहणणं जंणागमक्खं सरो॥८॥ जिणं णुरु............... सयं धणुप्पमाणो सुद्धफलिहमयं । हरिपुरणाहं तं संसारविसमविसरुषखमूल उप्पणणिउणचंदण्यहं बथे ॥९॥ हरिहरहिरण्यगर्भसंत्रासितमदनमदाजगजांकुशस्तवनकृतार्थीकृतसकलविनेयमनाय हरि................नमः ॥ श्रीमानस्ति समस्तदोषरहित प्रख्यातलोकत्रमाधोशाम्रडित पाइपययुगलः सज्जानतेजोनिधिः । बुरिस्मरगर्वपर्वतपविमिध्याहगंधुभ्रम - सत्योद्धारणधीरधिषणो सो सम्मतीयो जिनः ॥१०॥ सकसजगदानंदनकर अभिनन्दनं णमः॥ ( यहीं प्रन्य का अन्त हुआ है।) ४. सम्पादन विधि : किसी भी प्राचीन रचना का हस्तलिखित प्रतियों के आधार पर सम्पादन करना कोई प्रासान काम नहीं है । मुद्रित प्रति सामने होते हुए भी कई बार पाठान्तरों से निर्णय लेने में बहुत श्रम और समय लगाना पड़ा है इसमें, नतमस्तक हूं तिलोयपण्णत्ती के प्रथम सम्पादकों की बुद्धि एवं निष्ठा के समक्ष । सोचता हूं उन्हें कितना अपार अथक परिश्रम करना पड़ा होगा। क्योंकि एक तो इसका विषय ही जटिल है, दूसरे उनके सामने तो हस्तलिखित प्रतियों की सामग्री भी कोई बहुत सन्तोषजनक नहीं थी । उन्हें किसी टीका, छाया अथवा टिप्परग की भी सहायता सुलभ नहीं थी । मुझे तो हिन्दी अनुवाद, सम्भवपाठ, विचारणीय स्थल ग्रादि से पूरा मार्गदर्शन मिला है। प्रस्तुत संस्करण का मूलाधार श्रवणबेलगोला को ताड़पत्रीय कानड़ी प्रतिलिपि है। लिप्यन्तरण श्री एस० बी० देवकुमार शास्त्री ने भिजवाए हैं । उसी के आधार पर सारा सम्पादन हुआ है । मूडन्निद्री की प्रति भी लगभग इस प्रति जैसी ही है, इसके पाठान्तर श्री देवकुमारजी शास्त्री ने भिजवाए थे। तिलोयपण्णत्ती एक महत्वपूर्ण धर्मग्रन्थ है और इसके अधिकांश पाठक भी धार्मिक रुचि सम्पन्न श्रावक श्राविका होंगे या फिर स्वाध्यायशील मुनि प्रायिका आदि। इन्हें ग्रन्थ के विषय में अधिक रुचि होगी, ये भाषा की उलझन में नहीं पड़ना चाहेंगे, यही सोचकर विषय के अनुरूप सार्थक पाठ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ ही स्वीकार करने की दृष्टि रही है सर्वत्र । प्रतियों के पाठान्तर टिप्पण में अंकित कर दिए हैं। हिन्दी टीका के विशेषार्थ में तो सही पाठ या संशोधित पाठ की ही संगति बैठती है, विकृत की नहीं । कहीं कहीं सब प्रतियों में एकसा विकृत पाठ होते हुए भी गाथा में शुद्ध पाठ ही रखा गया है। गणित और विषय के अनुसार जो संदृष्टियाँ शुद्ध हैं उन्हें ही मूल में ग्रहण किया गया है, विकृत पाठ टिप्पणी में दे दिये हैं । पाठालोचन और पाठसंशोधन के नियमों के अनुसार ऐसा करना यद्यपि अनुचित है तथापि व्यावहारिक दृष्टि से इसे श्रतीव उपयोगी जानकर अपनाया गया है । कानड़ी लिपि से लिप्यन्तरणकर्त्ता को जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है, उनका उल्लेख प्रति के परिचय में किया गया है; हमारे समक्ष तो उनकी ताजा लिखी देवनागरी लिपि ही थी । प्राकृत भाषा प्रभेदपूर्ण है और इसका व्याकरण भी विकसनशील रहा है अत: बदलते हुए नियमों के आधार पर संशोधन न कर प्राचीन शुद्ध रूप को ही रखने का प्रयास किया है। इस कार्य श्री हरगोबिन्द शास्त्री कृत पाइअसद्दमहणयों से पर्याप्त सहायता मिली है । यथासम्भव प्रतियों का शुद्ध पाठ ही संरक्षित हुआ है । प्रथमबार सम्पादित प्रति में सम्पादकद्वय ने जो सम्भवनीय पाठ सुझाए थे उनमें से कुछ ताड़पत्रीय कानड़ी प्रतियों में ज्यों के त्यों मिल गए हैं। वे तो स्वीकार्य हुए ही हैं। जिनगाथाओं के छूटने का संकेत सम्पादक द्वय ने किया है, वे भी इन कानड़ी प्रतियों में मिली हैं और उनसे अर्थ प्रवाह की संगति बैठी है । प्रस्तुत संस्करण में अब कल्पित, सम्भवनीय या विचारणीय स्थल अत्यल्प रह गए हैं तथापि यह दृढ़तापूर्वक नहीं कहा जा सकता कि व्यवस्थित पाठ ही ग्रन्थ का शुद्ध और अन्तिम रूप है । उपलब्ध पाठों के आधार पर अर्थ की संगति को देखते हुए शुद्ध पाठ रखना ही बुद्धि का प्रयास रहा है । श्राशा है, भाषा शास्त्री और पाठ विवेचक अपने नियम की शिथिलता देख कोसेंगे नहीं अपितु व्यावहारिक उपयोगिता देख उदारतापूर्वक क्षमा करेंगे । ५. प्रस्तुत संस्करण की विशेषताएँ : तिलोयपण्णत्ती के प्रथम तीन अधिकारों का यह पहला खण्ड है। इसमें केवल मूलानुगामी हिन्दी अनुवाद ही नहीं है अपितु विषय सम्बन्धी विशेष विवरण की जहां भी आवश्यकता पड़ी है वह विस्तारपूर्वक विशेषार्थ में दिया गया है। गणित सम्बन्धी प्रमेयों को, जहां भी जटिलता दिखाई दी है Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णतः हल करके रखा गया है । संदृष्टियों का भी पूरा ग्युलासा किया गया है। इस संस्करण में मूल संदृष्टियों की संख्या हिन्दी अर्थ के बाद अंकों में नहीं दी गई है किन्तु उन संख्याओं को तालिकाओं में दर्शाया गया है । एक अन्य विशेषता यह भी है कि चित्रों और तालिकानों-सारणियों के माध्यम से विषय को सरलतापूर्वक ग्राह्य बनाने का प्रयत्न किया गया है। पहले अधिकार में ५० चित्र हैं, दूसरे में दो और तीसरे में एक, इस प्रकार कुल ५३ चित्र हैं। पहले अधिकार में पूर्व प्रकाशित संस्करण में २८३ गाथायें थीं। इसमें तीन नयी गाथाएँ या छूटी हुई गाथाएँ (सं० २०९, २१६, २३७ ) जुड़ जाने से अब २८६ गाथायें हो गई हैं । इसी प्रकार दूसरे महाधिकार में ३६७ गाथाओं की अपेक्षा ३७१ (१६४, ३३१, ३३२, ३६५ जुड़ी हैं) और तीसरे महाधिकार में २४३ गाथाओं की अपेक्षा २५४ गाथाएँ हो गई हैं। तीसरे अधिकार में नई जुड़ी गाथाओं की संख्या इस प्रकार है-१०७, १८६, १७, २०२, २२२ से २२७ और २३२-३३ । इस प्रकार कुल १६ गाथाओं के जुड़ने से तीनों अधिकारों की कुल गाथाएँ ८९३ से बढ़ कर ९१२ हो गई हैं। प्रस्तुत संस्करगा में प्रत्येक गाथा के विषय को निर्दिष्ट करने के लिए उपशीर्षकों की योजना की गई है और एतद् अनुसार ही विस्तृत विषयानुक्रमणिका तैयार की गई है। (क) प्रथम महाधिकार : विस्तृत प्रस्तावनापूर्वक लोक का सामान्य निरूपण करने वाला प्रथम महाधिकार पांच गाथाओं के द्वारा पंच परमेष्ठियों की बन्दना से प्रारम्भ होता है किन्तु यहां अरहन्तों के पहले सिद्धों को नमस्कार किया गया है, यह विशेषता है। छठी गाथा में ग्रंथ रचना की प्रतिज्ञा है और ७ से ८१ गाथाओं में मंगल, निमित्त, हेतु, प्रमाण, नाम और कर्ता की अपेक्षा विशद प्ररूपणा की गई है। यह प्रकरण श्री बीरसेन स्वामिकृत षट्खण्डागम की धवला टीका (पु० १ पृ०-७१) से काफी मिलता जुलता है किन्तु जिस गाथा से इसका निर्देश किया है वह गाथा तिलोयपण्णत्ती से भिन्न है मंगल-णिमित्त-हेऊ परिमाणं णाम तह य कत्तारं। बागरिय धपि पच्छा, बक्खारणउ सस्थमाइरियो ॥धवला पु० १/पृ०७ गाथा ८२-८३ में ज्ञान को प्रमाण, ज्ञाता के अभिप्राय को नम और जीवादि पदार्थों के संव्यवहार के उपाय को निक्षेप कहा है। गाथा ८५-८७ में ग्रंथ प्रतिपादन की प्रतिज्ञा कर ८८-१० में ग्रन्थ के नव अधिकारों के नाम निर्दिष्ट किये गये हैं। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५. गाथा ९१ से १०१ तक उपमा प्रमाण के भेद प्रभेदों से प्रारम्भ कर पत्य, स्कन्ध, देश, प्रदेश, परमाणु आदि के स्वरूप का कथन किया गया है । अनन्तर १०२ से १३३ गाथा तक कहा गया है कि अनन्तानन्त परमाणुओं का उवसन्नासप्त स्कन्ध, आठ उवसन्नासन्नों का सन्नासन्न, आठ सन्नासनों का त्रुटिरे, आठ का घाट का शुश्राव रथरेणुओं का उत्तमभोगभूमिजबाला, इसी प्रकार उत्तरोतर आठ-आठ गुणित मध्यभोगभूमिजबाला, जघन्यभोगभूमिजबालाग्र, कर्मभूमिजबालाय, लीख, जूं ं, जो और उत्सेधांगुल होता है। पांच सौ उत्सेधां गुलों का एक प्रमाणांगुल होता है । भरतऐरावत क्षेत्र में भिन्न-भिन्न काल में होने वाले मनुष्यों का अंगुल आत्मांगुल कहा जाता है । इनमें उत्सेधांगुल से नर-नारकादि के शरीर की ऊँचाई और चतुर्निकाय देवों के भवन व नगरादि का प्रमाण जाना जाता है । द्वीप-समुद्र, शैल, वेदी, नदी, कुण्ड, जगती एवं क्षेत्रों के विस्तारादि का प्रमाण प्रमाणांगुल से ज्ञात होता है । भृंगार, कलश, दर्पण, भेरी, हल, मूसल, सिंहासन एवं मनुष्यों के निवासस्थान व नगरादि तथा उद्यान श्रादि के विस्तारादि का प्रमाण श्रात्मांगुल से बतलाया जाता है | योजन का प्रमाण इस प्रकार है - ६ अंगुलों का पाद, २ पादों का वितस्ति, २ वितस्तियों का हाथ, २ हाथ का रिक्कु, २ रिक्कुओं का धनुष २००० धनुष का कोस श्रौर ४ कोस का एक योजन होता है । उपर्युक्त वर्णन करने के बाद ग्रन्थकार अपने प्रकृतविषय- लोक के सामान्य स्वरूप --- का कथन करते हैं । अनादिनिधन व छह द्रव्यों से व्याप्त लोक - अधः मध्य और ऊर्ध्व के भेद से विभक्त है । ग्रंथकार ने इनका आकार-प्रकार, विस्तार, क्षेत्रफल व घनफल आदि विस्तृत रूप में वर्णित किया है । अधोलोक का आकार बेत्रासन के समान, मध्यलोक का आकार, खड़े किये हुये मृदंग के ऊर्ध्वभाग के समान और ऊर्ध्वलोक का आकार खड़े किये हुए मृदंग के समान है । (गा. १३० - १३८ ) । आगे तीनों लोकों में से प्रत्येक के सामान्य, दो चतुरस्र ( ऊर्ध्वायत और तिर्यगायत ), यव, मुरज, यत्रमध्य, मन्दर, दृष्य और गिरिकटक ये आठ भाव भेद करके उनका पृथक्-पृथक् घनफल निकाल कर बतलाया है । यह सम्पूर्ण विषय जटिल गति से सम्बद्ध है जिसका पूर्ण खुलासा प्रस्तुत संस्करण में विदुषी टीकाकर्त्री माताजी चित्रों के माध्यम से किया है । रुचिशील पाठक के लिए अब यह जटिल नहीं रह गया है | गाथा ६१ की संदृष्टि ( = १६ ब ख ख ) को विशेषार्थ में पूर्णतः स्पष्ट कर दिया गया है । महाधिकार के अन्त में तीन वातवलयों का आकार और भिन्न-भिन्न स्थानों पर उनकी मोटाई का प्रमाण (२७१ - २६५) बतलाया गया है । अन्त में तीन गद्य खण्ड हैं । प्रथम गद्यखण्ड लोक के पर्यन्तभागों में स्थित वातवलयों का क्षेत्र प्रमाण बताता है। दूसरे गद्यखण्ड में आठ पृथिवियों के नीचे स्थित बातक्षेत्रों का घनफल निकाला गया है। तीसरे खण्ड में आठ प्रविवियों Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का घनफल बतलाया है । वातवलयों को मोटाई दर्शाने के लिए ग्रंथकार ने 'लोकविभाग' ग्रंथ से एक पाठान्तर (गा. २८४) भी उद्धृत किया है । अन्त में कहा है कि वातरुद्ध क्षेत्र और पाठ पृथिवियों के घनफल को सम्मिलित कर उसे सम्पूर्ण लोक में से निकाल देने पर शुद्ध प्रकाश का प्रमाण प्राप्त होता है । मंगलाचरणपूर्वक ग्रन्थ का अंत होता है । इस अधिकार में ७ करण सूत्रों ( गा. ११७, १६५, १७६, १७७, ११, १६३, १९४) का उल्लेग्न हुआ है तथा गा. १६८-६९ और २६४-६६ के भावों को संक्षेप में व्यक्त करने वाली दो सारणियां बनाई गई हैं। मुलबिद्री और जैनबद्री में उपलब्ध ताडपत्रीय प्रतियों में गाथा १३८ के बाद दो गाथाएँ और मिलती हैं किंतु, इनका प्रसंग बुद्धिगम्य न होने से इनका उल्लेख अध्याय के अन्तर्गत नहीं किया गया है । गाथाएं इस प्रकार हैं वासुच्छोहायाम, सेहि-पमाणेण ठावये खेत । से माझे बहुलायो, एकपवेसेण मेहियो पदरं ॥ E। गहिदूण घबट्टावि य र सेविस्स सत्त भागोत्ति । तस्स य वासायामो कापम्या सत्त मणि ॥ (ख) द्वितीय महाधिकार : नारकलोक नामके इस महाधिकार में कुल ३७१ पद्य हैं । गद्य-भाग नहीं है । चार इन्द्रवजा और एका स्वागता छन्द है शेष ३६६ गाथाएँ हैं। मंगलाचरण में अजितनाथ भगवान को नमस्कार कर ग्रंथकार ने आगे की चार गाथाओं में पन्द्रह अन्तराधिकारों का निर्देश किया है। पूर्व प्रकाशित संस्करण से इस अधिकार में चार गाथाएँ विशेष हैं जो द और ब प्रतियों में नहीं हैं। ग्रंथकार के निर्देशानुसार १५ थे अन्तराधिकार में नारक जीवों में योनियों की प्ररूपणा वणित है, यह गाथा छुट गई थी। कानडी प्रतियों में यह उपलब्ध हुई है (गाथा सं० ३६५) । इसी प्रकार नरक के दुःखों के वर्णन में भी गाथा सं०३३१ और ३३२ विशेष मिली हैं। पूर्व प्रकाशित संस्करण के पृ. १२. पर मुद्रित गाथा १८८ में अर्ध योजन के छह भागों में से एक भाग कम श्रेणीबद्ध बिलों का परस्थान अन्तराल कहा गया है । जो गणित की दृष्टि से वैसा नहीं है। कन्नड़ प्रति के पाठ भेद से प्रस्तुत संस्करण के पृ० २०८ पर इसे सही रूप में रखा गया है। छठी पृथ्वी के प्रकीर्णक बिलों के अन्तराल का कथन करने वाली गाथा भी पूर्व संस्करण में नहीं थी, वह भी कानड़ी प्रतियों में मिली है । (गाथा सं० १६४)। इस प्रकार कमियों की पूर्ति होकर यह अधिकार Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब पूर्ण हुआ ऐसा माना जा सकता है । पूर्वमुद्रित संस्करण में गाथा ३४५ का हिन्दी अनुवाद करते हुए अनुवादक महोदय ने लिखा है कि-"रत्नप्रभा पृथिवी से लेकर प्रन्तिम पृथिवी पर्यन्त अत्यन्त सड़ा, अशुभ और उत्तरोत्तर प्रसंख्यातगुणा ग्लानिकर अन्न आहार होता है।" यह अर्थ ग्राह्य नहीं हो सकता क्योंकि नरकों में अन्नाहार है ही नहीं। प्रस्तुत संस्करण में टीकाक: माताजी ने इसका अर्थ 'अन्य प्रकार का ही आहार' (गाथा ३४८) किया है । यह संगत भी है । पूज्य माताजी ने ७ सारणियों और दो चित्रों के माध्यम से इस अधिकार को और सुबोध बनाया है। ग्रन्थकर्ता आचार्य ने पूरी योजनापूर्वक इस अधिकार का गठन किया है। गाथा ६-में असनाली का निर्देश है । गाथा ७-८ में प्रकारान्तर से उपपाद और मारणान्तिक समुद्घात में परिणत अस और लोकपूरण समुद्घातगत केवलियों की प्रपेक्षा समस्तलोक को ही त्रसनाली कहा है। गाथा १ से १६५ तक नारकियों के निवास क्षेत्र सातों पृथिवियों में स्थित इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलों के नाम, विन्यास, संख्या, विस्तार, बाहल्य एवं स्वस्थान-परस्थान रूप अन्तराल का प्रमाण निरूपित है । गाथा १९६-२०२ में नारकियों की संख्या, २०३-२१६ में उनकी श्रायु, २१७-२७१ में उनका उत्सेध तथा गाथा २७२ में उनके अवधिशान का प्रमारप कहा है। गाथा २७३-२८४ में नारकी जीवों में सम्भव गुणस्थानादि बीस प्ररूपरणाओं का निर्देश है 1 गाथा २८५-२८७ में नरकों में उत्पद्यमान जीवों की व्यवस्था, गाथा २८८ में जन्म-मरण के अन्तराल का प्रमाण, गाया २८९ में एक समय में जन्म-मरण करने बालों का प्रमाण, माथा २१०-२६३ में नरक से निकले हुए जीवों की उत्पत्ति का कथन, गाया २६४-३०२ में नरकायु के बन्धक परिणामों का कथन और गा०३०३ से ३१३ तक नारकियों की जन्मभूमियों का वर्णन है। गाथा ३१४ से ३६१ तक नरकों के घोर दुःखों का वर्णन है। गाथा ३६२-६४ में नरकों में सम्यक्त्वग्रहण के कारणों का निर्देश है और गाथा ३६५ में नारकियों की योनियों का कथन है। अन्तिम मंगलाचरण से पूर्व के पांच छन्दों में यह बताया गया है कि जो जीव मद्य-मांस का सेवन करते हैं, शिकार करते हैं, असत्य वचन बोलते हैं, चोरी करते हैं, परधनहरण करते हैं, रात दिन विषय सेवन करते हैं, निर्लज्जतापूर्वक परदारासक्त होते हैं, दूसरों को ठगते हैं बे तीन दुःख को उत्पन्न करने वाले नरकों में जाकर महान् कष्ट सहते हैं। अंतिम गाथा में भगवान सम्भवनाथ को नमस्कार किया गया है। (ग) तृतीय महाधिकार : ___ भवनवासी लोकस्वरूप निरूपण प्रजप्ति नामक तीसरे महाधिकार में पूर्व प्रकाशित संस्करण में कुल २४३ पद्य हैं । गाथा संख्या २४ से २७ नक गाथाओं का पाठ इस प्रकार है Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपमहनियमतिमभावणदेवाण होति भवणाणि । दुगवावालसहस्सा लक्खमधोधो खिदीय गंसा ॥२४॥ २०००/४२०००/१००००० अपमहद्धिसमजिसमभावणदेवाण वासविस्थारो । समचउरस्सा पक्षणा घज्जामपहारसजिया सम्धे ॥२५॥ बहल सिसयाण संखासखेज जोयगा यासे । संखेज्जचदभवणेसु भवणदेवा धर्मति संखेना ॥२६॥ संखातीवा सेयं छत्तीसपुरा य होषि संखेमा (?) भमणसरूया एवं वित्थारा होइ जाणिज्जो ॥२७॥ भवणवाणणं सम्मत। कन्नड़ की साड़पत्रीय प्रतियों में इस पाठ की संरचना इस प्रकार है जो पूर्णतः सही है और इसमें भ्रान्ति (?) की सम्भावना भी नहीं है । हाँ, इस पाठ से एक गाथा अवश्य कम हो गई है । अप-मह द्धिय-मजिसम-भावण-देवाण होंति भवपाणि । दुग-बाशाल सहस्सा लक्खमयोधो खिदौए गंतुणं ॥२४॥ २००० ४२००० /१००००० ॥ अप्पमहविय-मजिसम-भाषण-घेवाण-णिवास-खेत समतं ॥९॥ समघउरस्सा भरणा वाजमया-वार-बज्जिया सम्वे । यहलते ति-सयाणि संखासंखेज जोयणा वासे ॥२५॥ संखेज्ज-रद-भवणेसु भवण देवा घसंति संखेजा। संखातीवा चासे अच्छती सुरा असंखेज्जा ॥२६॥ भवणसहवं समत्ता १०॥ इस प्रकार कुल २४२ गाथाएँ रह गई हैं। ताड़पत्रीय प्रतियों में १२ गाथाएँ नवीन मिली हैं अतः प्रस्तुत संस्करण में इस अधिकार में २४२+१२-२५४ गाथाएँ हुई हैं। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष ध्यान रखने योग्य : ___ यों तो इस अधिकार में कुल २५४ गाथाएं ही हैं। परन्तु भूल से 'गाथा सं. ६४' क्रम में किस होने से ग्रह नाई है पार्थात् माथा संख्या ६३ के बाद गाथा संख्या ६५ अंकित कर दिया गया है ( गाथा नहीं छूटी है केवल क्रम संख्या ६४ छूट गई है।) और यह भूल अधिकार के अन्त तक चलती रही है जिससे २५४ गाथाओं के स्थान पर कुल गाथाएँ २५५ अंकित हुई है। इसी क्रम संख्या को मानने से सारे सन्दर्भ आदि भी इसी प्रकार । दिए गये हैं । अतः पाठकों से अनुरोध है कि वे इस भूल को ध्यान में रखते हुए गाथा सं० A६३ को ही ६३-६४ समझे ताकि अन्य सन्दर्मों में भ्रान्ति न हो तथापि अधिकार में कुल । - २५४ गाथायें ही माने । इस बड़ी भूल के लिए हम विशेष क्षमाप्रार्थी हैं। REरपORAKED मन- मस्या इस तीसरे महाधिकार में कुल २५५ पद्य हैं। इनमें दो इन्द्रवज्रा ( छ. सं. २४०, २५३ ) और ४ उपजाति ( २१५-१६, २४१, २५४ ) तथा शेष गाथा छन्द हैं। पूर्व प्रकाशित ( सोलापुर) प्रति के तीसरे अधिकार से प्रस्तुत संस्करण के इस तीसरे अधिकार में गाथा सं० १०७, १८६-१८७, २०२, २२२ से २२७ तथा २३२-२३३ इस प्रकार कुल १२ गाथाएं मवीन हैं जिनसे प्रसंगानुकल विषय की पूर्ति हुई है और प्रवाह अवरुद्ध होने से बचा है। गाथा सं० १८६ और १५७ केवल मूलबिद्री की प्रति में मिली हैं अन्य प्रतियों में नहीं हैं । टीकाकी माताजी ने इस अधिकार को एक चित्र और ७ सारणियों । तालिकाओं से अलंकृत किया है। गाथा सं. ३६ में कल्पवृक्षों को जीवों की उत्पत्ति एवं विनाश का कारण कहा है, यह मन्तव्य बड़े प्रयत्न से ही समझ में आया है। इस महाधिकार में २४ अन्तराधिकार हैं । अधिकार के आरम्भ में (गाथा १ ) अभिनन्दन स्वामी को नमस्कार किया गया है और अन्त में (गाथा २५५) सुमतिनाय स्वामी को । गाथा २ से ६ में चौबीस अधिकारों का नाम निर्देश किया गया है। गाथा ७.८ में भवनवासियों के निवासक्षेत्र, गा. ६ में उनके भेद, गाथा १० में उनके चिह्न, ११-१२ में भवनों की संख्या, १३ में इन्द्रसंख्या व १४-१६ में उनके नाम, १७-१६ में दक्षिणेन्द्रों और उत्तरेन्द्रों का विभाग, २०-२३ में भवनों का वर्णन २४ में अल्पद्धिक, महद्धिक व मध्यमऋद्धिधारक देवों के भवनों का विस्तार, २५-२६ में भवनों का विस्तार एवं उनमें निवास करने वाले देवों का प्रमाण, २७-३८ में वेदी, ३९-४१ में कूट, ४२-५४ में जिनभवन, ५५-६१ में प्रासाद, ६२ से १४३ में इंद्रों की विभूति, १४४ में संख्या, १४५-१७६ में Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायु, १७७ में शरीरोस्सेध, १७८-१८३ में उनके अवधिज्ञान के क्षेत्र का प्रमाण, १५४ से १६६ में भवनवासियों के गुणस्थानादिकों का वर्णन, १६७ में एक समय में उत्पत्ति व मरण का प्रमाण, १६८-२७० में आगतिनिर्देश व २०१ से २५० में भवनवासी देवों की आयु के बन्धयोग्य परिणामों का विस्तृत वर्णन हुआ है। भवनवासी देव देवियों के शरीर एवं स्वभावादि का निरूपण करते हुए प्राचार्यश्री यतिवृषभ जी ने लिखा है कि "वे सब देव स्वर्ण के समान, मल के संसर्ग से रहित, निर्मलकान्ति के धारक, सुगन्धित निश्वास से संयुक्त, अनुपम रूपरेखा वाले, समचतुरस्रा शरीर संस्थान बाले लक्षणों और व्यंजनों से युक्त, पूर्ण चन्द्रसदृश सुन्दर महाकान्ति वाले और नित्य ही (युवा) कुमार रहते हैं, वैसी ही उनकी देवियां होती हैं। ( १२६-१२७) "वे देव-देवियां रोग एवं जरा से विहीन, अनुपम बलवीर्य से परिपूर्ण, किंचित् लालिमायुक्त हाथ पैरों सहित, कदलीघात से रहित, उत्कृष्ट रत्नों के मुकुट को धारण करने वाले ! उत्तमोत्तम विविध प्रकार के प्राभूषणों से शोभायमान, मांस-हड्डी-मेद-लोहू-मज्जा वसा और शुक्र आदि धातुओं से विहीन, हाथों के नख एवं बालों से रहित, अनुपम लावण्य तथा दीप्ति से परिपूर्ण और अनेक प्रकार के हाव भावों में आसक्त रहते हैं ।” ( १२८-१३०) प्रायुबन्धक परिणामों के सम्बन्ध में लिखा है कि-"ज्ञान और चारित्र में दृढ़ शंका सहित, संक्लेश परिणामों वाले तथा मिथ्यात्वभाव से युक्त कोई जीव भवनवासी देवों सम्बन्धी आयु को बांधते हैं । दोषपूर्ण चारित्रवाले, उन्मार्गगामी, निदानभावों से युक्त, पापासक्त, कामिनी के विरह रूपी ज्वर से जर्जरित, कलहप्रिय संजी असंज्ञी जीव मिथ्यात्वभाव से संयुक्त होकर भवनवासी देवों में उत्पन्न होते हैं । सम्यग्दृष्टि जीव इन देवों में कदापि उत्पन्न नहीं होता। असत्यभाषी, हास्यप्रिय एवं कामासक्त जीव कन्दर्प देवों में उत्पन्न होते हैं । भूतिकर्म, मन्त्राभियोग और कौतुहलादि से संयुक्त तथा लोगों की वंचना करने में प्रवृत्त जीव वाहन देवों में उत्पन्न होते हैं। तीर्थकर, संघ, प्रतिमा एवं आगमग्रन्थादिक के विषय में प्रतिकूल, दुविनयी तथा प्रलाप करने वाले जीव किल्विषिक देवों में उत्पन्न होते हैं। उन्मार्गोपदेशक, जिनेन्द्रोपदिष्ट मार्ग के विरोधी और मोहमुग्ध जीब सम्मोह जाति के देवों में उत्पन्न होते हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ में आसक्त, ऋ राचारी तथा बैरभाव से संयुक्त जीव असुरों में उत्पन्न होते हैं । ( २०१-२१० ) जन्म के अन्तर्मुहूर्त बाद ही छह पर्याप्तियों से पूर्ण होकर अपने अल्प विभंगज्ञान से वहाँ उत्पन्न होने के कारण का विचार करते हैं और पूर्वकाल के मिथ्यात्व, क्रोधमानमायालोभ रूप कषायों में प्रवृत्ति तथा क्षणिक सुखों की आसक्ति के कारण देशचारित्र और मकलचारित्र के परित्याग Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ रूप प्राप्त हुई अपनी तुच्छ देवपर्याय के लिए पश्चात्ताप करते हैं । (२११-२२२ ) तत्काल मिथ्यात्व भाव का त्याग कर सम्यक्त्वो होकर महाविशुद्धिपूर्वक जिनपूजा का उद्योग करते हैं । (२२३-२२५) स्नान करके (२२६), प्राभूषणादि (स.) को सजिगहेका व्यापार में प्रविष्ट होते हैं और पूजा व अभिषेक के योग्य द्रव्य लेकर देवदेवियों के साथ जिनभवन को जाते हैं । ( २२८-२६) । वहाँ पहुंच कर देवियों के साथ बिनीत भाव से प्रदक्षिणापूर्वक जिनप्रतिमाओं का दर्शन कर जय-जय शब्द करते हैं, स्तोत्र पढ़ते हैं और मन्त्रोच्चारणपूर्वक जिनाभिषेक करते हैं । (२३००२३३) अभिषेक के बाद उत्तम पटह, शङ्क, मृदंग, घण्टा एवं काहलादि बजाते हुए ( गा० २३४) वे दिव्य देव भारी, कलश, दर्पण, तीनछत्र और चामरादि से, उत्तम जलधाराओं से, सुगन्धित गोशोर मलयचन्दन और केशर के पंकों से, अखण्डित तन्दुलों से, पुष्पमालाओं से, दिव्य नैवेद्यों से. उज्ज्वल रत्नमयी दीपकों से, धूप से और पके हुए कटहल, केला, दाडिम एवं दाल आदि फलों से (प्रष्ट द्रव्य से ) जिन पूजा करते हैं । ( २३५-२३८ ) पूजा के अन्त में अप्सरानों से संयुक्त होकर नाटक करते हैं और फिर निजभवनों में जाकर अनेक सुखों का उपभोग करते हैं ( २३६-२५०)। अविरत सम्पष्टि देव तो समस्त कर्मों के क्षय करने में अद्वितीय कारण समझ कर नित्य ही अनन्तगुनी विशुद्धिपूर्वक जिनपूजा करते हैं किन्तु मिथ्यादृष्टि देव भी पुराने देवों के उपदेश से जिनप्रतिमाओं को कुलाधिदेवता मान कर नित्य ही नियम से भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करते हैं । (२४०-२४१) गाथा २५१-२५२ में आचार्यश्री ने भवनवासियों में सम्यक्त्वग्रहण के कारणों का निर्देश किया है और गा० २५३-५४ में भवनवासियों में उत्पत्ति के कारण बतलाते हुए लिखा है-"जो कोई प्रज्ञान तप से युक्त होकर शरीर में नाना प्रकार के कष्ट उत्पन्न करते हैं तथा जो पापी सम्यग्ज्ञान से युक्त तप को ग्रहण करके भी दुष्टः विषयों में आसक्त होकर जला करते हैं, वे सब विशुद्ध लेश्याओं से पूर्व में देवायु बांधकर पश्चात् क्रोधादि कषायों द्वारा उस आयु का घात करते हुए सम्यक्स्वरूप सम्पत्ति से मन को हटा कर भवनवासियों में उत्पन्न होते हैं।" (गा० ५३.५४ ) गाथा २५५ में सुमतिनाथ भगवान को नमस्कार कर अधिकार की समाप्ति की गई है। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करण-सूत्र : प्रथम अधिकार १७७/४८ ara assपमा तस्य माणं १९४/६० भुजपडिभुजमिलिदद्ध १८१/५२ भूमी मुहं सोहिय १७६/४८ भूमीए मुहं सोहिय १६३/६० मुह-भू-समासमयि १६५/४३ समव वासवग्गे ११७/२५ = पदवर पदर हिदं ८१ / १६५ ७. प्रस्तुत संस्करण में प्रयुक्त विविध महत्त्वपूर्ण संकेत : श्री ज = प्रतर = = १६ १६ ख - सम्पूर्ण पुद्गल ( की परमाणु) राशि = त्रिलोक सम्पूर्ण जीवराशि १६ ख ख= सम्पूर्ण काल ( की समय ) राशि १६ ख ख ख = सम्पूर्ण श्राकाश ( की प्रदेश ) राशि 50 = • ३ शून्य ००० 19 - = संख्यात रि= श्रसंख्यात जी योजन 56 | वर्गमूल (गाथा २ / २८६ ) १९६-२०२ द्वितीय अधिकार चयदलहद संकलिद ८५ / १६७ यदमिच्छूरापदं ६४ / १५८ यह मिट्ठाधियपद ७० / १६१ सुचयहृदं संकलि ८६ / १६८ पददल हद बेकपदा ८४ / १६६ पददल दिसंकलि८३/१६६ पदवां चयपहृदं ७६/१६३ उ रज्जु १२ = ४२ कुछ कम ( गा० २ / १६६) पोषण सा=सागरोपम सू सूच्यंगुल प्र • प्रतरांगुल घ - घनांगुल ज जगच्छ्रेणी लोय प= लोकप्रतर भू - भूमि को = कोस दं दण्ड से = शेष ܚܫܚ हहस्त अं - अंगुल घ धनुष तृतीय अधिकार गच्छस मे गुरणारे ८०/२८७ इ इन्द्रक सेढ़ी : श्रेणीबद्ध प्रo प्रकीर्णक मु = मुहूर्त दिदिन मा=माह Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. पाठान्तर: १/२८४/११६ ( लोकविभाग) २/२३/१४५ वातवलयों की मोटाई * शर्कराप्रभादि पृथिवियों का बाहल्य ह. चित्र विवरण ऋ० सं० विषय अधिकार गाथा सं० पृष्ठ संख्या १४१-१४३ १४५-१४७ १४६-१५० १७६ लोक की प्राकृति अधोलोक की आकृति लोक का उत्सेध और विस्तार १ लोकरूप क्षेत्र की मोटाई लोक की उत्तर दक्षिण मोटाई, पूर्वपश्चिम चौड़ाई और ऊँचाई १ ऊध्र्वलोक के आकार को अधोलोक के सदृश बेवासनाकार करना १ सात पृथ्वियों के व्यास एवं घनफल १ पूर्व पश्चिम से अधोलोक की आकृति अधोलोक की ऊंचाई की प्राकृति १ अधोलोक में स्तम्भ-बाह्य छोटी भुजायें ऊर्ध्वलोक के दस क्षेत्रों (के ध्यास) की प्राकृति ऊर्बलोक के स्तम्भों की प्राकृति १ ऊर्ध्व लोक की पाठ क्षुद्र भुजाओं की आकृति सामान्य लोक का अनफल १८० १५४ १६६-१९७ २०० २०३-२०७ २१७ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र० सं० १५. १६ १७ १८ १९ ૩૦ २१ २२ २३ २४ २५ २६ २७ २८ २६ ३० ३१ ३२ ३३ ૩૪ ३५ ३६ ३७ ३८ ३६ विषय लोक का प्रायत चौरस क्षेत्र लोक का नियंगायत क्षेत्र लोक में यवमुरजाकृति लोक में यवमध्यक्षेत्र की आकृति १ लोक में मन्दरमेरु की आकृति लोक की दूष्याकार रचना लोक में गिरिकटक की प्रकृति सामान्य अधोलोक एवं ऊद्धयित अधोलोक तिर्यगायत अधोलोक * अधिकार दृथ्य ऊर्ध्वलोक गिरिकटक ऊर्ध्वलोक लोक के सम्पूर्ण वातचलय लोक के नीचे तीनों पवनों से अवरुद्ध क्षेत्र अधोलोक के पार्श्वभागों का घनफल $ १ १ अधोलोक की मुरजाकृति १ यवमध्य अधोलोक मन्दरमेरु अधोलोक की प्राकृति १ वष्य अधोलोक १ गिरिकटक अधोलोक ऊर्ध्वलोक सामान्य ऊर्ध्यायत चतुरस्रक्षेत्र तिर्यगायत चतुरस्रक्षेत्र अबमुरज ऊध्र्वलोक यवमध्य ऊर्ध्वलोक मन्दरमेय ऊर्ध्वलोक की आकृति १ १ १ १ १ १ १ गाथा सं २१७ २१७ २१८-२२० २२१ २२२ २३४ २३६ २३८ २३८ २३९ २४० २४३-४४ २५०-५१ २५०-५१ २५४ २५४ २५५-५६ २५५-५६ २५७ २५७ २६६ २६६ २७६ T पृष्ठ संख्या 9 १६७४ ७५ ७७ ७८ ८४ ८६ ८८ ८६ ९० ९१ ६४ ६७ EE १०१ १०२ १०३ १०४ १०५ १०६ ११० १११ ११५ १२० १२१-१२३ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम सं ४० ४१ विषय लोक के शिखर पर वायुरुद्ध क्षेत्र का घनफल लोकस्थित आठ पृथिवियों के वायुमण्डल लोक का सम्पूर्ण वनफल लोक के शुद्धाकाश का प्रमाण सीमन्त इंद्रक व विक्रांत इंद्रक चैत्यवृक्षों का विस्तार ४२ ४३ ૪૪ ४५ विविध तालिकायें : ४५. अधिकार १ १ १ १ २ ३ विषय १ सौधर्म स्वर्ग से सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त क्षेत्रों का घनफल २ मन्दर ऊर्ध्वलोक का घनफल ३ नरक - पृथिवियों की प्रभा, बाहुल्य एवं बिल संख्या ४ सर्व पृथिवियों के प्रकीर्णक बिलों का प्रमारण ५. सर्व पृथिवियों के इन्द्रकों का विस्तार ६ इंद्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलों के बाहल्य का प्रमाण ७ इन्द्र, श्रेणीबद्ध एवं प्रकीर्णक बिलों का स्वस्थान, परस्थान अन्तराल सातों नरकों के प्रत्येक पटल की जघन्य उत्कृष्ट आयु का विवरण & सातों नरकों के प्रत्येक पटल स्थित नारकियों के शरीर के उत्सेध का विवरण १० भवनवासी देवों के कुल, चिह्न, भवन सं. आदि का विवरण ११ भवनवासी इन्द्रों के परिवार देवों की संख्या १२ भवनवासी इन्द्रों के अनीक देवों का प्रमारण १३ भवनवासी इन्द्रों की देवियों का प्रमाण १४ भवनवासी इंद्रों के परिवार देवों की देवियों का प्रमाण गाथा सं० I │││**** ન २१ पृ० पृ० ६३ पृ० १०६ पृ० १४६ १७२ १९४-१९५ १९६-१६७ २१३ २२१-२२२ २३८-२३६ २७१ २८५ २६० २९४ २६७ पृष्ठ संख्या १२६ १३२ १३७ १३८ १५१ २७४ अधिकार/गाथा १/११८-१९ १ / २६४-२६६ २/६.२१-२३,२७ २ / ६४ २/ १०८-१५६ २/ १५७-१५८ २/१६४-१९५ २/२०३-२१६ २/२१७-२७१ ३/६-२१ ३/६२-७६ २/८१-८६ ३/९०-६६ ३/१००-१०० Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय अधिकार/गाथा १५ भवनवासी देवों के आहार एवं श्वासोच्छ्वास का अन्तराल तथा चैत्यवृक्षादि का विवरण ३/१११-१३७ १६ भवनवासी इन्द्रों की (सपरिवार) आयु के प्रमाण का विवरण ३१२-१३ ३/१४४-१६० ११. आभार : 'तिलोयपण्णत्ती' जैसे विशालकाय ग्रन्थ के प्रकाशन की योजना में अनेक महानुभावों का हमें भरपूर सहयोग और प्रोत्साहन मिला है। प्रथम खण्ड के प्रकाशनावसर पर उन सबका कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करना मेरा नैतिक कर्तव्य है। परम पूज्य प्राचार्य १०८ थी धर्मसागरजी महाराज एवं प्राचार्य कल्प १०८ श्री श्रुतसागरजी महाराज के प्राशीर्वचन इस सम्पूर्ण महदनुष्ठान में मुझे प्रेरित करते रहे हैं. इन साधु-गादों के चरणों में सविनय सादर नमोस्तु निवेदन करता हुआ उनके दीर्घ नीरोग जीवन की कामना करता हूं। पूज्य भट्टारक द्वय-मूडबिद्री मठ और श्रवणबेलगोला मठ–को भी सादर वन्दना निवेदित करता हूं जिनके सौजन्य से हमें क्रमश: पाठान्तर और लिप्यन्तरण प्राप्त हो सके ताड़पत्रीय कानड़ी प्रसियों से पाठान्तर व लिप्यन्तरण भेजने वाले पण्डित द्वय श्री देवकुमारजी शास्त्री, मूडबिद्री व श्री एस. बी. देवकुमारजी शास्त्री, श्रवणबेलगोला का भी मैं अत्यन्त आभारी हूं; उनके सहयोग के बिना तो प्रस्तुत संस्करण को यह रूप कदापि मिल ही नहीं सकता था। अन्य हस्तलिखित प्रतियां प्राप्त करने में डॉ० कस्तूरचंदजी कासलीवाल (जयपुर), श्री रतनलालजी कामा (भरतपुर), पं० अरुणकुमारजी शास्त्री (व्यावर) श्री हरिचन्दजी ( उज्जैन ) और श्री विशम्बरदास महावीर प्रसाद जैन सर्राफ। दिल्ली) का सहयोग हमें प्राप्त हुआ। मैं इन सब महानुभावों का प्राभारी हूं। आदरणीय ब० कजोड़ीमलजी कामदार ( जोबनेर ) पूज्य माताजी के साथ संघ में ही रहते हैं । ग्रन्थ के बीजारोपण से लेकर इसके वर्तमानरूप में प्रस्तुतीकरण की अवधि में मापने धैर्यपूर्वक सभी व्यवस्थाएं जुटाकर मेरे भार को काफी हल्का किया है। मैं पापके इस उदार सहयोग के लिए आपका अत्यन्त अनुगृहीत हूं । ___ ग्रन्थ का नुरोवाक समाज के वयोवृद्ध विद्वान श्रद्धय डॉ. पन्नालालजी सा. साहित्याचार्य ने लिखकर मुझ पर जो अनुग्रह किया है, इसके लिए मैं उनका अत्यन्त आभारी हूं। पूज्य पण्डितजी की विद्वत्ता और सरलता से मैं अभिभूत हूं, मैं उनके दीर्घायुष्य की कामना करता हूं। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ प्रो० लक्ष्मीचन्द्रजी जैन, प्राचार्य शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, छिंदवाड़ा (म. प्र. ) ने "तिलोय पण्णत्ती का गणित विषय लिख भेजा है, एतदर्थ में उनका हार्दिक आभार मानता हूं । प्रोफेसर सा० जैन गणित के विशेषज्ञ हैं । जैनागम में भावकी टूट आस्था है । हस्तलिखित प्रतियों से पाठ का मिलान करने में और निर्णय लेने में हमें डॉ० उदयचन्दजी जैन, प्राध्यापक प्राकृत विभाग, उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर का भी प्रभूत सहयोग प्राप्त हुआ है। मैं राहें हार्दिक सम्वाद देता हूं - प्रस्तुत संस्करण में मुद्रित चित्रों को रचना श्री विमलप्रकाशजी अजमेर और श्री रमेशचन्द्र मेहता उदयपुर ने की है। वे धन्यवाद के पात्र हैं । विशेषार्थ पूर्वक ग्रंथ की सरल एवं सुबोध हिंदी टीका करने का श्रम तो पूज्य माताजी १०५ श्री विशुद्धमतीजी ने किया ही है साथ ही इस प्रकाशन - अनुष्ठान के संचालन का गुरुतर भार भी उन्होंने वहन किया है । उनका धैर्य, कष्टसहिष्णुता, त्याग तप और निष्ठा प्रशंसनीय एवं अनुकरणीय है। गत दो-ढाई वर्षों से वे ही इस महदनुष्ठान को पूर्ण करने में जुटी है, अनेक व्यवधानों के बाद यह प्रथम खण्ड ( प्रथम तीन अधिकार ) आज श्रापके हाथों में देकर हमें गौरव का अनुभव हो रहा है । दूसरा खण्ड (चतुर्थ अधिकार ) भी प्रेस में जाने को तैयार है; यदि अनुकूलता रही तो दूसरा और तीसरा दोनों खण्ड अगले दो वर्ष में प्रस्तुत कर सकेंगे। पूज्य माताजी ने इस ग्रंथ के सम्पादन का गुरुतर उत्तरदायित्व मुझे सौंप कर मुझ पर जो अनुग्रह किया है और मुझे जिनवाणी की सेवा का जो अवसर दिया है, उसके लिए मैं पू० आर्यिका श्री का चिरकृतज्ञ हूं । सततस्वाध्यायशीला पूज्य माताजी अध्ययन-अध्यापन में ही अपने समय का सदुपयोग करती हैं । यद्यपि अब प्रापका स्वास्थ्य अनुकुल नहीं रहता है तथापि आप अपने कर्त्तव्यों में सदैव दृढ़तापूर्वक संलग्न रहती हैं । पूज्य माताजी का रत्नत्रय कुशल रहे और स्वास्थ्य भी अनुकूल बने ताकि वे जिनवाणी के हार्द को अधिकाधिक सुबोध रीति से प्रस्तुत कर सकें यही कामना करता हूं । पूज्य माताजी के चरणों में शतशः वन्दामि निवेदन करता हूँ | ग्रन्थ के प्रकाशन का उत्तरदायित्व श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा ने बहन किया है एतदर्थ में महासभा के प्रकाशन विभाग एवं विशेष रूप से महासभाध्यक्ष श्री निर्मलकुमारजी सेठी को हार्दिक धन्यवाद देता हूं । 葑 ग्रन्थ का मुद्रण कमल प्रिन्टर्स मदनगंज - किशनगढ़ में हुआ है । दूरस्थ होने के कारण प्रूफ स्वयं नहीं देख सका हूं अतः यत्किचित् भूलें रह गई हैं । पाठकों से अनुरोध है कि वे स्वाध्याय से पूर्व शुद्धिपत्र के अनुसार श्रावश्यक संशोधन अवश्य कर लें । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितीय ग्रंथों का मुदण बस्तुतः जटिल कार्य है । अनेक तालिकायें, आकृतियां, जोड़-बाकी. गुणा-भाग तथा बटा-बटी की विशिष्ट संख्यायें आदि सभी इस ग्रंथ में हैं । प्रेस मालिक श्री पांचूलालजी धर्मनिष्ठ सुश्रावक हैं । उन्हें अनेक ग्रंथों के मुद्रण का अनुभव है। उन्होंने इस ग्रन्थ के मुद्रण में पूरी रुधि लेकर इसे बहुत ही सुन्दरतापूर्वक आपके हाथों में प्रेषित किया है । एतदर्थ वे अतिशय धन्यवाद के पात्र हैं। वस्तुतः अपने वर्तमान रूप में तिलोयपणत्ती (प्रथम खण्ड) की जो कुछ उपलब्धि है, वह सब इन्हीं श्रमशील पुण्यात्माओं की है । मैं इन सबका अत्यन्त आभारी हूं। सुधी गुणग्राही विद्वानों से अपनी भूलों के लिये क्षमा चाहता हूं। इत्यलम् वसन्त पंचमी, वि. सं. २०१० श्री पार्श्वनाथ जैन मन्दिर पास्त्री नगर जोधपुर ( राज) विनीतचेतनप्रकाश पाटनी सम्पादक दिनांक ७ फरवरी ८४ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती और उसका गणित (लेखक : लक्ष्मीचन्द्र जैन, प्राचार्य, शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय ) छिदवाड़ा (म०प्र०) आचार्य यतिवृषभ द्वारा रचित तिलोयपण्णत्ती करणानुयोग विषयक महान् नन्ध है जो प्राकृत भाषा में है । यह त्रिलोकवर्ती विश्व-रचना का सार रूप से गणित निबद्ध दर्शन कराने वाला अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है जिसका प्रथम बार सम्पादन दो भागों में प्रोफेसर हीरालाल जैन, प्रोफेसर ए. एन. उपाध्ये तथा पंडित बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री द्वारा १९४३ एवं १६५१ में सम्पन्न हुआ था । पूज्य आर्यिका श्री विशुद्धमती माताजी कृत हिन्दी टीका सहित अब इसका द्वितीय बार सम्पादन हो रहा है जो अपने आपमें एक महान् कार्य है, जिसमें विगत सम्पादित ग्रंथों का परिशोधन एवं विश्लेषण तथा अन्य उपलब्ध हस्तलिखित प्रतियों द्वारा मिलान किया जाकर एक नवीन, परम्परागत रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। तिलोयपणती ग्रन्थ का विशेष महत्त्व इसलिए है कि कर्मसिद्धान्त एवं अध्यात्म-सिद्धान्तविषयक ग्रन्थों में प्रवेश करने हेतु इस ग्रंथ का अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है। कर्म परमाणुओं द्वारा आत्मा के परिणामों का दिग्दर्शन जिस गणित द्वारा प्रबोधित किया जाता है, उस गणित की रूपरेखा का विशेष दूरी तक इस ग्रंथ में परिचय कराया गया है । इसप्रकार यह ग्रंथ अनेक ग्रन्थों को भलीभांति समझने हेतु सुदृढ़ प्राधार बनता है। यतिवृषभाचार्य की दो कृतियां निविवाद रूप से प्रसिद्ध मानी गई हैं जो क्रमशः कसरयपाइडमुत्त पर रचित चूणिसूत्र और तिलोयपणाती हैं । प्राचार्य आर्यमक्ष एवं आचार्य नागहस्ति जो "महाकम्मपडि पाहुद्ध" के ज्ञाता थे उनसे यतिवृषभाचार्य ने कसायपाहुड के सूत्रों का व्याख्यान ग्रहण किया था, जो 'पेज्जदोसपाहुड' के नाम से भी प्रसिद्ध था। आचार्य वीरसेन ने इन उपदेशों को प्रवाहझम से आये घोषित किया है तथा प्रवाहमान भी कहकर यथार्थ तथ्य रूप उल्लेषित किया है । आगे उन्होंने प्राचार्य प्रार्थमंक्षु के उपदेश को 'अपवाइज्जमारण' और आचार्य नागहस्ति के उपदेश को 'पवाइज्जत' कहा है। तिलोयपण्रपत्ती के रचयिता यतिवृषभाचार्य कितने प्रकांड विद्वान् थे यह चूणिसूत्रों तथा तिलोयषण्णत्ती की रचना-शैली से स्पष्ट हो जाता है । रचनाएँ वृत्तिसूत्र सथा चूर्णिसूत्र में हुमा Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करती थीं । वृत्तिमूत्र के शब्दों की रचना संक्षिप्त तथा सूत्रगत अशेष अर्थ संग्रह सहित होती थी। चूणिसूत्र की रचना भी संक्षिप्त शब्दाबलीयुक्त, महान् अर्थभित, हेतु निपात एवं उपसर्ग से युक्त, गम्भीर, अनेक पदसमन्वित, अव्यवच्छिन्न, धारा-प्रवाही हुआ करती थी। इसप्रकार तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि से निस्सृत बीजपदों को उद्घाटित करने में चूणिपद समर्थ कहलाता था। चूणिपद के बीजसूत्र विवृत्यात्मक सुबह होते में रण. श्यों को कोषिः। कालो भाले होते थे । इन सूत्रों द्वारा यनिवृषभाचार्य ने आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाधिकार इन पाँच उपक्रमों द्वारा अर्थ को प्रकट किया है । इसप्रकार उनकी शैली विभाषा सूत्र सहित, अवययार्थ वाली एवं पदच्छेद पूर्वक व्याख्यान वाली है। ऐसे कर्म-ग्रंथ के सार्वजनीन हित में प्रयुक्त होने हेतु उसका प्राधारभूत ग्रन्थ भी तिलोयपण्णत्ती रूप में रचा। इस ग्रन्थ में नौ अधिकार हैं : सामान्य लोक स्वरूप, नारकलोक, भवनवासीलोक, मनुष्यलोक, तिर्यग्लोक, व्यन्तरलोक, ज्योतिर्लोक, देवलोक और सिद्धलोक । इसप्रकार गणितीय, सुव्यवस्थित, संख्यात्मक विवरण संकेत एवं संदृष्टियों सहित इस सरल, लोकोपयोगी तथा लोकोत्तरोपयोगी अन्य की रचना अधिकांशरूप से पद्यात्मक तथा कहीं कहीं गद्य स्खण्ड, स्फुट शब्द या वाक्य रूप भी है। इसमें छन्दों का भी उपयोग हुआ है जो इन्द्रवज्रा, स्वागता, उपजाति, दोधक, शार्दूलविक्रीडित, बसन्ततिलका, गाथा, मालिनी नाम से ज्ञात हैं । इस ग्रन्थ में ग्रंथकार ने कहीं प्राचार्य परम्परा से प्राप्त और कहीं गुरुपदेश से प्राप्त ज्ञान का उल्लेख किया है । जिन ग्रंथों का उन्होंने उल्लेख किया है : आग्रायणी, परिकर्म, लोक विभाग, लोक विनिश्चय : वे अभी उपलब्ध नहीं हैं 1 इन ग्रन्थों में भी तिलोयपण्णत्ती के समान करणानुयोग की सामग्री रही होगी । कररणानुयोग-सम्बन्धी सामग्री जिसमें गरिणत सूत्रों का बाहुल्य होता है अर्धमागधी आगम विषयक सूर्यप्रज्ञप्ति (बम्बई १६१६ ), चन्द्रप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ( बम्बई १९२०) में भी मिलती है । साथ ही अन्य ग्रन्थों : लोक विभाग, तत्वार्थराजवातिक, धवला जयधवला टीका, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति संग्रह, त्रिलोकसार, त्रिलोकदीपिका ( सिद्धांतसार दीपक ) में भी करणानुयोग विषयकगणितीय सामग्री उपलब्ध है । सिद्धान्तसार दीपक ग्रंथ तथा त्रिलोकसार ग्रन्थ का अभिनवावधि में सम्पादन श्री आर्यिका विशुद्धमतीमाताजी ने अपार परिश्रम के पश्चात् विशुद्धरूप में किया है । डा० किरफेल द्वारा रचित डाइ कास्मोग्राफी देर इंडेर ( बान, लाइयजिग, १९२०) भी इस संबंध में दृष्टव्य है। यतिवृषभाचार्य के ग्रन्थ का रचनाकाल निर्णय विभिन्न विद्वानों ने अलग-अलग ढंग से अलग अलग किया है । डा. होरालाल जैन तथा डा० ए० एन० उपाध्ये ने उन का काल ईस्वी सन् ४७३ से लेकर ६०६ के मध्य निर्णीत किया है । यही काल निर्णय डेविड पिंगरी ने माना है। फिर भी इन Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ विद्वानों ने स्वीकार किया है कि अभी भी इस काल निर्णय को निश्चित नहीं कहा जा सकता है मोर श्रागे सुदृढ़ प्रमाण मिलने पर इसे निश्चित किया जाये । प्राचार्य शिवार्य, वट्टकेर, कुन्दकुन्द श्रादि ग्रंथरचयिताओं के वर्ग में यतिवृषभ प्राचार्य आते हैं जिनका ग्रंथ आगमानुसारी ग्रंथ समूह में श्राता है जो में संग्रहीत आगम के कुछ प्रार्थी द्वारा अप्रामाणिक एवं स्याज्य माने जाने के पश्चात् आचार्य परम्परा के ज्ञानाधार से स्मृतिपूर्वक लेख रूप में संग्रहीत किये गये । उनकी पूर्ववर्ती रचनाएं क्रमश: अग्गायणिय, दिट्टिवाद, परिकम्म, मूलायार, लोयविरिच्छय लोय विभाग लोगाइणि, रही हैं । १. गणित परिचय : सन् १९५२ के लगभग डा० हीरालाल जैन द्वारा मुझे तिलोयपण्णत्ती के दोनों भागों के गणित संबंधी प्रबन्ध को तैयार करने के लिए कहा गया था। इन पर तिलोयपत्ती का गणित' प्रबन्ध तैयार कर 'जम्बूदीवपण्णत्ती संगही' १६५८ में प्रकाशित किया गया । उसमें कुछ अशुद्धियाँ रह गईं थीं जिन्हें सुधार कर यह प्रायः १०५ पृष्ठों का लेख वितरित किया गया था। वह लेख सुविस्तृत था तथा तुलनात्मक एवं शोधात्मक था । यहाँ केवल रूपरेखायुक्त गणित का परिचय पर्याप्त होगा । तिलोयपण्णत्ती ग्रन्थ में जो सूत्रबद्ध प्ररूपण है उसमें परिणाम तथा गणितीय (करण) सूत्र दिये गये हैं तथा उनका विभिन्न स्थलों में प्रयोग भी दिया गया है । ये सूत्र ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है | श्रागम - परम्परा प्रवाह में आया हुआ यह गणितीय विषय अनेक वर्ष पूर्व का प्रतीत होता है । क्रियात्मक एवं रैखिकीय, अंकगणितीय एवं बीजगणितीय प्रतीक भी इस ग्रन्थ में स्फुट रूप से उपलब्ध है जिनमें से कुछ हो सकता है, नेमिचंद्राचार्य के ग्रन्थों की टीकाएँ बनने के पश्चात् जोड़ा गया हो । सिंहावलोकन के पश्चात् यह स्पष्ट हो जाता है कि जो गणित इस ग्रन्थ में वरिणत है वह सामान्य लोकप्रचलित गणित न होकर लोकोत्तर विषय प्रतिपादन हेतु विशिष्ट सिद्धान्तों को आधार लेकर प्रतिपादित किया गया है । यथा : संख्याओं के निरूपण में सख्यात, श्रसंख्यात एवं अनन्त प्रकार वाली संख्याएँ--राशियों का प्रतिनिधित्व करने हेतु निष्पन्न की गई है। उनके दायरे निश्चित किये गये हैं, उन्हें विभिन्न प्रकारों में उत्पन्न करने हेतु विधियाँ दी गई हैं, और उन्हें संख्यात से यथार्थ असंख्यात रूप में लाने हेतु असंख्यातात्मक राशियों संख्यानों को युक्त किया गया है। इसीप्रकार असंख्यात से यथार्थ अनन्तरूप में लाने के लिए संख्याओं को अनन्तात्मक राशियों से युक्त किया गया है । यह संख्याप्रमाण है। इसीप्रकार उपमा प्रमाण द्वारा राशियों के परिमाण का बोध किया गया है। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ जिसप्रकार असंख्यात एवं अनन्त रूप राशियाँ उत्पन्न की गई, जिनका दर्शन क्रमशः अवधिज्ञानी और केवलज्ञानी को होता है, उसीप्रकार उपमा प्रमाण में आने वाली प्रतिनिधि राशियाँ, अंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुल, जगच्छ्रेरणी, जगत्प्रतर, लोक, पल्य और सागर में प्रदेश राशियों और समय राशियों को निरूपित करती हैं जो द्रव्य प्रमाणानुगम में अनेक प्रकार की राशियों की सदस्य संख्या को बतलाती हैं । इसप्रकार प्रकृति में त्रिलोक में पायी जाने वाली अस्तिरूप राशियों का बोध इन रचनात्मक संख्या प्रमाण एवं उपमाप्रमाण द्वारा दिया जाता है । इसीप्रकार अल्पबहुत्व एवं धाराओं द्वारा राशि को सही सही स्थिति का बोध दिया जाता है । उपमा प्रमाण के आधारभूत प्रदेश और समय हैं । प्रदेश की परिभाषा परमाणु के आधार पर है। प्रभेद्य पुद्गल परमाणु जितना आकाश व्याप्त करता है उतने आकाशप्रमाण को प्रदेश कहते हैं । इसप्रकार अंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुल में प्रदेश संख्या निश्चित की गई है । इसीप्रकार जगच्छ्रेणी, जगत्प्रतर और घन लोक में प्रदेश संख्या निश्चित हैं । पल्य और सागर में जो समयराशि निश्चित की गई है, वह समय भी परिभाषित किया गया है। परमाणु जितने काल में मंद गति से एक प्रदेश का प्रतिक्रमण करता है अथवा जितने काल में तीव्र गति से जगच्छ्रेणी तय करता है वह समय कहलाता है । जिसप्रकार परमाणु अविभाजित है वैसे ही प्रदेश एवं समय की इकाई अविभाजित है । आकाश में प्रदेशबद्ध श्रेणियां मानकर जीव एवं पुद्गलों की ऋजु एवं विग्रह गति बतलाई गई है । तस्वार्थ राजबातिक में अकलंकाचार्य ने निरूपण किया है कि चार समय से पहिले ही मोड़े वाली गति होती है, क्योंकि लोक में ऐसा कोई स्थान नहीं है जिसमें तीन मोड़े से अधिक मोड़े लेना पड़े। जैसे पष्टि चांवल साठ दिन में नियम से पक जाते हैं उसी प्रकार विग्रहगति भी तीन समय में समाप्त हो जाती है । (तवा. वा. २, २८, १३ अंक गणना में शून्य का उपयोग अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । उदाहरणार्थ तिलोयपण्णत्ती (गाथा ३१२, चतुर्थं महाधिकार ) में अचलात्म नामक काल को एक संकेतना द्वारा दर्शाया गया है। यह मान है (६४) * (१०) १० प्रमाण वर्षं । अर्थात् ८४ में ६४ का ३१ बार गुणन और १० का १० मैं ६० बार गुणन । यहीं गितसंगित प्रक्रिया का भी उपयोग किया गया है । जैसे यदि २ को तीन बार गितसंगित किया जाये तो (२१६) २५६ अर्थात २५६ में २५६ का २५६ बार गुणन करने पर यह राशि उत्पन्न होगी । जहां वर्गरणसंवर्गण से राशि पर प्रक्रिया करने पर इष्ट बड़ी राशि उत्पन्न कर ली जाती है वहीं अर्द्ध च्छेद एवं वर्गशलाका निकालने की प्रक्रिया से इट छोटी राशि उत्पन्न कर ली जाती है । एक Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ ओर संश्लेषण दृष्टिगत होता है दूसरी ओर विश्लेषण इस प्रकार की प्रक्रियाओं का उपयोग इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान रखता है । अर्द्धच्छेद प्रक्रिया से गुणन को योग में तथा भाग को घटाने में बदल दिया जाता है । वर्गण की प्रक्रिया भी गुएान में बदल जाती है। इस प्रकार धाराओं में आने बाली विभिन्न राशियों के बीच श्रद्धच्छेद एवं वर्गसलाका विधियों द्वारा एवं वर्गण विधियों द्वारा सम्बन्ध स्थापित किया जाता है । अंकगणित में ही समान्तर और गुणोत्तर श्रेणियों के योग निकालने के तिलोयपण्णत्ती में अनेक प्रकरण आये हैं । इस ग्रंथ में कुछ और नवीन प्रकार की श्रेणियों का संकलन किया गया है । दूसरे महाधिकार में गाथा २७ से लेकर गाथा १०४ तक नारक बिलों के सम्बन्ध में श्रेणिसंकलन है । उसी प्रकार पांचवें महाधिकार में द्वीप समुद्रों के क्षेत्रफलों का अल्पबहुत्व संकलन रूप में वणित किया गया है। श्रेणियों को इतने विस्तृत रूप में वर्णन करने का श्रेय जैनाचार्यों को दिया जाना चाहिए । पुन: इस प्रकार की प्ररूपणा सीधी अस्तित्व पूर्ण राशियों से सम्बन्ध रखती थी जिनका वोघ इन संश्लेषण एवं विश्लेषण विधियों से होता था | यह महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि उपमा प्रमाण में एक सुच्यंगुल में स्थित प्रदेशों की संख्या उतनी ही मानी गयी जितनी पल्य की समय राशि की अद्धापत्य की समय राशि के अर्द्ध च्छेद बार स्वयं से स्वयं को गुणित किया जाये । प्रतीकों में [ अापल्य के छेद ( अंगुल ) ( पल्य ) साथ ही यह भी महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि एक प्रदेश में श्रमन्त परमाणुओंों को समाविष्ट करने की अवगाहन शक्ति श्राकाश में है और यही एक दूसरे में प्रविष्ट होने की क्षमता परमाणुधों में भी है। समान्तर श्रेणियों और गुणोत्तर श्रेणियों का उपयोग तिलोयपण्णत्ती में तो आया ही है, साथ ही कर्म-ग्रन्थों में तो आत्मा के परिणाम और कर्मपुद्गलों के समूह के यथोचित प्रतिपादन में इन श्रेणियों का विशाल रूप में उपयोग हुआ है। श्रेणियों का आविष्कार कब, क्यों और क्या अभिप्राय लेकर हुआ, इसका उत्तर जैन ग्रन्थों द्वारा भलीभांति दिया जा सकता है। विश्व की दूसरी सभ्यताओं में इनके अध्ययन का उदय किस प्रकार हुआ तथा एशिया में भी इनका अध्ययन का मूल स्रोतादि क्या था, यह शोध का विषय बन गया है। अर्द्धच्छेद और वर्गशलाकाओं का धाराओं में उपयोग भी विश्लेषण विधियों में से एक अत्यन्त महत्वपूर्ण विधि है जिसका उपयोग आज लागएरिभ के रूप में विश्लेषण तथा प्रयोगात्मक विधियों में अत्यधिक बढ़ गया है। आधार दो को जैनाचार्यों ने Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ अर्द्धच्छेद अथवा "लागएरिम टू दा बेस टू' मानकर धर्म सिद्धान्तादि में गगानाओं को सरलतम बना दिया था वैसे ही आज काम्प्यूटरों में भी दो को आधार चुना गया है। ताकि पूर्णांकों में परिणाम राशि की सार्थकता को प्रतिबोधित कर सकें। तिलोयपण्णत्ती में बीजरूप प्रतीकों का कहीं-कहीं उपयोग हुआ है । रिण के लिये उसके संक्षेप रूप को कहीं-कहीं लिया गया दृष्टिगत होता है, जैसे रिण के लिये 'रि'। मूल के लिए 'मू । रिण के लिये । जगच्छेपी के लिए आड़ी लकीर '_' । जगत्प्रतर के लिये दो आड़ी क्षैतिज लकीरें "=" । घन लोक के लिए तीन पाड़ी लकीरें "" । रज्जु के लिए 'र', पल्य के लिये 'प', सूर्यगुल के लिये '२', आवलि के लिए भी '२' लिया गया। नेमिचन्द्राचार्य के ग्रंथों को टीकाओं में विशेष रूप से संदृष्टियों को विकसित किया गया जो उनके बाद ही माधवचन्द्र विद्याचार्य एवं चामुण्डराय के प्रयासों से फलीभूत हुना होगा, ऐसा अनुमान है । जहाँ तक मापिकी एवं ज्यामिति विधियों का प्रश्न है, इन्हें करणानुयोग ग्रन्थों में जम्बूद्वीपादि के वृत्त रूप क्षेत्रों के क्षत्रफल, धनुष, जीवा, बाण, पार्श्वभुजा, तथा उनके अल्पबहुत्व निकालने के लिये प्रयुक्त किया गया। तिलोयपण्णत्ती में उपर्युक्त के सिवाय लोक को वेष्टित करने वाले विभिन्न स्थलों पर स्थित वातवलयों के आयतन भी निकाले गये हैं जो स्फान सदृश प्राकृतियों, क्षेत्रों एवं आयतनों से युक्त हैं । इनमें आकृतियों का टापालाजिकल डिफार्मेशन कर घनादिरूप में लाकर धनफल प्रादि निकाला गया है, प्रतएव विधि के इतिहास की दृष्टि से यह प्रयास महत्त्वपूर्ण है। व्यास व्यास द्वारा वृत्त की परिधि निकालने की विधियां भी विश्व में कई सभ्यता वाले देशों में पाई जाती हैं । तिलोयपण्णत्ती जैसे करणानुयोग के ग्रंथों में पाराध का मान स्थूल रूप से ३ तथा सूक्ष्म रूप से V१० दिया गया है। वीरसेनाचार्य ने धवला ग्रन्थ में एक और मान दिया है जिसे उन्होंने सूक्ष्म से भी सूक्ष्म कहा है और वह वास्तव में ठीक भी है । बह चीन में भी प्रयुक्त होता था : परिधि = ३५५-३.१४१५६३ : किन्तु वीरसेनाचार्य ने जो संस्कृत श्लोक उद्धृत किया है उसमें व्यास १ १६ अधिक जोड़कर लिखा जाने से वह अशुद्ध हो गया है : १६ (व्यास) + १६ । ३ ( व्यास ) = परिधि जो कुछ हो यह तथ्य चीन और भारत रो गणितीय सम्बन्ध की परम्परा को जोड़ता प्रतीत होता है । प्रदेश और परमाणु को धारणाएँ यूनान से संबंध जोड़ती हैं तथा गरिणत के प्राधार पर अहिंसा Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ का प्रचार यूनान के पिथेगोरस की स्मृति ताजी करती है । ॐ ज्यामिति में अनुपात सिद्धान्त का तिलोयपत्ती में विशेष प्रयोग हुआ है । लोकाकाश का धनफल निकालने की प्रक्रिया को विस्तृत किया गया है और भिन्न-भिन्न रूप की आकृतियाँ लोक के घनफल के समान लेकर छोटी आकृतियों से उन्हें पूरित कर घनफल की उनमें समानता दिखलाई गई हैं। इस प्रकार लोक को प्रदेशों से पूरित कर, छोटी कतियों से पूरित कर तो विक्षि जैनाचार्यों ने प्रयुक्त की हैं वे गणितीय इतिहास में अपना विशेष स्थान रखेंगी । जहां तक ज्योतिर्लोक विज्ञान की विधियाँ हैं वे तिलोयपण्णत्ती अथवा ग्रन्य करणानुयोग ग्रन्थों में एक सी हैं । समस्त श्राकाश को गगनखण्डों में विभाजित कर मुहूर्तों में ज्योतिबिम्बों की स्थिति, गति, सापेक्ष गति, वीथियां श्रादि निर्धारित की गयीं। इनमें योजन का भी उपयोग हुआ । योजन शब्द कोई रहस्यमय योजना से सम्बन्धित प्रतीत होता है। ऐसा ही चीन में "ली" शब्द से अभिप्राय निकलता है । अंगुल के माप के आधार पर योजन लिया गया, और अंगुल के तीन प्रकार होने के कारण योजन के भी तीन प्रकार हो गये होंगे। सूर्य, चन्द्र एवं ग्रहों के भ्रमण में दैनिक एवं वार्षिक गति को मिला लिया गया । इससे उनकी वास्तविक वीथियाँ वृत्ताकार न होकर समापन एवं असमापन कु तल रूप में प्रकट हुईं। जहां तक ग्रहों और सूर्य चन्द्रमा की पृथ्वीतल से दूरी का संबंध है, उनमें प्रयुक्त योजन का अभिप्राय वह नहीं हैं जैसा कि हम साधारणतः सोचते हैं और जमीन के ऊपर की ऊँचाई चन्द्र, सूर्य की ले लेते हैं। वे उक्त ग्रहों की पारस्परिक कोणीय दूरियों के प्रतीक रूप में प्रयुक्त हुए प्रतीत होते हैं। इस विषय पर शोध लगातार चल रही है । यह भी जानना श्रावश्यक है कि इस प्रकार योजन माप में चित्रातल से जो दूरो ग्रह श्रादि को निकाली गयी वह विधि क्या थी और उसका प्राधार क्या था । क्या यह दूरी छायामाप से ही निकाली जाती थी अथवा इसका श्रीर कोई प्राधार था ? सज्जनसिंह लिक एवं एस. डी. शर्मा ने इस विधि पर शोध निबन्ध दिये हैं जिनसे उनकी मान्यता यह स्पष्ट होती है कि ये ऊँचाईयाँ सूर्य पथ से उनकी कोरणीय बूरियां बतलाती होंगी । किन्तु यह मान्यता केवल चन्द्रमा के लिये अनुमानत: सही उतरती है । योजन के विभिन्न प्रकार होने के साथ ही एक समस्या और रह जाती है । वह है रज्जु के माप को निर्धारित करने की। इसके लिए रज्जु के अद्धं च्छेद लिए जाते हैं और इस संख्या का संबंध चन्द्रपरिवारादि ज्योतिबिम्ब राशि से जोड़ा गया है। इसमें प्रमाणांगुल भी शामिल होते हैं जिनकी प्रदेश संख्या का मान पत्य समयराशि से स्थापित किया जा सकता है। इस प्रकार रज्जु का मान देखिये, “तिलोयपणती का गणित" जम्बूदीपत्तीसंगो, झोलापूर, १९५८ ( प्रस्तावना ) १-१०५ तथा देखिये "गरिता संग्रह", शोलापुर, १९६३ (प्रस्तावना ) Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चित किया जा सकता है । चन्द्रमादि बिम्बों को गोलाद्धं रूप माना गया है जो वैज्ञानिक मान्यता से मिलता है क्योंकि आधुनिक यन्त्रों से प्रतीत होता है कि चन्द्रमादि सर्वदा पृथ्वी की ओर केवल बही अर्ब मुख रखते हुए विचरण करते हैं । उष्णतर किरणों और शीतल किरणों का क्या अभिप्राय हो सकता है, अभी तक स्पष्ट प्रतीत नहीं हुआ है । ग्रहों का गमन सम्बन्धी ज्ञान का कालवश विनष्ट होचा मजलाया गया है। पर महाजन प्रकार सूर्य और चन्द्र बिम्बों के गमन एकीकृत विधि से वीथियों के रूप में तथा मुहूर्त में ग्रोजन एवं गगनखण्डों के माध्यम से दर्शाये गये होंगे जो यूनान की प्राचीन विधियों तथा भारत की तत्कालीन वृत्त वीथियों के आधार पर पुनः स्थापित किये जा सकते हैं ऐसा अनुमान है। पंडित नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य जैन ज्योतिष के सम्बन्ध में कुछ निष्कर्षों पर शोधानुसार पहुंचे थे जो निम्नलिखित हैं : (क) पञ्चवर्षात्मक युग का सर्व प्रथम उल्लेख जैन ज्योतिष ग्रंथों में उपलब्ध होना । (ख) अवम-तिथि क्षय संबंधी प्रक्रिया का विकास जैनाचार्यों द्वारा स्वतन्त्र रूप से किया जाना। (ग) जन मान्यता की नक्षत्रात्मक ध्रुवराशि का वेदांग ज्योतिष में वर्णित दिवसात्मक ध्र बराशि से मूक्ष्म होना तथा उसका उत्तरकालीन राशि के विकास में सम्भवतः सहायक होता । (घ) पर्व और तिथियों में नक्षत्र लाने की विकसित जैन प्रक्रिया, जैनेतर ग्रंथों में छठी शती के बाद दृष्टिगत होना। (ङ) जैन ज्योतिष में सम्वत्सर सम्बन्धी प्रक्रिया में मौलिकता होना ।* देखिये "ब अभिनन्दन ग्रंथ" सागर में प्रकाशित लेख, "भारतीय ज्योतिष का पोषक जन-ज्योतिष" १९६२, पृष्ठ ४७८ ४८४, उनका एक और लेख "ग्रीक-पूर्व जैन ज्योतिष विचारधारा". चंदाबाई मभिनन्दन ग्रंथ, पारा, १९५४, पृष्ट ४६२-४६६ में दृष्टव्य है। वेदांग ज्योतिष में भी पञ्चवर्षात्मक युग का पंचांग बनता है, पर जो विस्तृत गगनखण्डों, बीषियों एवं योजना में गमन सम्बन्धी सामग्री जैन करणानुयोग के अन्थों में उपलब्ध है वह अन्यन्त्र उपलब्ध नहीं है। *अयन के कारण विपुर्वाश में अन्तर पाता है जिससे ऋतुएँ अपना समय धीरे-धीरे बदलती जाती हैं। प्रयन के कारण होने वाले परिवर्तन को जैनाचार्यों ने संभवतः देखा होगा और अपना नया पंचांग विकसित किमा होगा। वेदांग ज्योतिष में माघ शुक्ल प्रघम को सूर्य नक्षत्र धनिष्ठा और चन्द्र नक्षत्र को भी धनिष्ठा लिया गया है जब कि सूर्य उत्तरापथ पर रहता था। किंतु जैन पंचांग ( तिलोपत्तो प्रादि) में जब सूर्य उत्सरापथ पर होसा था तब माघ कृष्णा सप्तमी को सूर्य प्रमिजित् नभत्र में प्रोर चन्द्रमा हस्त नक्षत्र में रहता था। अयन का ३६.. का परिवर्तन प्राय: २६००० वर्षों में होता दृष्टिगत हुप्रा है। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ (च) दिनमान प्रमाण सम्बन्धी प्रक्रिया में, पितामह सिद्धांत का जैन प्रक्रिया से प्रभावित प्रतीत होता। (छ) छाया माप द्वारा समय निरूपए का विकसित रूप इ2 काल, मयाति आदि होना । इनके अतिरिक्त आतप और तम क्षेत्र का दर्शाये रूप में प्रकट करना किस प्रक्षेप के आधार पर किया गया है और सूर्य, चन्द्र के रूप और प्रतिरूप का उपयोग किस आधार पर हुआ है इस सम्बन्धी शोध चल रही है । चक्षुस्पर्शध्वान पर भी अभी कुछ नहीं कहा जा सकता है जब तक कि उसकी मनोगिक विज्ञान से गुलना न कर दी जाये। पूज्य प्रायिका विशुद्धमतीजी ने असीम परिश्रम कर चित्र सहित अनेक गणितीय प्रकरणों का निरूपण ग्रंथ की टीका करते हुए कर दिया है । अतएव संक्षेप में विभिन्न गाथाओं में पाये हुए प्रकरणों के सूत्रों तथा अन्य महत्त्वपूर्ण गणितीय विवरण देना उपयुक्त होगा। २. तिलोयपण्णत्ती के कतिपय गणितीय प्रकरण : (प्रथम महाधिकार ) गाथा १४६१ अनन्त अलोकाकाश के बहुमध्यभाग में स्थित, जीवादि पांच द्रव्यों में व्याप्त और जगश्रेरिण के घन प्रमाण यह लोकाफाश है । E १६ ख ख ख उपर्युक्त निरूपण में = जगश्रेरिण के धन का प्रतीक है जो लोकाकाश है । १६ जीवराशि की प्रचलित संदृष्टि है 1 इसीप्रकार १६ से अनन्तगुनी १६ ख पुद्गल परमाणु राशि की संदृष्टि है और इससे अनन्तगुणी १६ ख ख भूत वर्तमान भविष्य त्रिकाल गत समय राशि है। इस समय राशि से अनन्त गुनी १६ ख ख ख अनन्त अाकाशगत प्रदेश राशि की संदृष्टि मानी गयी है जो अनन्त प्रलोकाकाश की भी प्रतीक मानी जा सकती है क्योंकि इसकी तुलना में = लोकाकाश प्रदेश राणि नगण्य है। इसप्रकार उक्त संदृष्टि चरितार्थ होती है । गाथा १/६३-१३० पाठ उपमा प्रमाणों की मदृष्टियाँ प० १ । सा० २ । सू०३ । ३०४ । घ० ५ । ज०६ । लोक प्र०७ । लो० ८ ।। दी गयी हैं जो पल्य सागरादि के प्रथम अक्षर रूप हैं । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार पल्य से संख्या का प्रमाण, उद्धारपल्य से द्वीप समुद्रादि का प्रमाण और अद्धापल्य से कर्मों की स्थिति का प्रमाण लगाया जाता है । यहाँ गाथा १०२ श्रादि निम्न माप निरूपण दिया गया है जो अंगुल और अंतत: योजन को उत्पन्न करता है :अनन्तानन्त परमाणु द्रव्य राशि = १उवसनासन्न स्कन्ध ८ जवसनासन्न स्कन्ध = १ सप्तासन्न स्कन्ध ८ सम्नासन्न स्कन्ध = १ श्रुटिरेणु स्कन्ध ५ त्रुटिरेणु स्कन्ध = १ असरेणु स्कन्ध प्रसरेणु स्कन्ध = १ रथरेणु स्कन्ध ८ रथरेणु स्कन्ध = १ उत्तम भोगभूमि का बालाग्र ८ उत्तमभोग भूमि बालाग्न = १ मध्यम भोगभूमि बालाग्न ८ मध्यम भोगभूमि बालान = १ जघन्य भोगभूमि बालाग्र ८ जघन्य भोगभूमि बालान === १ कर्मभूमि बालाग्र ८ कर्मभूमि बालान = १ लीक ८ लीके म१जी ८ जौ = १ अंगुल उपर्युक्त परिभाषा से प्राप्त अंगुल, सूज्यंगुल कहलाता है जिसकी संदृष्टि २ का अंक मानी गयी है । इस अंगुल को उत्सेध अंगुल भी कहते हैं जिससे देव मनुष्यादि के शरीर को ऊँचाई, देवों के निवासस्थान व नगरादि का प्रमारण जाना जाता है । पांच सौ उत्सेधांगुल प्रमाण अवपिणी काल के प्रथम भरत चक्रवर्ती का एक अंगुल होता है जिसे प्रमाणांगुल कहते हैं जिससे द्वीप समुद्रादि का प्रमाण होता है । स्व स्व काल के भरत ऐरावत क्षेत्र में मनुष्यों के अंगुल को प्रात्मांगुल कहते हैं जिससे झारीकलशादि की संख्या का प्रमाण होता है । प्रश्न यहाँ आर्यिकाश्री विशुद्धमतीजी ने उठाया कि तिलोयपण्णत्ती में जो द्वीप समुद्रादि के प्रमाण योजनों और अंगुल प्रादि में दिये गये हैं उससे नीचे की इकाइयों में परिवर्तन कैसे किया जाय क्योंकि वे प्रमाणांगुल के प्राधार पर योजनादि लिये गये हैं और उक्त योजन से जो अंगुल उन्पन्न हो उसमें क्या ५०० का गुणनकर नीचे को इकाइयाँ प्राप्त की जाएँ ? वास्तव में जहाँ जिस अंगुल की आवश्यकता हो, उसे ही लेकर निम्नलिखित प्रमाणों का उपयोग किया जाना चाहिये : ६ अंगुल=१ पाद; २ पाद= १ वितस्ति; २ वितस्ति-१ हाथ; २ हाथ-१ रिक्क; २ रिक्यू. = १ दण्ड ; १ दण्ड या ४ हाथ = १ धनुष - १ मूसल= १ नाली; Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ २००० धनुष या २००० नाली = १ कोश; ४ कोश = १ योजन । अतएव जिसप्रकार का अंगुल चुना जावेगा, स्वमेव उस प्रकार का योजन उत्पन्न होगा | प्रमाण अंगुल किये जाने पर प्रमाण योजन और उत्सेध अंगुल किये जाने पर उत्सेध योजन प्राप्त होगा | योजन को प्रमाण लेकर व्यवहार पत्योपम का वर्षों में मान प्राप्त हो जाता है । इस हेतु गड्ढे में रोमों की संख्या = ३४ (४)' (२०००) (४) ' (२४)' (५००) (८) १ प्राप्त होती है । यह व्यवहार पल्य के रोमों की संख्या है जिसमें १०० का गुणन करने पर व्यवहार पल्योपम काल राशि वर्षो में प्राप्त हो जाती है। तत्पश्चात् उद्धार पल्य राशि= व्यवहार पल्य राशि X असंख्यात करोड़ वर्ष समय राशि यह समय राशि ही उद्धारपल्योपस काल कहलाती है। इस उद्धारपत्य राशि से द्वीपसमुद्रों का प्रमाण जाना जाता है । अढापल्य राशि = उद्धारपत्य राशि x असंख्यात वर्ष समय राशि यह समय राशि ही अद्धा पल्योपम काल राशि कहलाती है। इस श्रद्धापत्य राशि से नारकी, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवों की आयु तथा कर्मों की स्थिति का प्रमाण ज्ञातव्य है । १० कोड़ाकोड़ी व्यवहार पत्य १० कोड़ाकोड़ी उद्धार पल्य १० कोड़ाकोड़ी अद्धा पत्थ गाथा १/१३१, १३२ सूच्यंगुल में जो प्रदेश राशि होती है उसकी संख्या निकालने के लिए पहिले अद्धा पत्य के श्रर्द्धच्छेद निकालते हैं और उन्हें शलाका रूप स्थापित कर एक एक शलाका के प्रति पत्य को रखकर आपस में गुणित करते हैं। जो राशि इस प्रकार उत्पन्न होती है वह सूच्यंगुल राशि है : ( पल्य के अर्द्धच्छेद ) इसी प्रकार १ व्यवहार सागरोपम १ उद्धार सागरोपम १ अद्धा सागरोपम सूच्यंगुल = [ पत्य ] ( पल्य के अर्द्धच्छेद ) असंख्यात जगच्छ्रेणी = [ घनांगुल ] यहाँ सूच्यंगुल राशि की संदृष्टि २ और जगच्छ्रेणी की संदृष्टि "" है । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी प्रकार प्रतरांगुल=(सूच्यंगुल राशि ), संदृष्टि ४ घनांगुल -- ( सूच्यंगुल राशि ), संदृष्टि ६ = ( जा िसंहल्टि'=' घनलोक=( जगणि राशि ), संदृष्टि '=' राजु -(जगधेरिणः७), संदृष्टि '' ये सभी प्रदेश राशियां हैं और इनका सम्बन्ध पल्योपमादि समय राशियों से स्थापित किया गया है। गाथा १/१६५ इस गाथा में अधोलोक का घनफल निकालने के लिये सूत्र दिया गया है, जो वेत्रासन सदृश है। घनफल वेत्रासन = [सुख : भूमि x बेध] | यहां वेध का भयं ऊँचाई है। माथा १९६६ . अधोलोक का घनफल=x पूर्ण लोक का घनफल अर्द्ध अधोलोक का घनफल-४ पूर्ण लोक का घनफल गाथा १/१७६-१७७ : इस गाथा में समानुपाती भाग निकालने का सूत्र दिया गया है । प्र मुरब वृद्धि भूमि-मुख उत्सेध यहाँ उ उत्सेष का प्रतीक और ब्या व्यास का प्रतीक है। सध भूमि-भूमिमुख उ, च्या, भूमि-[भूमिम्मुख उ-व्या. व्यान उत्सधा इसी प्रकार हानि का सूत्र प्राप्त करते हैं। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १/१८१ इस गाथा में दो सूत्र दिये गये हैं। भुजा+प्रतिभुजा -व्यास; व्यास x ऊँचाई x मोटाई समकोण त्रिकोण क्षेत्र का घनफल व्यास x लम्ब बाहु x मोटाईलम्ब बाहुयुक्त क्षेत्र का धनफल गाथा १/२१६ आदि : सम्पूर्ण लोक को आठ प्रकार की आकृतियों में निदर्शित किया गया है। इसमें प्रयुक्त सूत्र निम्न प्रकार हैं । सभी आकृतियों के घनफल जगश्रेणी के घन प्रमाण हैं । (१) सामान्यलोक=जग रिण के घन प्रमाण यह प्राकृति पूर्व में ही दी जा चुकी है जो सामान्यत: मान्य रूप है। (२) ऊर्य प्रायत चतुरस्र : जगश्रेणी के धन प्रमाण यह आकृति घनाकार होना चाहिए जिसकी लंबाई, चौड़ाई एवं ऊंचाई समानरूप से जगश्रेणी या ७ राजू हों । इस प्रकार इसका घनफल = लंबाई x चौड़ाई xऊँचाई=७४७४७ घन राजू - ३४३ घन राजू (३) तिर्यक् प्रायत चतुरस्र : जगश्रेणी के घन प्रमाण इस आकृति में सभी विमाएं समान नहीं हैं, अतएव घनायत रूप इसका धनफल = १४४३४७ घन राजू - ३४७ धन राजू (४) यवमुरज क्षेत्र : यह क्षेत्र मुरज और यवों के द्वारा दर्शाया गया है । मुरज प्राकृति बीच में है राजू तथा अंत में १ राजू १ राजू है। अतएव उसका क्षेत्रफल (4)x १४ वर्ग राजू है, क्योंकि इसकी ऊंचाई १४ राजू है । यहां मुखभूमि योग दले वाला ही सूत्र लगाया गया है । अत: सुरज आकृति का क्षेत्रफल - (+१) १४ वर्ग राजू-६३ वर्ग राजू मुरज प्राकृति का घनफल क्षेत्रफल - गहराई–६३४७ धन राजू -४४१ घन राजू Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ शेष क्षेत्र में यव प्राकृतियां २५ समाती हैं । एक थव का क्षेत्रफल (राजू२)४१ वर्ग राजू=* वर्ग राजू एक यव का घनफल = १.४७ घन राजू-१९ घन राजू अथवा है। २५ यवों का घन=kx २५ प्रन राजू अथवा २५ , (५) यव मध्य क्षेत्र--बाहुल्य ७ राजू वाली यह प्राकृति आधे मुरज के समान होती है। इसमें मुख १ राजू भूमि पुन: ७ रानू है जैसा कि यवमुरज क्षेत्र होता है, किन्तु इसमें मुरज न डालकर केवल अद्धं यवों से पूरित करते हैं । इसप्रकार इसमें ३५ अर्द्ध यव इस यबमध्य क्षेत्र में समाते हैं । एक श्रद्धघव का क्षेत्रफल -:x वर्गराज = वर्गराजू एक अर्द्ध यव वा घनफल-६४७ घनराजू धनराजू इसप्रकार ३५ अर्द्धयों का घनफल=५' x ३५ घनराम= ३४३ घनराजू इसप्रकार यव मध्य क्षेत्र का घनफल ३४३ घनराज होता है । संदृष्टि में = एक अद्ध यव का घनफल है । as संदृष्टि का अर्थ है कि १४ राजू उत्सेत्र को पांच बराबर भागों में बांटा जाये। (६) मन्दराकार क्षेत्र : उपरोक्त आकृतियों के ही समान आकृति लोक की लेते हैं जहाँ भूमि ६ राज, मुख १ राजू, ऊँचाई १४ राजू, और मोटाई ७ राजू लेते हैं। समानुपात के सिद्धान्त पर विभिन्न उत्सेधों पर व्यास निकालकर 'मुह भूमि जोगदले' सूत्र से विभिन्न निर्मित वेत्रासनों के घनफल निकालकर जोड़ देने पर सम्पूर्ण लोक का घनफल ३४३ धनराजू प्राप्त करते हैं । इसे सविस्तार ग्रंथ में देखें, क्योंकि बचने वाली शेष आकृतियों को जोड़कर पुनः घनफल निकालने की प्रक्रिया अपनाई जाती है। (७) दूष्य क्षेत्र : उपरोक्त प्राकृतियों के ही समान लोक की प्राकृति लेते हैं जहाँ भूमि ६. राजू, मुख १ राजू, ऊँचाई १४ राजू लेते हैं तथा बाहल्य ७ राजू है । इसमें से मध्य में २: यव निकालते हैं जो मध्य में १ राजू चौड़ाई वाले होते हैं । बाहर : राजू भूमि तथा ३ राजू मुख वाले दो क्षेत्र निकालते हैं । बीच में यव निकल जाने के पश्चात् शेष क्षेत्रों का घनफल भी निकाला जा सकता है । इसप्रकार बाहरी दोनों प्रवण क्षेत्रों का धनफल=१८ धनराजू । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ भीतरी दोघं दोनों प्रवण क्षेत्रों का घनफल=१३७, घनराजू भीतरी लघु दोनों प्रबरण क्षेत्रों का धनफल=५८३ धनराजू २३ यत्र क्षेत्रों का घनफल = ४६ धनराजू कुछ घनफल लोक का इसप्रकार ३४३ घनराजू प्राप्त होता है । (८) मिरिकटक क्षेत्र : यह क्षेत्र अवमध्य क्षेत्र जैसा ही माना जा सकता है जिसमें २० गिरियां हैं शेष उल्टी गिरियां हैं । इस प्रकार कुल गिरिकटक क्षेत्र मिथ धनफल से बना है । इसप्रकार दोनों क्षेत्रों में विशेष अंतर दिखाई नहीं दिया है । २० गिरियों का घनफल- ४२०=१६६ धन राजू शेष १५ गिरियों का माल = १५:४७: राजू इस प्रकार मिश्च धनफल ३४३ घन राजु प्राप्त होता है । गाथा १/२७० आदि वातवलयों द्वारा बेष्टित लोक का विवरण इन माथाओं में है, जहां विभिन्न प्राकृतियों बाले वातवलयों के घनफल निकाले गये हैं । ये या तो संक्षेभ के समच्छिन्नक हैं, आयतज हैं, समान्तरानीक हैं जिनमें पारम्परिक सूत्रों का उपयोग किया जाता है । संदृष्टियां अपने पाप में स्पष्ट हैं। वातावरुद्ध क्षेत्र और पाठ भूमियों के घनफल को मिलाकर उसे सम्पूर्ण लोक में से घटाने पर अवशिष्ट शुद्ध आकाश के प्रतीक रूप में ही उस संदृष्टि को माना जा सकता है। वर्ग राजुत्रों में योजन का गुरगन बतलाकर घनफल निकाला गया है उन्हें संदृष्टि रूप में जगप्रत्तर से योजनों द्वारा गुरिणत बतलाया गया है । द्वितीय महाधिकार : गाथा २/५८ इस गाया में श्रेणि व्यवहार गरिसत का उपयोग है जिसे समान्तर श्रेढि भी कहते हैं। मानलो प्रथम पाथड़े में बिलों की कुल संख्या ३ हो और तब प्रत्येक द्वितीयादि पाथ हे में क्रमशः उत्तरोत्तर हानि हो तो थे पाथड़े में कुछ बिलों की संख्या प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित सूत्र है : इष्ट तवें पाथड़े में कुल बिलों की संख्या ={a-in १)} Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ ३-३८९, d=८ और n=४ है, . : चौथे पायड़े में श्रेणीबद्ध बिलों की संख्या {३८९-(४-१)८}=३६५ होती है। गाथा २/५९ ग्रन्थकार ने n वें पाथड़े में इन्द्रक सहित धोरिणबद्ध बिलों की संख्या निकालने के लिये सूत्र दिया है : इष्ट पाथड़े में इन्द्रक सहित श्रेणीबद्ध बिलों की संख्या= (५+१-n)s+५ गाथा २१६० : यदि प्रथम पाथड़े में इन्द्रक सहित श्रेणिबद्ध बिलों की संख्या और बें पाथड़े में a 1 मान ली जाये तो । का मान निकालने के लिए सूत्र निम्नलिखित है ॥ = [ ] गाथा २/६१ : श्रेणी व्यवहार गणित में, किसी श्रेणी में प्रथम स्थान में जो प्रमाण रहता है उसे आदि, मुख ( बदन) अथवा प्रभव कहते हैं । अनेक स्थानों में समान रूप से होने वाली वृद्धि या हानि के प्रमाण को चय या उत्तर कहते हैं । ऐसी वृद्धि हानि वाले स्थानों को गच्छ या पद कहते हैं । उपरोक्त को क्रमश: first term, Common difference, number of terms कहते हैं। गाथा २/६४ : संकलित धन को निकालने के लिए मूत्र दिया गया है। मान लो कुल धन ऽ हो, प्रथमपद । हो, चय d हो, गच्छ । हो तो सूत्र इच्छित घोढि में संकलित धन को प्राप्त कराता है: s= [ {n-इच्छा )d+ (इच्छा-१)d + (३.२)] इच्छा का मान १. २ आदि हो सकता है । गाथा २/६५ : इसी प्रकार संकलित धन निकालने का दूसरा सूत्र इस प्रकार है : ___s= [{ (-) (-)} d+५] यह समीकरण उपरोक्त सभी श्रेणियों के लिये साधारण है। उपयुक्त में संख्या ५ महातमः प्रभा के बिलों से सम्बन्धित होना चाहिए। ५ को अंतिम पद माना जा सकता है । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिम पद - ( ४६ – १ ) d यदि का मान ३८६ श्रर अन्तिम पद = का मान ८ हो तो ३८e – (४६ – १) ८५ होता है । गाथा २/६९ : सम्पूर्ण पृथ्वियों इन्द्रक सहित श्रे गिबद्ध बिलों के प्रमाण को निकालने के लिये आदि ५, चय ८ और गच्छ का प्रमाण ४६ है । गाथा २/७० : यहां सात पृथ्वियां हैं जिनमें श्रेणियों की संख्या ७ है । अंतिम रिंग में एक लिये निम्नलिखित सूत्र ग्रंथकार ने दिया है : ही पद ५ है । इन सभी का संकलित धन प्राप्त करने $, = [ ( N+ ७ ) D ( ७+ १ ) D+ २A] = ¥ [ २A+ { N– १ ) D] यहां इष्ट ७ है । A, D, N, क्रमश: आदि, चय और गच्छ हैं । ६५ गाथा २ / ७१ : उपरोक्त के लिए दूसरा सूत्र निम्न प्रकार दिया गया है S, [ XD+A ] N - 2 [ २ A+ (N– १) D ] गाथा २/७४ : यहां भी साधारण सूत्र दिया है— [ य़ े, d ] + ( २ n. d ) -- ad | + ( ? n २ = [ (a– १) d + २८ ] Sz= गाथा २/५१ इंद्रकों रहित बिलों (श्रेणीबद्ध बिलों ) की समस्त पृथ्वियों में कुल संख्या निकालने लिए सूत्र दिया गया है । यहाँ आदि ५ नहीं होकर ४ है क्योंकि महातमः प्रभा में केवल एक इन्द्रक और चार श्ररिणबद्ध बिल हैं । यही आदि श्रथवा A है; गच्छ N या ४६ है, प्रचय D या ८ है । , सूत्र— S == (N'--N)D+ (N.A.) N = [ १^+ (N–१) D ] + N) Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २/८२-८३: यहाँ आदि A को निकालने हेतु सूत्र दिया है A= [...] +(D. ७)-[७-१+N]D इसे साधित करने पर पूर्व जैसा सूत्र प्राप्त हो जाता है । यहाँ इष्ट पृथ्वी ७ वीं है, जिसका आदि निकालना इष्ट था । ७ के स्थान पर और कोई भी इच्छा राशि हो सकती है। गाथा २/८४ : चय अर्थात् D को निकालने के लिए ग्रंथकार ने सूत्र दिया हैD=s, + ( [ N-१] ) – (A N ) गाथा २/८५ : ग्रन्थकार ने रत्नप्रभा प्रथम पृथ्वी के संकलित धन (णि बद्ध बिलों की कुल संख्या) को लेकर पद १३ को निकालने हेतु निम्नलिखित सूत्र का उपयोग किया है, जहाँ 1= १३, 5 = ४४२०, d= ८ और 4 = २९२ आदि है ! Vis, d ) - (a-d) (--) इसे भी साधित करने पर पूर्ववत् समीकरण प्राप्त होता है। गाथा २/८६ : उपर्युक्त के लिए दूसरा सूत्र भी निम्नलिखित रूप में दिया गया है =AV (२.J.S.) । (५-६)-(a )}:d इसे साधित करने पर पूर्ववत् ममीकरण प्राप्त होता है । गाथा २/१०५ : यहां प्रचय अथवा d को निकालने का सूत्र दिया है जब अंतिम पद मानलो हो: Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ प्रथम बिल से यदि वे बिल का विस्तार प्राप्त करना हो तो सूत्र यह है : a=-(०-१)d, यदि अंतिम बिल से तवं बिल का विस्तार प्राप्त करना हो तो सूत्र यह है : b.b+(D-.--१)d, जहां 2. प्रौदा कम वें बिलों ने विस्तारों के प्रतीक हैं । यहाँ विस्तार का अर्थ व्यास किया जा सकता है। __गाथा २१५७ : इन बिलों की गहराई (बाहल्य) समान्तर श्रेणी में है । कुल पृथ्वियां ७ हैं । यदि nथीं पृथ्वी के इन्द्रक का बाल्य निकालना हो तो सूत्र यह है॥वीं पृथ्वी के इन्द्रक का बाहल्य= (+१) ३ वाहन (७-१) 0वीं पृथ्वी के श्रेणिबद्ध बिलों का बाहल्य = (n+१) ४४ इसी प्रकार, n वी पृथ्वी के प्रकीर्णक बिलों का बाहल्य= । बाल्य (७-१) ? गाथा २१५८ : दूसरी विधि से बिलों का बाहल्य निकालने हेतु ग्रंथकार ने आदि के प्रमाण क्रमश: ६, ८ और १४ लिये हैं । यहाँ भी पृध्वियों की संख्या ७ है। यदि । वीं पृथ्वी के इन्द्रक का बाहल्य निकालना हो तो सूत्र निम्नलिखित है : .' 1 वीं पृथ्वी के इंद्रक का बाहल्य == (६+n.) यहां ६ को आदि लिखें तो दक्षिण पक्ष= (en) होता है। प्रकीर्णक बिलों के लिए भी यही नियम है। गाथ २१६६ : यहां घर्मा या रत्नप्रभा के नारकियों की संख्या निकालने के लिए जगश्रेणी और घनांगुल का उपयोग हुआ है । घनांगुल को ६ और सूच्यंगुल को २ लेकर धर्मा पृथ्वी के नारकियों की संख्या : ७१) ७ -१ =जगश्रेणी x (कुछ कम ) //६ = जगणे णो » [कुछ कम /(२)' ] Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय महाधिकार : गाथा ३/८० : इस गाथा में गुरु संकलित धन ग्रथवा गुणोत्तर श्रेणी के योग का सूत्र दिया गया है । गच्छ =७, मुख = ४०००, गुणकार ( Common ratio) का प्रमाण २ है । माल Sa को पदों का योग माना जाये जब कि प्रथम पद और गुणाकार हो तब 0 (t- १ ) x a S1 = {(c. t. r.... D पदों तक ) - १ } ६८ श्रथवा S = (1.-१) a r-- १ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ********** * विषपानुक्रम ******* । विषय गाथा/पृ० सं० । विषय गाथा/पृ० सं० mmmmmmmmms मंगलाचरण के प्रादिमध्य और प्रस्त [गा० १-२८६] १ प्रथम भेद २८1७ । महाधिकार (१ --१३८ पृ०) Sammmmmmmint आदि मध्य और अन्त मंगल की मङ्गल (गा० १ । ३१) सार्थकता २६ । ७ मङ्गलाचरण : सिद्ध स्तवन जिननाम ग्रहण का फल अरहन्त स्तवन ग्रंथ में मंगल का प्रयोजन ३१ । ७ आचार्य स्तवन प्रन्यावतारनिमित्त (गा० ३२-३४) ८ उपाध्याय स्तवन साधु स्तवन अस्थावतार हेतु (गा० ३५-५२) ८-१२ ग्रन्थरचना प्रतिज्ञा हेतु एवं उसके भेद ३५।८ ग्रन्थारम्भ में करणीय छह कार्य प्रत्यक्ष हेतु ३६-३८ । मंगल के पर्यायवाचक शब्द परोक्ष हेतु एवं अभ्युदय सुख ३६-४११६ मंगल शब्द की निरुक्ति ६।३ राजा का लक्षण ४२ । १० मंगल के भेद १०। अठारह श्रेणियों के नाम ४३-४४ ११० द्रव्यमल और भावमल अधिराज एवं महाराज का लक्षण ४५ । १० मंगल शब्द की सार्थकता . १४।४ अर्धमण्डलीक एवं मण्डलीक का मंगलाचरण की सार्थकता १५-१७ । ४ लक्षण ४६ । ११ मगलाचरण के मामादिक छह भेद १८1५ महामण्डलीक एवं अर्धचक्री का नाम मंगल लक्षण स्थापना व द्रव्यमंगल २०। ५ चक्रवर्ती और तीर्थंकर का लक्षण ४८ । १.१ क्षेत्रमंगल मोक्षमुख काल मंगल २४-२६ । ६ श्र तज्ञान की भावना का फल ५० । १२ भाय मंगल २७ । ७ | परमागम पढ़ने का फल ५१ । १२ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय गाथा/पृ० सं० पार्षवचनों के अभ्यास का फल ५२ । १२ प्रमाण (गा० ५३) १२ श्रत का प्रमाण ५३ 1 १२ नाम (गा० ५४१ १३ ग्रन्थनाम कथन ५४ । १३ का (गा० ५५-८४) १३ । १८ कर्ता के भेद ५५ । १३ द्रव्यापेक्षा अर्थागम के कर्ता ५६.६४ । १३ क्षेत्रापेक्षा अर्थकर्ता पंचशैल ६६-६७ । १५ काल की अपेक्षा अर्थकर्ता एवं धर्मतीर्थ की उत्पत्ति ६८-७० | १५ भाव की अपेक्षा अर्थकर्ता ७१-७५ । १६ गौतम गणवर द्वारा श्रुत रचना ७६-७६ । १७ कर्ता के तीन भेद ८० ११७ सूत्र को प्रमाणता ५१ । १८ नय, प्रमाण और निक्षेप के बिना अर्थ निरीक्षण करने का फल ८२ ११८ प्रमाण एवं नयादि का लक्षण ६३ । १८ रत्नत्रय का कारण ०४ । १८ ग्रन्थ प्रतिपादन को प्रतिज्ञा ८५-८७ । १६ ग्रंथ के नव अधिकारों के नाम ८८-६० । १९ परिभाषा (गा० ६१-१३२) २०-३० लोकाकाश का लक्षण ६१-६२ । २० उपमा प्रमाण के भेद ९३ । २१ पल्य के भेद एवं उनके विषयों का निर्देश ६४-२१ स्कन्ध, देश, प्रदेश एवं परमाणु का स्वरूप विषय गाथा/पृ० सं० परमाणु का स्वरूप ६६-१८ 1२१ परमाणु का पुद्गलत्व EC ! २२ परमाणु पुद्गल ही है १०० । २२ नय-अपेक्षा परमाणु का स्वरूप १०११ २२ उबसन्नासन्न स्कन्ध का लक्षण १०२ । २३ सन्नासन से अंगुल पर्यन्त के । लक्षण १०३-१०६ । २३ अंगुल के भेद एवं उत्सेधांगुल का लक्षण १०७ । २३ प्रमाणांगुल का लक्षण १०० | २४ अात्मांगुल का लक्षण १०९ । २४ उत्सेधांगुल द्वारा माप करने योग्य वस्तुएं ११० । २४ प्रमाणांगुल से मापने योग्य पदार्थ १११ । २४ प्रात्मांगुल से मापने योग्य पदार्थ ११२-१३ । २५ पाद से कोस पर्यन्त की परिभाषायें ११४.१५ । २५ योजन का माप ११६ । २५ गोलक्षेत्र की परिधि का प्रमाण, क्षेत्रफल एवं घनफल ११७-११८ । २५ व्यवहार पल्य के रोमों की संख्या निकालने का विधान तथा उनका प्रमाण ११६-२४ । २६ व्यवहार पत्य का लक्षण १२५ । २८ उद्धार पल्य का प्रमाण १२६.१२७ । २८ अद्धार या अापल्य के लक्षण १२८-२६ 1 २६ व्यवहार, उद्धार एवं अद्धा सागरोपमों के लक्षण १५० । २६ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय गाथा/पृ० सं० । विषय ___ गाथा/पृ० सं० सुच्यंगुल और जगच्छणी के लक्षण १३१ । ३० । मध्यलोक के ऊपरी भाग से अनुत्तर विमान सुच्यंगुल आदि का तथा राजू का पर्यन्त राज विभाग १५८-६२ । ४१ लक्षण १३२ । ३० कल्प एवं कल्पातीत भूमियों का अंत १६३ । ४२ सामान्य लोक स्वरूप (गा. १३३-२६६) अधोलोक के मुख और भूमि का विस्तार एवं ऊँचाई १६४ १ ४३ लोक स्वरूप १३१-१३४ । ३१ अधोलोक का घनफल निकालने की लोकाकाश एवं अनोकाकाश १३५ । ३२ विधि १६५ । ४३ लोक के भेद पूर्ण अधोलोक एवं उसके अर्धभाग के तीन लोक की प्राकृति १३७-३८ । ३२ घनफल का प्रमाण १६६ । ४३ अधोलोक का माप एवं आकार १३९ । ३३ अधोलोक में सनाली का धनफल १६७ । ४४ सम्पूर्ण लोक को वर्गाकृति में लाने का असनाली से रहित और उसके सहित विधान एवं आकृति १४० । ३४ अधोलोक का घनफल १६८ । ४४ लोक की डेढ़ मृदंग सदृश प्राकृति बनाने ऊर्ध्वलोक के आकार को अधोलोक का विधान १४१-४४ । ३५ स्वरूप करने की प्रक्रिया सम्पूर्ण लोक को प्रतराकार रूप करने का एवं आकृति १६६ । ४५ विधान १४५-४७ । ३६ ऊर्ध्व लोक के व्यास एवं ऊँचाई त्रिलोक की ऊँचाई, चौड़ाई और मोटाई के का प्रमाण १७० । ४६ वर्णन की प्रतिज्ञा १४८ । ३७ सम्पूर्ण ऊर्ध्वलोक और उसके दक्षिण उत्तर सहित लोक का प्रमाण अर्धभाग का घनफल १७१ । ४६ __ एवं आकृति १४९ । ३७ ऊध्वलोक में प्रसनाली का घनफल १७२ । ४६ अधोलोक एवं उर्ध्वलोक की ऊँचाई में श्रसनाली रहित एवम् सहित सहशता १५० । ३८ ऊर्ध्व लोक का घनफल १७३ । ४६ तीनों लोकों की पृथक्-पृथक् ऊँचाई १५१ । ३६ सम्पूर्ण लोक का घनफल एवं लोक अधोलोक में स्थित पृथिवियों के नाम के विस्तार कथन की प्रतिज्ञा १७४ । ४७ और उनका अबस्थान १५२ । ३६ अधोलोक के मुख एवं भूमिका रत्नप्रभादि पृथिवियों के गोत्र नाम १५३ । ४० विस्तार तथा ऊँचाई १७५ । ४८ मध्यलोक के अधोभाग से लोक के अन्त प्रत्येक पृथिवी के चय निकालने पर्यन्त राज विभाग १५४-१५७ । ४० । का विधान १७६ १४८ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय प्रत्येक पृथिवी के व्यास का प्रमाण निकालने का विधान अधोलोकगत सात क्षेत्रों का घनफल निकालने हेतु गुणकार एवं आकृति पूर्व-पश्चिम से अधोलोक की ऊँचाई प्राप्त करने का विधान एवं उसकी आकृति त्रिकोण एवं लम्बे बाहुयुक्त क्षेत्र के घनफल निकालने की विधि एवं उसका प्रमारण अभ्यन्तर क्षेत्रों का घनफल सम्पूर्ण अधोलोक का घनफल लघु भुजाओं के विस्तार का प्रमाण निकालने का विधान एवं आकृति १८४ । ५४ अधोलोक का क्रमश: घनफल १८५-१६१ | ५६ ऊर्ध्वलोक के मुख तथा भूमि का विस्तार एवं ऊँचाई गाथा / पृ० सं० लोक में दस स्थानों के व्यासार्थ चय एवं गुणकारों का प्रमाण व्यास का प्रमाण निकालने का विधान लोक के व्यास की वृद्धि हानि १७७ १७८ ७६४६ का प्रमाण ऊर्ध्वलोक के दस क्षेत्रों के अधोभाग का विस्तार एवं उसकी प्राकृति ऊर्ध्वलोक के दसों क्षेत्रों के घनफल का प्रमाण ४५ १५०६ १८१ । ५२ १८२ । ५३ १८३ । ५३ १६२ । ५९ १६३ । ६० १६४ । ६० १६५ । ६१ १६६-१६७ । ६१ १९८-१६९ । ६२ ७२ विषय स्तम्भों की ऊचाई एवं उसकी आकृति स्तम्भ - अंतरित क्षेत्रों का घनफल ऊर्वलोक में आठ क्षुद्र भुजाओं का विस्तार एवं श्राकृति २०३-२०७३ ६६-६७ ऊर्ध्वलोक के ग्यारह त्रिभुज एवं चतुर्भुज क्षेत्रों का घनफल २०८-२१३ । ६८-७० आठ आयताकार क्षेत्रों का और समाली का घनफल सम्पूर्ण ऊर्ध्वलोक का सम्मिलित घनफल सम्पूर्ण लोक के आठ भेद एवं उनके नाम सामान्यलोक का घनफल एवं उसकी आकृति का प्रमाण मेरुस विस्तार गाया / पृ० सं० २०० । ६४ २०१ २०२ । ६.५ लोक के सप्त स्थानों का २१४ । ७१ २१५ । ७१ २२१ । ७६ यत्र का प्रमारण, यवमुरज का धनफल एवं आकृति यव मध्यक्षेत्र का घनफल एवं उसकी आकृति लोक में भन्दर मेरु की ऊँचाई एवं उसकी आकृति अंतरवर्ती चार त्रिकोणों से चूलिका की सिद्धि एवं उसका प्रमाण २२३-२४ १७६ हानि वृद्धि (चय) एवं विस्तार २१६ । ७२ २१७ १७२ २१८-२० । ७४ २२२ । ७८ २२५-२६ । ८० २२७-२९ । ८० Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय घनफल प्राप्त करने हेतु गुणकार एवं भागहार सप्त स्थानों के भागहार एवं मंदरमेरु लोक का घनफल दूष्य लोक का घनफल और उसकी आकृति गिरिकरक लोक का घनफल और उसकी आकृति अधोलोक का घनफल कहने की प्रतिज्ञा यवमुरज अधोलोक को आकृति एवं घनफल यवमध्य अधोलोक का घनफल गाथा / पृ० सं० २३०-३२ । ८२ २३३ । ८३ २३४-३५ । ८४ २३६ । ८६ २३७-३८ । ८७ एवं आकृति मंदरमेरु अधोलोक का घनफल और उसकी श्राकृति २३६ | ८६ २४० | ११ २४१-४१ । ६२ २५०-५१ । ६७ २५२ / ६६ दूष्य अधोलोक का चनफल frfoकटक अधोलोक का घनफल अधोलोक के वर्णन की समाप्ति एवं ऊर्ध्वलोक के वर्णन की सूचना २५३ । १०० सामान्य तथा ऊर्ध्वायत चतुरस्र ऊर्ध्वलोक के घनफल एवं आकृतियाँ तिर्थंगायत चतुरस्र तथा यवमुरज ऊर्ध्वलोक एवं श्राकृतियाँ २५५-५६ । १०२ यवमध्य ऊर्ध्वलोक या घनफल एवं आकृति २५७ । १०४ मन्दरमेस ऊर्ध्वलोक का घनफल २५४ । १०० २५८-६६ । १०६ ७३ विषय दृष्य क्षेत्र का घनफल एवं गिरिकटक क्षेत्र कहने की प्रतिज्ञा २६७-६८ । ११० गिरिकटक ऊर्ध्वलोक का घनफल २६९ | ११२ बाके प्रतिज्ञा की गाथा / पृ० सं० २७० ११२ लोक को परिवेष्टित करने वाली वायु का स्वरूप वातवलयों के बाहृत्य ( मोटाई) का प्रमाण एक राजू पर होने वाली हानि वृद्धि का प्रमाण पार्श्व भागों में वातवलयों का बाहुल्य वातमण्डल की मोटाई प्राप्त करने का विधान मेरुतुल से ऊपर वातवलयों की मोटाई का प्रमाण पार्श्वभागों में तथा लोकशिखर पर पवनों की मोटाई २७१-७२ । ११३ २७३-७६ | ११३ २७७-७८ । ११६ २७६ । ११६ २८० । ११७ २८१-८२ । ११८ २८३-८४ । ११६ वायुरुद्धक्षेत्र यादि के घनफलों के निरूपण को प्रतिज्ञा वातावरुद्ध क्षेत्र निकालने का विधान एवं घनफल लोक के शिखर पर वायुरुद्ध क्षेत्र का घनफल पवनों से रुद्ध समस्त क्षेत्र के घनफलों का योग २६५ । ११२ ११९ १२५ १२६ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ विपय गाथा/पृ० सं० । विषय गाथा/पृ० सं० पृथिवियों के नोचे पवन से रुद्ध क्षेत्रों रत्नप्रभा नाम की सार्थकता २०१ १४४ का घनफल १२७ शेष छह पृथिवियों के नाम एवं आठों पृथिवियों के सम्पूर्ण घनफलों उनकी सार्थकता २१ । १४४ का योग १३१ शर्करा आदि पृथिवियों का बाहल्य २२११४४ पृथिवियों के पृथक्-पृथक् घनफल का प्रकारान्तर से पृथिबियों का बाहल्य २३ । १४५ निर्देश १३३ पृथिवियों से घनोदधि वायु की लोक के शुद्धाकाश का प्रमाण १३७ संलग्नता एवं प्राकार २४-२५ । १४५ अधिकारान्त मंगलाचरण २८६ । १३८ नरक बिलों का प्रमाण प्रथिवीक्रम से बिलों की संख्या २७ ११४६ marimms [गा० १-३७१] बिलों का स्थान २८ । १४७ ३ महाधिकार १ [पृ० १३९-२६४] नरक बिलों में उष्णता का विभाग २६ । १४७ नरक बिलों में शीतता का विभाग ३० । १४७ मङ्गलाचरण पूर्वक नारकलोक कथन उप एवं शीत बिलों की संख्या की प्रतिज्ञा एवं वर्णन ३१-३५। १४८ पन्द्रह अधिकारों का निर्देश २-५ । १३६ बिलों के भेद ३६ । १४६ असनाली का स्वरूप एवं ऊँचाई ६-७ । १४० इन्द्रफ बिलों व श्रेणीबद्ध बिलों की सर्वलोक को वसनालीपने की विवक्षा ८ । १४१ संख्या ३७-३६ । १५१ १. नारकियों के निवास क्षेत्र (गा० ६-१६५) इन्द्रक बिलों के नाम ४०-४५ १५१ रत्नप्रभा पृथिवी के तीन भाग एवं श्रेणीबद्ध बिलों का निरूपण ४६ । १५२ उनका बाहल्य ९।१४१ धर्मादि पृथिवियों के प्रथम श्रेणीबद्ध खर भाग के एवं चित्रापृथिवी के बिलों के नाम ४७-५४ । १५३-५४ १० । १४१ इन्द्रक एवं श्रेणीबद्ध बिलों को चित्रा नाम की सार्थकता ११-१४ । १४२ संख्या चित्रा पृथिवी की मोटाई १५ । १४२ क्रमशःश्रेणीबद्ध बिलों की हानि ५६-५७ । १५५ अन्य पृथिवियों के नाम एवं उनका श्रेणीबद्ध बिलों के प्रमाण निकालने बाहत्य १६-१८ । १४३ की विधि ५८-५९ १५६ पंक भाग एवं अन्बहुल भाग इन्द्रक बिलों के प्रमाण निकालने की का स्वरूप १६ । १४३ विधि ६० । १५७ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय गाथा/पृ० सं० । विषय गाथा/पृ० सं० पादि, उत्तर और गच्छ का प्रमाण ६१ । १५७ | प्रत्येक पृथिवी के प्रकीर्सक बिलों का आदि का प्रमाण ६२ । १५७ प्रमाण निकालने की गच्छ एवं चय का प्रमाण ६३ । १५८ विधि ८७-९४१ १६६-१७१ संकलित धन निकालने का इन्द्रादिक बिलों का विस्तार ५ । १७२ विधान ६४-६५ । १५५-५६ संख्यात एवं असंख्यात योजन विस्तार समस्त पृथिवियों के इन्द्रक एवं श्रेणीबद्ध बाले बिलों का प्रमाण ९६-१९ । १७२-७४ बिलों की संख्या ६६-६८ । १६०-६१ सर्व बिलों का तिरछे रूप में जघन्य सम्मिलित प्रमाण निकालने के लिए एवं उत्कृष्ट अंतराल १००-१०१1१७४-१७५ आदि, चय एवं गच्छ का प्रकीर्णक बिलों में संख्यात एवं असंख्यात् | সারা ६९-७० । १६१ योजन विस्तृत बिलों का समस्त पृथिवियों का संकलित धन विभाग १०२-१०३ । १७५-७६ निकालने का विधान ७१-७२ । १६२ । संख्यात एवं असंख्यात योजन विस्तार समस्त पृथिवियों के इन्द्रक और वाले नारक बिलों में नारकियों श्रेणीबद्ध बिलों की संख्या ७३ । १६२ । की संख्या १०४ । १७७ श्रेणीबद्ध बिलों की संख्या निकालने इंद्रक बिलों की हानि वृद्धि का के लिए आदि गच्छ एवं चय का प्रमाण १०५१०६ । १७७ निर्देश ७४-७५ । १६२-१६३ इच्छित इंद्रक के विस्तार को श्रेणीबद्ध बिलों की संख्या निकालने प्राप्त करने का विधान १०७ १ १७८ का विधान ७६ । १६३ पहली पृथिवी के तेरह इंद्रकों का घेणीबद्ध बिलों की संख्या ७७-७६ । १६३.१६४ पृथक्-पृथक् विस्तार १०८-१२० । १७८ ८२ सब पृथिवियों के समस्त श्रेणीबद्ध दूसरी पृथिवी के ग्यारह इंद्रकों का बिलों की संख्या निकालने के पृथक्-पृथक् विस्तार १२१-१३१ । १८२-८५ लिए आदि, चय और गच्छ का तीसरी पृथिवी के नव इंद्रकों का पृथक्निर्देश, विधान, संख्या ८०-८२ । १६५ पृथक् विस्तार १३२-१४० । १८५.१८८ आदि (मुख) निकालने की विधि ६३ । १६६ चौथी पृथिवी के सात इंद्रकों का पृथक्चय निकालने की विधि पृथक् विस्तार १४१-१४७ । १८८-६० दो प्रकार से गच्छ निकालने की पांचवीं पृथिवी के पांच इंद्रकों का पृथक्विधि ८५-८६ । १६७-६८ । पृथक् विस्तार १४८-१५२ । १६०-६१ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय छटी पृथिवी के तीन इंद्रकों का पृथकपृथक विस्तार गाथा / पृ० सं० १५३-१५५ । १६२ सातवीं पृथिवी के अवधिस्थान इंद्रक का विस्तार १५६ | १६३ इंद्र, श्रणीबद्ध और प्रकीर्शक बिलों के बाहल्य का प्रमाण १५७ - १५८ । १६५-६६ रत्नप्रभादि छह पृथिवियों में इंद्रादि बिलों का स्वस्थान अग अंतराल सातवीं पृथिवी में इंद्रक एवं श्रेणीबद्ध बिलों के अधस्तन और उपरिम पृथित्रियों का बाहल्य पहली पृथिवी के अन्तिम और दूसरी पृथिवी के प्रथम इंद्रक का १५६-१६२ । १६७-१६८ १६३ । १६६ परस्थान अन्तराल तीसरी पृथिवी से छठी पृथिवी तक परस्थान अन्तराल छठी एवं सातवीं पृथिवी के इंद्रकों का परस्थान अन्तराल १६४ । १६६ १६५ | २०० ७६ १६६ । २०० पृथिवियों के इंद्रक बिलों का स्वस्थान परस्थान अंतराल १६७-१७६ । २०१-२०५ प्रथमादि नरकों में थे पीबद्धों का स्वस्थान अंतराल १८० १६६ । २०५ २०८ प्रथमादि नरकों में श्रेणीबद्ध बिलों का परस्थान अंतराल १८७-८८ २०८-२०६ प्रकीर्णक बिलों का स्वस्थान- परस्थान १८६-१६५ । २१०-२१३ अंतराल विषय २. नारकियों की संख्या (गा. १६६ - २०२ ) नारकियों की विभिन्न नरकों में संख्या १६६-२०२ । २१४-२१५ ३. नारकियों की प्रायु का प्रमाण (गा. २०३-२१६) पहली पृथिवी में पटल क्रम से नारकियों की आयु का प्रमाण २०३-२०८ १२१६-१७ यायु की हानि वृद्धि का प्रमाण प्राप्त करने का विधान गाथा / पृ० सं० आयु का प्रमाण पांचवीं पृथिवी में नारकियों की दूसरी पृथिवी में पटल क्रम से नारकियों की आयु का प्रमाण तीसरी पृथिवी में पटलक्रम से नारकियों की आयु का प्रमाण चौथी पृथिवी में नारकियों की आयु का प्रमारण छठी पृथिवी में नारकियों की आयु का प्रमाण सातवीं पृथिवी में नारकियों की २०६ । २१७ आयु का प्रमाण श्रेणीबद्ध एवं प्रकीर्णक बिलों में स्थित नारकियों की आयु ४. नारकियों के शरीर का उत्सेध २१० । २१८ २११ । २१८ २१२ । २१६ २१३ ।२१६ २१४ । २१६ २१५ | २२० २१६ । २२० (गा. २१७-२७१) पहली पृथिवी में पटलक्रम से नारकियों के शरीर का उत्सेध २१७-२३१ । २२३-२२६ दूसरी पृथिवी में पटल क्रम से नारकियों के शरीर का उत्सेध २३२-२४२ । २२७-२२६ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ लक्षण विषय गाथा/पृ० सं० । विषय गाथा/पृ० सं० तीसरी पृथिवी में उत्सेध की हानि-वृद्धि का ८. जन्म-मरण के अंतराल का प्रमाण प्रमाण व उत्सेध २४३-२५२ ! २२६-२३२ (गा. २८८) २४४ चौथी पृथिवी में उन्सेध की हानि-वृद्धि का ६. एक समय में जन्म-मरण करने वालों का प्रमाण प्रमाण व उत्सेध २५३-२६० १ २३२-२३४ (गा. २८६) २४५ पांचवीं पृथिवी में उत्सेध की हानि वृद्धि का | १०. नरक से निकले हुए जोवों की उत्पत्ति का प्रमाण व उत्सेघ २६१-२६५। २३४-२३५ कथन (गा. २६०-२६३) २४५-२४६ छठी पृथिवी में उत्सेध की हानि-वृद्धि का ११. नरकायु के बन्धक परिणामों का कथन प्रमाण व उत्सेध २६६-२६६ । २३५-३६ (गा. २६४-३०२) सातवीं पृथिवी में उत्सेघ की हानि-बृद्धि का नरकायु के बन्धक परिणाम २६४ । २४६ प्रमाण व उत्सेध २७० । २३६ अशुभ लेश्याओं का परिणाम २६५ । २४७ श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलों के प्रशुभलेश्यायुक्त जीवों के नारकियों का उत्सेध. २७१ । २३७ २९६-३०२ । २४७-२४८ ५. नारकियों के अधिशान का प्रमारण १२. नारकियों को जन्मभूमियों का वर्णन (गा. २७२) २४० (गा. ३०३-३१३) ६. नारकियों में बीस प्ररूपणानों का निर्देश नरकों में जन्मभूमियों के (गा. २७३-२८४) __ आकारादि ३०३-३०८ । २४८-२४६ नारकी जीवों में गुणस्थान २७४ । २४० नरकों में दुर्गन्ध ३०६ । २५० उपरितन गुणस्थानों का निषेध २७५-७६ । २४१ जन्मभूमियों का विस्तार ३१० १ २५० जीवसमास और पर्याप्तियां २७७ । २४१ जन्मभूमियों की ऊँचाई एवं आकार ३११ । २५० प्रारा और संज्ञाएं २७८ । २४१ जन्मभूमियों के द्वारकोण एवं चौदह मार्गरगाएँ २७६-२८३ । २४१-४२ दरवाजे ३१२-१३ । २५१ उपयोग २८४ १ २४३ १३. नरकों के दुःखों का वर्णन (गा. ३१४.३६१) ७. उत्पद्यमान जीवों को व्यवस्था सातों पृथिवियों के दुःखों का (गा. २८५-२८७) कथन ३१४-३४८ | ३५१-२५८ नरकों में उत्पन्न होने वाले जीवों प्रत्येक पृथिवी के ग्राहार की का निरूपण २८५-२८६ । २४३ गन्धशक्ति का प्रमाण ३४६ । २५६ नरकों में निरन्तर उत्पत्ति का अमुरकुमार देवों में उत्पन्न होने प्रमाण २८७ । २४३ । के कारण ३५० । २५९ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय असुरकुमार देवों की जातियां एवं उनके कार्य नरकों में दुःख भोगने की अवधि गाथा, पृ० सं० ३५१-३५३ । २५९-६० नरकगति की उत्पत्ति के कारण अधिकारान्त मङ्गलाचरण तृतीय महाधिकार नरकों में उत्पन्न होने के अन्य भी कारण १४. नरकों में सम्यवत्व ग्रहण के कारण (गा. ३६२-६४ ) २६२ १५. नारकियों की योनियों का कथन (गा. ३६५) २६३ ३५४-३५७ । २६० ३५८-३६१ । २६१ ३६६-३७० । २६३-२६४ ३७१ । १६४ [ मा. १-२५५ ] [प्र.२६५-३३५] १ १ २६५ मङ्गलाचरण भावनलोक निरूपण में चौबीस अधिकारों का निर्देश २-६ । २६५ १. भवनवासी देवों का निवास क्षेत्र ७-८ । २६६ २. भवनवासी देवों के मेव । २६६ ३. भवनवासियों के चिह्न १० । २६७ ४. भवनवासी देवों की भवन संख्या ११-१२ । २६७ ५. भवनवासी देवों में इन्द्रसंख्या १३ । २६८ ६. मवनवासी इन्द्रों के नाम १४-१६ । २६८ ७. दक्षिणेन्द्रों और उत्तरेन्द्रों का विभाग १७-१६ । २६६ ७५ विषय ८. भवनों का वर्णन ( गा० २०-२३) भवन संख्या २०-२१।२७० निवास स्थानों के भेद एवं स्वरूप २२-२३ । २७२ ६. प्रपद्धिक, महसिक और मध्यम ऋद्धि धारक देवों के भवनों के स्थान २४ । २७२ १०. भवनों का विस्तारावि एवं उनमें निवास करने वाले देवों का प्रमाण २५-२६ । २७३ ११. वेदियों का वर्णन (गा. २७-३८) भवनवेदियों का स्थान, स्वरूप तथा उत्सेध आदि वेदियों के बाह्य स्थित वनों का निर्देश गाथा / पृ० सं० १२ वेदियों के मध्य में कूटों का निरूपण २७-२६ २७३ ३० । २७४ ३१-३६ । २७४ चैत्यवृक्षों का वर्णन चैत्यवृक्षों के मूल में स्थित जिनप्रतिमाएँ ३७-३८ । २७६ ३६-४१ । २७६ ४२-५४ ) १३. जिनभवनों का निरूपण (गा कूटों पर स्थित जिनभवनों का निरूपण महाध्वजाओं एवं लघुध्वजाओं की संख्या जिनालय में वन्दनगृहों श्रादि का वर्णन श्रत आदि देवियों व यक्षों की मूर्तियों का निरूपण श्रष्ट मंगलद्रव्य ४२-४४ । २७७ ४५ १२७८ ४६ १२७८ ४७ १२७८ ४८ । २७६ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय गाथा पृ० सं० । विषय गाथा/पृ० सं० जिनालयों की शोभा का | असुरकुमार आदि देवों का वर्णन ४६-५० । २७६ गमन १२३-१२५ । ३०१ नागपक्ष मुगलों से युक्त जिन भवनवासी देव-देवियों के शरीर प्रतिभाएं ५१ । २७६ एवं स्वभावादि का जिनभवनों की संख्या ५२ । २७६ निरूपण १२६-१३० । ३०१ भवनबासी देव जिनेन्द्र को ही असुरकुमार आदिकों में पूजते हैं ५३-५४ । २८० प्रवीचार १३१-३२ । ३०२ १४ प्रासावों का वर्णन (गा. ५५-६१) इन्द्र-प्रतीन्द्रादिकों की छत्रादि विभूतियाँ १३३-३४ । ३०३ कूटों के चारों ओर स्थित भवनवासी __ देवों के प्रासादों का इन्द्र-प्रतीन्द्रादिकों के चिह्न १३५ । ३०३ निरूपण ५५-६१ १ २८०.८१ असुरादि कुलों के चिन्ह स्वरूप वृक्षों का निर्देश १३६-३७ । ३०३ १५ इन्द्रों को विभूति (गा० ६२-१४३) जिनप्रतिमाएँ व मानस्तम्भ १३८-४१ । ३०६ प्रत्येक इन्द्र के परिवार देव-देवियों का चमरेन्द्रादिकों में परस्पर निरूपण ६२-७६ । २८२-८५ ईर्षाभाव १४२-४३ । ३०६ अनीक देवों का वर्णन ७७-८६ । २८६-२९० १६. भवनवासियों को संख्या १४४ । ३०७ भवनवासिनी देवियों का १७ भवनवासियों की प्रायु (गा० १४५-१७६) निरूपण ९०-१०९ । २६१ अप्रधान परिवार देवों का भवनवासियों की प्रमाण ११० । २६८ आयु............ १४५-१६२ । ३०७-३१३ भवनवासी देवों का आहार और आयु की अपेक्षा सामर्थ्य १६३-६६ 1 ३१४ उसका काल प्रमाण १११-११५ । २१८ आयु की अपेक्षा विक्रिया १६७-६८ । ३१४-१५ भवनवासियों में उच्छ्वास के समय पायु की अपेक्षा गमनागमनका निरूपण ११६-११८ । २६९ शक्ति १६९-७० । ३१५ प्रतीन्द्रादिकों के उच्छ्वास का । भवनवासिनी देवियों की प्रायु १७१-७५ ॥ ३१५ निरूपण भवनवासियों की जघन्य आयु ११६1३०० १७६ । ३१६ असुरक्रुमारादिकों के वरों का १६ भवनवासी देवों के शरीर का निरूपण १२०-२२ । ३०० । उत्सेध १७७ । ३११ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० ३१० विषय गाथा पृ० सं० । विषय गाथा/पृ० सं० १६ अवधिज्ञान के क्षेत्र का प्रमाण बन्धयोग्य परिणाम २०१-२०४ । ३२२ (गा० १७८-१८३) देब दुर्गतियों में उत्पत्ति के कारण २०५ । ३२३ ऊर्ध्व दिशा में उत्कृष्ट रूप से अवधि कन्दर्प देवों में उत्पत्ति के कारण २०६ । ३२३ क्षेत्र का प्रमाण १७८ । ३१७ वाहन देवों में उत्पत्ति के कारण २०७ । ३२३ अधः एवं तिर्यग्क्षेत्र में अवधिज्ञान किल्विषक देवों में उत्पत्ति के का प्रमाण १७९ । ३१७ कारण २०८ । ३२४ क्षेत्र एवं कालापेक्षा जघन्य अवधि सम्मोह देबों में उत्पत्ति के कारण २०६ । ३२४ ज्ञान असुरों में उत्पन्न होने के कारण २१० । ३२४ असुरकुमार देवों के अवधिज्ञान १८१ । ३१८ उत्पत्ति एवं पर्याप्ति वर्णन का प्रमाण २११ । ३२४ शेष देवों के अवधिज्ञान सप्तादि धातुओं व रोगादि का का प्रमाण १८२ । ३१६ निषेध २१२-१३ । ३२५ प्रवधिक्षेत्र प्रमाण विक्रिया १८३ । ३१८ भवनवासियों में उत्पत्ति २०. भवनवासी देवों में गुणस्थानाविक का __ समारोह धर्णन (गा० १८४-१६६) विभंगज्ञान उत्पत्ति २१७ । ३२६ अपर्याप्त ब पर्याप्त दशा में नवजात देवकृत पदचात्ताप २१८-२२२ । ३२६ गुणस्थान १८४-८५ । ३१६ सम्यक्त्वग्रहण २२३ । ३२७ उपरितन गुणस्थानों की विशुद्धि अन्य देवों को सन्तोष २२४ । ३२७ विनाश के फल से भवनवासियों जिनपूजा का उद्योग २२५-२७ । ३२७ में उत्पत्ति १८६-८७ । ३१६ जिनाभिक एवं पूजन आदि २२८-३८ । ३२८ जीव समास पर्याप्ति १८८ । ३२० पूजन के बाद नाटक २२६ 1 ३३० प्राण १८४ । ३२० सम्बरष्टि एवं मिथ्यादृष्टि देव के संज्ञा, गति, योग, वेद. कषाय, ज्ञान, पूजनपरिणाम और अंतर २४०-४१ । ३३० दशन, लेश्या, भव्यत्व, उपयोग १६०-६६ । ३२०-२१ जिनपूजा के पश्चात् २४२ । ३३१ २१. एक समय में उत्पत्ति एवं मरण का प्रमाण भवनवासी देवों के (गा. १९७) ३२१ सुखानुभव २४३-२५० । ३३६-३३३ २२. मवनवासियों को प्रागति निर्देश २४, सम्यक्त्व ग्रहण के कारण (गा. २५१-२५२) (गा. १९८-२००) ३२२ भवनवासियों में उत्पत्ति के २३. भवनबासी देषों को प्राधु के बन्ध योग्य कारण २५३-५४ । ३३४ परिणाम (गा. २०१-२५०) महाधिकारान्त मंगलाचरण २५५ । ३३५ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जदिवसह-प्राइरिय-विरहवा तिलोयपण्णत्ती पढमो महाहियारो ॐ मङ्गलाचरण ( सिद्ध-स्तवन ) अट्ठ-विह-कम्म-वियला पिट्ठिय-कज्जा परगट्ठ-संसारा । दिट्ठ-सयलत्य-सारा सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु ॥१॥ अर्थ :--पाठ प्रकारके कर्मोंसे रहित, करने योग्य कार्योको कर चुकने वाले, संसारको नध-कर देने वाले और सम्पूर्ण पदार्थोंके सारको देखने-बाले सिद्ध-परमेष्ठी मेरे लिए सिद्धि प्रदान करें ।।१।। अरहन्त-स्तवन घण-घाइ-कम्म-महणा तिहुवरण-वर-भव्य-कमल-मत्तंडा'। अरिहा अरणंत-गारणा अणुबम-सोक्खा जयंतु जए ॥२॥ प्रर्य :- प्रबल घातिया कर्मोंका मन्थन करने वाले, तीन लोकके उत्कृष्ट भव्यजीवरूपी कमलोंके लिए मार्तण्ड ( सूर्य), अनन्तज्ञानी और अनुपम सुस्त्र वाले ( अरहन्त भगवान् ) जगमें जयवन्त हो। 1॥२॥ प्राचार्य-स्तवन पंच-महव्यय-तुगा तक्कालिय-सपर-समय-सुदधारा । गाणागुरण-गरण-भरिया प्राइरिया मम पसीदंतु ॥३॥ द. ब. क. ज. उ. ॐनमः सिद्ध भ्यः। १ द. मातंडा। २. द. पसीयंत । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ४.७ अर्थ :-पांच महावतोस उन्नत, तत्कालीन स्वसमय और परममय स्वरूप श्रुतधारा ( में निमग्न रहने ) वाले और नाना-गुरणोंके समूहमे परिपूरित प्राचार्यगरा मेरे लिए आनन्द प्रदान करें ॥३॥ उपाध्याय -स्तवन अण्णाण-घोर-तिमिरे' दुरंत-तीरम्हि हिंडमाणाणं । भवियाणुज्जोययरा' उवज्झया वर-मदि देंतु ॥४॥ अर्थ :-दुर्गम-तीरवाले प्रज्ञानके गहन-अन्धकारमें भटकते हुए भव्य जीवोंके लिए ज्ञानरूपी प्रकाश प्रदान करनेवाल उपाध्याय-परमेष्ठी उत्कृष्ट बुद्धि प्रदान करें ॥४॥ साधु-स्तवन थिर-धरिय-सोलमाला ययगय-राया जसोह-पउहत्था । बहु-विषय-भूसियंगा सुहाई साहू पयच्छतु ॥५॥ अर्थ :- शीलवतोंकी मालाको दृढ़तापूर्वक धारण-करनेवाले, रागसे रहित, यश-समूहसे परिपूर्ण और विविध प्रकारके विनयसे विभूषित अङ्गवाले साधु ( परमेष्ठी) सुख प्रदान करें ||५|| ग्रन्थ रचना-प्रतिज्ञा एवं वर-पंचगुरू तियररण-सुद्ध ण णमंसिऊरणाह' । भव-जणारा पदीचं वोच्छामि सिलोयपत्ति ॥६॥ अर्थ :-इस प्रकार मैं ( यतिवृषभाचार्य) तीन-करण ( मन, वचन, काय) की शुद्धिपूर्वक श्रेष्ठ पञ्चपरमेष्टियोंको नमस्कार करके भव्य-जनोंके लिए प्रदीप-तुल्य "त्रिलोक-प्रज्ञप्ति" ग्रन्थका कथन करता हूं ।।६।। ग्रन्थ के प्रारम्भमें करने योग्य छह कार्य मंगल-कारण-हेदू सत्थस्स पमाण-णाम कत्तारा । पढम चिय कहिदव्वा एसा पाइरिय-परिभासा ॥७॥ -- --- - ४. म. ज. ठ, सिलामाला । १ द. तिमिरं, ब. तिमिर । २. द. गुज्जोवयरा। २. द. वितु। ५. द. ज. ल. सुहाद। ६. द. क. रामसिऊणाहं। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा: ८ १२ । हम महाहियारो | ३ अर्थ :- मङ्गल, कारण, हेतु, प्रमाण, नाम और कर्ता इन छह अधिकारोंका शास्त्र के पहले ही व्याख्यान करना चाहिए ऐसी प्राचार्य की परिभाषा ( पद्धति ) है ||७|| मङ्गलके पर्यायवाचक शब्द पुण्णं पूर्व - पवित्ता पसत्य-सिव-भद्द - खेम - कल्लारखा । सुह-सोक्खादी सव्वे रिपट्ठिा मंगलस्स पज्जाया ॥ ८ ॥ अर्थ :- पुण्य, पूत, पवित्र, प्रशस्त, शिव, भद्र, क्षेम, कल्याण, शुभ और सौख्य इत्यादिक सब शब्द मङ्गलके ही पर्यायवाची (समानार्थक ) कहे गये हैं || ८ || मङ्गल - शब्दकी निरुक्ति गायदि विरणासयदे घादेदि दहेदि हंति सोधयदे | विद्धसेदि मलाई जम्हा तम्हा य मंगलं भरिषदं ॥ ६ ॥ अर्थ :- क्योंकि यह मलको गलाता है, विनष्ट करता है, घातता है, दहन करता है, मारता है, शुद्ध करता है और विध्वंस करता है, इसीलिए मङ्गल कहा गया है || ९ || मङ्गलके भेद पूण | मलस्स इह दव्व-भाव-भेएहि । बाहिरमभंतरं चेय ॥ १० ॥ दोfor farप्पा होंति दव्यमलं दुविहप्प अर्थ :- ( यथार्थतः ) द्रव्य और भावके भेदसे मलके दो प्रकार हैं, पुनः द्रव्यमन्न दो तरहका है -- बाह्य और आभ्यन्तर || १० || द्रव्यमल और भावमलका वर्णन सेद' - जल- रेणु-कद्दम - पहूदी बाहिर-मलं समुद्दिट्ठ । धरण' दिव-जीव-पवेसे बिंध - रुवाइ पर्याड - ठिदि आई ।।११।। श्रणुभाग "-पदेसाई चह पत्तेक्क भेज्जभारणं तु । खारणावर रणप्पहूदी-टु-विहं कम्ममखिल- पावरयं ॥ १२ ॥ १. द. ज. क. ठ इमं । २. ज. 5. दुनियध्वं । ३. द. ज. क. ठ. सीदजल । ५. द. ज. क. ठ. अणुभावपदेसाई । ४. द. ज. क. ठ. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ । निलोयपत्ती [ गाथा : १३-१६ अभंतर-वध्वमलं जीव-पदेसे रिणबद्धमिदि' हेदो। नाक पलं सातत्यं प्रमाणादसणादि-परिणामो ॥१३॥ अर्थ :-स्बेद ( पसीना ), रेणु ( धूलि ), कर्दम ( कीचड़ ) इत्यादि द्रव्यमल कहे गये हैं अोर दृढ़रूपसे जीवके प्रदेशों एक क्षेत्रावगाहरूप अन्धको प्राप्स' तथा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश, बन्धके इन चश भेदों में से प्रत्येक भेटको प्राप्त होने वाला ऐसा ज्ञानस्वरणादि पाठ प्रकारका सम्पूर्ण कर्मरूपी पाप-रज जो जीवके प्रदेशोंसे सम्बद्ध है, ( इस हेतु से ) वह (ज्ञानावरणादि कमरज) आभ्यन्नर द्रव्यमल है। जीवके अज्ञान, प्रदर्शन इत्यादिक परिणामोंको भावमल समझना चाहिए ।।११-१३।। मङ्गल-शब्दकी सार्थकता अहवा बह-भेयगयं णाणावरणादि-दव्व-भाव-मल-भैदा । ताई गालेइ पुढं जदो तदो मंगलं भणिबं ॥१४॥ अर्थ :-प्रथका ज्ञानाबरणादिक द्रव्यमलके और ज्ञानावरणादिक भाव मलके भेदसे मल के अनेक भेद हैं; उन्हें चूकि ( मङ्गल ) स्पष्ट रूपसे गलाता है अर्थात् नष्ट करता है, इसलिए यह मंगल कहा गया है ।।१४।। मंगलाचरमकी सार्थकता अहया मंग* सोक्खं लादि हु मेण्हेकि मंगलं तम्हा । एवेण' कज्ज-सिद्धि मंगइ मच्छनि गंथ-कत्तस्रो ॥१५॥ अर्थ :-यह मंग ( मोद) को एवं सुखको लाता है, इसलिए भी मंगल कहा भाता है। इसीके द्वारा ग्रन्थकर्ता कार्य सिद्धिको प्राप्त करता है और प्रानन्दको उपलब्ध करता है ।।१५॥ पुश्विलाइरिएहि मंगं पुषणत्थ-वाचयं भणियं । तं लादि हु प्रादत्ते जदो तदो मंगलं परं ॥१६॥ अर्थ :-पूर्वाचार्योंके द्वारा मंग पुण्यार्थवाचक कहा गया है, यह यथार्थमें उसी (मंगल) को लाता है एवं ग्रहण कराता है, इसीलिए यह मंगल श्रेष्ट है ॥१६॥ २. द. क. मंगल । ३ द. क.उ. एदाए। ४.द. १. द.द.ज.क.:. शिबंधमिदि। गत्येदिगंथ, ब. मंगल गस्थेदि । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १७-२१ ] पडमो महाहियारो पावं मलं त्ति भण्णइ उययार-सख्घएण जीवाणे । तं गालेदि विणासं णेवित्ति' भर्णति मंगलं केई ॥१७॥ अर्थ :- जीवोंका पाप, उपचारसे मल कहा जाता है । मंगल उस ( पाप ) को गलाता है तथा विनाशको प्राप्त कराता है, इस कारण भी कुछ प्राचार्य इसे मंगल कहते हैं ॥१७॥ मंगलाचरणके नामादिक छह भेद सामाणिठावणामो दव-खेताणि काल-भावा य । इय छन्भेयं भणियं मंगलमाणंद-संजणणं ॥१८॥ मर्थ :-प्रानन्दको उत्पन्न करनेवाला मंगल नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके भेदसे छह प्रकारका कहा गया है ।।१८।। नाममंगल अरिझणं सिद्धाणं पाइरिय-उधज्झयाइ साहूणं । णामाई णाम-मंगलमुट्ठि वीयराएहि ॥१६॥ अर्थ :--वीतराग भगवान् ने अरिहंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु, इनके नामों को नाममङ्गल कहा है ॥१९॥ _स्थापना एवं द्रव्य मङ्गल ठावण-मंगलमेदं प्रकट्टिमाकट्टिमारिण जिबिंबा । सूरि-उवज्झय'-साहू-देहारिण हु वय्व-मंगलयं ॥२०॥ अर्थ :-अकृत्रिम और कृत्रिम जिनबिम्ब स्थापना मङ्गल हैं तथा नाचार्य, उपाध्याय प्रौर साधुके शरीर द्रव्य-मङ्गल हैं ।।२०॥ क्षेत्रमङ्गल गुण-परिणदासणं परिणिक्कमणं केवलस्स गाणस्स । उप्पत्ती इय-पहुदी बहुभेयं खेत्त-मंगलयं ॥२१॥ अर्थ :--गुरणपरिणत ( गुणवान मनुष्यों का निवास ) क्षेत्र, परिनिष्क्रमण ( दीक्षा) क्षेत्र, केवलज्ञानोत्पत्ति क्षेत्र, इत्यादि रूपसे क्षेत्रमङ्गल अनेक प्रकारका है ॥२१॥ १ द. ज. क. 3. गद्देति । २. उपझाया। ३. ब. उवझायाइ। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णती [ गाथा : २२-२७ एदस्स उदाहरणं पायाणयरुज्जयंत-चंपावी । प्राउट्ट-हत्थ-पहुदी पणुवीसहिय-पणसय-धणूणि ॥२२॥ देह-अद्विद-केवलणाणावट्ठद्ध-गयण-देसो वा । सेढि'-घण-मेत्त अप्पप्पस-गव-लोय-पूरणा-पुण्णा ॥२३॥ विस्साण' लोयाण होदि परेसा वि मंगलं खेत्तं । अर्थ :-इस क्षेत्रमङ्गलके उदाहरण-पावानगर, ऊर्जयन्त ( गिरनार ) और चम्पापुर प्रादि हैं तथा साढ़े तीन हाथसे लेकर पाँच सौ पच्चीस घनुष प्रमाण शरीरमें स्थित और केवलज्ञानसे व्याप्त प्राकाश-प्रदेश तथा जगच्छ्रे पीके घनमात्र ( लोक प्रमाण ) प्रात्माके प्रदेशों से लोकपूरण-समुद्घात द्वारा पूरित सभी ( ऊवं, मध्य एवं अधो ) लोकोंके प्रदेश भी क्षेत्रमङ्गल हैं ।।२१-२३३।। काल मंगल जस्सि काले केवलणाणादि-मंगलं परिणमदि ॥२४॥ परिणिक्कमणं केवलणाणुब्भव-णिस्वुदि-प्पबेसादी । पावमल-गालणादो पण्णत्तं फाल-मंगलं एवं ॥२५॥ एवं प्रणेय मेयं हवेदि तं काल-मंगलं पवरं । जिण-महिमा-संबंधं णंदीसर-दिवस-पहवीओ ॥२६॥ अर्थ :-जिस काल में जीव केवलज्ञानादिरूप मंगलमय पर्याय प्राप्त करता है उसको तथा परिनिष्क्रमण ( दीक्षा ) काल, केबलजानके उद्भवका काल और निति ( मोक्षके प्रवेश का) काल, इन सबको पापरूपी मलके गलाने का कारण होनेसे काल-मंगल कहा गया है। इसी प्रकार जिन-महिमासे सम्बन्ध रखने वाले बे नन्दीश्वर दिवस ( अष्टाह्निका पर्व) आदि भी श्रेष्ठ काल मंगल हैं ॥२३३-२६॥ भावमंगल मंगल-पज्जाहि उदलक्खिय-जीव-दव्य-भेतं च । भावं मंगलमेदं पढियं* सत्यादि-मज्झतेसु ॥२७॥ १. द, सेविघरपमित्त प्रप्पपदेसजद । २. ब. पूरण पुण्णं। ३. द. ब. क. विण्णासं। ४, द. ज. क.उ. दीव पदी यो। ५. द.पच्चियपच्छादि, ब. पग्वियसत्यादि। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २८-३१ ] पदम महाहियारो [ अर्थ :- मंगलरूप पर्यायोंसे परिगत शुद्ध जीवद्रव्य भावमंगल है। यही भावमंगल मास्त्र के श्रादि, मध्य और अन्तमें पढ़ा गया है ( करना चाहिए ) || २७ ॥ मंगलाचरण आदि, मध्य और अन्त भेद पुब्बिल्ला इरिएहि उत्तो सत्थान मंगलं जो' सो । आइसि मज्भ - श्रवसाणएसु पियमेण काययो ||२८|| अर्थ :- शास्त्रोंके आदि, मध्य और अन्तमें मंगल अवश्य करना चाहिए, ऐसा पूर्वाचार्यांने कहा है ॥२८॥ श्रदि, मध्य और अन्त मंगलको सार्थकता पढने मंगल- करणे सिस्सा सत्यस्स पारगा होंति । मम्मे णीविग्धं विज्जा बिज्जाफलं चरिमे ॥ २६ ॥ अर्थ :- शास्त्र आदिमें मंगल करने पर शिष्यजन ( शास्त्रके ) पारगामी होते हैं, मध्य में मंगल करने पर विद्याकी प्राप्ति निर्विघ्न होती है और ग्रन्तमें मंगल करने पर विद्याका फल प्राप्त होता है || २९ ॥ जिननाम - ग्रहणका फल नासदि विग्धं भेदवि यंहो दुट्ठा सुरा' ण संघंति । इट्टो प्रत्थो लग्भइ जिण-नामग्गहण मेतेण ॥ ३० ॥ अर्थ :- जिनेन्द्र भगवान् का नाम लेने मात्रसे विघ्न नष्ट हो जाते हैं, पाप खण्डित हो जाते हैं, दुष्ट देव ( असुर ) लांघते नहीं हैं, श्रर्थात् किसी प्रकारका उपद्रव नहीं करते और इट अर्थको प्राप्ति होती है ||३०|| ग्रन्थ में मंगलका प्रयोजन सत्थादि - मज्भ- श्रवसाणएसु जिण थोत्त मंगलुग्धोसो । णास जिस्सेसाई विग्धाई रवि थ्व तिमिराई ॥ ३१ ॥ || इदि मंगलं गदं ॥ १. द. ब. संठाणुमंगलं घोसो | २. द. ज. क. उ. वय । ३. द. खुट्टासुतारण, दुट्टासुवाण, क. ज. ठट्ठाता । ४. द. ब. क. जं. ठ. लद्धो । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निलोयपत्ती | गाथा : ३२-३५ प्रर्थ : .. शास्त्रके आदि, मध्य और अन्तमें जिन-स्तोत्ररूप मंगलका उच्चारण सम्पूर्ण विघ्नोंको उसी प्रकार नष्ट कर देता है जिस प्रकार सूर्य अंधकारको (नष्ट कर देता है) ॥३१॥ । इस प्रकार मंगलका कथन समाप्त हुआ । ___ ग्रन्थ-अवतार-निमित्त विविह-वियप्पं लोयं बहुभेय-णयप्पमाणदो' भव्या । जाणंति ति णिमित्तं कहिवं गंथावतारस्स ॥३२॥ माय :-नाना भेदरूप लोकको भव्य जीव अनेक प्रकारके नय और प्रमागोंसे जानें, यह त्रिलोकप्रज्ञप्तिरूप ग्रन्थ के अवतारका निमित्त कहा गया है ।।३२।। केवलणाण-दिवायर-किरणकलावादु एत्थ अवदारो' । गणहरदेवेहि' गंथुप्पत्ति हु सोहं त्ति संजादो ॥३३॥ अर्थ :-केवलज्ञानरूपी सूर्यकी किरणोंके समूहसे श्रुतके अर्थका अवतार हुअा तथा गणधरदेवके द्वारा ग्रन्थ की उत्पत्ति हुई । यह श्रुत कल्याणकारी है ।।३३।। छहव्व-णव-पयत्थे सुदणाणं दुमणि-किरण-सत्तीए । देवखंतु भव्य-जीवा अण्णाण-तमेण संछण्णा ॥३४।। ॥ खिमित्तं गवं ।। अर्थ :- अज्ञानरूपी अँधेरेसे प्राच्छादित हुए भव्य जीव श्रुतज्ञानरूपी सूर्यकी किरणोंकी शक्तिसे छह द्रव्य और नव-पदार्थो को देखें ( यही ग्रन्थावतारका निमित्त है ) ॥३४।। । इस प्रकार निमित्तका कथन समाप्त हुना। हेतु एवं उसके भेद दुविहो हवेदि हेडू तिलोयपणत्ति-गंथप्रज्झयणे । जिणवर-वयणुट्टिो पच्चक्ख-परोक्ख-भेएहि ॥३५॥ अर्थ :-त्रिलोकप्रज्ञप्ति ग्रन्थके अध्ययनमें जिनेन्द्रदेबके बचनोंसे उपदिष्ट हेतु, प्रत्यक्ष और परोक्षके भेदगे दो प्रकारका है ।। ३५।। १. द. ब. ज.फ. ठ. भेयपमारपदो। २. द. ज. के. ठ. अवहारो, न. अवहारे । ३. द. गणधरदेहें। ४. द. मोहंति संजादो, ब. सोहंति सो जानो। ५.ब. गंथयज्झयणो। . Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३६-४१११ ] पढ़मो महाहियारो प्रत्यक्ष हेतु सक्खा-पच्चक्ख-परंपच्चक्खा दोणि होति' पञ्चक्खा । अण्णाणस्स विणासं गाण-दिवायरस्स उप्पत्ती ॥३६।। देव-मणुस्सादीहिं संततमन्भच्चण-प्पयाराणि । पडिसमयमसंखेज्जय - गुणसेदि - कम्म - णिज्जरणं ॥३७।। इय सक्खा-पच्चक्खं पच्चक्ख-परंपरं च णादव्यं । सिस्स-पडिसिस्स-पहुदीहिं सददमब्भच्चण-पयारं ।।३।। अर्थ :-प्रत्यक्ष हेतु, माक्षात् प्रत्यक्ष और परम्परा प्रत्यक्षके भेदमे दो प्रकारका है । अज्ञानका विनाश, ज्ञानरूपी दिवाकरकी उत्पत्ति, देव और मनुष्यादिकोंके द्वारा निरन्तर की जानेवाली विविधपकारको अभ्यर्चना (पूजा) और प्रत्येक समयमें असंख्यातगुणश्रेणीरूपसे होने वाली कर्मोकी निर्जरा साक्षात् प्रत्यक्ष हेतु है । शिष्य-प्रतिशिष्य आदिके द्वारा निरन्तर अनेक प्रकारसे की जानेवाली पूजाको परम्परा प्रत्यक्ष हेतु जानना चाहिए ।।३६-३८।। ___ परोक्ष हेतुके भेद एवं अभ्युदय सुखका वर्णन दो-भेदं च परोक्खं प्रभुदय-सोक्खाइं मोक्ख-सोक्खाई । सावादि-विविह-सु-पसत्थ -कम्म-तिक्ष्वाणुभाग-उदएहि ॥३६।। इंद-पडिद - दिगिदय - तेत्तीसामर- समाण - पहुदि - सुहं। राजाहिराज - महराज - अद्धमंडलिय - मंडलियाणं ॥४०॥ महमंडलियाणं अद्धचविक-चक्कहर-तिस्थयर-सोक्खं ।।४१.१।। अर्थ :-परोक्ष हेतु भी दो प्रकारका है, एक अभ्युदय सुख और दूसरा मोक्षसुख । सातावेदनीय आदि विविध सुप्रशस्त कर्माके तीव्र अनुभागके उदयसे प्राप्त हुआ इन्द्र, प्रतीन्द्र, दिगिन्द्र (लोकपाल), श्रायस्त्रिश एवं सामानिक आदि देवोंका सुख तथा राजा, अधिराजा, महाराजा, अर्धमण्डलीक, मण्डलीक, महामण्डलीक, अर्धचक्री ( नारायण-प्रतिनारायण ), चक्रवर्ती और तीर्थकर इनका सुख अभ्युदय मुख है ।।३९-४१/१।। १. द. होदि । २. क. ज. ठ. सुपरसस्थ । ३. ब. तेत्तीससायरपमारण । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती [ गाथा ४११२-४५ राजा का लक्षण अट्टारस-मेत्ताणं सामी-सेणीण' भत्ति-जुत्ताणं ।।४१/२।। वर-रयण-मउडधारी सेवयमाणाण बंछिदं अत्थं । देता हवेदि राजा जिवसत्त, समरसंघट्ट ॥४२।। अर्थ : - भक्ति युक्त अठारह-प्रकारको श्रेणियोंका स्वामी, उत्कृष्ट रत्नोंके मुकुटको धारण करने वाला, सेवकजनोंको इच्छित पदार्थ प्रदान करनेवाला और समरके संघर्ष में शत्रुओंको जीतने वाला (व्यक्ति) राजा होता है ॥४१॥२-४२।। अठारह-श्रेणियोंके नाम करि तुरय-रहाहिबई सेणवइ पदत्ति-सेट्ठि-दंडवई । सुद्दक्खत्तिय-वइसा हवंति तह महयरा पवरा ।।४३।। गणराय-मंति-तलवर-पुरोहियामसया महामसा ।। बहुविह-पइण्णया य अट्ठारस होति सेरणीयो' ।।४४।। अर्थ :- हाथी, घोड़े और रथोंके अधिपति, सेनापति, पदाति (पादचारी सेना), श्रेष्ठि (सेठ), दण्डपति, शूद्र, क्षत्रिय, वैश्य, महत्तर, प्रवर ( ब्राह्मण ), गणमन्त्री, राजमन्त्री, तलवर (कोतवाल), पुरोहित, अमात्य और महामात्य एवं बहुत प्रकारके प्रकीर्णक, ऐसी अठारह प्रकारकी श्रेणियाँ होती हैं ।।४३-४४ ।। अधिराज एवं महाराजका लक्षण पंचसय-राय-सामी अहिराजो होवि कित्ति-भरिद-दिसो । रायाण जो सहस्सं पालइ सो होदि महराजो ।।४५।। अर्थ :-कीतिसे भारत दिशाओं वाला और पांच सौ राजाओंका स्वामी अधिराजा होता है और जो एक हजार राजाओं का पालन करता है वह महाराजा है ११४५।। १. द. ब. सेणण। २. द. ज. क. ठ, वंति दह मज', ब. वंति दह पट्ट। ३. द. ब. ज. क. सेमोयो। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ४६-४९ ] पढमो महाहियारो [११ अर्धमण्डलीक एवं मण्डलीकका लक्षण दु-सहस्स-मउडबद्ध-भुव-बसहो' तत्थ सहमग्निको। चउ-राज-सहस्साणं अहिणाहो होइ मंडलियो ।।४६।। अर्थ :- दो हजार मुकुटबद्ध भूपोंमें वृषभ ( प्रधान ) अर्धमण्डलीक तथा चार हजार राजाओं का स्वामी मण्डलीक होता है ।।४६।। ___ महामण्डलीक एवं अर्धचक्रीका लक्षण महमंडलिया णामा अट्ठ-सहस्सारण अहिबई ताणं । रायाण अद्धचक्की सामी सोलस-सहस्स-मेत्ताणं ।।४७।। अर्थ :-पाठ हजार राजानोंका अधिपति महामंडलीक होता है तथा सोलह हजार राजाओंका स्वामी अर्धचकी कहलाता है ।।४७ ।। चक्रवर्ती और तीर्थकर का लक्षण छक्खंड-भरहणाहो बत्तीस-सहस्स-मउडबद्ध-पहुदोश्रो । होवि हु सयलंचक्की तित्थयरो सयल-भुवणबई ।।४८॥ ॥ अभ्युदय-सोक्खं गदं ।। अर्थ :-छह खण्ड रूप भरतक्षेत्रका स्वामी और बत्तीसहजार-मुकुटबद्ध राजाओंका तेजस्वी अधिपति सकलत्रक्री एवं समस्त लोकोंका अधिपनि तीर्थकर होता है ।।४।। 11 इस प्रकार अभ्युदय सुखका कथन समाप्त हुआ । ___ मोशमुख सोक्खं तित्थयराणं सिद्धाणं तह य इंदियादीदं । अदिसयमाद-समुत्थं णिस्सेयसमणुवमं पवरं ॥४६।। ।। मोक्ष-सोक्खं गदं ।। १.द.क. ज.ठ बद्धासेसहो। --. - - २.द. ब. ज. क. ठ. मंडलियं । -- - -. . . ३. द. पचराग तह इंदियादी । ज, पयराणं तह य इंदियादीदं । ठ पथराणं तह य इंदियादीहि । क, पातीदारग तह य इदियादी। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] तिलोयपपणती [ गाथा ५०-५३ अर्थ :-तीर्थंकरों (अरिहन्तों) और सिद्धोंके अतीन्द्रिय, अतिशयरूप आत्मोत्पन्न, अनुपम तथा श्रेष्ठ सुखको निःश्रेयस-सुख कहते हैं ।।४९।। __। इसप्रकार मोक्ष सुखका कथन समाप्त हुआ ।। श्रुतज्ञानकी भावनाका फल सुदणाण-भावणाए णाणं मत्तंड-किरण-उज्जोयो । चंदुज्जलं चरित णियवस-चित्त हवेदि भब्वाणं ॥५०।। अर्थ :-श्रुतज्ञानको भावनासे भव्य जीवोंका ज्ञान सूर्यको किरणोंके समान उद्योतरूप अर्थात् प्रकाशमान होता है; चरित्र चन्द्रमाके समान उज्ज्वल होता है तथा चित्त अपने बशमें होता है ॥५०।। परमागम पढ़ने का फल कणय-धराधर-धीरं मूढ-त्तय-विरहिवं 'हयटुमलं । जायदि पवयण-पढणे सम्म सगमणुवमाणं ॥५१।। अर्थ :-प्रवचन (परमागम) के पढ़नेसे सुमेरुपर्वतके समान निश्चल' ; लोकमूढता, देवमूढता और गुरुमुढता, इन तीन (मूढताओं) से रहित और शंका-कांक्षा आदि पाठ दोषोंसे विमुक्त अनुपम सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होती है ।।५।। आर्ष वचनोंके अभ्यासका फल सुर-खेयर-मणुवाणं लभंति सुहाई प्रारिसन्भासा' । तत्तो णियाण-सुहं णिण्णासिव दारुणट्ठमला ॥५२।। ॥ एवं हेदु-मादं ।। अर्थ :-पार्ष वचनोंके अभ्याससे देव, विद्याधर तथा मनुष्यों के सुख प्राप्त होते हैं और अन्तमें दारुण प्रष्ट कर्ममलसे रहित मोक्षसुखकी भी प्राप्ति होती है ॥५२॥ । इसप्रकार हेतुका कथन समाप्त हुआ । श्रुतका प्रमाण विविहत्थेहि अणंत संखेज्ज अक्षराण गरणरणाए । एदं पमाणमुदिदं सिस्सारणं मइ-वियासयरं ।।५३।। ॥पमाणं गदं ॥ - .. - - - - -- - - १. द. हय मग्गमलं । क. ज. ठ. हयगमलं । म. हट्ठमय। २. द. ब. परिसंभासा । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ५४ ५८ ] पदमो महाहियारो [ १३ अर्थ :- श्रुत, विविध प्रकारके अर्थोंको अपेक्षा अनन्त है और अक्षरोंकी गणनाको अपेक्षा संख्यात है । इसप्रकार शिष्योंकी वृद्धिको विकसित करनेवाले इस श्रुतका प्रमारण कहा गया है ।। ५३ ।। ।। इसप्रकार प्रमाणका वर्णन हुआ ।। ग्रन्थनाम कथन भय्यारण जेण एसा ते लोक्क पयासणे परम- दीवा । तेण गुण-णाममुदिदं तिलोयपण्णत्त गामेणं ॥ ५४ ॥ ॥ णामं गदं ॥ अर्थ :- यह ( शास्त्र ) भव्य जीवोंके लिए तीनों लोकोंका स्वरूप प्रकाशित करने में उत्कृष्ट दीपकके सदृश है, इसलिए इसका 'त्रिलोकप्रज्ञप्ति' यह सार्थक नाम कहा गया है || ५४ || ।। इसप्रकार नामका कथन पूर्ण हुआ ।। कर्ता के भेद कत्तारो दुवियप्पो गायन्नो प्रत्य-ग्रंथ-भेदेहि । व्यादि चउपयारे पासिमो प्रत्थ कत्तारं ॥ ५५ ॥ अर्थ :- अर्थकर्ता और ग्रन्थकर्ता के भेदसे कर्ता दो प्रकारके समझना चाहिए। इनमें से द्रव्यादिक चार प्रकार से अर्थकर्ताका हम निरूपण करते हैं ।। ५५ ।। द्रव्यकी अपेक्षा अर्थागमके कर्ता सेव- रजाइ मलेणं रतच्छि - कडवख वाण- मोक्खेहिं । इय-पहुदि देह- दोसेहि संततमवसिद सरीरो (य) ॥ ५६ ॥ आदिम संहरणरण-जुदो समचजरस्संग- चारु संठारणो । विव्व-बर-गंधधारी पमाण- विद-रोम णहरूवो ॥५७॥ णिभूणायुहंबर भी दो सोम्माणणादि-दिव्य-तणू । अट्टम्भहिय सहस्सध्यमारण वर लक्खणोपेदो ||५८ || १. ब. अत्थकत्तारो । - Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] निलोयपण्णनी [ गाथा : ५९-६४ चविह-उनसग्गेहि रिगच्च-विमुक्को कसाय-परिहीणो। छुह-पहुदि-परिसहेहि परिचत्तो राय-दोसेहि ॥५६॥ जोयण-पमारण-संठिद-तिरियामर-भणुव-णिवह-पडिबोहो । मिदु-महुर-गभीरतरा-विसद'-विसय-सयल-भासाहि ।।६०॥ अद्वरस महाभासा खुल्लयभासा यि सत्तसय-संखा । अवस्वर-अणक्खरप्पय सण्णी-जीवारण सयल-भासाश्रो ॥६१॥ एदासि भासारणं तालुव-दंतो?-कंठ-वावारं । परिहरिय एक्क-कालं भन्न-जणारणंद-कर-भासो ॥६२॥ भावरण-तर-जोइसिय-कप्पवासेहि केसय-बलेहि । विज्जाहरेहि चक्किप्पमुहेहि गरेहिं तिरिएहि ॥६३॥ एदेहि अण्णेहि विरचिद-चरणारविंद-जुग-पूजो । दिटु-सयलटु-सारो महवीरो अस्थ-कत्तारो ॥६४॥ अर्थ :-जिनका शरीर पसीना, रज ( धूलि ) आदि मलसे तथा लालनेत्र और कटाक्षवाणोंको छोड़ना आदि शारीरिक दूषणोंसे सदा प्रदूषित है, जो प्रादिके अर्थात् वर्षभनाराच संहनन और समचतुरस्र-संस्थानरूप सुन्दर प्राकृतिसे शोभायमान हैं, दिव्य और उत्कृष्ट सुगन्धके धारक हैं, रोम और नख प्रमाणसे स्थित ( वृद्धिसे रहित ) हैं; भूषण, आयुध, वस्त्र और भीतिमे रहित हैं, सुन्दर मुखादिकसे शोभायमान दिव्य-देहसे विभूषित हैं, शरीरके एकहजार-आठ उत्तम लक्षणोंसे युक्त हैं; देव, मनुष्य, तिर्यंच और अचेतनकृत चार प्रकारके उपसर्गोरो सदा विमुक्त हैं, कषायोंसे रहित हैं, क्षुधादिक बाईस परीषहों एवं रागद्वेषसे रहित हैं, मृदु, मधुर, अतिगम्भीर और विषयको विशद करनेवाली सम्पूर्ण भाषाओंसे एक योजन प्रमाण समवसरणसभामें स्थित तिर्यंच, देव और मनुष्योंके समूहको प्रतिबोधित करने वाले हैं, जो संज्ञी जीवों की अक्षर और अनक्षररूप अठारह महाभाषा तथा सात सौ छोटी भाषामोंमें परिणत हुई और तालु, दन्त, अोठ तथा कण्ठके हलन-चलनरूप व्यापारसे रहित होकर एक ही समयमें भव्यजनोंको आनन्द करनेवाली भाषा ( दिव्यध्वनि ) के स्वामी हैं; भवनवासी, ध्यन्तर, ज्योतिषी और कल्पवासी देवों के द्वारा तथा नारायण, बलभद्र, विद्याधर और चक्रवर्ती प्रादि प्रमुख मनुष्यों, तिर्यंचों एवं अन्य भी ऋषि-महर्षियोंसे जिनके चरणारविन्द युगलकी १. व. विसदयसमसयल । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ६५-६९ ] पढमो महाहियारो पूजा की गई है और जिन्होंने सम्पूर्ण पदार्थोके सारको देख लिया है, ऐसे महावीर भगवान् ( द्रव्य की अपेक्षा ) अर्थागमके कर्ता हैं ।। ५६-६४ ।। क्षेत्रकी अपेक्षा अर्थ-कर्ना सुर-खेयर-मण-हरणे गुणणामे पंचसेल-णयरम्म' । विउलम्मि पटबदवरे वीर-जिणो अत्थ-कत्तारो ॥६५॥ अर्थ :-देव एवं विद्याधरोंके मनको मोहित करनेवाले और सार्थक नाम-वाले पंचशल ( पांच पहाड़ोंसे मुशोभित ) नगर ( राजगृही ) में, पर्वतोंमें श्रेष्ठ विपुलाचल पर श्री वीरजिनेन्द्र ( क्षेत्रकी अपेक्षा ) अर्थके कर्ता हए ॥६५॥ पंचनल - - चउरस्सो पुवाए रिसिसेलो' वाहिणाए बेभारो। रणइरिदि-दिसाए विउलो दोणि तिकोपट्टिदायारा ॥६६॥ अर्थ :-(राजगृह नगरके) पूर्व में चतुष्कोण ऋषिशैल, दक्षिण में वैभार और नैऋत्यदिशामें विपुलाचल पर्वत हैं, ये दोनों, वैभार एवं विपुलाचल पर्वत त्रिकोण प्राकृतिसे युक्त हैं ।।६६।। चाव-सरिच्छो छिरणो वरुणारिणल-सोमदिस-विभागेसु । ईसारगाए पंडू बट्टो' सवे कुसग्ग-परियरणा ॥६७।। अर्थ :-पश्चिम, वायव्य और सोम ( उत्तर ) दिशामें फैला हुआ धनुषाकार छिन्न नामका पर्वत है और ईशान दिशामें पाण्डु नामका पर्वत है। उपर्युक्त पांचोंही पर्वत कुशाग्रोंसे वेष्टित हैं ।। ६७ ॥ कालकी अपेक्षा अर्थकर्ता एवं धर्मतीर्थकी उत्पनि एत्थावसप्पिरपीए चउत्थ-कालस्स चरिम-भागम्मि । तेत्तीस-वास- अडमास - पण्णरस - दिवस-सेसम्मि ॥६॥ वासस्स पढम-मासे सावण-णामम्मि बहल-पडिवाए। अभिजीरणक्खतम्मि य उप्पत्ती धम्म-तित्थस्स ॥६॥ १. द. णययमि। २. द. ब, ज. क. ४. मिरिसेलो। ३, इ. ज. क. ठ. वप्पा हो । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलायपपणासी [ गाथा : ७०-७४ अर्थ :-यहाँ अवपिणीके चतुर्थकालके अन्तिम भागमें तैतीस वर्ष, पाठ माह और पन्द्रह दिन शेष रहनेपर वर्षके श्रावण नामक प्रथम माहमें कृष्णपक्षको प्रतिपदाके दिन अभिजित् नक्षत्रके उदित रहनेपर धर्मतीर्थकी उत्पत्ति हुई ॥६८-६९॥ सावण-बहुले-पाडिव-रुद्दमुहुत्ते' सुहोदये' रविणो । अभिजिस्स पढम-जोए जुगस्स प्रादी इमस्स पुढं ॥७॥ अर्थ :-श्रावण कृष्णा प्रतिपदाके दिन रुद्रमुहूर्तके रहते हुए सूर्यका शुभ उदय होनेपर अभिजित् नक्षत्रके प्रथम योगमें इस युगका प्रारम्भ हुमा, यह स्पष्ट है ।।७।। __ भावकी अपेक्षा अर्थकर्ता । णाणावरणप्पहुदी णिच्छय-ववहारपाय अतिसयए। संजादेण अणतं णाणेणं सणेण सोक्खेणं ॥७१॥ विरिएण तहा खाइय-सम्मत्तेरणं पि दाण-लाहेहिं । भोगोपभोग-णिच्छय-यवहारेहिं च परिपुण्णो ॥७२॥ अर्थ :-ज्ञानावरणादि चार-घातियाकर्मोके निश्चय और व्यवहाररूप विनाशके कारणोंकी प्रकर्षता होने पर उत्पन्न हुए अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य इन चार-प्रनन्तचतुष्टय तथा क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायिकदान, क्षायिकलाभ, क्षायिकभोग और क्षायिकउपभोग इसप्रकार नवल ब्धियोंके निश्चय एवं व्यवहार स्वरूपोंसे परिपूर्ण हुए ।।७१-७२!! दसणमोहे गट्ट धादि-त्तिदए चरिस-मोहम्मि । सम्मत्त णाण-दसण-बीरिय-चरियाइ होंति खइयाइं ॥७३॥ अर्थ :-दर्शनमोह, तीन घातियाकर्म (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय) और चारित्रमोहके नन होनेपर ऋमसे सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्य और चारित्र, ये पाँच क्षायिकभाव प्राप्त होते हैं ॥७॥ जादे अणंत-णाणे ण? छदुमट्ठिदियम्मि" णाणम्मि । णयविह-पदत्थसारो दिव्यझणी कहइ सुत्तत्थं ॥७४॥ अर्थ :-अनन्तज्ञान अर्थात् केवलज्ञानकी उत्पत्ति और छद्मस्थ अवस्थामें रहनेवाले मति, श्रत, अवधि एवं मनःपर्ययरूप चारों-ज्ञानोंका अभाव होनेपर नौ प्रकारके पदार्थों ( सात-तत्त्व और पुण्य-पाप) के सारको विषय करनेवाली दिव्यध्वनि सूत्रार्थको कहती है ।।७४।। १. द. ब. सुद्द मुहत्ते। २. ब. सुहोदिए, क. सुहोदए । ३. द. प्रादीइ यिमस्स, क. प्रादी यिमस्स । ४. ब. परपुण्यो। ५. ६. ब. चदुमट्टिदिदम्मि । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ७५-८० ] पढमो महाहियारो अण्णेहि अणंतेहिं गुणेहि जुत्तो विसुद्ध-चारित्तो । भव-भय-भंजण-दच्छो महवीरो अस्थ-कत्तारो ।।७५॥ अर्थ :-इसके अतिरिक्त और भी अनन्तगुरणोंसे युक्त, विशुद्ध चारित्रके धारक तथा संसारके भयको नष्ट करने में दक्ष श्रीमहावीर प्रभु ( भावकी अपेक्षा ) अर्थ- कर्ता हैं ।।७५।। गौतम-गणधर द्वारा श्रुत-रचना महवीर-भासियत्थो तस्सि खेत्तम्मि तत्थ काले य । खायोवसम-विवढिद-चउरमल'-मईहि पुण्णण ॥७६॥ लोयालोयाण तहा जीवाजीवाण विविह-विसयेसु। संदेह-पासणत्यं उवगद-सिरि-वीर-चलणमूलेण ॥७७।। विमले गोदम-गोसे जादेणं "इंदभूदि-णामेणं । चउ-बेव-पारगेणं सिस्सेरण' विसुद्ध-सोलेणं ॥७८।। भाव-सुदं पज्जाएहि परिणयमयिणा' अ बारसंगाणं । चोइस पुब्बाण तहा एक्क-मुहुत्तेण घिरचणा विहिदा ॥७६ ।। अर्थ :- भगवान महावीरके द्वारा उपदिष्ट पदार्थस्वरूप, उसी क्षेत्र और उसीकालमें, ज्ञानावराके विशेष क्षयोपशमसे वृद्धिको प्राप्त निर्मल चार बुद्धियों ( कोष्ठ, बीज, संभिन्न-श्रोत और पदानुसारी ) से परिपूर्ण, लोक-अलोक पीर जीवाजीवादि विविध विषयों में उत्पन्न हुए सन्देहको नष्ट करनेके लिए श्रीवीर भगवान्के चरण-मूलकी शरण में आये हुए, निर्मल गौतमगोत्रमें उत्पन्न हुए, चारों वेदोंमें पारंगत, विशुद्ध शीलके धारक, भावश्रुतरूप पर्यायसे बुद्धिकी परिपक्वताको प्राप्त, ऐसे इन्द्रभूति नामक शिष्य अर्थात् गौतम गणधर द्वारा एक मुहूर्त में बारह अंग और चौदहपूर्वोकी रचना रूपसे श्रुत गुथित किया गया 11७६-७९।। कर्नाके तीन भेद इय मूल-तंत-कत्ता सिरि-वीरो इंदभूदि-विष्प-वरो । उवतंते कत्तारो अणुतते सेस-आइरिया ।।८।। १. ब. चउउर", क. बउउर । २. भ. यंदभूदि', क. इदिभूदि। ३. ब. मिस्सेरण, क. मिशेण । ४, [परिणदमहणा य] क. मयेण एयार । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ८१-५४ अर्थ :-इसप्रकार श्रीवीरभगवान् मूलतंत्रकर्ता, ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ इन्द्रभूति गणधर उपतन्त्र-कर्ता और शेष प्राचार्य अनुतन्त्रकर्ता हैं ।।८०॥ सूत्रकी प्रमाणता णिण्ण?-राय-दोसा महेसिणो 'दट्व-सुत्त-कत्तारो । किं कारणं परिणदा कहिदु सुत्तस्स पामण्णं ॥१॥ अर्थ :-रागढ़ पसे रहित गणधरदेव प्रत्र्यश्रुतके कर्ता हैं, यह कथन यहाँ किस कारणसे किया गया है ? यह कथन सूत्रको प्रमाणताका कथन करनेके लिए किया गया है ।।१।। नय प्रमाण और निक्षेपके बिना अर्थ निरीक्षण करनेका फल जो रा पमाण-णयहि णिक्खेवेणं णिरक्खदे अत्थं । तस्साजुत्तं जुत्तं जुत्तमजुत्तं च पउिहादि ॥२॥ अर्थ : जो नय और प्रमाण तथा निक्षेपसे अर्थका निरीक्षण नहीं करता है, उसको अयुक्त पदार्थ युक्त और युक्त पदार्थ प्रयुक्त ही प्रतीत होता है ॥८२।। प्रमाण एवं नयादिका लक्षण गाणं होदि पमारणं गानो वि रणादुस्स हिदय-भावत्यो । रिणक्खेप्रो वि उबानो, जुत्तीए अत्थ-पडिगहणं ॥३॥ अर्थ : सम्यग्ज्ञानको प्रमाण अोर ज्ञाताके हृदयके अभिप्रायको नय कहते हैं। निक्षेप भी उपायस्वरूप हैं । युक्तिसे अर्थका प्रतिग्रहण करना चाहिए ॥५३॥ रत्नत्रयका कारण इय गायं अवहारिय आइरिय-परंपरागदं मणसा । पुस्याइरियाआराणुसरणनं ति-रयण-णिमित्तं ॥४॥ अर्थ :-इसप्रकार प्राचार्यपरम्परासे प्राप्त हुए न्यायको मनसे अवधारण करके पूर्व प्राचार्यों के प्राचारका अनुसरण करना रत्नत्रयका कारण है ।।४।। ३ ब. एउ यि पादुसहहिदय १. ६. ज. क. ठ. दिव्यपुत। २. क. द. ज. ब. ठ. सामण्णं। भावत्यो, क. राज वि रणादुसहहिंदयभावत्यो । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ma गाथा : ८५-९० । पढमो महाहियारो [ १९ ग्रंथ प्रतिपादनकी प्रतिज्ञा संगागरिन्छ कि हगवाणिय विविहांथ-जुत्तीहिं । जिणवर-मुह-णिक्कंतं गरगहर-देवेहिं 'गथित-पबमालं ।।८।। सासद-पदमावण्णं पवाह रुवत्तगण दोसेहिं । णिस्सेसेहि विमुक्कं प्राइरिय-अणुषकमानादं ॥८६।। भव्य-जणाणंदयरं वोच्छामि अहं तिलोयपणत्ति । णिन्भर-भत्ति-पसादिद-बर-गुरु-चलणाणुभावेण ॥७॥ अर्थ :-विविध ग्रन्थ और युक्तियोंसे (मंगलादि छह -मंगल, कारण, हेतु, प्रमाण, नाम और कर्ता का ) व्याख्यान करके जिनेन्द्र भगवानके मुखसे निकले हुए, गणधरदेवों द्वारा पदोंकी ( शब्द रचना रूप ) मालामें गूथे गये, प्रवाह रूपसे शाश्वतपद (अनन्तकालीनताको ) प्राप्त सम्पूर्ण दोषोसे रहित और प्राचार्य-परम्परासे पाये हुए तथा भव्यजनोंको आनन्ददायक 'त्रिलोकप्रज्ञप्ति शास्त्रको मैं अतिशय भक्ति द्वारा प्रसादित उत्कृष्ट-गुरुके चरणोंके प्रभावसे कहता हूं ॥८५-८७।। ग्रन्थके नव अधिकारोंके नाम सामण्ण-जग-सरूवं तम्मि ठियं णारयारण लोयं च । भाषण-णर-तिरियाणं वेंतर-जोइसिय-कप्पयासीणं ॥८॥ सिद्धारणं लोगो सि य 'अहियारे पयद-विट्ठ-रणव-भए । तम्मि रिणबद्धे जीवे पसिद्ध-वर-वण्णणा-साहिए ।।८।। वोच्छामि सयलभेदे भन्वजणाणंद-पसर-संजणणं । जिण-मुह-कमल-विणिग्गय-तिलोयपण्णत्ति-णामाए ॥६॥ अर्थ :-जगतका सामान्यस्वरूप तथा उसमें स्थित नारकियोंका लोक, भवनवासी, मनुष्य, तिर्यंच, व्यन्तर, ज्योतिषी, कल्पबासी और सिद्धोंका लोक, इसप्रकार प्रकृतमें उपलब्ध भेदरूप नौ अधिकारों तथा उस-उस लोकमें निबद्ध जीवोंको, नयविशेषांका आश्रय लेकर उत्कृष्ट वर्णनासे १. क. ज. ठ. गंथित । २. ब. महियारो, क. अहिपारे। ३. ब. लयं =नय विशेषम्, द. बोच्छामि सयलईए, क. बोन्द्रामि सयलईए. ४. ब. जगारगदएसरसं । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोय पण्णत्ती [ माया ९१-९२ युक्त भव्यजनोंको श्रानन्दके प्रसारका उत्पादक और जिनभगवान् के मुखरूपी कमलसे निर्गत यह् त्रिलोकप्रज्ञप्ति नामक ग्रन्थ कहता हूं || ६८- ९०१ लोकाकाशका लक्षण जगसेदि - घण- पमाणो लोयायासो स-पंच बच्व-ठिदी । एस प्रणंताणंता लोयायासस्स बहुम ॥१॥ ܘ܀ = १६ ख ख ख' श्रथं : – यह् लोकाकाश ( = ) अनन्तानन्त अलोकाकाश ( १६ ख ख ख ) के बहुमध्यभागमें जीवादि पाँच द्रव्योंसे व्याप्त और जगच्छ्र पीके घन ( ३४३ घन राजू ) प्रमाण है ।।९१ । विशेष :- इस गाथाकी दृष्टि (= १६ ख ख ख ) का अर्थ इसप्रकार है Et . का अर्थ लोककी प्रदेश - राशि एवं धर्माधर्म की प्रदेश राशि | १६, सम्पूर्ण जीव राशि | १६ ख, सम्पूर्ण पुद्गल ( की परमाणु ) राशि । १६ ख ख, सम्पूर्ण काल ( की समय ) राशि । १६ ख ख ख, सम्पूर्ण प्रकाश ( की प्रदेश ) राशि | जीवा पोग्गल - धम्माधम्मा काला इमाणि दध्वारिण । सय्यं 'लोयायासं श्रधूय पंच 'चिति ||१२|| अर्थ : – जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल, ये पाँचों द्रव्य सम्पूर्ण लोकाकाशको व्याप्तकर स्थित हैं ||१२ ॥ एत्तो से ढल्स घरणप्पमारणारण शिण्णयत्थं परिभासा उच्चदे अन यहाँसे श्रागे श्रेणिके धन प्रमाण लोकका निर्णय करने के लिए परिभाषाएँ अर्थात् पत्योपादिका स्वरूप कहते हैं १, द ख ख ख × २ । २. द. ब. क. ज. ठ. लोयायासो - ४. . . चरंति, क. चिरंति, ज. ठ. विरति । ३. द. क. भाउवडिदि श्राधूय । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया ९३-९६ ] पढमी महाहियारो उपमा प्रमाणके भेद पल्ल समुद्दे जवमं अंगुलयं सूइ-पदर-घरण खामं । जगति-तोय-परो ---- श्री लोक ये आठ उपमा प्रमाणके भेद हैं ।। १३ ।। लोगो ॥ ६३ ॥ प. १ | सा. २ | सू. ३ । प्र. ४ । घ ५ । जं. ६ । लोय प. ७ । लोय अर्थ :- पल्योपम, सागरोपम, सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुल, जगच्छ्रेणी, लोक-प्रतर ३ ४ Σ १ २ ५ ६ ७ पल्य, सागर, सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुल, जग० लोक प्र० लोक । • पल्यके भेद एवं उनके विषयोंका निर्देश बहारुद्वारा तिय-पल्ला पढमयम्मि संखाओ । विदिए दीय- समुद्दा तदिए मिज्जेदि कम्म- ठिदी ||४|| अर्थ :- व्यवहारपत्य, उद्धारपल्य और श्रद्धापल्य, ये पल्यके तीन भेद हैं । इनमें प्रथम पत्य संख्या, द्वितीयसे द्वीप - समुद्रादिक और तृतीयसे कर्मोकी स्थितिका प्रमाण लगाया जाता है ||१४|| स्कंध, देश, प्रदेश एवं परमाणुका स्वरूप खं सयल - समत्थं तस्स य श्रद्ध भांति देसो त्ति । श्रद्धच पदेसो प्रविभागी होदि परमाणू ||५|| [ २१ अर्थ : – सब प्रकारसे समर्थ ( सर्वांशपूर्ण ) स्कंध, उसके अर्धभागको देश और आपके आधे भागको प्रदेश कहते हैं । स्कंध के विभागी ( जिसके और विभाग न हो सकें ऐसे ) अंशको परमाणु कहते हैं ।। ९५ ।। परमाणुका स्वरूप 'सु-तिक्खेणं छेत्तु मेत्तु ं च जं किररण सक्को । जल - श्ररणलादिहिं णासं ण एवि सो' होदि परमाणू ॥ ६६ ॥ सत्थे १. ब. सुतिकरण यच्छेत्तृ' च जं किरसक्का । अर्थ :- जो अत्यन्त तीक्ष्णशस्त्रसे भी छेदा या भेदा नहीं जा सकता, तथा जल श्रीर अग्नि श्रादिके द्वारा नाशको भी प्राप्त नहीं होता वह परमाणु है ।। ९६ ।। २. द. ब. सा, ब. ज. ठसा । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] तिलोयपत्ती एक्क रस- वण्ण-गंधं दो पासा सह-कारणमसद्द | दंतरिवं यध्वं तं परमाणु भणंति बुधा ||१७|| [ गाथा : ९७ १०१ अर्थ :- जिसमें ( पाँच रसोंमेंसे ) एक रस, ( पांच वर्षों में से ) एक वर्ण, ( दो गंधों में से ) एक गंध श्रीर ( स्निग्ध- रूक्ष मेंसे एक तथा शीत-उष्ण में से एक ऐसे ) दो स्पर्श ( इसप्रकार कुल पांच गुण ) हैं और जो स्वयं शब्दरूप न होकर भी शब्दका कारण है एवं स्कन्धके अन्तर्गत है, उस द्रव्यको ज्ञानीजन परमाणु कहते हैं ||१७|| अंतावि - मज्झ हीरणं प्रपदेसं इंदिएहि ण हि 'गेज्झं । जं बन्धं प्रविभत्तं तं परमाणु कर्हति जिणा ||२८|| अर्थ :-- जो द्रव्य अन्त, आदि एवं मध्यसे विहीन, प्रदेशोंसे रहित ( अर्थात् एक प्रदेशी हो ), इन्द्रियद्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकने हर है उसे गिभग परमाणु और कहते हैं ||१८|| परमाणुका मुद्गलत्व पुरंति गलंति जदो पुरण- गलशोहि पोग्गला तेण । परमाणु च्चिय जावा इय दिट्ठ बिट्टिवादम्हि ||६|| अर्थ :- क्योंकि स्कन्धोंके समान परमाणु भी पूरते हैं और गलते हैं, इसीलिए पूरण - गलन क्रियाओंके रहनेसे वे भी पुद्गलके अन्तर्गत हैं। ऐसा दृष्टिवाद अंग में निर्दिष्ट है || ९९ ॥ परमाणु पुद्गल ही है वण्ण-रस-गंध-फासे पूरण-गलणाइ सध्व- कालम्हि । खंद पिव कुणमाणा परमाणू पुग्गला "तम्हा ॥ १०० ॥ अर्थ :- परमाणु स्कन्धकी तरह सब कालोंमें वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श, इन गुणोंमें पुरण- गलन किया करते हैं, इसलिए वे पुद्गल ही हैं ||१०० ॥ नय अपेक्षा परमाणुका स्वरूप प्रादेस-मुत्तमुत्तो ' धातु- चउक्कस कारणं जो दु । सो यो परमाणू परिणाम - गुणो य खंदस्स ॥ १०१ ॥ १. द. क. ज. ठ. सोमं । २. द. ज. य. तस्स । ३. द. ज. ऊ धाउ । ४ द. क. ठ. जादु Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १०२-१०७ ] पढमो महाहियारो [ २३ अर्थ :---जो नय विशेषकी अपेक्षा कथंचित् मूर्त एवं कथंचित् अमूर्त है, चार धातुरूप स्कन्धका कारण है और परिणमन-स्वभावी है, उसे परमाणु जानना चाहिए ।।१०१।। ___उवसन्नासन्न स्कंधका लक्षरण परमाणूहिं अणंताणतेहि बहु-विहेहि-दन्वेहि । 'उवसप्रणासष्णो ति य सोखंदो होदि पामेण ।।१०२॥ प्रर्थ : नानाप्रकारके अनन्तानन्त परमाणु-द्रव्योंमे उबसनासम्म नामसे प्रसिद्ध एक स्कन्ध उत्पन्न होता है ।। १०२॥ सत्रासनसे अंगल पर्यन्त के लक्षण 'उवसण्णासण्णो वि य गुरिणदो अट्ठोहि होदि णामेण । सण्णासण्यो ति तदो दु इदि खंधो पमाण? ॥१०३।। 'अट्ठोहि गुणिदेहि सण्णासण्णेहि होदि सुडिरेणू । तित्तिय-मेत्तहदेहि तुडिरेणूहि पि तसरेणू ॥१०४।। तसरेण रथरेण उत्तम-भोगावणीए वालग्ग । मज्झिम-भोग-खिदीए वालं पि जहण्ण-भोग-खिदिवालं ।।१०।। कम्म-महीए वालं लिक्खं जूवं जवं च अंगुलयं । इगि-उत्तरा य भणिदा पुन्यहि अट्ठ-गुणिदेहि ॥१०६।। अर्थ :-उवसनासनको भी पाठसे मुरिणत करनेपर सन्नासन्न नामका स्कन्ध होता है अर्थात् आठ उवसनासन्नोंका एक सन्नासन्न नामका स्कन्ध होता है। पाठसे गुरिणत सनासनों अर्थात् पाठ सम्नासनोंसे एक श्रुटिरेणु और इतने ( पाठ ) ही त्रुटिरेणुभोंका एक प्रसरेण होता है। त्रसरेणुसे पूर्व पूर्व स्कन्धों द्वारा पाठ पाठ गुरिगत रथरेणु, उत्तमभोगभूमिका बालाग्र, मध्यम-भोगभूमिका चालान, जघन्य-भोगभूमिका बालान, कर्म-भूमिका बालाग्र, लोख, जू', जौ और अंगुल, ये उत्तरोत्तर स्कन्ध कहे गये हैं ।।१०३-१०६।। अंगुलके भेद एवं उत्सेधांगुलका लक्षण तिवियप्पमंगुलं तं उच्छेह-पमाण-अप्प-अंगुलयं । परिभासा-णिप्पण्णं होदि हु'उच्छेह-सूइ-अंगुलियं ॥१०७॥ १. द. ज. स. प्रोसपणामणो। २. द. के. अटे, ज. ठ, प्र?दि। ३. द. ज. क. 2. उदिसेहमूवि अगुलयं । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा १०८-१११ अर्थ :- अंगुल तीनप्रकारका है---उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल और आत्मांगुल परिभाषासे सिद्ध किया गया अंगुल उत्सेधांगुल या सूच्यंगुल होता है ।।१०७॥ प्रमाणांगुलका लक्षण तं चिय पंच सयाई अवसप्पिणि-पढम-भरह-चक्किस्स । अंगुलमेक्कं चेव य तं तु पमाणंगुलं णाम ।।१०८।। अर्थ :-पांचसौ उत्सेधांगुल प्रमाण, अवसपिणी कालके प्रथम चक्रवर्ती भरतके एक अंगुलका नामही प्रमाणांगुल है ।।१०८।। । आत्मांगुलका लक्षण जस्सि जस्सि काले भरहेरावव-महीसु' जे मणुवा । तस्सि तस्सि ताणं अंगुलमादंगुलं . णाम ॥१०॥ अर्थ –जिस-जिस कालमें भरत और ऐरावतक्षेत्रमें जो-जो मनुष्य हुआ करते हैं, उस-उस काल में उन्हीं मनुष्योंके अंगुलका नाम आत्मांगुल है ।।१०९।। । उत्सेधांगुल द्वारा माप करने योग्य वस्तुएँ उस्सेहअंगुलेणं सुराण-पर-तिरिय-णारयाण च । 'उस्सेहस्य-पमाणं चउदेव-णिगेद-णयराणं' ॥११०।। . प्रर्थ :-उत्सेधांगुलसे देव, मनुष्य, तिर्यंच एवं नारकियोंके शरीरकी ऊँचाईका प्रमाण और चारोंप्रकारके देवोंके निवास स्थान एवं नगरादिकका प्रमाण जाना जाता है ।।११०।। प्रमाणांगुलसे मापने योग्य पदार्थ दीयोवहि-सेलाणं वेदोण णवीण कुण्ड-जगदीणं । *वस्साणं च पमाणं होदि पमाणंगुलेणेव ॥१११॥ अर्थ :-द्वीप, समुद्र, कुलाचल, वेदी, नदी, कुण्ड, सरोवर, जगती और भरतादिक क्षेत्रका प्रमाण प्रमाणांगुलसे ही होता है ।।१११।। २. ब, उस्सेह अंगुलो । ३. ब. रिपकेदणज्य रारिण। ४. द.ब. बंसाण १.ब. क. महीस। ज. क.ठ. बंसाणं । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ११२-११७ ] पढमो महायिारों [ २५ प्रात्मांगुलसे मापने योग्य पदार्थ भिगार-कलस-दप्पण-वेणु-पडह-जुगाण सयण-सगदाणं' । हल-मसल-सत्ति-तोमर-सिंहासरण-वाण-रणालि-अक्खाणं ॥११२॥ चामर-दुःदुहि-पीढच्छताणं णर-णिवास-णयराणं । उज्जाण-पहुदियाणं संखा प्रादंगुलेणेव ॥११३।। अर्थ :-झारी, कलश, दर्पण, वेणु, भेरी, युग, शय्या, शकट ( गाड़ी ), हल, मूसल, शक्ति, तोमर, सिंहासन, वाण, नालि, अक्ष, चामर, दुन्दुभि, पीठ, छत्र, मनुष्योंके निवास स्थान एवं नगर पौर उद्यानादिकोंकी संख्या प्रात्मांगुलसे ही समझना चाहिए ।।११२-११३।। पादसे कोश-पर्यंतको परिभाषाएँ छहि अंगुलेहि पादो बेपादेहि विहत्यि-णामा य । दोणि विहत्थी हत्थो बेहत्थेहि हदे रिक्त ।।११४।। बेरिक्कूहि दंडो दंडसमा 'जुगधणूरिण मुसलं वा । तस्स तहा णाली वा दो-दंड-सहस्सयं कोसं ।।११५।। प्रर्ष : छह अंगुलोंका पाद, दो पादोंकी वितस्ति, दो वितस्तियोंका हाथ, दो हाथोंका रिक्कू, दो रिक्कुप्रोंका दण्ड, दण्डके बराबर अर्थात् चार हाथ प्रमाणही धनुष, मूसल तथा नाली और दो हजार दण्ड या धनुषका एक कोस होता है ।।११४-११५।। ___ योजनका माप चउ कोसेहिं जोयण तं चिय वित्थार-गत्त-समवट्ट। तत्तियमेत्तं घण-फल-माणेज्जं करण-कुसलेहिं ॥११६।। मर्थ :-चार कोसका एक योजन होता है। उतने ही अर्थात् एक योजन विस्तार वाले गोल गड्ढेका गणितशास्त्रमें निपुण पुरुषोंको धनफल ले पाना चाहिए ।।११६॥ गोलक्षेत्रको परिधिका प्रमाण, क्षेत्रफल एवं घनफल सम-चट्ट-वास-बम्गे दह-गुणिदे करणि-परिहियो होदि । वित्थार-तुरिय -भागे परिहि हदे तस्स खेत्तफलं ॥११७॥ १. [सगडाणं] २. द. युगधपूणि। ३. ब. वित्थारं। ४. द. ज, क. ठ. तुरिम । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ । तिलोग्रपण्यानी [ गाथा : ११८-१२० । उणवीस-जोयणेसु चउवीसेहिं तहावहरिदेसु । तिविह-वियप्पे पल्ले घण-खेत्त'-फला हु 'पत्तेपं ॥११८॥ १६. २४ । . . . . . . अर्थ : समान गोल (बेलनाकार) क्षेत्रके व्यासके बर्गको दससे गुणा करके जो गुणनफल प्राप्त हो उसका वर्गमूल निकालने पर परिधिका प्रमाण निकलता है, तथा विस्तार अर्थात् व्यासके | चौथे भागसे अर्थात् अर्द्ध ध्यासके वर्गसे परिधिको गुरिणत करनेपर उसका क्षेत्रफल निकलता है । तथा उन्नीस योजनोंको चौबीससे विभक्त करने पर तीन प्रकारके पल्योंमेंसे प्रत्येकका धन-क्षेत्रफल होता है ।।११७-११८॥ उदाहरण—एक योजन व्यासवाले गोलक्षेत्रका घनफल :१४१ x १०- १०/ १०८ परिधि; 'x-१ क्षेत्रफल x १-घनफल। विशेषार्थ :--यहाँ समान गोलक्षेत्र ( कुण्ड) का व्यास १ योजन है, इसका वर्ग (१यो०४१यो०)=१ वर्ग यो० हुआ । इसमें १० का गुणा करनेसे ( १वर्ग यो० ४१०= ) १० वर्ग योजन हए । इन १० वर्ग यो का वर्गमूल ३३ (१) योजन हुआ, यही परिधिका (सूक्ष्म) प्रमारण है। यो परिधिको व्यासके त्राथाई भाग ३ यो० से गुणा करने पर (*xd=13 वर्ग यो० (सूक्ष्म) क्षेत्रफल हुया । इस ३१ वर्ग यो० क्षेत्रफलको १ यो० महराईसे गुणित करनेपर (३२- १ यो०-- धन यो० ( सूक्ष्म ) घनफल प्राप्त होता है 1५११७-११८।। व्यवहार पल्यके रोमोंकी संख्या निकालनेका विधान तथा उनका प्रमाण उत्तम-भोग-खिदोए उप्पण्ण-विजुगल-रोम-कोडीयो। एक्कादि-सत्त-दिवसावहिम्मि च्छेत्तूण संगहियं ॥११॥ प्राइवहि तेहि रोमम्गेहि गिरन्तरं पढमं । प्रचंतं राचिदूणं भरियन्वं जाय भूमिसमं ॥१२०॥ अर्थ :-उत्तम भोग-भूमिमें एकदिनसे लेकर सात दिनतकके उत्पन्न हुए मेले के करोड़ों रोमोंके अविभागी-खण्ड करके उन खण्डित रोमानोंसे लगातार उस एक योजन विस्तार वाले प्रथम पल्य (गड्ढे) को पृथ्वीके बराबर अत्यन्त सधन भरना चाहिए ।।११६-१२०11 १. [ घणखेत्तफ 1. २. ब, पतंका। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १२१-१२२ ] पढमो महाहियारो [ २७ दंड-पमाणंगुलए उस्सेहंगुल जवं च जूवं च । लिक्खं तह काणं वालग्गं कम्म-भूमीए ॥१२१॥ 'प्रवर-मज्झिम-उत्तम-भोग-खिवीणं च वाल-अग्गाई। 'एक्केक्कमट्ठ - घण - हब - रोमा ववहार-पल्लस्स ।।१२२॥ 5० । ६६ । ५००।८।८।८।८ । ८ । ८ । ८।८ । 50 । ६६ । ५००।८।८ । ८।८।८ । E1८।८ | 50 । ६६ । ५०० । ८ । ।८1८।८।८।८।८। पल्ल रोमस्स अर्थ :-ऊपर जो ३१ प्रमाण घनफल पाया है, उसके दण्ड कर प्रमाणांगुल कर लेना चाहिए। पुनः प्रमाणांगुलोंके उत्सेधांगुल करना चाहिए । पुनः जो, जू, लोख, कर्मभूमिके बालाग्न, मध्यमभोगभूमिके बालाग्न, उत्तम भोगभूमिके बालाग्र, इनकी अपेक्षा प्रत्येक को पाठके धनसे गुणा करनेपर व्यवहार पल्यके रोमोंकी संख्या निकल जाती है ।।१२१-१२२।। यथा ४४४४४४४२००० ४२०००४ २००० x ४ x ४ x x x २४ x २४ x २४ x ५०० x ५०० x ५००xxxxcxcxcxcxcxcxcxcxcxcxcxcxcxcx xcx Ex-४१३४५२६३०३०८२०३१७७७४६५१२१६२०००००००००००००००००० । नोट :- मूल संदृष्टिके 50 का अर्थ ३ शून्य (०००) है। मूलमें तीन बार ९६, तीन बार ५०० और चौबीस बार ८ के अंक पाए हैं । हिन्दी अर्थमें तीन बार ५०० और इक्कीस बार ८ के अंक रखे गये हैं, तीन बार ६६, तीन बार ८ और ९ शून्य अवशेष रहे । ६६००० को ८ से गुणित करने पर (६६०००४८)=७६८००० अंगुल प्राप्त होते हैं, जो एक योजनके बराबर हैं। इन अंगुलोंके कोस आदि बनानेपर ४ कोस, २००० धनुष, ४ हाथ और २४ अंगुल होते हैं । अर्थमें तीन बार ४, तीन बार २०००, तीन बार ४ और तीन बार २४ इसीके सूचक रखे गये हैं। विशेषार्थ :-एक योजनके चार कोस, एक कोसके २००० धनुष, एक धनुषके चार हाथ और एक हाथके २४ अंगुल होते हैं । एक योजन व्यास वाले गड्ढेका घनफलप्रमाण घन योजन प्राप्त हुआ है, एक प्रमारण योजनके ५०० व्यवहार योजन होते हैं । "घन राशिका गुणकार या भागहार घनात्मक ही होता है" इस नियमके अनुसार को तीन बार ५०० से गुणा किया और इन व्यवहार योजनोंके रोम खण्ड बनाने हेतु तीन-तीन बार ४ कोस, २००० धनुष, ४ हाथ, २४ अंगुल एवं पाठ-पाठ यव, प्रादिके प्रमाणसे गुणा किया गया है। १. ब, प्रवरमझिम । २. द. एस्किक्क । ३. [पल्लं] । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ]. तिलोयपणती [ गाथा : १२३-१२६ उपर्युक्त संदृष्टिका गुणनफल 'अट्ठारस ठाणेसुसुण्णाणि दो णयेषक दो एक्को। पण-रणव-चउक्क-सत्ता सग-ससा एक्क-तिय-सुण्णा ॥१२३॥ दो अट्ठ सुण्ण-तिन-गह-"तिय-छक्का दोणि-पण-चउक्कारिण । "तिय एक्क यानिगि अंग कमेएर गल्लोगल्ल १२४॥ ४१३४५२६३०३०८२०३१७७७४६५१२१६२०००००००००००००००००० । अर्थ :-अन्तके स्थानोंमें १८ शून्य, दो, नौ, एक, दो, एक, पाँच, नौ, चार, सात, सात, सात, एक, तीन, शून्य, दो, पाठ, शुन्य, तीन, शून्य, तीन, छह, दो, पाँच, चार, तीन, एक और चार ये अमसे पल्यरोमके अंक हैं ।।१२३-१२४।। व्यवहार पल्यका लक्षण एवकेक रोमग्गं वस्स-सदे फेखिदम्हि सो पल्लो । रित्तो होदि स कालो उद्धार सिमित-ववहारो ॥१२५॥ ॥ ववहार-पल्लं ।। अर्थ :-- सौ-सौ वर्षमें एक-एक रोम-खण्डके निकालनेपर जितने समयमें वह गड्ढा खाली होता है, उतने कालको व्यवहार-पल्योपम कहते हैं। वह व्यवहार पल्य उद्धार-पल्यका निमित्त है ॥१२॥ ॥ व्यबहार-पल्यका कथन समाप्त हुा ।। उद्धार पल्यका प्रमाण बवहार-रोम-रासि पत्तेक्कमसंख-कोडि-वस्साणं । समय-समं छेत्तूणं विदिए पल्लम्हि भरिवम्हि ॥१२६॥ १.८ अट्ठरसंताणे। २. द. दोणविक्कं । ३. द. तियच्छचपदोगिणपणपणिति, क. तियच्छचउदोण्णिपणच मिति । ४. द. ए एक्वा ।। . Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १२७-१३० ] पढमो महाहियारो [२६ समयं पडि' एक्केक्कं वालग्गं फेडिदम्हि सो पल्लो। रित्तो होदि स कालो उद्धारं णाम पल्लं तु ॥१२७॥ ॥ उद्धार-पल्लं ॥ अर्थ : त्र्यवहारपल्यको रोम-राशिमेंसे प्रत्येक रोम-खण्डोंके, असंख्यात करोड़ वर्षों के जितने समय हों उतने खण्ड करके, उनसे दूसरे गल्यको भरकर पुन: एक-एक समयमें एक-एक रोमखण्डको निकालें । इसप्रकार जितने समयमें वह दूसरा पल्य ( गड्ढा ) खाली होता है, उतना काल उद्धार नामके पल्यका है ।।१२६-१२७।।। । उद्धार-पल्यका कथन समाप्त हुप्रा ॥ अद्धार या अद्धापल्यके लक्षण प्रादि एदेणं पल्लेणं दीव-समुद्दाण होदि परिमाणं । उद्धार-रोम-रासि 'छेत्तूरणमसंख-वास-समय-समं ॥१२८।। पुव्वं व विरचिदेणं तदियं श्रद्धार-पल्ल-रिगप्पत्ती ।। णारय-तिरिय-गराणंसुराण-कम्म-द्विदी तम्हि ॥१२६॥ ॥ अद्धार-पल्लं एवं पल्लं समत्तं ॥ मर्थ :-इस उद्धार-पल्यसे द्वीप और समुद्रोंका प्रमाण जाना जाता है। उद्धार-पल्यकी रोम-राशिमेंसे प्रत्येक रोम-खण्डके असंख्यात वर्षोंके समय-प्रमाण खण्ड करके तीसरे गड्ढेके भरनेपर और पहलेके समान एक-एक समयमें एक-एक रोम-खण्डको निकालनेपर जितने समयमें बह गड्ढा रिक्त होता है उतने कालको अद्धार पल्योपम कहते हैं । इस अद्धा पल्यसे नारकी, मनुष्य और देवोंकी आयु तथा कर्मोकी स्थितिका प्रमाण (जानना चाहिए) ।।१२८-१२६।। . ॥ अद्धार-पल्य समाप्त हुना । इसप्रकार पल्य समाप्त हुआ । व्यवहार, उद्धार एवं प्रद्धा सागरोपमोंके लक्षण एवारणं पल्लाणं दहप्पमारगाउ कोडि-कोडीयो। सायर-उबमस्स पुढं एक्कस्स हवेज्ज परिमाणं ।।१३०।। ॥ सायरोपमं समत्त । -- - - - - .१. म. पजियपकेयकं । . २. द. छेत्त रणं संख । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपत्ती [ गाथा : १३१-१३२ अर्थ :-इन दसकोड़ाकोड़ी पल्योंका जितना प्रमाण हो उतना पृथक्-पृथक् एक सागरोपमका प्रमाण होता है । अर्थात् दसकोड़ाकोड़ी व्यवहार पल्योंका एक व्यवहार-सागरोपम, दसकोड़ाकोड़ो उद्धार-पल्योंका एक उद्धार-सागरोपम और दस-कोडाकोड़ी श्रद्धा-पल्योंका एक प्रद्धा-सागरोपम होता है ॥१३०।। ।। सागरोपमका वर्णन समाप्त हुआ ।। सूच्यंगुल और जगच्छणीके लक्षण श्रद्धार-पल्ल-छेदे तस्सासंखेज्ज-भागमेत्ते य । पल्ल-घणंगुल-वग्गिव-संवग्गिदम्हि सूइ-अगसेढी ।।१३१॥ सू० २ । जग०-। प्रर्थ :-प्रद्धापल्यके जितने अर्धच्छेद हों उतनी जगह पल्य रखकर परस्पर गुणित करनेपर सुव्यंगुल प्राप्त होता है । अर्थात् सुच्यंगुल - [अद्धापल्य] की घात [अद्धापल्यके अर्धच्छेद]; तथा श्रद्धापल्यको अर्धच्छेद राशिके असंख्यातवें भागप्रमाण धनांगुल रखकर उन्हें परस्परमें गुणित करनेसे जगच्छणी प्राप्त होती है । अर्थात्जगच्छु णी- [चनांगुल] की घात ( श्रद्धापल्य के अर्धच्छेद/असंख्यात ) ॥१३१॥ सू० अं० २ जगच्छणी सूच्यंगुल आदिका तथा राजूका लक्षण तं वग्गे पदरंगुल-पदराइ-घणे घणंगुलं लोयो। जगसेढीए । सत्तम-भागो रज्जू पभासते ।।१३२॥ ४ | = । ६ । = । उ । ।। एवं परिभासा गवा ॥ प्रर्थ :-उपर्युक्त सूच्यंगुलका वर्ग करनेपर प्रतरांगुल और जगच्छणीका वर्ग करनेपर जगत्प्रतर होता है । इसीप्रकार सूच्यंगुलका घन करनेपर घनांगुल और जगच्छ्रणीका घन करनेपर लोकका प्रमाण होता है ! जगच्छ रणीके सातवें भागप्रमाण राजूका प्रमाण कहा जाता है ।।१३२।। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E पढमो महाहियारो प्र. अं. ४; ज. प्र. = ; घ. अं. ६) घ. लो. = | उ राजू है । गाथा १३३-१३४ ] || इसप्रकार परिभाषाका कथन समाप्त हुआ ।। विशेषार्थ : - गाथा १३१ और १३२ में सूच्यंगुल, प्रतरांगुल और घनांगुल तथा जगच्छ्छ्र ेणी, जगत्प्रतर श्रौर लोक एवं राजूकी परिभाषाएँ कही गई हैं । अंकसंदृष्टिमें - मानलो, श्रद्धापल्यका प्रमारण १६ है । इसके अर्धच्छेद ४ हुए ( विवक्षित राशिको जितनी बार आधा करते-करते एकका अंक रह जाय उतने उस राशिके अर्धच्छेद कहलाते हैं । जैसे १६ को ४ बार प्राधा करनेपर एक अंक रहता है, अतः १६ के ४ अर्धच्छेद हुए ) । श्रतः चार बार पत्य ( १६ १६ १६ × १६) का परस्पर गुणा करनेसे सूच्यंगुल ( ६५ = अर्थात ६५५३६ ) प्राप्त हुआ । इस सूच्यंगुलके वर्ग ( ४२ =अर्थात् ६५५३६ x ६५५३६ ) को प्रतरांगुल तथा सूच्यंगुल के घन ( ६५५३६४६५५३६× ६५५३६ या ( ६५५३६ ) २६५५३६ = ( ६५५३६ ) ३ को घनांगुल कहते हैं । [ ३१ 3 मानलो श्रद्धापल्यका प्रमाण १६, धनांगुलका प्रमाण (६५५३६) ३ और प्रसंख्यातका प्रमाण २ है | अतः पल्य (१६) के अर्धच्छेद ४२ (प्रसंख्यात) = लब्ध २ भाया, इसलिए दो बार चनांगुलों { (६५५३६) * x (६५५३६) ३ } का परस्पर गुणा करनेसे जगच्छ्र ेणी प्राप्त होती है । जगच्छ गोके वर्गको जगत्प्रतर और जगच्छ पीके घनको लोक कहते हैं । जगच्छ शी (६५५३६४ × ६५५३६*) के सातवें भाग को राजू कहते हैं । यथा - जगच्छ्रणी = राजू । लोकाकाशके लक्षण - प्रादि- हिरण हीरणो पर्याड सरुवेण एस संजादो ! जीवाजीव-समिद्धो 'सव्वण्हावलोइलो लोश्रो ।। १३३ ।। अर्थ :---सर्वज्ञ भगवान् से अवलोकित यह लोक, प्रादि और अन्तसे रहित अर्थात् अनाद्यनन्त है, स्वभावसे ही उत्पन्न हुआ है और जीव एवं प्रजीव द्रव्योंसे व्याप्त है ।। १३३ ।। धम्माधम्म-रिणबद्धा "गदिरगदी जीव-योग्गलारगं च । जेत्तिय - मेत्ता प्रासे लोयाप्रासो स गादन्यो ॥१३४॥ अर्थ :- जितने श्राकाशमें धर्म और अधर्म द्रव्यके निमित्तसे होनेवाली जीव और पुद्गलोंकी गति एवं स्थिति हो, उसे लोकाकाश समझना चाहिए || १३४ || १. द. क्र. ज. ठ. सव्वाहा वश्रववो, ब. सम्बरणहावलोयवो । २. द. व. गदिरागदि । ३. ६. ब. क. ज. मेत्ताप्रासो | Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ] तिलोयपणती लोकाकाश एवं लोकाकाश लोयायास- ट्ठाणं सयं- पहाणं स वन्य छवर्क हु । सबमलोयायासं तं सच्वास हवे गिना १३५॥ [ गाथा १३५-१३८ अर्थ : छह द्रव्योंसे सहित यह लोकाकाशका स्थान निश्चय ही स्वयंप्रधान है, इसकी सब दिशाओं में नियमसे प्रलोकाकाश स्थित है ।११३५|| लोकके भेद सयलो एस य लोश्रो रिप्पो सेढि विद- मारणेरणं तिaियप्पो णावव्वो हेट्ठिम-मज्झिल्ल उड्ड- मेएरा ॥ १३६ ॥ अर्थ :- श्रेणीवृन्दके मानसे श्रर्थात् जगच्छ्र गोके वनप्रमाणसे निष्पन्न हुआ यह सम्पूर्ण लोक अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोकके भेदसे तीन प्रकारका जानना चाहिए || १३६ ॥ तीन लोककी प्राकृति हेट्ठिम लोयाश्रारो वेतासरण सहिो सहावेण । मज्झिम- लोयायारो उभय- मुरश्रद्ध-सारिच्छो ।। १३७ ।। Δ ए उबरिम- लोयाचारो उब्भिय मुरवेण होइ सरित्तो । संठारणो एवाणं लोयाणं एव्हि साहेमि ॥ १३८ ॥ अर्थ :-- इनमें से अधोलोककी आकृति स्वभावसे वेत्रासन सदृश और मध्यलोककी प्राकृति खड़े किए हुए अर्धमृदंग कर्वभागके सदृश है । ऊर्ध्वलोककी प्राकृति खड़े किए हुए मृदंगके सदृश है । अब इन तीनों लोकोंका श्राकार कहते हैं ।। १३७-१३८।१ १. ब. तं संवासं । २ द. तिब्वियप्पो । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३ गाथा : १३६ ] पढमो महाहियारो विशेषार्थ :-गाथा १३७-१३८ के अनुसार लोककी प्राकृति निम्नांकित है : खडे मृदंग सहश जर्वलोक वेत्रासन सदृश अधोलोक अधोलोकका माप एवं प्राकार तं मझे मुहमेककं भूमि जहा होदि सत्त रज्जूवो । तह छिदिवम्मि मज्झे हेट्ठिम-लोयस्स आयारो ॥१३६॥ अर्थ :- उस सम्पूर्ण लोकके बीचमेंसे जिसप्रकार मुख एक राजू और भूमि सात राजू हो, इसप्रकार मध्य में छेदनेपर अधोलोकका आकार होता है ॥१३६।। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निबोयपण्यात्ती [ गाथा : १४० विशेषार्थ : सम्पूर्ण लोकमेंसे अधोलोकको इसप्रकार अलग किया गया है कि जिसका मुख एक राजू और भूमि मात राजू है । यथा सम्पूर्ण लोकको वर्गाकार प्राकृतिमें लानेका विधान एवं प्राकृति दोपक्ख-खेत्त-भेत्तं' उच्चलयंतं पुण-द्ववेदणं । विवरीदेणं मेलिदे वासुच्छेहा सत्त रज्जूभो ।।१४०।। अर्थ :-दोनों पोर फैले हुए क्षेत्रको उठाकर अलग रखदें, फिर विपरीतक्रमसे मिलाने पर विस्तार और उत्सेध सात-सात राजू होता है ।।१४०।। विशेषार्थ :-लोक चौदह राजू ऊँचा है । इस ऊँचाईको ठीक बीचमेंसे काट देनेपर लोकके सामान्यत: दो भाग हो जाते हैं, इन क्षेत्रों मेंसे अधोलोकको अलगकर उसके दोनों भागोंको और अलग किये हुए ऊर्ध्वलोकके चारों भागोंको विपरीत क्रमसे रखनेपर लोकका उत्सेध और विस्तार दोनों सात-सात राजू प्राप्त होते हैं । यथा : १. द. क. ज.ठ. उचल्लयतं । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १४१-१४३ ] पट्टमो महाहियारो :..." .. लोककी डेढ़ मृदंग सदृश प्राकृति बनाने का विधान मज्झम्हि पंच रज्जू कमसो हेट्रोवरम्हि' इगि-रज्जू । सग रज्जू उच्छेहो होदि जहा तह य छेत्तूणं ॥१४१॥ हेट्ठोवरिवं मेलिद-खेत्तायारं तु चरिम-लोयस्स । एदे पुटिवल्लस्स य खेतोवरि ठावए पयदं ॥१४२॥ 'उद्धिय-विवढ-मुरव-धजोयमाणो य तस्स आयारो। एक्कपदे सग-अहलो चोइस-रज्जूदवो तस्स ॥१४३॥ प्रर्थ:-जिसप्रकार मध्य में पांच राज, नीचे और ऊपर क्रमशः एक राजू और ऊँचाई सात राजू हो, इसप्रकार खपित करनेपर नीचे और ऊपर मिले हुए क्षेत्रका प्राकार अन्तिम लोक अर्थात् ऊर्ध्वलोकका प्राकार होता है, इसको पूर्वोक्त क्षेत्र अर्थात् अधोलोकके ऊपर रखनेपर प्रकृति में खड़े किये हुए ध्वजयुक्त डेढ़मृदंगके सदृश उस सम्पूर्ण लोकका प्राकार होता है । इसको एकत्र करनेपर उस लोकका बाहल्य सात राजू और ऊंचाई चौदह राजू होती है ।।१४१-१४३।। १. ६ क वरिम्हि । २. द. उम्भियदिवसरवद्ध। ३. द. ब सव्वहलो । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ] तिलोयपण्णत्ती तस्स य एक्कम्हि दए वासो पुग्वावरेण भूमि - मुहे । सत्तेक्क-पंच-एक्का रज्जूवो मज्झ-हाणि चयं ॥ १४४ ॥ [ गाथा : १४४-१४७ अर्थ :---. इस लोककी भूमि और मुखका व्यास पूर्व-पश्चिमकी अपेक्षा एक ओर क्रमशः सात, एक, पांच और एक राजूमात्र है, तथा मध्यमें हानि - वृद्धि है ।। १४४ ।। नोट :- गाथा १४१ से १४४ प्रकृत प्रसंगसे इतर है, क्योंकि गाथा १४० का सम्बन्ध गाथा १४५ - १४७ से है । सम्पूर्ण लोकको प्रनराकार रूप करनेका विधान एवं आकृति खे-संठिय-चखंडं सरिसद्वाणं 'आइ घेणं । तमोभय-पवखे विवरीय- कमेण मेलेज्जो ॥ १४५ ॥ 'एवज्जिय बसेसे खेल गहिऊण पवर- परिमाणं । पुषं पिव कादूणं बहलं बहलम्मि मेलेज्जो ॥१४६॥ एब-मबसेस -खेत जाव 'समध्येदि ताव घेत्तव्यं । एक्केक्क-पवर माणं एक्केषक - पदेस - बहलेणं अर्थ :- ग्राकाशमें स्थित, सदृश आकार वाले चारों-खण्डों को उभय पक्ष में विपरीत क्रमसे मिलाना चाहिए । इसीप्रकार अवशेष क्षेत्रों को ग्रहणकर और पूर्वके सदृश ही प्रतर प्रमाण करके बाहुल्यको बाहुल्यमें मिलायें । जब तक इस क्रमसे अवशिष्ट क्षेत्र समाप्त नहीं हो जाता, तब तक एक-एक प्रदेशकी मोटाईसे एक-एक प्रतर- प्रमाणको ग्रहण करना चाहिए ।। १४५ - १४७ ।। ।। १४७ ।। ग्रहणकर उन्हें विचारपूर्वक विशेषार्य :- १४ इंच ऊँची, ७ इंच मोटी और पूर्व-पश्चिम सात, एक, पांच और एक इंच चौड़ाई वाली मिट्टीकी एक लोकाकृति सामने रखकर उसमेंसे १४ इंच लम्बी, ७, १, ५, १ इंच चौड़ी और एक इंच मोटी एक परत छीलकर ऊँचाईकी श्रोरसे उसके दो भाग कर गाथा १४० में दर्शाई हुई ७ राजु उत्सेध और ७ राजू विस्तार वाली प्रतराकृतिके रूपमें बनाकर स्थापित करें | पुनः उस लोकाकृतिमेंसे एक इंच मोटी, १४ इंच ऊँची और पूर्व विस्तार वाली दूसरी परत छोलकर उसे भी प्रतर रूप करके पूर्व प्रतरके ऊपर स्थापित करें, पुनः इसी प्रमाण वाली तीसरी परत छीलकर उसे भी प्रतर रूप करके पूर्व स्थापित प्रतराकृतिके ऊपर ही स्थापित करें। इसप्रकार करते १. ब. मई । २. [ एवं यि ] | ५. द. व समं पेरि । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १४८ - १४६ : महाहवारी [ ३७ करते जब सातों ही परतें प्रतराकार में एक दूसरेपर स्थापित हो जाएँगी तब ७ इंच उत्सेध, ७ इंच विस्तार और सात इंच बाहुल्यवाला एक क्षेत्र प्राप्त होगा । यह मात्र दृष्टान्त है किन्तु इसका दाष्टन्ति भी प्रायः ऐसा ही है । यथा - १४ राजू ऊँचे, ७, १, ५, १ राजू चौड़े और ७ राजू मोटे लोककी एक-एक प्रदेश मोटाई वाली एक-एक परत छीलकर तथा उसे प्रतराकार रूपसे स्थापित करने अर्थात् बायको बाहुल्यसे मिला देनेपर लोकरूप क्षेत्रकी मोटाई ७ राजू, उत्सेध ७ राजू और विस्तार ७ राजू प्राप्त होता है । यथा J で its TO इग्नू लम्बाई हाई नोट :- मूल गाथा १३८ के पश्चात् दी हुई संदृष्टिका प्रयोजन विशेषार्थसे स्पष्ट होजाता है । त्रिलोककी ऊँचाई, चौड़ाई और मोटाईके वर्णनकी प्रतिज्ञा एदेण पयारेणं रिप्पण्णत्त-लोयखत्त- दीहत्तं । वास- उदयं भलामो निस्संदं दिट्टिवादादो ।। १४८ ।। अर्थ : इस प्रकार से सिद्ध हुए त्रिलोकरूप क्षेत्रकी मोटाई, चौड़ाई और ऊँचाईका हम ( यतिवृषभ ) वैसा ही वर्णन कर रहे हैं जैसा दृष्टिवाद अंगसे निकला है ।। १४८ ।। दक्षिण-उत्तर सहित लोकका प्रमाण एवं प्राकृति सेढि पमाणायामं भागेसु दक्खिणुत्तरेस पुढं । वारेसु वासं भूमि मुहे सत्त एकक-पंचेवका ॥ १४६ ॥ - । - १७१ । ७५ । ७१ । प्रथं : – दक्षिण और उत्तर भाग में लोकका आयाम जगच्छ ेणी प्रमाण अर्थात् सात राजू है, पूर्व और पश्चिम भागमें भूमि तथा मुखका व्यास, क्रमशः सात, एक, पांच और एक राजू है । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ । तिलोयपणरणत्ती [ गाथा : १५० तात्पर्य यह है कि लोककी मोटाई सर्वत्र सात राजू है और विस्तार क्रमशः अधोलोकके नीचे सात, मध्यलोकमें एक, ब्रह्मस्वर्गपर पांच और लोकके अन्तमें एक राजू है ।।१४६।। विशेषार्थ :----लोक्रकी उत्तर-दक्षिण मोटाई, पूर्व-पश्चिम चौड़ाई और गा० १५० के प्रथम चरणमें कही जानेवाली ऊँचाई निम्नप्रकार है AL अधोलोक एवं ऊर्ध्वलोककी ऊंचाईमें सदृशता चोद्दस-रज्जु-पमाणो उच्छेहो होदि सयल-लोयस्स । अद्ध-मुरज्जस्सुदवो 'समग्ग-मुरवोदय-सरिच्छो ।।१५०।। १४ । - |-। १.व.मामग्ग । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया : १५१-१५२ 1 पढमो महाहियारो [ ३६ अर्थ :-सम्पूर्ण लोककी ऊँचाई चौदह राजू प्रमाण होती है । अर्धमृदंगकी ऊँचाई, सम्पूर्ण मृदंगकी ऊंचाईके सदृश है अर्थात् अर्थमृदंग सदृश अधोलोक जैसे सात राजू ऊँचा है, उसीप्रकार पूर्ण मृदंगके सदृश ऊर्बलोकभी सात राजू ऊँचा है ।।१५।। तीनों लोकोंकी पृथक्-पृथक् ऊँचाई हेद्विम-मज्झिम-उरिम-लोउच्छेहो कमेण रज्जवो । सत्त य जोयरण-लक्खं जोयण-लक्खूरण-सग-रज्जू ॥१५॥ । ७ । जो. १००००० १७ रिण जो. १००००० । अर्थ :- क्रमश: अधः कोककी ऊँचाई लात मधु मध्यलोकको अचाई एक लाख योजन और ऊर्बलोककी ऊँचाई एक लाख योजन कम सात राजू है ॥१५१॥ विशेषार्थ :-अधोलोककी ऊँचाई सात राजू, मध्यलोककी ऊँचाई एक लाख योजन और ऊर्ध्व लोककी ऊँचाई एक लाख योजन कम सान राजू प्रमाण है। अधोलोकमें स्थित पृथिवियों के नाम एवं उनका अवस्थान इह रयण-सक्करा-वालु-पंक-धूम-तम-महातमादि-पहा । मुरवद्धम्मि महीनो सत्तच्चिय रज्जु-अंतरिदा' ॥१५२॥ अर्थ :- इन तीनों लोकोंमें से अर्धमृदंगाकार अधोलोक्रमें रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और महातमःप्रभा, ये सात पृथिवियाँ एक-एक राजूके अन्तरालसे हैं ।।१५२॥ विशेषार्थ :-ऊपर प्रत्येक पृथिवीके मध्यका अन्तर जो एक राजू कहा है, वह सामान्य कथन है । विशेष रूपसे विचार करनेपर पहली और दूसरी पृथिवीकी मोटाई एक राजमें शामिल है, अतएव इन दोनों पृथिवियोंका अन्तर दो लाख बारह हजार योजन कम एक राजू होगा। इसीप्रकार प्रागे भी पृथिवियोंकी मोटाई, प्रत्येक राजूमें शामिल है, अतएव मोटाईका जहाँ जितना प्रमाण है उतना-उतना कम, एक-एक राजू अन्तर वहाँका जानना चाहिए । १. क. ज. 2. अंतग्यिा । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ] तिलोयपण्णत्ती रत्नप्रभादि पृथिवियोंके गोत्र नाम धम्मा-सा मेघा जगरिद्वारा ' ओझ मधवीश्रो । माघविया इय ताणं पुढवीणं गोत्त-सामारि ॥। १५३ ।। [ गाथा : १५३ - १५६ अर्थ :-- धर्मा, वंशा, मेघा, अंजना, श्ररिष्टा, मघवी और माघवी, ये इन उपर्युक्त पृथिवियोंके गोत्र नाम हैं ।। १५३ ।। मध्यलोक के अधोभागसे लोकके अन्त - पर्यन्त राजू-विभाग मज्झिम- जगस्स हेट्टिम-भागादो णिग्गदो पढम- रज्जू । "सक्कर- पह- पुढवीए हेडिम भागम्म णिट्टादि ।। १५४।। ७ १ । अर्थ :- मध्यलोकके अधोभाग से प्रारम्भ होता हुआ पहला राजू शर्कराप्रभा पृथिवीके प्रभाग में समाप्त होता है ।। १५४ ।। ।। राजू १ ।। तत्तो 'दोइद- रज्जू बालुव-पह हेदुम्मि समयपेदि । तह य तइज्जा रज्जू "पंक- पहे हेट्टभायम्मि ।। १५५ ।। । ७२ । ७३ । अर्थ :- इसके आगे दूसरा राजु प्रारम्भ होकर बालुकाप्रभा के अधोभाग में समाप्त होता है, तथा तीसरा राजू पकप्रभाके अधोभागमें समाप्त होता है ।। ११५ ।। राजू २ । ३ । धूम - पहाए हेट्टिम - भागम्मि समप्पदे तुरिय-रज्जू । तह पंचमिश्रा रज्जू तमप्पहा - हेष्ट्ठिम-पएसे ॥ १५६ ॥ । उ ४ । छ ५ । अर्थ :- इसके अनन्तर चौथा राजू धूमप्रभाके अधोभागमें और पाँचवाँ राजू तमः प्रभाके भाग समाप्त होता है । १५६ । । १. क. रिट्ठाण उज्झ, ज. उ. द रिट्ठा भोज्झ । २. ब. गात 1 ३. द. ब. क. ठ. सक्करसेह | ज. सकरसेक । ४. ज. ठ. दुइज्ज, द. क. दोइज्ज । ५. ज. द. क. ठ. पंक पह हेटुस्स भागम्मि । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो महाहियारो महतम - पहा हेट्टिम - अंते 'छड्डी हि समप्पबे रज्जू । तत्तो सत्तम-रज्जू लोयस्स तलम्मि णिट्ठादि ॥ १५७ ॥ गाथा : १५७ - १६० ] । ७६ । ७७ । अर्थ :- पूर्वोक्त क्रमसे छठा राजू महातम ः प्रभा के नीचे अन्त में समाप्त होता है और इसके श्रागे सातवाँ राजू लोकके तलभागमें समाप्त होता है ।। १५७ ।। मध्यलोकके ऊपरी भागसे अनुत्तर विमान पर्यन्त राजू विभाग मज्झिम- जगस्स उवरिम भागादु दिवड्ढ-रज्जु-परिमाणं । इगि-जोयण-लक्खूणं' सोहम्म विमाण - धय-दंडे ।। १५८ ।। १४३ । रि यो १००oon अर्थ :- मध्यलोकके ऊपरी भाग से सौधर्म विमानके ध्वज-दण्ड तक एक लाख योजन कम डेहराजू प्रमारण ऊँचाई है ।। १५८।। विशेषार्थ :- मध्यलोकके ऊपरी भाग ( चित्रा पृथिवी ) से सौधर्मविमानके ध्वजदण्ड पर्यन्त सुमेरुपर्वतकी ऊँचाई एक लाख योजन कम डेढ़ राजू प्रमाण है । बच्चदि दिवद-रज्जू माहिद- सरणकुमार- उवरिम्मि । रिपट्टादि श्रद्ध-रज्जू बम्हुत्तर - उड्ढ - भागम्मि ।। १५६ ॥ [ ४१ ।। १४३ | ४ | अर्थ :- इसके आगे डेढ़राजू, माहेन्द्र और सनत्कुमार स्वर्गके ऊपरी भाग में समाप्त होता है । अनन्तर आधा राजू ब्रह्मोत्तर स्वर्गके ऊपरी भाग में पुर्ण होता है ।। १५६ । अवसादि श्रद्ध- रज्जू काविट्ठस्सोवरिट्ठ" - भागम्मि । सच्चिय महसुष कोवरि सहसा रोवरि य सच्चेव । ११६० ॥ । ९४ । नष्ट | ५४ | १. ब. क. खीहि । २. द. लक्खोणं, क. लक्खाणं । धरज्जूवमुत्तरं । ५. क. सोबरिम । ३. द. व. १४ ३ । १४३ । ४. य. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : १६१-१६३ अर्थ :-- इसके पश्चात् अाधाराजू कापिष्टके ऊपरी भागमें, प्राधा राजू महाशुक्रके ऊपरी भागमें और प्राधारा सहस्रारके ऊपरी भाग में समाप्त होता है ।।१६०।। । राजू ३।३।। तत्तो य श्रद्ध-रज्जू प्राणद-कप्पस्स' उपरिम-पएसे । स य पारणस्स कप्पस्स उबरिम-भागम्मि विज्जं ॥१६॥ अर्थ :-- इसके अनन्तर अर्ध (3) राजू पानतस्वर्गके ऊपरी भागमें और अर्ध (3) राजू पारण स्वर्गके ऊपरी भागमें पूर्ण होता है ॥१६१॥ गेवेन्ज रणवाणुद्दिस पहुडीयो होंति एक्क-रज्जूबो । एवं उबरिम-लोए रज्जु-विभागो समुट्ठिो ॥१६२।। १ अर्थ : तत्पश्चात् एक राजूकी ऊँचाईमें नौवेयिक, नौअनुदिक्ष और पाँच अनुत्तर विमान हैं । इसप्रकार ऊर्ध्वलोकमें राजूका विभाग कहा गया है ।।१६२॥ कल्प एवं कल्पातीत भूमियोंका अन्त णिय-णिय-चरिमिवय-धय-दंडग्गं कप्पभूमि-अवसाणं । कप्पादोद-महीए विच्छेदो लोय-किचरणो ॥१६३॥ अर्थ :--अपने-अपने अन्तिम इन्द्रक ध्वज-दण्डका अग्रभाग उन-उन कल्पों ( स्वर्गों ) का अन्त है और कल्पातीतभूमिका जो अन्त है वह लोकके अन्तसे कुछ कम है ।।१६३।। विशेषार्थ :-ऊर्ध्वलोक सुमेरुपर्वतकी चोटीसे एक बाल मात्रके अन्तरसे प्रारम्भ होकर लोकशिखर पर्यन्त १०००४० योजन कम ७ राजू प्रमाण है, जिसमें सर्वप्रथम ८ युगल ( १६ स्वर्ग ) हैं, प्रत्येक युगलोंका अन्त अपने अपने अन्तिम इन्द्रकके ध्वजदण्डके अग्रभागपर हो जाता है। इसके ऊपर अनुक्रमसे कल्पातीत बिमान एवं सिद्धशिला आदि हैं । लोकशिखरसे २१ योजन ४२५ धनुष नीचे कल्पातीत भूमिका अन्त है और सिद्धलोकके मध्यकी मोटाई ५ योजन है अतः कल्पातीत भूमि --- १. द. ब. क. कप्प सो। २. क. ब. गेवज्ज। ३. द. क. ब. ज. ठः ततो उबरिम-भागे गावाणु४. द. क. ज. 8. विरुदेवो । त्तरमो। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १६४-१६६ ] पढमो महाहियारो [ ४३ (सर्वार्थसिद्धि विमानके ध्वजदण्ड) से २६ योजन ४२५ धनुष ऊपर जाकर लोकका अन्त है; इसीलिए गाथामें कल्पातीत भूमिका अन्त लोकके अन्तसे किंचित् ( २६ यो. ४२५ ध. ) कम कहा है। अधोलोकके मुख मीर भूमिका विस्तार एवं ऊँरी सेढीए सत्तंसो हेट्ठिम-लोयस्स होदि मुहवासो । भूमी - वासो सेढी-मेला' - श्रवसाण - उच्छे हो 1—1—15 ।। १६४।। अर्थ :- अधोलोकके मुखका विस्तार जगच्छ्रेणीका सातवाँ भाग, भूमिका विस्तार जगच्छ्रेणी प्रमाण और अधोलोकके अन्त तक ऊँचाई भी जगच्छ रखी प्रमारण ही है ।। १६४।। विशेषार्थ :- अधोलोकका मुख विस्तार एक राजू, भूमि विस्तार सात राजू और ऊँचाई सात राजू प्रमाण है । अधोलोकका घनफल निकालने की विधि मुह-न- समासमद्ध गुणिदं पुण तह य वेदेण । धरण- घरिदं गादव्वं वेत्तासण-सण्णिए खेत्ते ।। १६५ ।। अर्थ : मुख और भूमिके योगको आधा करके पुनः ऊँचाईसे गुणा करनेपर वैवासन सदृश लोक ( अधोलोक ) का क्षेत्रफल जानना चाहिए ।। १६५ ।। विशेषार्थ :- ग्रधोलोकका मुख एक राजू और भूमि सात राजू है, इन दोनोंके योगको दो से भाजित कर ७ राजू ऊँचाईसे गुणित करनेपर अधोलोकका क्षेत्रफल प्राप्त होता है । यथा१+७=८, ८÷२=४, ४ x ७ राजू ऊँचाई = २८ वर्ग राजू अधोलोकका क्षेत्रफल प्राप्त होता है । पूर्ण अधोलोक एवं उसके अर्धभाग के घनफलका प्रमाण हेट्टिम - लोए लोन चउ-गुरिंग दो सग हिवो य विदफलं । तस्सद्ध" सयल-जगो दो-गुणिदो सत्त पवित्तो ॥ १६६ ॥ 3 |5×15 | ४ १. द. मेत्ता उच्छे हो । २. द व समासमद्दिय | ३. ब. तस्थद्ध सयल-जुदागो । क. ज. ठ. सत्तपरिमाणो । ४. द. बॅ. Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती [ गाथा १६७ - १६८ अर्थ :- लोकको चारसे गुणितकर उसमें सातका भाग देनेपर अधोलोकके घनफलका प्रमाण निकलता है और सम्पूर्ण लोकको दो से गुणितकर प्राप्त गुणनफलमें सातका भाग देने पर अधोलोक सम्बन्धी या क्षेत्रका घनफल होता है ॥ १६६ ॥ ४४ ] विशेषार्थ :- लोकका प्रमाण ३४३ घनराजू है, अतः ३४३x४ - १३७२, १३७२÷७ १९६ घनराजू अधोलोकका घनफल है । ३४३x२=६८६, ६८६÷७ १८ घनराजू अर्ध अधोलोकका घनफल हैं । धोलोक समालीका घनफल छेत्तणं तस गालि अण्णत्थं ठाविण विवफलं । श्रासोज्ज तप्पमारणं जरगवण्णेहि वित्त-लो समं ॥१६७॥ अर्थ :- अधोलोक मेरो त्रसनालीको छेदकर और उसे अन्यत्र रखकर उसका धनफल निकालना चाहिए | इस घनफलका प्रमारण, लोकके प्रमाणमें उनचासका भाग देनेपर जो लब्ध प्रावे उतना होता है || १६७ ॥ विशेषार्थ :--- श्रधोलोकमें असनाली एक राजू चौड़ी, एक राजू मोटी और सात राजू ऊँची है, अतः १x१७ = ७ घनराजू घनफल प्राप्त हुआ जो ३४३ ÷ ४६ = ७ धनराजूके बराबर है । सनालीसे रहित और उससे सहित अधोलोकका घनफल सगवीस-गुरिणव- लोओ उणवण्ण-हिदो अ सेस-खिदि-संखा । तस खित्ते सम्मिलिदे च-गुणिदो सग-हिदो लोश्रो ॥ १६८ ॥ १. द.. प्रथं :- लोकको सत्ताईसमे गुरणाकर उसमें उनचासका भाग देनेपर जो लब्ध प्रावे उतना त्रसनालीको छोड़ शेष अधोलोकका घनफल समझना चाहिए और लोक प्रमाणको चारसे गुणाकर ८.७४/ २७ |२७| ४|' ૪ર Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाक : १६६] मोहायिारो उसमें सातका भाग देनेपर जो लब्ध पाये उतना असनालीसे युक्त पूर्ण अधोलोकका धनफल समझना चाहिए ॥१६॥ विशेषार्थ :---३४३ x २७:४६=१८६ घनफल, बमनालीको छोड़कर शेष अधोलोकका कहा गया है और सम्पूर्ण अधोलोकका घनफल ३४३ ४४७=१६६ घनराजू कहा गया है। ऊर्ध्वलोकके आकारको अधोलोक स्वरूप करने की प्रक्रिया एवं प्राकृति मुरजायारं उड्ढं खेत्तं छत्तूण मेलिई सयलं । पुन्वावरेण जायदि वेत्तासण-सरिस-संठाणं' ।।१६६॥ प्रर्थ:-मृदंगके आकारवाला सम्पूर्ण अवलोक है। उसे छेदकर एवं मिलाकर पूर्वपश्चिमसे बेत्रासनके सदृश अधोलोकका आकार बन जाता है ॥१६६।। विशेषार्थ :-अधोलोकका स्वाभाविक प्राकार वेत्रासन सदृश अर्थात् नीचे चौड़ा और ऊपर सँकरा है, किन्तु इस गाथामें मृदंगाकार ऊध्वंलोकको छेदकर इस क्रमसे मिलाना चाहिए कि वह भी अधोलोकके सदृश वेत्रासनाकार बन जावे । यथा -- - रा --- ७ __ - - - - - १. द ब. ज.क.ठ. संठाणा । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ] . तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : १७०-१७२ ऊर्ध्वलोकके व्यास एवं ऊँचाईका प्रमाण सेढीए सत्त-भागो उरिम-लोयस्स होदि मुह-वासो। पण-गुणिदो तम्भूमी उस्सेहो तस्स इगि-सेठी ॥१७॥ ।७।७५। अर्थ :-ऊर्वलोकके मुख का व्यास जगच्छणीका सातवाँ भाम है और इससे पाँचगुणा ( ५ राजू) उसकी भूमिका व्यास तथा ऊँचाई एक जगच्छणी प्रमाण है ॥१७०।। विशेषार्थ :-ऊर्ध्वलोक, मध्यलोकके समीप एक राजू , मध्यमें ५ राजू और ऊपर एक राजू चौड़ा एवम् ७ रानू ऊँचा है। सम्पूर्ण ऊर्ध्वलोक और उसके अर्धभागका घनफल तिय-गुणिदो सत्त-हिदो उवरिम-लोयस्स घणफलं लोनो। तस्सद्ध खेत्तफलं तिगुणो चोदस-हिदो लोगो ॥११॥ अर्थ :-लोकको तीनसे गुणा करके उसमें सातका भाग देनेपर जो लब्ध प्रावे उतना ऊर्ध्वलोकका धनफल है और लोकको तीनसे गुणा करके उसमें चौदहका भाग देनेपर लब्धराशि प्रमाण ऊर्बलोक सम्बन्धी प्राधे क्षेत्रका घनफल होता है ।। १७१।। विशेषार्ण :-३४३४३+७= १४७ धन राजू ऊर्ध्वलोकका धनफल । ३४३४३ : १४-७३३ वन राजू अर्ध ऊर्वलोकका घनफल । ऊर्ध्वलोकमें असनालोका घनफल छेत्तूणं 'तस-गालि 'अण्णत्थं ठाविदूरण विदफलं । प्राणेज्ज तं पमाणं उणवण्णेहि विभत्त-लोयसमं ॥१७२॥ १. द, तस्सपालि । २. द. ब. अगद्ध . अटू । ३. द. क. ज. ठ. विंदुफल । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १७३-१७४ ] पढमो महायिारों [ ४७ अर्थ :-ऊलोकसे असनालीको छेदकर मीर उसे अलग रखकर उसका घनफल निकालें । उस घनफलका प्रमाण ४६ से विभक्त लोकके बराबर होगा ।।१७२।। ३४३ ४६ =७ धनराज त्रसनालीका धनफल । बस नाली रहित एवम् सहित ऊर्बलोकका धनफल हिमाल दुरिणदो नरेनो गहिले गोल-खिदि-संखा। तस-खेत सम्मिलिदे लोगो ति-गुरगो अ सत्त-हिदो ॥१७३॥ अर्थ :--लोकको बीससे गुणाकर उसमें ४६ का भाग देनेपर असनालीको छोड़ बाकी ऊर्ध्वलोकका घनफल तथा लोकको तिगुणाकर उसमें सातका भाग देनेपर जो लब्ध प्रावे उतना वसनाली युक्त पूर्ण ऊर्ध्वलोकका घनफल है ।।१७३।। विशेषार्थ :-३४३ ४ २०४६ = १४० धनराजू असनाली रहित ऊर्ध्वलोकका धनफल । ३४३ ४ ३-:-७= १४७ घनराजू सनाली युक्त ऊह्मलोकका धनफल । सम्पूर्ण लोकका घनफल एवं लोकके विस्तार कथनको प्रतिज्ञा घरण-फलमुवरिम-हेट्ठिम-लोयाणं मेलिदम्मि सेटि-घणं । 'वित्थर-रुइ-बोहत्थं वोच्छं जाणा-यियप्येहि ॥१७४॥ अर्थ :-ऊर्ध्व एवं अधोलोकके घनफलको मिला देने पर वह श्रेणीके घनप्रमाण ( लोक ) होता है । अब विस्तारमें अनुराग रखनेवाले शिष्योंको समझाने के लिए अनेक विकल्पों द्वारा भी इसका कथन करता हूं ।।१४।। विशेषार्थ : ऊर्वलोकका घनफल १४७+ १६६ अधोलोकका-३४३ धनराजू सम्पूर्ण लोकका घनफल है । अथवा ७४ ७४७ = ३४३ घनराजू , श्रेणीका घनफल है। १. द. ब, क. ज ठ. वित्थरहि। २ क, ज.ठ. बोहित्थ । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : १७५-१७७ अधोलोकके मुख एवम् भूमिका विस्तार तथा ऊँचाई सेढीए सत्त-भागो हेछिम-लोयस्स होदि मुह-वासो । भू-वित्थारो सेढी सेडि ति य 'तस्स उच्छहो ।।१७। । । -।अर्थ :-अधोलोकका मुख व्यास श्रेणीके सातवें भाग अर्थात् एक राजू और भूमि विस्तार जगच्छणी प्रमाण ( ७ राजू ) है, तथा उसकी ऊंचाई भी जगच्छुणी प्रमाण ही है ।।१७।। विशेषार्थ : अधोलोकका मुख-व्यास एक राजू , भूमि सात राजू और ऊँचाई सात राजू प्रमारण है। प्रत्येक पृथिवीके चय निकालने का विधान भूमीन मुहं सोहिय उच्छेह-हिदं मुहाउ भूमीदो। सव्वेसु खेत्तेसु पत्तेकं बड्ढि-हाणीयो ।।१७६।। - - - - - . अर्थ :-भूमिके प्रमाणमेंसे मुखका प्रमाण घटाकर शेषमें ऊँचाईके प्रमाणका भाग देनेपर जो लब्ध पावे, उतना सब भूमियोंमें से प्रत्येक पृथिवी क्षेत्रकी, मुखकी अपेक्षा वृद्धि और भूमिकी अपेक्षा हानिका प्रमाण निकलता है ।।१७६॥ विशेषार्थ :-आदि प्रमाणका नाम भूमि, अन्तप्रमाणका नाम मुख तथा क्रमसे घटनेका नाम हानिचय और क्रमसे वृद्धिका नाम वृद्धिचय है। मुख और भूमिमें जिसका प्रमाण अधिक हो उसमेंसे हीन प्रमाणको घटाकर ऊँचाईका भाग देनेसे भूमि और मुखकी हानिवृद्धिका चय प्राप्त होता है । यथा--भूमि ७ – १ मुख-६७ ऊँचाई वृद्धि और हानिके चयका प्रमाण हुआ। प्रत्येक पृथिवीके व्यासका प्रमाण निकालनेका विधान तक्खय-बढि-पमाणं णिय-णिय-उदया-हवं जइच्छाए । हीणभहिए संते वासारिण हवंति भू-मुहाहितो ।।१७७।। १. द. क, ज.ठ. सत्त । २. द. ब. ससे। ३.६. ब, १ ६ । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १७८-१७६ ] पढमो महाहियारो [ ४६ अर्थ : विवक्षित स्थानमें अपनी-अपनी ऊँचाईसे उस वृद्धि और क्षयके प्रमाणको [ 1 ] गुणा करके जो गुणनफल प्राप्त हो, उसको भूमि के प्रमारगमेंसे घटानेपर अथवा मुखके प्रमाणमें जोड़ देनेपर ध्यामका प्रमाण निकलता है ।। १७७।। _ विशेषार्थ :- कल्पना कीजिये कि यदि हमें भूमिको अपेक्षा चतुर्थ स्थानके व्यासका प्रमाण निकालना है तो हानिका प्रमाण जो छह बटे सात [ | है, उसे उक्त स्थानकी ऊँचाई | ३ रा० । से गुरणाकर प्राप्त हुए गुणनफलको भूमिके प्रमाणमेंसे घटा देना चाहिए । इस विधिसे चतुर्थ स्थानका व्यास निकल पाएगा। इसीप्रकार मुखकी अपेक्षा चतुर्थ स्थानके व्याराको निकालनेके लिए वृद्धिके प्रमाण [2 ] को उक्त स्थानकी ऊँचाई ( ४ राजू ) से गुणा करके प्राप्त हुए गुणनफलको मुख में जोड़ देनेपर विवक्षित स्थानके व्यास का प्रमाण निकल पाएगा। उदाहरणा-.x३-30: । - ....'' मूस्लिी प्रार्थ प्रयानका व्यास । १४४=१४; १४+मुखर- मुखको अक्षा चतुर्थस्थानका व्यास । अधोलोकगत सातक्षेत्रोंका धनफल निकालने हेतु गुणकार एवं प्राकृति 'उणवरण-भजिद-सेढी अट्ठ सु ठाणेसु ठाविदूरण कमे । 'वास?' 'गुणप्रारा सत्तादि-छक्क वढि-गदा ॥१७॥ १७ । ४.१३ । १६ 1 १४२५ । ४४३१ । ३४३७ १ ४१४३ | ४ | सत्त-घण-हरिद-लोयं सत्तेसु ठाणेसु ठाविद्रूण कमे। विदफले गुणयारा दस-पभवा छक्क-बढ़ि-गदा ॥१७॥ ३४३ १० १६६३ १६ |३३३ २२ ६३३ २८ १३६६ ३४ | ३६३.४० १३३३ ४६ | अर्थ :-- श्रेणी में उनचासका भाग देनेपर जो लब्ध प्रावे उसे क्रमशः पाठ जगह रखकर व्यासके निमित्त गुणा करनेके लिए प्रादिमें गुणकार सात हैं । पुनः इसके आगे क्रमश: छह-छह मुणकारको वृद्धि होती गई है ।।१७।। श्रेणीप्रमारण राजु ७; यहाँ ऊपर से नीचे तक प्राप्त पृथिवियोंके व्यास क्रमशः ४७; x१३: ४१६; २५; ४३१; x ३७; x ४३, x ४६ ।।१७।। -- १.ब. उगवणज्जिद । २. द. ज. क.. ठाण। ३. द. वासद्ध, म. वासत्तं । ४. ब. वासद्ध मुरगणाए। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] तिलोयाण्णत्ती [ गाथा : १७६ अर्थ:-सातके घन अर्थात् तीनसौ तयालीससे भाजित लोकको क्रमशः सात स्थानोंपर रखकर अधोलोकके सात क्षेत्रों से प्रत्येक क्षेत्रके घनफलको निकालने के लिए प्रादिमें मुणकार दस और फिर इसके प्रागे क्रमश: छह-छहकी वृद्धि होती गई है ।।१७६।। लोकका प्रमाण ३४३, ३४३ (७) = १; तथा उपर्युक्त सात पृथिवियोंके घनफल क्रमशः १४ १०; १४ १६; १४२२; १४ २८; १४ ३४; १४४० और १४४६ धन राजू प्राप्त होंगे ॥१७॥ विशेषार्थ :-( दोनों गाथाओंका ) अधोलोकमें सात पृथ्वियाँ हैं और एक भूमि क्षेत्र, लोककी अन्तिम सीमाका है, इसप्रकार पाठों स्थानोंका व्यास प्राप्त करने के लिए श्रेणी ( ७) में ४६ का भाग देकर अर्थात् को क्रमश: ७, (७+ ६ )= १३, ( १३ + ६ ) = १६, ( १६+६)- २५, (२५+६) =३१, (३१+६)=३७, (३७+६)=४३ और (४३+६)=४६ से गुणित करना चाहिए। उपर्युक्त आट व्यासोंके मध्य में ७ क्षेत्र प्राप्त होते हैं। इन क्षेत्रोंका घनफल निकालनेके लिए ३४३ से भाजित लोक अर्थात् ( 3 )=१ को सात स्थानोंपर स्थापित कर क्रमश: १०, १६, २२, २८, ३४, ४० और ४६ से गुणा करना चाहिए यथा पृश्चियोंके घनफल : १४१०५ १०धन रन --~- - '१५१६ = १६ धनरात----- १४७० ९एन गौड़ाई ------- , " १४२२६२२ "" ६४२४-२८- - - ४३-3804 ५.३४, " ext- " -- - ५३ ॥ " ३.६ " " -- - ७ एन चौड़ाई ९४४०-Fon"- --------- - - x४६%3D४६ धनराज Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५१ गाथा : १५० ] पढमो महाहियारों पूर्व-पश्चिमसे अधोलोककी ऊँचाई प्राप्त करनेका विधान एवं उसकी प्राकृति उदनो हवेदि पुन्यावरेहि लोयंत-उभय-पासेसु । ति-नु-इगि-रज्जु-पवेसे सेढी दु-ति-'भाग-तिद-सेढोरो ॥१०॥ अर्थ :-पूर्व और पश्चिमसे लोकके अन्तके दोनों पार्श्वभागोंमें तीन, दो और एक राजू प्रवेश करनेपर ऊँचाई क्रमशः एक जगच्छ्रणी, श्रेणीके तीन भागोंमसे दो-भाग और श्रेणीके तीन भागोंमेंसे एक भाग मात्र है ।।१८०।। विशेषार्थ :-पूर्व दिशा सम्बन्धी लोकके अन्तिम छोरसे पश्चिमकी अोर ३ राजू जाकर यदि उस स्थानसे लोककी ऊँचाई मापी जाय तो ऊँचाइयां क्रमश: जगच्छणी प्रमाण अर्थात् ७ राजू, दो राजू जाकर मापी जाय तो राजू और यदि एक राजू जाकर मापी जाय तो राजू प्राप्त होगी। पश्चिम दिशा सम्बन्धी लोकान्तसे पूर्वकी ओर चलने परभी लोककी यही ऊँचाइयां प्राप्त होंगी। शंका :-दो राज आगे जाकर लोककी ऊँचाई १४ राजू प्राप्त होती है यह कैसे जाना जाय ? १. [ दुतिभागनिदियसेटीग्रो ] । २. क. प्रति से । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ | तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : १८१ समाधान :- ३ राजू दूरी पर जब ऊँचाई ७ राजू है, तब दो राजू दूरी पर कितनी ऊँचाई प्राप्त होगी ? इस त्रैराशिक नियमसे जानी जाती है । यथा राज् इस्तू अन्जू सं त्रिकोण एवं लम्बे बाहु युक्त क्षेत्रके घनफल निकालने की विधि एवं उसका प्रमाण भुज- पडिभुज - मिलिद्ध विदफलं वासमुदय-वेद-हवं । 'एक्काययत्त-बाहू वासद्ध-हवा य वेव-हदा ॥ १८१॥ अर्थ :- [१] भुजा और प्रतिभुजाको मिलाकर प्राधा करनेपर जो व्यास हो, उसे ऊँचाई और मोटाईसे गुणा करना चाहिए। ऐसा करनेसे त्रिकोण क्षेत्रका घनफल निकल प्राता है । [२] एक लम्बे बाहुको व्यासके आधे से गुणाकर पुन: मोटाईसे गुणा करनेपर एक लम्बे बाहु-युक्त क्षेत्रके घनफलका प्रमाण आता है ।। १८१ ॥ विशेषार्थ : - गा० १८० के विशेषार्थ लम्बी रेखाका नाम भुजा और ॐ राज लम्बी रेखा (*+ *} == ॐ५ राजू है । इसको आधा करने पर ( और मोटाई का गुणा कर देने पर (३ x) = चतुर्भुजका घनफल है । चित्रण में "स" नामक विषम चतुर्भुजमें ७ राजू का नाम प्रतिभुजा है । इन दोनोंका जोड़ ३ ) - राजू प्राप्त होते हैं। इनमें ऊंचाई अर्थात् ४० घन राजू "रा" नामक विषम x = rh इसीप्रकार "ब" चतुर्भुजका घनफल भी प्राप्त होगा । यथा : राजू भुजा + राजू प्रतिभुजा = राजू । तत्पश्चात् घनफल = x ३ + = ३१ अर्थात् २४१ घनराजू "ब' नामक विषम चतुर्भुजका घनफल प्राप्त होता है । यही धनफल गाया १८२ में दर्शाया गया है । १. द. एक्कायजत्त, ज. क. ठ. एक्कायसत्त । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १८२-१८३ ] पदमो महाहियारो [ ५३ ____ "प्र" क्षेत्र त्रिकोणाकार है अतः उसमें प्रतिभुजाका अभाव है। अ क्षेत्रकी भुजाकी लम्बाई राजू और क्षेत्रका व्यास एक राजू है । लम्बायमान बाहु ( 8 ) को व्यासके आधे (1) से प्रौर मोटाईसे गुणित कर देनेपर लम्बे घाहु युक्त त्रिकोण क्षेत्रका क्षेत्रफल प्राप्त हो जाता है । यथा : *४३४ अर्थात् ८, धनराजू 'अ' त्रिकोण क्षेत्रका घनफल प्राप्त हुआ । यही क्षेत्रफल गाथा १८२ में दर्शाया गया है। अभ्यन्तर क्षेत्रोंका घनफल वादाल-हरिद-लोयो विदफलं चोदसावहिव-लोप्रो । तम्भतर-खेत्तारणं पण हद-लोप्रो वुदाल-हिदो ॥१२॥ अर्थ :- लोकको बयालीससे भाजित करनेपर, चौदहसे भाजित करनेपर और पाँचसे गुरिणत एवं बगालीससे भाजित करनेपर क्रमश: (अ.ब.स.) अभ्यन्तर क्षेत्रोंका धनफल निकलता है।।१८२॥ विशेषार्थ : -३४३ : ४२ = धनराजू 'अ' क्षेत्रका घनफल । ३४३ : १४= २४ धन राजू 'ब' क्षेत्रका घनफल । ३४३४५४२-४०१ धनराजू 'स' क्षेत्रका घनफल । नोट :.. इन तीनों घनफलोंका चित्रण गाथा १८० के विशेषार्थ में और प्रक्रिया गा० १८१ के विशेषार्थमें दर्शा दी गई है। सम्पूर्ण अधोलोकका धनफल एदं खेत-पमाणं मेलिद सयलं पि दु-गुरिणदं कादु । मझिम-खेत्ते मिलिदे 'चउ-गुणिदो सग-हिदो लोगो॥१८३॥ - - - --.. १. द.ब. क.ज.ठ. चउगुरिणदे सगहिदे। २२. ज. २. ।। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्यात्ती [ गाथा : १८४ अर्थ :-उपर्युक्त घनफलोंको मिलाकर और सकलको दुगुनाकर इसमें मध्यम क्षेत्रके एनफलको जोड़ देनेपर चारसे गुरिणत और सातसे भाजित लोकके बराबर सम्पूर्ण अधोलोकके घनफलका प्रमाण निकल पाता है ।।१८३।। विशेषार्थः । गा० १८० के चित्रण में अ, ब और स नामके दो-दो क्षेत्र हैं, अत: । २४३+४०५ -- ७३६ धनराजूमें २ का गुणा करनेसे (७३३४२) १४७ घनराजू प्राप्त हुआ । इसमें मध्यक्षेत्र अर्थात् असनालीका (७४१४७) = ४६ घनराजू जोड़ देनेसे ( १४७ - ४९)- १६६ धनराजू पूर्ण अधोलोकका घनफल प्राप्त हुअा, जो संदृष्टि रूप ३४३४४७ राजूके बराबर है। लघु भुजाओंके विस्तारका प्रमाण निकालनेका विधान एवं प्राकृति रज्जुस्स सत्त-भायो तिय-छ-दु-पंचेक्क-चउ-सहि हवा । खुल्लय-भुजाण रंदा वसादी यंभ बाहिरए ॥१४॥ १३ 1 1 1 ५ । १४१ ! १४ ! १७ | अर्थ :--राजूके सातवें भागको क्रमशः तीन, छह, दो, पाँच, एक, चार और सातसे गुणित-करनेपर वंशा आदिकमें स्तम्भोंके बाहर छोटी भुजाओंके विस्तारका प्रमाण निकलता है ॥१८४॥ _ विशेषार्थ :-सात राजू चौड़े और सातराजू ऊँचे अधोलोकमें एक-एक राजूके अन्तरालसे जो ऊँचाई-रूप रेखाएँ डाली जाती हैं, उन्हें स्तम्भ कहते हैं । स्तम्भोंके बाहरवाली छोटी भुजाओंका प्रमाण प्राप्त करनेके लिए राजूके सातवें (3) भागको तीन, छह, दो, पाँच, एक, चार और सातसे गुणित करना चाहिए । इसकी सिद्धि इसप्रकार है : ___ अधोलोक नीचे सात राजू और ऊपर एक राजू चौड़ा है। भूमि ( ७ राजू ) में से मुख घटा देनेपर ( ७ -- १= ) ६ राजूकी वृद्धि प्राप्त होती है । जब ७ राजूपर ६ राजूकी वृद्धि होती है तब एक राजूपर राजूकी वृद्धि होगी। प्रथम पृथिबीकी चौड़ाई ॐ अर्थात् एक राज और दूसरी पृथिवीकी (+ ) राजू है । इसीप्रकार तृतीय आदि शेष पृथ्यियोंकी चौड़ाई क्रमश: २५ 3. ॐ और राजू है ( यह चौड़ाई गा० १७८, १७६ के चित्रणमें दर्शाई गयी है ), अधोलोककी भूमि अन्तमें अर्थात् सात राजू है। दूसरी और तीसरी पृथिवीके मुखोंमेंसे बीच (सनाली) का एक-एक राजु कम कर देनेपर क्रमश: और राजू अवशेष रहता है, इसका प्राधा कर देनेपर प्रत्येक दिशामें और राजू बाहरका क्षेत्र रहता है । चौथी-पाँचवीं पृथ्वियोंके मुखोंमेंसे बीचके तीन अर्थात् राजू घटा देनेपर शेष (२-२) और ( -3') " राजू शेष रहता है, Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १८५ ] पढमो महाहियारो इनका आधा करनेपर प्रत्येक दिशामें बाह्य छोटी भुजाका विस्तार क्रमशः और राजू रहता है । ६ठी और ७ वीं पृश्वियोंके मुखों तथा लोकके अन्तमेंसे पांच-पांच राजू निकाल देनेपर क्रमशः ( -१) , ( -2) और (१९ – १५)=१४ राजू अवशेष रहता है । इनमें से प्रत्येकका प्राधा करनेपर एक दिशामें बाह्य छोटी भुजाका बिस्तार क्रमशः , और राजू प्राप्त होता है, इसीलिए इस गाथामें को तीन आदिसे गुरिणत करनेको कहा गया है । यथा : उपर्युक्त चित्रण में : ग में 66GNCAl झ में लोयंते रज्जु-घरपा पंच च्चिय अद्ध-भाग-संजुत्ता । सत्तम-खिदि-पज्जंता अड्ढाइज्जा हवंति फुडं ॥१८॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ] ___ तिलोयपगत्ती [ गाथा : १८६-१८७ अर्थ :-लोकके अन्त तक अर्धभाग सहित पांच (५३) धनराजू और सातवीं पृथिवी तक बाई धनराजू प्रमाण घनफल होता है ।।१८५।। (I)-२४१४७ = : घनराजू; | (+) : २४१४७ ]= धनराजू । विशेषार्थ :- गाथा १८४ के चित्रणमें ट ठ ठे दें क्षेत्रका घनफल निम्नलिखित प्रकारसे है : लोकके अन्तमें ठ ठे भुजाका प्रमाण राजू है और सप्तम पुथिवीपर ट दे भुजाका प्रमाण राजू है । यहाँ गा० १८१ के नियमानुसार भुजा (8) और प्रतिभुजा (ॐ) का योग (+), राजू होता है, इसका प्राधा (0x3 हुआ। इसको एक राजू व्यास और सात राजू मोटाईसे गुरिणत करने पर (१९४४) अर्थात् ५ धनराजू घनफल प्राप्त होता है। सप्तम पृथिवीपर झ ट ट में क्षेत्रका घनफल भी इसी भाँति है .भुजा ट ट राजू है और प्रतिभुजा झ में राजू है । इन दोनों भुजाओंका योग (+)= राज हया । इसका अर्थ करनेपर (x)- राजू प्राप्त होता है । इसे एक राजू व्यास और ७ राजू मोटाईसे गुरिंगत करनेपर (22xFx)- ५ अर्थात् २१ धनराजू धन फल प्राप्त होता है । उभसि परिमाणं बाहिम्मि अभंतरम्मि रज्जु-घरणा । छविखवि-पेरंता तेरस वोरूव-परिहत्ता ॥१८६॥ ३३.१३ बाहिर-छम्भाएसु" प्रदरणीदेसुहवेदि अयसेसं । स-तिभाग-छक्क मेत्तं तं चिय अभंतरं खेत्तं ॥१८७॥ अर्थ:-छठी पृथिवीतक बाह्य और अभ्यन्तर क्षेत्रौंका मिश्रधनफल दो से बिभक्त ते रद्ध धनराजू प्रमाण है 11१८६॥ । (+): २४ १४७ ] = घनराजू । १. द. ब, क, ज. क. वाहिरछन्भासेसु। २. द. ब. अवसेस। ३. द. ब.. Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १८८-१८६] पढमो महाहियारो [ ५७ अर्थ :-..-छठी पृथिवी तक जो बाह्य क्षेत्रका घनफल एक बदे छह (२) घनराजू होता है, उसे उपर्युक्त दोनों क्षेत्रोंके जोड़ रूप घनफल ( धनराज ) में में घटा दनपर शेष एक विभाग (3) सहित छह घनराजू प्रमाण अभ्यन्तर क्षेत्रका घनफल समझना चाहिए ।।१८७॥ {"+२ )x.x७= घन रा० बाह्यक्षेत्रका धनफल । ३....-१ घनराजू अभ्यन्तर क्षेत्रका घनफल । विशेषार्थ : छठी पृथिवी पर छ ज झ में छ बाह्य और सभ्यन्तर क्षेत्रसे मिश्रित क्षेत्रका घनफल इसप्रकार है: झ में और में मैं = है, अतः झ में - (+)ई होता है। और छ छ- है, इन दोनों भुजानोंका योग (+)="राजू हुप्रा । इसमें पूर्वोक्त क्रिया करने पर (3xxx 1) धनराजू धनफल प्राप्त होता है । इसमेंसे बाह्म त्रिकोण क्षेत्र ज झ झ का घनफल (3xx ऊँ०४७) वनराजू घटा देने पर छ ज में में छे अभ्यन्तर क्षेत्रका धनफल (२३-1)= अर्थात् ६१ घनराजू प्राप्त होता है। प्राहुट्ठ रज्जु-घणं घूम-पहाए समासमुट्ठि। पंकाए चरिमंते इगि-रज्जु-घणा ति-भागूरणं ॥१८॥ १३४३ । ३।३४३३। रज्जु-घरणा सप्तच्चिय छब्भागूणा चउत्थ-पुढवीए । अभंतरम्मि भागे खेत-फलस्स-प्पमाणमिवं ॥१९॥ अर्थ :-धूमप्रभा पर्यन्त घनफलका जोड़ साढ़े तीन घनराजू बतलाया गया है, और पंकप्रभाके अन्तिम भागतक एक विभाग (3) कम एक धनराजू प्रमाण घनफल है ।।१८।। [(3+1)२४ १४७ ] घन रा०; (२) xx७=१ घ० रा० ब्राह्मक्षेत्रका घनफल । पर्थ:- -चौथी पृथिवी पर्यन्त अभ्यन्तर भागमें घनफलका प्रमाण एक बटे छह (1) कम सात घनराज है ॥१८६।। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ] तिलोयपणाती [ गाथा : १६०-१६१ [(+):२४१४७]-3= घनराजू अभ्यन्तर क्षेत्रका घनफल । विशेषार्य :–पाँचवीं पृथिवी पर च छ छे चे क्षेत्रका धनफल इसप्रकार है --भुजा छ छे ७ और प्रतिभुजा च च । है, दोनोंका योग (+3)- है । इसमें पूर्वोक्त क्रिया करनेपर (3xx १४७)- अर्थात ३३ धनराज घनफल पंचम पृथिवीका प्राप्त होता है । ___चौथी पृथिवी पर ग घ च चे ग बाह्य और अभ्यन्तर क्षेत्रसे मिश्रित क्षेत्रका ( बाह्यक्षेत्रका एवं अभ्यन्तर क्षेत्रका भिन्न-भिन्न) घनफल इसप्रकार है-च = 3 और चे च = है, प्रतः (+3) भुजा है तथा ग गे= प्रतिभुजा है। +- राजू प्राप्त हुआ। भxx १४७=११ धनराजू वाह्याभ्यन्तर दोनोंका मिश्रघमफल होता है। इसमें से बाह्य त्रिकोण क्षेत्रका घनफल (ixxॐx७) घनराजू घटा देनेपर (१५-१)= धनराजू ग घ चे चेंगे अभ्यन्तर क्षेत्रका घनफल प्राप्त होता है । रज्जु-धरणद्ध णव-हद-तबिय'-खिदीए दुइज्ज-भूमीए । होदि दिवड्ढा एदो मेलिय दुगुणं घरपो कुज्जा ॥१०॥ मेलिय दुगुणिदे ३४३ ६३/ 'तेत्तीसब्भहिय-सयं सयलं खेत्तारण सय्व-रज्जुघणा । ते से सव्वे मिलिदा दोणि सया होति चउ-हीणा ॥१६१॥ । १३३ मिलिदे १३ १६६/ अर्थ :-अर्थ (३) घनराजूको नो से गुणा करनेपर जो गुणनफल प्राप्त हो, उतना तीसरी पृथिवी-पर्यन्त क्षेत्रके घनफलका प्रमाण है और दूसरी पृथिवी पर्यन्त क्षेत्रका घनफल डेढ़ घनराजू प्रमाण है। इन सब घनफलोंको जोड़कर दोनों तरफका घनफल लानेके लिए उसे दुगुना करना चाहिए ।। १६०|| [ +3)२४१४७] = ० रा०; : २४१४७-३ घनराजू । योग- +:++ ++ + +:+३-१ 2x320" =६३ धनराजू । १. द. ब. तदीय । २. ब. तेत्तीससबभहिय छेत्ताण । द ज. के. ठ. तेसीसभहिय सयं सयवेत्ताण । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १६२ ] पढ़मो महाहियारो [ ५६ अर्थ :-उपर्युक्त घनफलको दुगुना करनेपर दोनों (पूर्व-पश्चिम) तरफका कुल घनफल वेसठ धनराजू प्रमाण होता है । इसमें सब अर्थात् पूर्ण एक राजू प्रमाण विस्तार वाले समस्त (१६) क्षेत्रोंका घनफल जो एक सौ तैंतीस घनराजू है, उसे जोड़ देनेपर चार कम दो सौ अर्थात् एकसौ छयानवै घनराजू प्रमाण कुल प्रधोलोकका घनफल होता है ।।१६१|| ६३ + १३३ = १६६ घनराजू । विशेषार्य :-तीसरी पृथिवीपर ख ग गे खे क्षेत्रका घनफल----भुजा ग गें= +3, ख खे प्रतिभुजा तथा घनफल-3x३४१४७= धनराजू घनफल प्राप्त होता है। दूसरी पृथिवीपर क ख खे एक त्रिकोण है। इसमें प्रतिभुजाका अभाव है। भुजा ख खे तथा घनफल xzx१४७= अर्थात् १३ घनराजू घनफल प्राप्त होता है । इन सब घनफलोंको जोड़कर दोनों प्रोरका घनफल प्राप्त करनेके लिए उसे दुगुना करना चाहिए । यथा - ३+५+ + +: + + +३ = ३३ + १५+ १ + ३८ + २१+४+४१+२७ +६=4Ex- 3१८ = ६३ घनराजू अर्थात् दोनों पार्श्वभागोंमें बनने वाले सम्पूर्ण विषम चतुर्भुजों और त्रिकोणों का घनफल ६३ धनराजू प्रमाण है । इसमें एक राजू ऊँचे, एक राजू चौड़े और सात राजू मोटे १६ क्षेत्रोंका घनफल=(१९x१४ १४७) = १३३ धनराजू और जोड़ देनेपर अधोलोकका सम्पूर्ण घनफल (१३३ + ६३)-१६६ घनराजू प्राप्त हो जाता है। ऊर्ध्वलोकके मुख तथा भूमिका विस्तार एवं ऊँचाई एक्कक्क-रज्जु-मेत्ता उवरिम-लोयस्स होति मुह-वासा । हेट्ठोवरि भू-वासा पण रज्जू सेटि-अद्धमुच्छेहो ॥१६२॥ छ । ७ । भु । ७५ । । । अर्थ :-ऊर्ध्वलोकके अधो और ऊर्ध्व मुखका विस्तार एक-एक राजू , भूमिका विस्तार पांच राजू और ऊँचाई ( मुखसे भूमि तक ) जगन्छणीके अर्धभाग अर्थात् साढ़े तीन राजू-मात्र है ।।१६२॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ] तिलोपणती [ गाथा : १६३-१९४ ऊर्ध्वलोकका ऊपर एवं नीचे मुख एक राजू भूमि पाँच राजू और उत्सेध-भूमि से नीचे " ३३ राजू तथा ऊपर भी ३३ राजू है । ऊर्ध्वलोकमें दश स्थानों के व्यासार्थ चय एवं गुणकारोंका प्रमारण मुहादु भूमीदो । सत्त-परिहत्तं ॥ १६३ ॥ भूमीए मुहं सोहिय उच्छेह - हिवं स्वय- वड्ढीण पमाणं प्रड-रूवं 5। अर्थ :- भूमिमेंसे मुखके प्रमाणको घटाकर शेष में ऊँचाईका भाग देनेपर जो लब्ध प्रावे, उतना प्रत्येक राजपर मुखकी अपेक्षा वृद्धि और भूमिकी अपेक्षा हानिका प्रमाण होता है । वह प्रमाण सातसे विभक्त आठ अंक मात्र अर्थात् प्राठ बटे सात राजू होता है ।।१९३।। ऊर्ध्वलोक में भूमि ५ राजू, मुख एक राजू और ऊँचाई ३३ अर्थात् राजू है राजू प्रत्येक राजू पर वृद्धि और हानिका प्रमाण । व्यासका प्रमाण निकालनेका विधान ५ – १ = ४; ४ ÷ ५ = तक्य- वड्ढि - पमाणं जिय-जिय-उदया-हदं जइच्छाए । हीरण भहिए संते वासारिण हवंति भू-मुहाहितो ॥१६४॥ अर्थ :- उस क्षय और वृद्धिके प्रमाणको इच्छानुसार अपनी-अपनी ऊँचाई से गुणा करने पर जो कुछ गुणनफल प्राप्त हो उसे भूमिमें से घटा देने अथवा मुखमें जोड़ देनेपर विवक्षित स्थानमें व्यासका प्रमाण निकलता है ॥१६४॥ उदाहरण :- सानत्कुमार माहेन्द्र कल्पका विस्तार - ऊँचाई ३ राजू, चय ु राजू और मुख १ राजू है । ३ तथा २४ + १ = भु अर्थात् ४ राजू दूसरे युगलका व्यास प्राप्त हुआ । भूमि अपेक्षा – दूसरे कल्पकी नीचाई ३ राजु, भूमि ५ और चय राजू है ३ × 1 ५ – ५४ = १ या अर्थात् ४३ राजू विस्तार प्राप्त हुआ । १ ब. सत्तपहिहत्य, द. ज. क. ठ. सत्तपविद्दत्थं । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ६१ माया : १६५.१३ । मो महाहियारो ऊर्ध्वलोकके व्यासको वृद्धि हानिका प्रमाण अटु-गुणिदेग-सेढी उणवण्णहिदम्मि होदि जं लद्ध। स च्चेय' वहि-हारणी उवरिम-लोयस्स वासारणं ॥१६॥ अर्थ :- श्रेणी ( ७ राजू) को पाठसे गुणितकर उसमें ४६ का भाग देनेपर जो लब्ध भावे, उतना ऊर्च लोकके व्यासकी वृद्धि और हानिका प्रमाण है ।। १६५।। यथा -श्रेणी-७४८=५६ । ५६:४६ = राजू क्षय-वृद्धिका प्रमाण । ऊर्वलोकके दश क्षेत्रोंके अधोभागका विस्तार एवं उसकी आकृति रज्जूए सत्त-भागं इससु ठाणेसु ठाविवूण तको । सत्तोणवीस - इगितीस - पंचतीसेक्कतोसेहि ॥१६६।। 'सत्ताहियवीसेहि तेवीसेहि तहोणबीसेरण । पण्णरस वि सहि तम्मि हदे उवरि वासाणि ॥१६॥ 1xr७ | १६ । झ३१ । ४४३५ । ३१ । ४.२७ १ ४२३ | १६ | १५ | १७ । अर्थ :- राजूके सातवें भागको क्रमश: दस स्थानोंमें रखकर उसको सात, उन्नीस, इकतीस, पैंतीस, इकत्तीस, सत्ताईस, तेईस, उन्नीस, पन्द्रह और सात से गुणा करनेपर ऊपरके क्षेत्रोंका व्यास निकलता है ।। १६६-१६७।। विशेषार्थ :-ऊर्बलोकके प्रारम्भसे लोक पर्यन्त क्षेत्रके दस भाग होते हैं । उन उपरिम दस क्षेत्रोंके अधोभागमें विस्तारका क्रम इसप्रकार है -- ब्रह्मलोक के समीप भूमि ५ राजू, मुख एक राजू और ऊँचाई ३३ राजू है तथा प्रथम युगलकी ऊँचाई १३ राजू है । भूमि ५ – १ मुख' = ४ राजू अवशेष रहे । जबकि ६ राजू ऊँचाई पर ४ राजूकी वृद्धि होती है, तब १३ राजू पर (¥xix )=१२ राजू वृद्धि प्राप्त हुई। प्रारम्भमें ऊर्वलोकका विस्तार एक राजू है, उसमें ११ राजू वृद्धि जोड़नेसे प्रथम युगलके समोपका व्यास (++33) राजू प्राप्त होता है। प्रथम युगलसे दूसरा युगल भी १३ राजू ऊँचा है अतः (+3), राजू ब्यास सानत्कुमार-माहेन्द्र स्वर्गके समीप है । यहाँसे ब्रह्मलोक : राजू ऊँचा १. ब. क. सध्ने य। २. द, क. ज.ठ सत्तादिम, च, सत्तादिविसेदि। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : १६८-१६६ है । जबकि राजूकी ऊँचाईपर ४ राजूकी वृद्धि होती है, तब : राजू पर (¥xx3) को वृद्धि होगी । इसे में जोड़ देनेपर (A+)=१ राजू या ५ राजू व्यास तीसरे युगलके समीप प्राप्त होता है। इसके मा प्रत्येक युगल राजूको ऊँचाई पर है, अतः हानिका प्रमाए भी राजू हो होगा। - राजू व्यास लान्तव-कापिष्टके समीप' - राजू व्यास शुक्रमहाशुऋके समीप, ४ - = राजू व्यास सतार-सहस्रारके समीप, -- राजू व्यास मानत-प्राणतके समीप और -3" राजू व्यास प्रारण-अच्युत युगल के समीप प्राप्त होता है। यहाँसे लोकके अन्त तककी ऊँचाई एक राजू है। जब राजूकी ऊंचाई पर ४ राजूकी हानि है, तब एक राजूकी ऊँचाईपर (¥xxt)= राजूकी हानि प्राप्त हुई। इसे ' राजूमेंसे घटाने पर (१७-) अर्थात् लोकके अन्तभागका ब्यास एक राजू प्राप्त होता है । यथा ON 11. ऊर्ध्वलोकके दशों क्षेत्रोंके घनफलका प्रमाण उणदालं पण्णतरि तेसीसं तेत्तियं च उगतीसं । 'परणवीसमेवीसं 'सत्तरसं तह य बाबीसं ॥१८॥ एदारिण य पत्तेक्कं घण-रज्जूए दलेण गुणिवाणि । मेरु-तलादो उरि उरि आयंति विरफला ॥१६६।। १. ब. पणुवीस। २. द. ज.ठ. सत्तारस । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र. गाथा : १६६ | ७ ७५ = ३३ 三 = ३६ = ३४३ । २ । ३४३ । २ २५ = । २४३३। ३४३ | २ | ३४३ | २ | ३४३ । २ । ३४३ । २ ३४३ । २ अर्थ :-- उनतालीस, पचहत्तर तेतीस तेतीस उनतीस पच्चीस, इक्कीस सतरह और बाईस, इनमें से प्रत्येकको घनराजूके प्रभाग से गुणा करनेपर मे तलसे ऊपर-ऊपर क्रमश: घनफलका प्रमारण आता है ।। १६६ १६६ । युगलों के नाम सौधर्मेशान २) सानत्कुमार- माहेन्द्र ३) ब्रह्मब्रह्मोत्तर ४) लांऩव का० ५ शुक्र- महाशु ६ सतार - सह० आनत प्रा० ८ प्रारण अच्युत उपरिम क्षेत्र उदाहरण -- 'मुहभूमिजोगदले' इत्यादि नियम अनुसार सौधर्मसे सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त क्षेत्रोंका घनफल इसप्रकार है - B. / भूमि मुख योग अर्धभाग फल + = X = X 18+ + = = = = sy + + ५ + 15 पदमो महाया = १७ | = ३४३ । २ । ३४३ । २ लोक 111 1 ऊर्ध्वलोकका घनफल प्राप्त हुआ । २७ ॐ = 3 x ॐॐॐ १७२२ । jg x == |t x 1 = Sx + + == X घनफल योग + + X X =x - !! === = 11 pegh ऊँचाई | मोटाई X x × × 4 × 2 × ** ३× X 4 x 48 × 2 × XXX X X 2× 1× १ x ७ ७= ७ ७= ७= -6 ७= ७ ७--- घनफल ३ या १६६ ६० रा० या ३७२, ३३ या १६३ या १६३ | ६३ ३३ या १४३ ३५ या १२३ २१२३४ या या १०३, या ११ "" " Jr " 13 " 11 " " 15 32 " גז १० + २ == १४७ घनराजू सम्पूर्ण Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४] तिलोयपण्णत्ती गाथा : २०० स्तम्भोंकी ऊँचाई एवं उसकी प्राकृति धंभुच्छेहा' पुवावरभाए बम्हकप्प-परिणधीसु । एक्क-दु-रण्जु-पवेसे हेट्ठोवरि 'चउ-दु-गहिदे सेढी ॥२०॥ अर्थ :-ब्रह्मस्वर्गके समीप पूर्व-पश्चिम भागमें एक और दो राजू प्रवेश करनेपर क्रमश: नीचे-ऊपर चार और दो से भाजित जगच्छ्रेणी प्रमाण स्तम्भोंकी ऊँचाई है ।।२०।। स्तम्भोत्सेध :---१ राजूके प्रवेश में : राजू; दो राजूके प्रवेशमें ३ राजू । विशेषार्ग :-ऊर्ध्वलोकमें ब्रह्मस्वर्गके समीप पूर्व दिशाके लोकान्तभागसे पश्चिमकी प्रोय एक राजू पागे जाकर लम्बायमान ( अ ब ) रेखा खींचने पर उसकी ऊँचाई : राजू होती है । इसी प्रकार नीचेकी अोर भी ( अ स ) रेखा की लम्बाई १ राजू प्रमाण है। उसी पूर्व दिशासे दो राजू आगे जाकर ऊपर-नीचे क ख और क ग रेखानोंकी ऊँचाई : राजू प्राप्त होती है । यथा १. द. थंभुच्छेहो। २. द. चउदगेहि, ज. ठ, चउदहि, ब. क. चउदुगहिदे । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २०१-२०२ ] पढमो महाहियारो [ ६५ स्तम्भ-अन्तरित क्षेत्रोंका धनफल छप्पण-हरिदो लोगो 'ठाणेसु दोसु उत्रिय गुणिदन्यो । एक-तिएहि ए६ थंभंतरिदारण विदफलं ॥२०१॥ एवं विय', विदफलं संमेलिय चउ-गुरिणदं होदि तस्स काढूण । मज्झिम-खेते मिलिदे तिय-गुणिदो सग-हिदो लोश्रो ॥२०२।। अर्थ :-छप्पनसे विभाजित लोक दो जगह रखकर उसे क्रमश: एक और तीनसे गुणा करनेपर स्तम्भ-अन्तरित दो क्षेत्रोंका घमफल प्राप्त होता है ।।२०१।। इस घनफल को मिलाकर और उसको चारसे गुणाकर उसमें मध्यक्षेत्र के घनफल को मिला देने पर पूर्ण ऊर्ध्वलोकका घनफल होता है । यह घनफल तीनसे गुणित और सातसे भाजित लोकके प्रमाण है। ३४३:५६४१-६१३४३.:-५६४३-१८१ ३४३४३+७=१४७ धनराज घनफल। विशेषार्थ :- गाथा २०० से सम्बन्धित चित्रणमें स्तम्भोंसे अन्तरित एक पार्श्वभागमें ऊपरकी अोर सर्वप्रथम प फ और म से वेष्टित त्रिकोण क्षेत्रका घनफल इसप्रकार है उपर्युक्त त्रिकोण में फ म भुजा एक राजू है । इसमें प्रतिभुजा का अभाव है। इस क्षेत्रकी ऊँचाई , राजू है, अत: (१४३xxk)- ४. अर्थात् ६६ घनराजू प्रथम क्षेत्रका घनफल उसी पार्श्वभागमें प म च छ जो विषम-चतुर्भुज है, उसकी छ च भुजा और ए म प्रतिभुजा है।+है-- ।.xxxt-4 अर्थात् १५३ धनराजू धनफल प्राप्त होता है । इन दोनों घनफलोंको मिलाकर योगफलको ४ से गुरिणत कर देना चाहिए क्योंकि अवलोकके दोनों १. क्र. ब. हरिदलोउ । ज. द. 3. हरिदलोश्रो। २. द. ठ. ज. वारणेसु । ३. द. ब. क. ज. रविय । ४. क. पदत्थं भत्तरिदारण । ५. य. ब. एदनिय। ६. क. 1 E३ | द. ज. प. ३ । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ] तिलोय पण्णत्ती [ गाथा : २०३ २०५ पार्श्वभागों में इसप्रकार के चार त्रिभुज और चार ही चतुर्भुज हैं। इस गुणनफलमें असनालीका ( १४७ × ७ ) = ४६ घनराजू घनफल और मिला देनेपर सम्पूर्ण ऊर्ध्वलोकका घनफल प्राप्त हो जाता है । यथा -- + *='' x ४ = ६८ घनराजू आठ क्षेत्रोंका घनफल +४६ घनराजू त्रसनालीका घनफल = १४७ घनराजू सम्पूर्ण ऊर्ध्वलोकका घनफल प्राप्त होता है । यह घनफल तीन से गुणित और सातसे भाजित लोकप्रमाण मात्र है अर्थात् ३४३४३== १४७ घनराजू प्रमाण है । ऊर्ध्वलोकमें प्राठ क्षुद्र - भुजाओंका विस्तार एवं आकृति सोहम्मीसारोवार छ रूचेय 'रज्जूउ सत्त-पविभत्ता । खुल्लय-भुजस्स रुदं इगिपासे होदि लोयस्स ॥२०३॥ ४६ ६ । अर्थ :- सौधर्म और ईशान स्वर्गके ऊपर लोकके एक पार्श्वभाग में छोटी भुजाका विस्तार सातसे विभक्त छह ( 3 ) राजू प्रमाण है ।।२०३ || माहिद- उबरिमंते रज्जूम्रपंच होंति सत्त-हिंदा । "उणवण्ण-हिदा सेढी सत्त-गुणा बम्ह-परिधीए ॥ २०४ ॥ । ५ । ४७ । अर्थ :-- माहेन्द्रस्वर्गके ऊपर अन्त में सातसे भाजित पांच राजू और ब्रह्मस्वर्गके पास उनंचास से भाजित और सातसे गुणित जगच्छ पी प्रमाण छोटी भुजाका विस्तार है || २०४ || माहेन्द्र कल्प 3 राजू; ब्रह्मकल्प ज० श्रे० = ७ अर्थात् = = १ राजू । कापिट्ठ उवरिमंते रज्जूओ पंत्र होंति सप्त-हिदा । सुक्कस्स उयरिमंते सत्त-हिदा ति गुरिदो रज्जू ॥ २०५ ॥ । ४६५ ४ २ । अर्थ :- कापिष्ठ स्वर्गके ऊपर अन्तमें सालसे भाजित पाँच राजू, और शुक्र के ऊपर अन्त में सातसे भाजित और तीनसे गुणित राजू प्रमाण छोटी-भुजाका विस्तार है || २०५ || का० रा० ; शु० रा० । १. ६. छच्षेत्र रज्जुप्रो, । २. द. न. क. ज. ठ, मेत्तं । ३ द ज उपवण्ाहिदा रज्जु । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदम महाहियारो 'सहसार- उबरिमंते सग-हिद- रज्जू य खुल्ल भुजरु दं । पाणद उवरिम चरिने छ रज्जू हवंति सत्त हिदा ॥ २०६ ॥ | १ | ६ | गाथा : २०६ २०७ ] अर्थ :-- सहस्रारके ऊपर अन्तमें सातसे भाजित एक राजू प्रमाण और प्राणतके ऊपर भन्त में सात से भाजित छह राजू प्रमाण छोटी-भुजाका विस्तार है ।। २०६ || सह० के राजू ; प्रा० राजू । पणिधीसु प्रारणच्चुद कप्पाणं चरिम-इंवय- धयागं । खुल्लम-भुजस्स रुंदं चउ रज्जूम्रो हर्षाति सत्त-हिवा ॥२०७॥ ४ ४ । अर्थ :- आरण और अच्युत स्वर्गके पास अन्तिम इन्द्रक विमानके ध्वज - दण्डके समीप छोटी-भुजाका विस्तार सातसे भाजित चार राजू प्रमाण है || २०७|| प्रारण अच्युत राजू । विशेषार्थ :- गाथा २०३ से २०७ तक का विषय निम्नांकित चित्रके आधार पर समझा जा सकता है : औ १६. शुश्श. ध ५/७६६१८ १. ज. ठ. मदरम्म वजूद T ड न शरशल ५० 쇠 शब् २. द७ । + १२८. च श. रा · १ रा. मीर राजू रा. रघ ७ १.श. . 의 E SVARE +RADIC [ ६७ रा. Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ] तिलोयपणती [ गाथा : २०८-२०६ सौधर्मशान स्वर्गके ऊपर लोकके एक पार्श्वभागमें क ख नामक छोटी भुजाका विस्तार राजू है। माहेन्द्र स्वर्गके ऊपर अन्तमें ग घ भुजाका विस्तार : राजू, ब्रह्मस्वर्गके पास म भ भुजाका विस्तार एक राजू, कापिष्ट स्वर्गके पास न त भुजाका विस्तार राजू, शुक्रके ऊपर अन्तमें च छ भुजाका विस्तार राजू, सहलारके ऊपर अन्तमें प फ छोटी-भुजाका विस्तार राजू, प्रारणतके ऊपर अन्तमें ज झ भुजाका विस्तार राजू और प्रारण-अच्युत स्वर्गके पास अन्तिम इन्द्रक विमानके ध्वजदण्डके समीप ट ठ छोटी-भुजाका विस्तार : राजू प्रमाण है । ऊर्ध्वलोकके ग्यारह त्रिभुज एवं चतुर्भुज क्षेत्रोंका घनफल्न सोहम्मे दलजुत्ता घणरज्जूमो हवंति चत्तारि । अबजुदाओ दि तेरस सरपक्कुमारम्मि रज्जूमो ॥२०॥ प्र8 सेण जुवायो घणरज्जूमोहवंति तिण्णि बहि । तं मिस्स सुद्ध-सेसं तेसीदी' अट्ठ-पयिहत्ता' ॥२०॥ अर्थ :-सौधर्मयुगल तक त्रिकोण क्षेत्रका घनफल अर्धधनराजूसे कम पांच (४३) घनराजू प्रमाण है । सनत्कुमार राज तक वा और प्रसार पोगों को मिश्र धनफल साढे तेरह घनराजू प्रमाण है । इस मिश्र घनफलमेंसे बाह्य त्रिकोण क्षेत्रका घनफल (३५) कम कर देनेपर शेष आठसे भाजित तेरासी घनराजू अभ्यन्तर क्षेत्रका घनफल होता है ।।२०८-२०६।। संवृष्टि :-:२४३४७ - धनराजू घनफल सौधर्मयुगल तक; ५:२४१४७-१५ धनराजू घनफल सनत्कुमार कल्प तक बाह्य क्षेत्रका; [ (33):२४३४७ ] =१० बाह्य और अभ्यन्तर क्षेत्रका मिश्र घनफल ; ** - २५-६ धनराजू अभ्यन्तर क्षेत्रका घनफल है । विशेषार्थ :-गाथा २०३-२०७ से सम्बन्धित चित्रणमें सौधर्मयुगल पर अब स से वेष्टित एक त्रिकोण है, जिसमें प्रतिभुजाका प्रभाव है । भुजा ब स का विस्तार राजू है, अत: xsx ३x घनराजू घनफल सौधर्मयुगल पर प्राप्त हुआ । सनत्कुमार युगल पर्यम्त ड य ब स ल बाह्याभ्यन्तर क्षेत्र है । र ल रेखा और इ र रेखा है, अर्थात् ड ल रेखा (8+3)= 3 राजू हुई। प्रतिभुजा ब स का विस्तार राजू है, अतः + ९ तथा ३४३ x ७ = ३ पनराजू बाह्याभ्यन्तर मिश्रित क्षेत्रका घनफल प्राप्त हुआ । इसमेंसे ड य र बाह्य त्रिकोणका घनफल १४३४१४७-३५ धनराजू घटा देनेपर र य ब स ल अभ्यन्तर क्षेत्रका घनफल २३ – १६ घनराजू प्राप्त होता है। . . १.६.ब.सि इदि । २. ब. पविहत्था । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २१०-२१२ ] पढमो महाहियारो [ ६६ बम्हत्तर- हेरि रज्जु-घणा तिण्णि होति पत्तेक्कं । तंतय-कप्पम्मि दुगं रज्जु-घणों' सुक्क कप्पम्मि ॥२१०॥ ३६. ३१३६, ३१३६, २१३३३१ अर्थ :-ब्रह्मोत्तर स्वर्गके नीचे और ऊपर प्रत्येक बाह्य क्षेत्रका घनफल तीन घनराजू प्रमाण है। लांतव स्वर्गतक दो घनराजू और शुक्र कल्प तक एक घनराजू प्रमाण धनफल है ॥२१॥ विशेषार्थ :-ब्रह्मोत्तर स्वर्गके नीचे और ऊपर अर्थात् क्षेत्र व ड र द और ध थ द रद्ध समान माप वाले हैं । इनकी भुजा राजू और प्रतिभुजा राजू प्रमाण है, अत: ब्रह्मोत्तर कल्पके नीचे और ऊपर वाले प्रत्येक क्षेत्र हेतु +3= ३, तथा घनफल = Pxxx७ =३ धनराजू प्रमाण है। लांतष-कापिष्ट पर इ ध ढ उ से वेष्टित क्षेत्र हेतु (32+ 3 )-5, तथा घनफल =Fxt x३४७-२ धनराजू प्रभारण है। शुक्र कल्पतक ए इ उ ऐ से वेष्टित क्षेत्र हेतु (+) , तथा घनफल =xsx ३४७-१ धनराजू प्रमाण है । अढाणदि-विहत्तो लोनो सदरस्स उभय-विदफलं । तस्स य बाहिर-भागे रज्जु-घणो अट्ठमो अंसो ॥२११॥ तम्मिस्स-सुद्ध-सेसे हवेदि अभंतरम्मि विदफलं । 'सत्तावीसेहि हदं रज्जू-घणमारपम हिदं ॥२१२॥ १. द. व, रज्जुघणा । २. द. ३. य. । ३. व. ज. 3. ससाबसेहि । ४. ज. . दोर्दै । ४९ 3४५ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोय पण्णत्ती [ गाथा : २१३ अर्थ :--शतारस्वर्ग तक उभय अर्थात् अभ्यन्तर और बाह्यक्षेत्रका मिश्र वनफल अट्टान से भाजित लोक के प्रमाण है। तथा इसके बाह्यक्षेत्रका घनफल घनराजूका अष्टमांश है ।।२११ ॥ ७० ] अर्थ :- उपर्युक्त उभय क्षेत्रके घनफलमेंसे बाह्यक्षेत्र के घनफलको घटा देनेपर जो शेष रहे उतना अभ्यन्तर क्षेत्रका धनफल होता है। वह साफ और सहभाजित धनराजूके प्रमारण है ।। २१२ ।। रु विशेषार्थ :- शतारस्वर्ग पर्यन्त श्री श्री ए ई ह से वेष्टित बाह्याभ्यन्तर क्षेत्र है। ऐ ई रेखा और ए ऐ रेखा राजू है अर्थात् ए ई रेखा (+3 ) है । प्रतिभुजा श्री ह रेखा का विस्तार राजू है, अतः + तथा ३३ × ७ = घनराजू उभय क्षेत्रोंका घनफल है, इसमें से श्री ए ऐ बाह्य त्रिकोणका घनफल xxx ७ = घनराजू घटा देनेपर श्री श्री ऐ ई ह अभ्यन्तर क्षेत्रका घनफल ( -६) == अर्थात् ३३ घनराजू प्राप्त होता हैं, जो २७ से गुणित और से भाजित धनराजू प्रमाण (१२७ = २७, तथा २७÷८ ३३ धनराजू ) है | 5 रज्जु-घरणा ठाणगे अड्ढा इज्जेहि वोहि गुणिदव्या । सव्यं मेलिय दु-गुखिय तस्सि ठावेज्ज जुत्ते ॥ २१३ ॥ अर्थ :- धनराजूको क्रमश: ढाई और दो से गुणा करनेपर जो गुरणनफल प्राप्त हो, उतना शेष दो स्थानोंके घनफलका प्रमाण है । इन सब घनफलोंको जोड़कर उसे दुगुनाकर संयुक्तरूप से रखना चाहिए || २१३॥ : विशेषार्थ :- प्रानतकल्पके ऊपर क्ष श्री ह त्र क्षेत्र हेतु (3 +3 ) = तथा घनफल - ३ ३ ७ घनराज प्रमाण है । X १. ज. ठ =\ ५ = २।≡ ७० ३४३ । २ । ३४३ ३४३ • །་ राजू प्रमाण है । इन सम्पूर्ण घनफलोंका योग इसप्रकार है- 三 ३४३ 1 | E ७० ३४३ धारण कल्पके उपरिम क्षेत्र अर्थात् ज्ञ क्ष त्र क्षेत्रका घनफल हुँ×××7 == २ घन ·‚àľ¦‚à°¦‚à°¦‹‚1⁄2“ = ३ ३४३ ३४३ ७० | द. = ५६ ३४३ = ३ ७० | | | | क. ३४३ ૩૪૨ ३४३ २३४३ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २१४-२१५ ] पढमो महायिारो । ७१ 1+ + + + + + + + +:+1३६+२५ + ८३+२४+२४ + १६+६+१+२७ + २०+१६ =२८० धनराज त्रिभुज और चतुर्भुज क्षेत्र ऊर्ध्वलोकके दोनों पार्श्व भागोंमें हैं, अतः ३६ घनराजको दो से गुरिणत करनेपर ( २६४३) दोनों पार्श्वभागोंमें स्थित ग्यारह क्षेत्रोंका घनफल ७० धनराजू प्रमाण प्राप्त होता है। पाठ आयताकार क्षेत्रोंका और सनालीका घनफल एत्तो दल-रज्जूणं घण-रज्जूश्रो वंति अडवीसं । एक्कोणवरण-गुरिणदा मज्झिम-खेत्तम्मि रज्जु-घणा ॥२१४॥ |३०, २८१३३ अर्थ :-इसके अतिरिक्त दल ( अर्ध ) राजुनोंका घनफल अट्ठाईस धनराजू और मध्यमक्षेत्र ( असनाली ) का घनफल ४६ से गुरिणत एक धनराजू प्रमाण अर्थात् उनचास धनराजू प्रमाण है ।।२१४।। विशेषार्थ :-ग्यारह क्षेत्रोंके अतिरिक्त ऊर्ध्वलोकमें एक राजू चौड़े और अर्धराजू ऊँचे विस्तार वाले पाठ क्षेत्र हैं जिनका घनफल (२xixix ) =२८ घनराजू प्राप्त होता है । इसीप्रकार ऊर्ध्वलोक स्थित बसनालीका घनफल (१४७४७)=४६ धनराजू है । सम्पूर्ण ऊर्ध्वलोकका सम्मिलित घनफल 'पुन्व-वण्णिद-खिदीणं रज्जूए घणा सत्तरी होति । एदे तिणि वि रासी सत्तत्तालुत्तर-सयं मेलिवा ।।२१।। अर्थ :-पूर्वमें वरिणत इन पृथ्वियोंका घनफल सत्तर धनराजू प्रमाण होता है । इसप्रकार इन तीनों राशियोंका योग एकसौ सेंतालीस घनराज़ है, जो सम्पूर्ण ऊर्ध्वलोकका धनफल समझना चाहिए ।।२१५॥ १. द. ब. गृन्वरिणद। २. द. : ७८] = १४७ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोय पण्णत्ती [ गाथा २१६-२१७ विशेषार्थ :- ग्यारह क्षेत्रोंका घनफल ७० घनराजू, मध्यवर्ती घाट क्षेत्रोंका धनफल २८ धनराजू और सनालीका घनफल ४६ घनराजू है। इन तीनोंका योग (७० + २८ + ४६ ) = १४७ घनराज होता है । यही सम्पूर्ण ऊर्ध्वलोकका धनफल है । ७२ ] सम्पूर्ण लोकके प्राठ भेद एवं उनके नाम ग्रह-विहं सव्व-जगं सामण्णं तह य दोणि' चउरस् । जवसुरश्रं जनमज्भं मंदर साइ-गिरिगडयं अर्थ : सम्पूर्ण लोक - १ सामान्य, दो चतुरस्र अर्थात् २ आयत चौरस और ३ तिर्यगायत चतुरस्र, ४ यवमुरज, ५ यवमध्य ६ मन्दर, ७ दृष्य और गिरिकटकके भेदसे आठ प्रकार का है ।। २१६ ।। सामान्य लोकका घनफल एवं उसकी आकृति सामाणं सेढि घरणं प्रायद- चउरस्स वेद-कोडि-भुजा । सेठी सेढी-श्रद्ध दु-गुणिद-सेढी कमा होंति ॥२१७॥ ॥२१६।। । ≡। 15151 १. ब. तह दोषि । अर्थ :- सामान्यलोक जगच्छ पीके घनप्रमाण है । प्रायत चौरस अर्थात् इसकी चारों भुजाएँ समान प्रमाग वाली हैं । ( तिर्यगायत चतुरस्र ) क्षेत्रके वेध, कोटि और भुजा ये तीनों क्रमशः जगच्छ्र ेणी ( ७ राजू ), जगच्छ्र पीके अर्धभाग ( ३३ राजू ) और जगच्छ्रे गीसे दुगुने ( १४ राजू ) प्रमाण हैं ।। २१७ । विशेषार्थ : --- सामान्य लोक निम्नांकित चित्रण के अनुसार जगच्छ शी अर्थात् ७ राजूके घन ( ३४३ घनराजू ) प्रमाण है । यथा— Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ } गाथा : २१७ ]. વઢનો મરૂ) દ્વ્રારા .७ राज् २. आयत चौरस क्षेत्र निम्नांकित चित्रणके सदृश अर्थात् समान लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई एवं मोटाई को लिए हुए है। यथा [ ७३ राजू Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ] तिलोयपात्ती [ गाथा : २१८-२२० ३. तिर्यगायत क्षेत्र का वेध सात राजू, कोटि ३३ राजू और भुजा चौदह-राजू प्रमाण है। यथा - -..- - -ak यबका प्रमाण, यवमुरजका घनफल एवं उसकी प्राकृति भुजकोडी वेदेसु पत्तेक्कं एक्कसेढि परिमाणं । समचउरस्स खिदौए लोगा दोण्हं पि विरफलं ॥२१॥ ।- |- । । = । सत्तरि हिद-सेडि-घरणा एक्काए जवखिदीए विवफलं । तं पंचवीस पहदं जवमुरय महीए जवखेत ॥२१॥ 'पहदो गवेहि लोगो चोदस-भजिदो य मुरव-विदफलं । सेढिस्स घण-पमाणं उभयं पि 'हवेदि जय-मुरवे ॥२२०॥ १.द. एदं दो, क. ज. ठ. एहदो। २.६. ज.ठ, यदि .। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मो महाहियारो | = | अर्थ : – समचतुरस्र क्षेत्रवाले लोकके भुजा, कोटि एवं वेध ये प्रत्येक एक-एक श्रेणि ( - ) प्रमाण वाले हैं जिससे ( लोक का ) घनफल घनश्रेणि ( = ) अर्थात् ३४३ घनराजू प्रमाण होता है । इसे दो स्थानों में स्थापित करना चाहिए ।। २१८ || गाथा : २१८-२२० ] 106 १४ ( इसके पश्चात् प्रथम जगह स्थापित ) श्रेणिके घन ( = ) को ७० से भाजित करने पर एक जबक्षेत्रका घनफल प्राप्त होता है और दूसरी जगह स्थापित लोक [ श्रेणिघन ( 5 ) ] को ७० से भाजितकर लब्धराशिको २५ से गुरिणत करने पर यवमुरज क्षेत्रमें यवक्षेत्रका घनफल = २५ अथवा = ५ प्राप्त होता है ।। २१९ ।। १४ नौसे गुणित लोक में चौदहका भाग देनेपर मुरजक्षेत्रका घनफल आता है। इन दोनों के घनफलको जोड़ने से जगच्छ पीके घनरूप सम्पूर्ण यवमुरज क्षेत्रका घनफल होता है ।। २२० । म विशेषार्थ :- लोक अर्थात् ३४३ घनराजूको यबमुरजकी आकृतिमें लाने के लिए लोककी लम्बाई ( ऊँचाई ) १४ राजू, भूमि ६ राजू, मध्यम व्यास ३३ राजू और मुख एक राजू मानना होगा, क्योंकि यहां लोककी प्राकृतिसे प्रयोजन नहीं है, उसके धनफलसे प्रयोजन है । यथा- यवमुरजाकृति [ ७५ जून 0.j --ए Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २२१ उपर्युक्त आकृतिमें एक मुरज और दोनों पार्श्व भागोंमें ५० अर्धयव अर्थात् २५ यब प्राप्त होते हैं । प्रत्येक अर्धयव राजू चौड़ा, ६ राजू ऊँचा और ७ राजू मोटा है। मुरज १४ राजू ऊँची, ऊपर-नीचे एक-एक राजू चौड़ी एवं मध्यमें ३३ राजू चौड़ी है । इसकी मोटाई भी ७ राजू है । अर्धयबका घनफल xxx घनराजू है, अत: पूर्ण यवका घनफल ३३४३. अर्थात् ॐ धनराजू प्राप्त होता है । इन पूर्ण यवोंको संख्या २५ है इसलिए गाथामें ७० से भाजित लोकको २५ से गुणित करने हेतु कहा गया है । मुरजकी चौड़ाई मध्यमें ३३ राजू और अन्तमें एक राजू है। ३३+१= राजू हुआ। इसका प्राधा करने पर Ex- राजू मुरजका सामान्य व्यास प्राप्त होता है । इसे मुरजकी १४ राज ऊँचाई और ७ राज मोटाईसे गरिणत करनेपर १४ १३.५=१४५ प्राप्त हुआ। अंश और हरको ७ से गुरिणत करनेपर ४३४ घनराज प्राप्त होता है इसलिए गाथामें नौसे गुरिरात लोकमें १४ का भाग देने को कहा गया है । यवमुरजका सम्मिलित घनफल इसप्रकार है जबकि अर्धयवका घनफल (Ex.xx६) = धनराजू है तब दोनों पार्श्वभागोंके ५० अर्धयबोंका कितना वनफल होगा? इसप्रकार राशिक करने पर ३५ x ५-३ अर्थात् १२२: घनराजू प्राप्त हुए। इसीप्रकार अर्धमुरज हेतु ( भूमि+१ मुख ), तथा घनफल-xxx- धनराजू है । जबकि अर्धमुरजका घनफल ""' धनराजू है तब सम्पूर्ण (एक) मुरजका कितना होगा? xxxs="' अर्थात् २२०३ धनराजू होता है । इन दोनोंका योग कर देनेसे (१२२३ + २२०३) = ३४३ घनराजू सम्पूर्ण यवमुरजका घनफल प्राप्त होता है। यव मध्यक्षेत्रका घनफल एवं उसकी प्राकृति घण-फलमेक्कम्मि जवे 'पंचत्तीसद्ध-भाजिदो लोगो। तं पणतीसद्ध -हदं सेवि-धणं होवि जव-खेत्ते ॥२२१॥ १. द. ब. पंचतीसाजिदो। २. द.ब. तप्परगतीसं दहदं । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २२१ ] पढमो महाहिगारो अर्थ :- यवमध्य क्षेत्रमें एक यवका धनफल पैतीसके प्राधे साढ़े-सत्तरहसे भाजित लोकप्रमाण है । इसको पैंतीसके माधे साढ़े साहसे गुणा करनेपन जगले सीके पन-प्रमाण सम्पूर्ण यवमध्य क्षेत्रका घमफल निकलता है ॥२२१।। विशेषार्थ : यवमध्यक्षेत्रको प्राकृति निम्न प्रकार है । इसकी रचना भी लोक अर्थात् ३४३ घनराजूके प्रमाणको दृष्टिमें रखकर की जा रही है । यथा इस प्राकृतिकी ऊँचाई १४ राजू, भूमि ६ राजू और मुख एक राजू है। इसमें एक राजू चौड़े, राजू ऊँचे और ७ राजू मोटाई वाले ३५ अर्धयव बनते हैं, अर्थात् १७ यव पूर्ण और एक यव प्राधा बनता है इसीलिए गाथामें लोक ( ३४३ घनराजू ) को १७६ से भाजितकर एक यवका क्षेत्रफल १६३ घनराजू निकाला गया है और इसे पुन: १७ से गुणित करके सम्पूर्ण लोकका घनफल ३४३ घनराजू निकाला गया है । ___एक अर्धययका धनफल .xxx अर्थात् ६ घनराज है। पूर्ण यवका घनफल x = " अर्थात् १९३ घनराजू है । जब एक अर्धयवका घनफल २ धनराजू है तब ३५ अर्धयवोंका घनफल कितना होगा ? ऐसा पैराशिक करनेपर ४३५३४३ घनराजू होगा। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ] तिलोयपण्याती [ गाथा : २२२ लोकमें मन्दर मेरुकी ऊँचाई एवं उसकी प्राकृति 'चउ-दु-ति-इगितीसेहिं तिय-तेवीसेहि मुरिणद-रज्जूयो। तिय-तिय-दु-छ-दु-छ भजिदा मंदर-खेत्तस्स उस्सेहो ॥२२२॥ مد سعد واسا و ५-२१ ११ ११११ २२२२ अर्थ :-चार, दो, तीन, इकतीस, तीन और तेईससे गुरगत, तथा क्रमशः तीन, तीन, दो, छह, दो और छहसे भाजित राजू प्रमाण मन्दरक्षेत्रकी ऊँचाई है ।।२२२।। विशेषार्थ :–३४३ धनराजू मापवाले लोककी भूमि ६ राजू, मुख एक राजू और ऊँचाई १४ राजू मानकर मन्दराकार अर्थात् लोकमें सुदर्शन मेरुकी रचना इसप्रकारसे की गई है : गाना पनि तार न किया पं मेगन विकार Rोपम Aएमिनार मला 14. म. 4 . - -.--. -.-- -- १.द. ब. चतिइगितीसहि । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २२३-२२४ ] मो महाया [ ७६ इस श्राकृति में राजू पृथिवीमें सुदर्शन मेरुकी नींव ( जड़ ) अर्थात् १००० योजनका राजु भद्रशालवनसे नन्दनवन तककी ऊँचाई अर्थात् ५०० योजनका, राजू नन्दनवनसे ऊपर समरुन्द्र भाग ( समान विस्तार) तकका श्रर्थात् ११००० योजनका सौमनस बनके प्रमाण अर्थात् ५१५०० योजनका, उसके ऊपर ३ राजू समविस्तार अर्थात् ११००० योजना और उसके बाद * राजू समविस्तार के अन्तसे पाण्डुकवन अर्थात् २५००० योजनका प्रतीक है । अन्तरवर्ती चार त्रिकोणोंसे चूलिकाकी सिद्धि एवं उसका प्रमाण पण्णरस-हदा रज्जू छप्परप- हिंदा 'तडारण वित्थारो । पक्कं 'तक्करणे खंडिद- वेत्तरेण चूलिया सिद्धा ।।२२३ ॥ उह १५३ पणदाल-हरा उल्लू छलिया वेदि सुन्दास : उदश्रो दिवद-रज्जू भूमि-ति-भावेण मुह- वासो ॥२२४॥ अर्थ :-पन्द्रहसे गुरिणत और छप्पनसे भाजित राजू प्रमाण चूलिकाके प्रत्येक तटोंका विस्तार है । उस प्रत्येक अन्तरवर्ती कररणाकार अर्थात् त्रिकोण खण्डितक्षेत्र से चूलिका सिद्ध होती है ।। २२३ ।। लिकाकी भूमिका विस्तार पैंतालीस से गुणित और छप्पन से भाजित एक राजू प्रमाण (राजू ) है । उसी चूलिकाकी ऊँचाई डेढ राजू ( १३ ) और मुख - विस्तार भूमिके विस्तारका तीसरा भाग अर्थात् तृतीयांश ( ) है || २२४॥ विशेषार्थ :- मन्दराकृतिमें नन्दन और सौमनसवनोंके ऊपरी भागको समतल करनेके लिए दोनों पार्श्वभागों में जो चार त्रिकोण काटे गये हैं, उनमें प्रत्येककी चौड़ाई व राजू और ऊँचाई १३ राजू है । इन चारों त्रिकोणोंमेंसे तीन त्रिकोणोंको सीधा और एक त्रिकोपको पलटकर उलटा रखने से चूलिकाकी भूमिका विस्तार राजू, मुख विस्तार प्रेष्ठे राजू और ऊँचाई १३ राजू प्रमाण प्राप्त होती है । १. द. ज. क. ठ तदागा । २. ज. द. तक्का रण । ३. द. ज. हु८६४५ । ६ । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० ] तिलोयपण्याती [ गाथा : २२५-२२७ हानि-वृद्धि (चय) एवं विस्तारका प्रमाण भूमीन मुहं' सोहिय उदय-हिदे भूमुहादु हारिण-चया । 'छक्केवककु-मुह-रज्जू उस्सेहा दुगुण-सेढोए ॥२२५।। । ६६ । ७१ ! -२ । तक्खय-वढि-विमाणं चोदस-भजिदाइ पंच-रूवाणि । णिय-णिय-उदए पहरं पारपज्ज तस्स तस्स खिदि-वासं ॥२२६।। |१४| अर्थ :-भूमिमेंसे मुखको घटाकर शेषमें ऊँचाईका भाग देनेपर जो लब्ध प्राबे उतना भूमिकी अपेक्षा हानि और मुखकी अपेक्षा वृद्धिका प्रमाण होता है । यहाँ भूमिका प्रमाण छह राज, मुखका प्रमाण एक राजू, और ऊँचाईका प्रमाण दुगुणित श्रेणी अर्थात् चौदह राजू है ।।२२।। प्रर्य :-हानि और वृद्धिका वह प्रमाण चौदहसे भाजित पाँच, अर्थात् एवा राजूके चौदह भागों से पाँच भागमात्र है । इस क्षय-वृद्धिके प्रमाणको अपनी-अपनी ऊँचाईसे गुणा करके विवक्षित पृथिवी (क्षेत्र) के विस्तारको ले आना चाहिए ॥२२६।। विशेषार्थ :-इस मन्दराकृति लोकको भूमि ६ राजू और मुख विस्तार एक राजू है। यह मध्यमें किस अनुपातसे घटा है उसका चय निकालनेके लिए भूमिमेंसे मुखको घटाकर शेष (६ - - १)-५ राजूमें १४ राजू ऊँचाईका भाग देनेपर हानि-वृद्धिका चय प्राप्त होता है । इस चयका अपनी ऊँचाईमें गुणा करदेनेसे हानिका प्रमाण प्राप्त होता है । उस हानि प्रमाणको पूर्व विस्तारमेंसे घटा देनेपर ऊपरका विस्तार प्राप्त हो जाता है। मेरु सदृश लोकके सात स्थानोंका विस्तार प्राप्त करने हेतु गुणकार एवं भागहार मेरु-सरिच्छम्मि जगे सत्त-ट्ठाणेसु ठविय उड्डुड्ढे । रज्जूमो रुद8 'बोच्छं गुणयार-हाराणि ॥२२७॥ १. द. ज. ठ. मुहवासो, ब. क. मुहसोहो । २. द. कुमह । क. प्रज्जय तस्स तस्स । ४. द. ज. ठ. रुदे बोच्छ, न.क. सदे दो यो ३. द. ब. ज. ठ, पणेज्जघत्तस्स, । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २२८-२२६ ] पढमो महाहियारो छब्बीसहिय-समं सोलस एक्कारसादिरित्त-सया । 'इगिवीसेहि वित्ता तिसु ट्ठाणेसु हवंति द्वादो ॥ २२८ ॥ पत्रक १२६ । च४७११६ । १४७ १११ । एक्कोण चसयाई दुसया - चउदाल- खुसयमेक्कोणं । चसीदी चउठाने होवि हु चउसोदि-पविहता ॥ २२६ ॥ | zee३६६ | ६ २४४ । ६६ १६६ । ८४ । अर्थ :- मेरुके सदृश लोक में, ऊपर-ऊपर सात स्थानोंमें राजूको रखकर विस्तारको लाने के लिए गुणकार और भागहारोंको कहता हूं ।। २२७॥ अर्थ :- नीचेसे तीन स्थानोंमें इक्कीससे विभक्त एकसी छब्बीस, एकसौ सोलह और एकसौ ग्यारह गुणकार हैं ||२२८ || ११॥ ७४ *****=1244; **!!'=; **!=W! X अर्थ :- इसके आगे चार स्थानोंमें क्रमशः चौरासीसे विभक्त एक कम चार सौ ( ३६ ), दो सौ चवालीस, एक कम दो सौ ( १६६ ) और चौरासी, ये चार गुणकार हैं ।। २२६|| 포수 [ ८१ 343 '=27 ; Ex*== ; ''='' | = विशेषार्थ : मेरु सदृश लोकका विस्तार तलभागमें ६ राजू है । इससे राजू ऊपर जाकर लोकमेरुका विस्तार इसप्रकार प्राप्त होता है । यथा - एक राजू ऊपर जानेपर राजू की हानि होती है अतः राजकी ऊँचाई पर (x) = राजकी हानि हुई । इसे ६ राजू विस्तारमें से घटा देने पर ( ३१ ) = राजू भद्रशालवनपर लोकमेरुका विस्तार है क्योंकि एक राजू पर ४ राजूकी हानि होती है अतः ३ राजुकी ऊँचाई पर पूर्ण विस्तार में से घटा देनेपर (शे) - है । क्योंकि एक राजू पर राजूकी हानि होती है अतः हानि प्राप्त हुई। इसे पूर्व विस्तार से घटाने पर ( (3) राजकी हानि हुई । इसे राजू विस्तार नन्दनवनपर लोकमे रुका राजू पर ( ३ ) - ६४ राजू समविस्तार के ३ ) = राजूकी १. ब. क. इगवासेवि द. इगवीसे कि तहत्या तिसु ठाणेसु ठदिय हंवति । ज ठ सित्ता । - Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२] तिलोसपण्णत्ती [ गाथा : २३०-२३२ ऊपरका विस्तार प्राप्त होता है। क्योंकि एक राजूकी ऊँचाईपर राजूकी हानि होती है अतः । रालूपर ( x +) = राजूकी हानि हुई । ___ इसे पूर्व विस्तार मेंसे घटादेने पर (1-2)=१४४ राजू सौमनस दनपर लोकमेरुका विस्तार होता है। क्योंकि एक राजूपर र राजूको हानि होती है अतः ३ राजूपर (३४४)=२५ राजूकी हानि हुई। इसे पूर्वोक्त विस्तार मेंसे घटानेपर ( 27 -2)= २३राजू सौमनस वनके समरुन्द्रभागके ऊपरका विस्तार है । क्योंकि एक राजूपर ५ राजूकी हानि होती है अत: राजूपर ( x)६.१ राजकी हानि हुई । इसे पूर्वोक्त विस्तार मेंसे घटा देनेपर (T -1 ) अर्थात् पाण्डुकवन पर लोकमेरुका विस्तार एक राजू प्राप्त होला है। धनफल प्राप्त करने हेतु गुणकार एवं भागहार मंदर-सरिसम्मि जगे सत्तसु ठाणेसु ठविय रज्जु-घणं । हेट्ठादु घरणफलं स य वोच्छं गुणगार-हाराणि ॥२३०॥ चउसीदि-चउसयारणं सत्तावीसाधिया य दोणि सया। एक्कोण-चउ-सयाई बीस-सहस्सा विहीण-सगसट्ठी ॥२३॥ एकोणा दोषिण-सया पण-सट्ठि-सयाइ णब-जुदाणि पि। पंचत्तालं एदे गुणगारा सत्त-ठाणेसु ॥२३२॥ पर्थ :-मन्दरके सदृश लोकमें घनफल लानेके लिए नीचेसे सात स्थानोंमें धमराजको रखकर गुणकार और भागहार कहते हैं ।।२३०।। अर्थ:-चारसी चौरासी, दो सौ सत्ताईस, एक कम चारसी अर्थात् तीनसो निन्यानवे, सड़सठ कम बीस हजार, एक कम दोसी, नौ अधिक पैसठसौ और पैंतालीस, ये क्रमसे सात स्थानोंमें सात गुणकार हैं ।।२३१-२३२।। विशेषाम :-लोकमेरुके सात खण्ड किये गये हैं । इन सातों-खण्डोंका भिन्न-भिन्न घनफल प्राप्त करनेके लिए "मुख भूमि जोगदले पदहदे' सूत्रानुसार प्रक्रिया करनी चाहिए। यथा—लोकमरु अर्थात् प्रथम खण्डको जड़की भूमि +7 मुख= ३४२, तथा घनफल= xxx=" घनराजू है। [ यहाँ भूमि और मुखके योगको प्राधा करके राजू ऊँचाई और ७ राजू मोटाईसे गुरिणत किया गया है । यही नियम सर्वत्र जानना चाहिए ] Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २३३ ] पठमो महाहियारो [ ८३ भद्रशालवनसे नन्दनवन अर्थात् द्वितीय खण्डकी भूमि +#मुख=२३, तथा घनफल =xxx=२३५ घनराजू प्राप्त होता है। नन्दनवनसे समविस्तार क्षेत्र तक अर्थात् तृतीय खण्डकी भूमि + मुख, तथा घनफल= xxx=३१ घमराजू तृतीय खण्डका घनफल है। समविस्तारसे सौमनसवन अर्थात् चतुर्थखण्डकी भूमि + मुख , तथा घनफल=xxx=1 धनराजू चतुर्थ खण्डका घनफल है। सौमनसवनके ऊपर समविस्तार क्षेत्रतफ अर्थात् पंचमखण्डकी भूमि + तथा घनफल xxx१-११ धनराजू है। + मुख समविस्तार क्षेत्रसे ऊपर पाण्डकवन तक अर्थात् षष्ठ खण्डको भूमि ३ तथा घनफल = xxx =१५० घनराजू प्राप्त होता है । पाण्डुकवनके ऊपर चूलिका अर्थात् सप्तम खण्डकी भूमि + मुख Hixxx- धनराजू चूलिका का घनफल है । सप्त स्थानोंके भागहार एवं मन्दरमेरु लोकका घनफल तथा घनफल: णव णय 'अट्रय बारस-वग्गो अट्र सयं च चउवालं । प्र8 एदे कमसो हारा सत्तेसु ठाणेसु ॥२३३॥ ४८४| २२७। = ३९६ : १६६३३| = १६६ | ४ ३४३। ६ |३४३ 1 ८ । ३४३। १४४ |३४३ | - = ३४३ । ३३३ । ६५०९/३.४५ अर्थ :-नौ, नौ, पाठ, बारह का वर्ग, पाठ, एक सौ चवालीस और पाठ, ये क्रमशः सात स्थानोंमें सात--भागहार हैं ।।२३३।। विशेषाय :--इन सातों खण्डोंके घनफलोंका योग इसप्रकार है : १. द. ब. अद्ध वारसवग्गे गवरणय भट्ठय । ज. का. ठ. अट्ट वारसवग्गे रणवणव अद्वय । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ j तिलीयपत्ती +370923+24383 +245 +4402+83= ७७४४+३६३२+७१८२ + १६६३३+३५८२ + ६५०६+६१० ४६३६२ १४४ १४४ अर्थात् लोकमन्दरमेरुका सम्पूर्ण घनफल ३४३ धनराजू प्राप्त होता है । दूष्यलोकका घनफल और उसकी प्राकृति [ गाया : २३४ 'सत्त-हिद-दु-गुण- लोगो विदफलं बाहिरुभय-बाहूणं । |등 지금지 पण - भजि-दु-गुणं लोगो इसस्सभंतरोभय-भुजाणं ॥ २३४ ॥ अर्थ :- दुष्यक्षेत्रकी बाहरी दोनों भुजाओंका घनफल सातसे भाजित और दोसे गुरिंगत लोकप्रभाण होता है । तथा भीतरी दोनों भुजाओंोंका घनफल पाँचसे भाजित और दोसे गुरिणत लोकप्रमाण है || २३४॥ विशेषार्थ :- दूष्य नाम डेरेका है । ३४३ वनराजू प्रमाण वाले लोककी रचना दूष्याकार करनेपर इसकी प्राकृति इसप्रकार से होगी : ६ जू २. ज. ठ. सत्त हिद डुगु लोगो । व सत्त हिंद दुग्गु लोगो । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाणा : २३५ ] पठमो महाहियारो [ ८५ इस लोक दृष्याकारकी भूमि ६ राजू, मुख एक राजू, ऊँचाई १४ राजू और वेध ७ राजू है । इस दृष्य क्षेत्रको दोनों बाहरी भुजाओं अर्थात् क्षेत्र संख्या १ र २ का घनफल इस प्रकार है : एक और दो क्षेत्रों में भूमि और मुखका प्रभाव है । क्षेत्र विस्तार ३ राजू, ऊँचाई १४ राजू और वेध ७ राजू है, श्रतः ३ x x x ६ = ९८ घनराजू घनफल दोनों बाहरी भुजाश्रों वाले क्षेत्रोंका है । भीतरी दोनों भुजाओं का क्षेत्रोंकी ऊँचाईमें मुख' और भूमि विस्तार एक राजू और वेध ( मोटाई ) ७ राजू है, अत: धनराजू दोनों भीतरी क्षेत्रोंका घनफल प्राप्त होता है । प्रर्थात् क्षेत्र संख्या ३ और ४ का घनफल इसप्रकार है---इन राजू है । दोनोंका योग ++- राजू हुआ । इनका ३१३ अर्थात् १३७ तस्साई लहु-बाहुं 'छग्गुण-लोथो त्र पणत्तीस - हिदो । विदफलं जय-खेत्ते लोश्रो सतह पवित्तो ॥ २३५ ॥ = | ६ | = ७ | ३५ अर्थ : – इसी क्षेत्रमें उसके लघु बाहुका घनफल छसे गुणित और पैंतीस से भाजित लोकप्रमाण, तथा यवक्षेत्रका घनफल सातसे विभक्त लोकप्रमाण है || २३५ ॥ ▾ विशेषार्थ :- प्रभ्यन्तर लघु बाहुन अर्थात् क्षेत्र संख्या ५ और ६ का घनफल इसप्रकार है - दोनों क्षेत्रोंकी भूमि ऊँचाईमें और मुख राजू है । दोनोंका योगफल ( *x * ) = राजू है, अत: xxxअर्थात् ५८ घनराजू हुआ । आकृतिके मध्य में बने हुए दो पूर्ण यव और एक अवयव अर्थात् क्षेत्र संख्या ७-८ और ९ का घनफल इसप्रकार है : 1 प्रयवकी भूमि १ राजू, मुख०, ऊँचाई राजू तथा वेध ७ राजू है । आकृतिमें दो यत्र पूर्ण एवं एक यव प्राधा है, अतः ३ से गुणित करने पर घनफल = (1+0) × 3 × ¥×¥x= ४६ घनराजू यव क्षेत्रोंका घनफल प्राप्त होता है । इन चारों क्षेत्रोंका अर्थात् दूष्यक्षेत्रका एकत्र धनफल इस प्रकार होगा : ६८+ १३७ + ५८+ ४६ ३४३ घनराजू घनफल प्राप्त होता है । १. द. क. ज. ठ. तग्गुलोपो अप्पट्टिसहिदाम्रो व लग्गुणलोभो पट्टिसहिदाओ । २ ६. ब. क. ज. ठ, सप्तत्रि Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] तिलोयपणती [ गाथा : २३६ मिरिकटक लोकका धनफल और उसकी प्राकृति एक्कस्सि गिरिगडरा विवफलं पंचतीस हिद लोगो । तं पणतीसप्पहिदं सेडि-घणं घरणफलं तम्हि ॥२३६॥ पर्य :--एक गिरिकटकका घनफल लोकके घनफलमें ३५ का भाग देनेपर ( = रूप में) प्राप्त होता है । जब इसमें ( में) ३५ का गुणा किया जाता है तब (सम्पूर्ण गिरिकटक लोकका) घनफल श्रेरिणघन ( = रूपमें ) प्राप्त हो जाता है ॥२३६॥ विशेषार्थ -३४३ घनराज प्रमाण वाले लोकका गिरिकटकको रचनाके माध्यमसे घमफल निकाला गया है । गिरि ( पर्वत ) नीचे चौड़े और ऊपर संकरे होते हैं किन्तु कटक इनसे विपरीत अर्थात् नीचे संकरे और ऊपर चौड़े होते हैं । यथा : 20 9१२१३A98471 EURDAR उपयुक्त लोकगिरिकटकके चित्रणमें २० गिरि और १५ कटक प्राप्त होते हैं, इन गिरि और कटक दोनोंका विस्तार एवं ऊँचाई मादि सदृश ही हैं । इनका घनफल इसप्रकार है : Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८७ गामा : २३७-२३८ ] पढमो महाहियारो एक गिरि या कटकका भूमि-विस्तार १ राजू, मुख ०, ऊँचाई - राजू और वेध ७ राजू है अतः {(+)= }x१५:४४१ धनराजू एक गिरि या एक कटकका घनफल प्राप्त हुमा । जब एक गिरि या कटकका धन फल 3. अर्थात् १ धनराजू है तब ( २०+१५) = ३५ गिरि-कटकोंका कितना घनफल होगा ? इसप्रकार त्रैराशिक करनेपर १४३५३४३ धनराजू अर्थात् ३५ गिरिकटकोंसे व्याप्त सम्पूर्ण लोकका घनफल ३४३ घनराजू प्राप्त होता है। अधोलोकका घनफल कहनेकी प्रतिज्ञा एवं अट्ठ-वियप्पा सयलजगे वण्णिवा समासेण । एण्हं अट्ठ-पयारं हेट्टिम लोयस्स वोच्छामि ॥२३७॥ प्रपं: इसप्रकार आठ विकल्पोंसे समस्त लोकोंका संक्षेपमें वर्णन किया गया है। इसी प्रकार अधोलोकके पाठ प्रकारोंका वर्णन करूगा ।।२३७।। सामान्य एवं ऊयित ( प्रायत चतुरस्र ) अधोलोकका घनफल एवं प्राकृतियाँ सामणे विवफलं सत्तहिदो होदि चउगुणो लोगो। विदिए वेद भुजाओ सेढी कोडी य चउरज्जू ॥२३॥ | |-|-15 अर्थ :-सामान्य अधोलोकका धनफल लोकके धनफल ( 2 ) में ४ का मुणा एवं ७ का भाग देनेपर प्राप्त होता है और दूसरे पायत चतुरस्र क्षेत्रको भुजा एवं वेध श्रेरिण प्रमाण तथा कोटि ४ राज प्रमाण है। अर्थात् मुजा ७ राजू, वेध सात राजू और कोटि चार राज् प्रमाण है ॥२३॥ विशेषार्थ :-१. मामान्य अधोलोकका धनफल सामान्य अधोलोकको भूमि ७ राजू भोर मुख एक राजू है, इन दोनोंको जोड़कर उसका प्राधा करनेसे जो लब्ध प्राप्त हो उसमें ७ राजू ऊँचाई पीर ७ राजू वेधका गुणा करनेसे घनफल प्राप्त होता है। यथा-(७+१)=८२= ४४७४७- १९६ धनराजू सामान्य अधोलोकका घनफल है । इसका चित्रण इसप्रकार है-- Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८] तिलगामाती | गाथा : २३८ रा - - राजू - - २. प्रायतचतुरस्र अर्थात् ऊर्धायत अधोलोकका घनफल : असता अर्थात् लम्बे और चौकोर क्षेत्रके धनफलको कर्दायत धनफल कहते हैं । सामान्य अधोलोककी चौड़ाईके मध्यमें म और ब नामके दो खण्ड कर ब खण्डके समीप अ खण्डको उल्टा रख देनेसे पायत चतुरस्रक्षेत्र बन जाता है । यथा -रम - - - - - - - अ । -७राज --. -जराण घनफल-इस प्रायतचतुरन ( ऊयित ) क्षेत्रको भुजा, श्रेणी प्रमाण अर्थात् ७ राजू, कोटि ४ राजू और वेध ७ राजू है, अत: ७४४x७-१९६ धनराजू प्रायतचतुरस्र अधोलोकका घनफल है। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८६ गाथा : २३६ ] पढमो महाहियारो ३. तिर्यगायत अधोलोकका घनफल :-(त्रिलोकसार गा० ११५ के आधारसे) जिस क्षेत्रकी लम्बाई अधिक और ऊँचाई कम हो उसे तिर्यगायत क्षेत्र कहते हैं । अधोलोककी भूमि ७ राजू और मुख १ राज है । ७ राजू ऊँचाई के समान दो भाग करने पर नीचे (संख्या १) का भाग ३, राजू ऊँचा, ७ राजू भूमि, ४ राजू मुख और ७ राजू बेध ( मोटाई ) वाला हो जाता है । ऊपरके भागके चौड़ाईकी अपेक्षा दो भाग करनेपर प्रत्येक भाग ३: राजू ऊँचा, २ राजू भूमि, ३ राजू मुख और ७ राजू वेध वाला प्राप्त होता है। इन दोनों ( संख्या २ और संख्या ३ ) भागोंको नीचे वाले { संख्या १) भागके दायों और बायीं ओर उलट कर स्थापन करनेसे ३६ राज ऊँचा और पाठ राजू लम्बा तिर्यगायत क्षेत्र बन जाता है । - शाज --राज़ - . -शान - राजू--- V धनफल : यह पायतक्षेत्र ८ राजू लम्बा, ३३ राजू चौड़ा और ७ राजू मोटा है, प्रतः ६४३४५= १६६ घन राजू तिर्यगायत अधोलोकका घनफल प्राप्त हो जाता है। यवमुरज अधोलोककी प्राकृति एवं घनफल खेत-जवे विदफलं चोइस-भजिवो य तिय-गुणो लोप्रो । मुरय-मही विदफलं चोइस भजिदो य परण-गुणो लोश्रो ॥२३६।। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोय पण्णत्ती [ गाथा : २३६ !— अर्थ :- ( यव-मुरज क्षेत्रमें) यवाकार क्षेत्रका धनफल चौदह भाजित और तीनसे गुरिणत लोक प्रमाण तथा मुरजक्षेत्रका घनफल चौदह से भाजित और पाँचसे गुणित लोकप्रमाण है ।। २३६ ॥ ६० ] ४. अधोलोकको यत्र ( जो ग्रस ) श्रीर मुरज ( मृदङ्ग ) के आकारमें विभाजित करना मुरजाकार कहलाता है। इसकी आकृति इसप्रकार है : Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २४० ] पढमो महाहियारो [६१ करने पर भी ( ३४३ : १४-२४३ ) x ५ = १२२६ धनराजू प्राप्त होता है, इसीलिए गाथामें चौदहसे भाजित और पाँचसे गुरिणत मुरजका घनफल कहा है । इसप्रकार ७३: + १२२१-१९६ धनराजू यबमुरज अधोलोकका घनफल प्राप्त होता है। बदमाग बमोनोकका माल एवं प्राकृति घणफलमेक्कम्मि जये लोगो 'बादाल-भाजिदो होदि । तं चउवोसष्पहदं सत्त-हिदो चउ-गुणो लोगो ॥२४०॥ अर्थ :-यबाकार क्षेत्रमें एक यवका धनफल बयालीससे भाजित लोकप्रमाण है। उसको चौबीससे गुणा करनेपर सातसे भाजित और चारसे गुरिणत लोकप्रमारण समस्त यवमध्यक्षेत्रका घनफल निकलता है ।।२४०॥ ५. यबमध्य अधोलोकका घनफल : विशेषार्थ :-अधोलोकके सम्पूर्ण क्षेत्रमें यवोंकी रचना करनेको यवमध्य कहते हैं । सम्पूर्ण अधोलोकमें यवोंकी रचना करनेपर २० पूर्ण यव और ८ अर्धयव प्राप्त होते हैं। जिनकी आकृति इसप्रकार है : १. क. बादार श भाजिदो। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २४१-२४२ प्राकृतिमें बने हुए ८ अर्धययोंके ४ पूर्ण यव बनाकर सम्पूर्ण अधोलोकमें (२० +४)=२४ पूर्ण यवोंकी प्राप्ति होती है । प्रत्येक यवके मध्यकी चौड़ाई १ राजू और ऊपर-नीचेकी चौड़ाई शून्य है तथा ऊँचाई राजू और वेध ७ राजू है, अतःxxx अ र्थात् १ धनराजू एक यवका घनफल है । लोक ( ३४३ ) में ४२ का भाग देनेपर भी (११) प्राप्त होते हैं, इसीलिए गाथामें एक यवका घनफल बयालीससे भाजित लोकप्रमाए कहा गया है । एक यबका घनफल घनराजू है अत: २४ यवोंका घनफल x१४-१६६ घनराजू प्राप्त होता है । लोक (३४३) को ७ से भाजितकर ४ से गुरणा करने पर भी (३४३ : ७=४६४४)= १९६ घनराजू ही पाते हैं इसीलिए गाथा २४ यवोंका घनफल सातसे भाजित और चारसे गुणित लोकप्रमाण कहा गया है । मन्दरमेरु अधोलोकका धनफल और उसकी प्राकृति रमनूवो ते-भाग' बारम-भागो तहेव सत्त-गुरषो । तेदालं रज्जूम्रो बारस-भजिवा हवंति उड्ढुड्ढं ॥२४१॥ १४ । ३८ । । । । सप्त-हब-बारसंसा दिवढ-गणिदा हवेइ रज्जू य । मंदर-सरिसायामे उच्छेहा होइ खेतम्मि ॥२४२॥ । ७ 14:३। अर्थ :-मन्दरके मदृश आयाम बाले क्षेत्रमें ऊपर-ऊपर ऊँचाई, क्रमसे एक राजूके चार भागोंमेंसे तीनभाग, बारह भागोंमेंसे सात भाग, बारहसे भाजित तेतालीस राजू, राजूके बारह भागोंमें से सात भाग और डेढ राजू है ।।२४१-२४२।। ६ मन्दरमेरु अधोलोकका घनफल : विशेषार्थ :-अधोलोकमें सुदर्शन मेरुके प्राकारको रचना द्वारा घनफल निकालनेको मन्दर धनफल कहते हैं। अधोलोक सातराजू ऊंचा है, उसमें नीचेसे ऊपरको मोर (३+)- राजूके प्रथम व द्वितीय स्खण्ड बने हैं । इनमें ३ राजू, पृथिवीमें सुदर्शनमेरुकी जड़ अर्थात् १००० योजनके और है १. द. ब. ज. क. ४. तेदालं । २. द. ज. ल. तेलंतं, व, क. तेसंम । ३. ब. क. बारसंसो। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया : २४३-२४४ ] पढो महाहियारो [ ९३ राजू, भद्रशालवनसे नन्दनवन तक की ऊँचाई अर्थात् ५०० योजनके प्रतीक हैं। इनके ऊपरका तृतीय खण्ड राजूका है जो नन्दनवनसे ऊपर समविस्तार क्षेत्र अर्थात् ११००० का द्योतक है। इसके ऊपरका चतुर्थखण्ड ३ राजका है, जो समविस्तार से ऊपर सौमनसन्न तक अर्थात् ५१५०० योजनके स्थानीय है । इसके ऊपर पंचमखण्ड राजूका है जो सौमनसवनके ऊपर वाले समविस्तार अर्थात् ११००० योजनका प्रतीक है । इसके ऊपर षष्ठखण्ड राजूका है, जो समविस्तार से ऊपर पाण्डुकवन तक अर्थात् २५००० योजनका द्योतक है। इन समस्त खण्डोंका योग ७ राजू होता है । यथा – (३+) = +++++=६६=७ राजू | अट्ठावीस - वित्ता सेढी मंदर-समम्मि 'तड-वासे । 'चउ-तड-करणवखंडिद-खेत्तेगं चूलिया होदि ॥ २४३ ॥ । ३८१ । अट्ठावीस - बित्ता सेढी चूलीय होदि मुह-रुदं । ततिगुणं भू-वासं सेठी बारस-हिदा तदुच्छेहो ॥ २४४॥ | | १ | ३ | व‍ अर्थ :- मन्दर सदृश क्षेत्रमें तट भागके विस्तारमेंसे अट्ठाईससे विभक्त जगच्छ ेणी प्रमाण चार तटवर्ती करणाकार खण्डित क्षेत्रोंसे चूलिका होती है । अर्थात् तटवर्ती प्रत्येक त्रिकोणोंकी भूमि ( २८१ ) : राजू प्रमाण है || २४३ || अर्थ :- इस चूलिकाका मुख विस्तार अट्ठाईससे विभक्त जगच्छ्रेणी ( २८१ ) अर्थात् राजू, भूमि विस्तार इससे तिगुना ( २८३ ) अर्थात् राजू और ऊँचाई बारह से भाजित जगच्छ्र ेणी (१२) अर्थात् पर राजू प्रमाण है ।। २४४ ।। विशेषार्थ :- दोनों समविस्तार क्षेत्रोंके दोनों पार्श्वभागों में चार त्रिकोण काटे जाते हैं, राजू है । इन चारों त्रिकोणोंमेंसे तीन चूलिका वन जाती हैं, जिसकी भूमि राजू प्रमाण है । उनमेंसे प्रत्येक त्रिकोण की भूमि राजू और ऊँचाई त्रिकोण सीधे और एक त्रिकोणको पलटकर उल्टा रखनेसे अर्थात् राजू, मुख अर्थात् राजू और ऊँचाई इस मन्दराकृतिका चित्रण इसप्रकार है- १. ६. ब. ज. क. उ. तलवासे । २. द. ब. ज. क. उ. चडतदकारणखंडिखेत्ते । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] तिलोयपण्णत्ती चूलिका १ रा. राजू रा. धेरे राजू १४ राजू 32 रा. १४ 38 २४ रा. ८२ // [ गाथा : २४५ - २४६ τε रा. ७ जू श्रद्वाणवदि वित्तं सत्तट्टासु सेढि उदुड्ढं । ठविण वास हेदु गुणगारं वत्तइस्सामि ॥ २४५ ॥ 'प्रणउदी बाणउदी उखरगवदी तह कमेण बासीदी उणदाल बत्तीसं चोट्स इय होंति गुणगारा ||२४६ ॥ ६६६६२ । ६६२३६३२ । ६१४ । अर्थ :- ग्रट्टानवेसे विभक्त जगच्छे गीको ऊपर-ऊपर सात स्थानोंमें रखकर विस्तार लाने के लिए गुणकार कहता हूं ॥ २४५ ॥ प्रथं :- अट्ठानवे, बानवे, नवासी, बयासी, उनतालीस, बत्तीस और चौदह, ये क्रमशः उक्त सात स्थानों में सात गुरणकार हैं ||२४६ || १. क. गुणगारा परण्णवदि तह कमेण छासीदी। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २४७-२४६ ] पढमो महाहियारो [ १५ विशेषार्थ :-९८ से विभक्त जगच्छ्रेणी अर्थात् । अर्थात् १ को ऊपर-ऊपर सात स्थानों पर रखवार कमसे ६८, ६२, ८६, १२, ३६, ३२ और १४ का गुणा करनेसे प्रत्येक क्षेत्रका प्रायाम प्राप्त हो जाता है । यह पायाम निम्नलिखित प्रक्रियासे भी प्राप्त होता है । यथा : इस मन्दराकृति अधोलोकको भूमि ७ राजू और मुख १ राजू (७–१)-६ राजू अवशेष रहा । क्योंकि ७ राजूकी ऊँचाई पर ६ राजूकी हानि होती है, अत: राजूपर (३४) राजूकी हानि हुई 1 इसे ७ राजू आयाममेंमें घटा देनेपर (-3)= राजू आयाम राजूकी ऊँचाईके उपरितन क्षेत्रका है। [ यहाँ २४x७ राजू भूमि विस्तार और x १२= ६, राजू सुमेरुको जड़के ऊपरका विस्तार है । ] क्योंकि ७ राजूपर ६ राजूकी हानि होती है अतः । पर (3x1)=2: राजूकी हानि हुई; इसे उपरितन विस्तार मेंसे घटानेपर ( 2) अर्थात् १५४ राजू नन्दनवनकी तलहटीका विस्तार है । क्योंकि ७ राजूपर ६ राजूको हानि होती है अतः राजूपर (34)राजूको हानि हुई । इसे नन्दनवनकी तलहटीके विस्तार राजूमेंसे घटा देनेपर -1-= ५ राजू समविस्तारके उपरितन क्षेत्रका प्रायाम है । __ जब ७ राजूकी ऊँचाईपर ६ राजू की हानि होती है तब ३ राजूपर (४३) अर्थात् ३ राजूकी हानि हुई । इसे उपरितन आयाम ३ राजूमेंसे घटादेने पर ६१-५३= या २१ राजू सौमनसवनके उपरितन क्षेत्रका आयाम है, क्योंकि ७ राजू पर ६ राजूको हानि होती है अतः पर राजू पर (x2)= राजुको हानि हुई, इसे ३१ राजू में से घटा देने पर ३:अर्थात् २४ राजू समविस्तार के उपरितन क्षेत्रका प्रायाम है । क्योंकि ७ राजू पर ६ राजू को हानि होती है अतः ३ राजू पर (x)- राजूको हानि हुई । इसे उपरिम विस्तार ३३ राजूमें से घटा देने पर (१३-3) अर्थात् १ राजू का विस्तार पाण्डकवनकी तलहटीका आयाम है । हेट्ठाको रज्जु-घणा सत्तद्वारणेसु ठविय उड्डड्ढे । 'गुणगार-भागहारे विदफले तण्णिरूवेमो ॥२४७॥ गुणगारा परणरणउदी एक्कासीदेहि जुत्तमेक्क-सयं । 'सगसीदेहि दु-सयं तियधियदुसया पण-सहस्सा ॥२४८।। अडवीसं उणहत्तरि, उणवणं उरि-उरि हारा य । चउ चउवगं बारस अडदालं ति-चउक्क-चउवीसं ॥२४६॥ १. द. ठेविगुग्ण बासहेदु, द. ज. 8. ठबिगुण वासहेदु', क. ठविदूरण दासहेदु' गुणगारं पत्त इस्सामि । २. द. ब. क. ज. 8. कासेदेहि । ३. द, ब. सगतीसेदि दुस्मतिय घियदुसया । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ] तिलोयपणती [ गाथा : २४ ३४३ १४ १३६३, १६४ | ३६ . २८७ । ३४७ । ५२०३ | ३६३ । २८ । अर्थ :-नीचेसे ऊपर-ऊपर सात स्थानों में धनराजको रखकर धनफलको जाननेके लिए गुणकार और भागहारको कहता हूं ॥२४७।। उक्त सात स्थानोंमें पंचानवे, एक सौ इक्यासी, दो सौ सतासी, पाँच हजार दो सौ तीन, अट्ठाईस, उनहत्तर और उनचास ये सात गुणकार तथा चार, चारका वर्ग (१६), बारह, अड़तालीस, तीन, चार और चौबीस ये सात भागहार हैं ॥२४८-२४६।। विशेषार्थ :-मन्दराकृति अधोलोकके सात खण्ड किये गये हैं, इन सातों खण्डोंका पृथक्पृथक् धनफल इसप्रकार है : प्रथमखण्ड :-भूमि ७ राजू, मुख राजू, ऊँचाई ३ राजू और वेध ७ राजू है अत: (+१३)=wxxkxt=" धनराजू प्रथमखण्डका घनफल है । द्वितीयखण्ड:-इसकी भूमि राजू, मुख राजू, ऊँचाई : राजू, वेध ७ राजू है, अतः (4+3 ) =xxx= धनराजू द्वितीय खण्डका धनफल है। तृतीय खण्ड :-इसकी भूमि ३ राजू, मुख ३ राजू, ऊँचाई १९ राजू और वेध ७ राजू है अत: (+)xxx=२५ घनराजू तृतीय खण्डका धनफल है । चतुर्यखण्ट :-इसको भूमि ३ राज, मुख ३. राजू, ऊँचाई १३ राजू और वेध ७ राजू है अतः (4+ ३४ ) -२.xxx3५१ घनराजू चतुर्थखण्डका धमफल है । पंचमखण्ड :—इसकी भूमि : राजू, मुख ३१ राजू, ऊँचाई राजू और वेध ७ राजू है, अत: (३+३३) =xxx = धनराजू पंचमखण्डका धनफल है । नोट :-तृतीय और पंचमखण्डकी भूमि क्रमशः ६ राजू और " राजू थी; किन्तु चार त्रिकोण कट जाने के कारण और राजू ही ग्रहण किये गये हैं। षष्ट खण्ड :-इसकी भूमि ३१ राजू, मुख राजू, ऊँचाई ३ राजू और वेध ७ राजु है अतः (१+ ) =xxx= घनराजू षष्ठ खण्डका घनफल है। ____ सप्तम खण्ड:-इसको भूमि ३६ राजू, मुख ४६ राजू, ऊँचाई राजू और वेध ७ राजू है अतः (२६+ )=२६xxx= घनराजू सप्तमखण्ड अर्थात् चुलिकाका घनफल है। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २५०-२५१ ] पढमो महाहियारो [६७ इस प्रकार- + + + + + + ___ - ११४०+५४३ + ११४८+ ५२०३ + ४४८+ ८२८+६८४५ अर्थात् १६६ घनराजू सम्पूर्ण मन्दरमेरु अधोलोकका घनफल है । दृष्य अधोलोकको प्राकृति ७. दुष्य अधोलोकका घनफल :-दुष्यका अर्थ डेरा [ TENT | होता है अधोलोकके मध्यक्षेत्रमें डेरोंकी रचना करके घनफल निकालनेको दृष्य घनफल कहते हैं । इसकी प्राकृति इसप्रकार है : दृष्य अधोलोकका धनफल चोद्दस-भजिदो 'ति-गुरणो विदफलं बाहिरुभय-बाहूणं । लोगो पंच-विहत्तो' दूसस्सम्भतरोभय-भुजाणं ॥२५०॥ 'तस्साई लहु-बाहू ति-गुणिय लोप्रो य पंचतीस-हिदो । विवफलं जव-खेत्ते चोद्दस-भजिदो हये लोगो ॥२५१॥ १. द. ब. ज. क. उ. वियदि। २. द. ब, ज. 3. एक विहत्त। ३. ब. क. ज.ठ. सत्ताई। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ तिशायरी [ गाथा : २५१ अर्थ :-दूष्य क्षेत्रमें १४ से भाजित और ३ से गुणित लोकप्रमाण बाह्य उभय बाहुओंका और पाँचसे विभक्त लोक प्रमाण अभ्यन्तर दोनों बाहुप्रोंका धनफल है ॥२५॥ इसी क्षेत्रमें लघु बाहुनों का घनफल तीनसे गुरिणत और पैंतीससे भाजित लोक प्रमाण तथा यवक्षेत्रका घनफल चौदहसे भाजित लोक प्रमाण है ।।२५१।। विशेषार्थ :--इस दूष्य क्षेत्रको बाह्म भुजा अर्थात् संख्या १ और २ का घनफल निम्नप्रकार है : भूमि १ राजू , मुख राजू , ऊँचाई ७ राजू और वेध ७ राजू है अत: (+1)= ३४३४६xx = ! अर्थात् ७३३ घनराजू धनफल है । लोक ( ३४३ ) को १४ से भाजित कर जो लब्ध प्रावे उसको ३ से गुणित कर देने पर भी ( ३४३ : १४-२४३४३ )७३३ धनराजू ही प्राते हैं इसलिए गाथामें बाह्य बाहुओंका घनफल चौदह से भाजित और तीनसे गुरिणत ( ७३३) कहा है। अभ्यन्तर दोनों बाहुओं अर्थात् क्षेत्र संख्या ३ और ४ का घनफल इसप्रकार है- (ऊँचाईमें भूमि + मुख =)xsxxx=33 अर्थात् ६८ घनराजू घनफल है, इसीलिए गाथामें पाँचसे भाजित लोकप्रमाण धनफल अभ्यन्तर बाहुओका कहा है । __अभ्यन्तर दोनों लघु-बाहुओं अर्थात् क्षेत्र संख्या ५ और ६ का धनफल इसप्रकार है-- (ऊँचाईमें भूमि + मुख= )xxxx= = २९३ घनराजू घनफल है । लोक (३४३) को तीनसे गुरिणत करके लब्धमें ३५ का भाग देनेपर भी (३४३४३ १०२६:३५) = २६३ धनराजू ही प्राप्त होते हैं इसलिए गाथामें तीनसे गुरिणत और ३५ से भाजित अभ्यन्तर दोनों लघु-वाहुओंका घनफल कहा गया है। २३ यवों अर्थात् क्षेत्र संख्या ७, ८ और ६ का धनफल इसप्रकार है--एक यवकी भूमि १ राजू , मुख ०, ऊंचाई 1 और बेघ ७ है, तथा ऐसे यव : हैं, अत: (+=)xxxx५ = अर्थात् २४. धनराजू घनफल २३ यवोंका है लोकको चौदहसे भाजित करने पर भी ( ३४३ १४ )=२४३ घनराजू ही आते हैं इसीलिए गाथामें चौदहसे भाजित लोक कहा है । इसप्रकार ७३३ । ६८२+२६३ + २४३ -- १६६ धनराजू घनफल सम्पूर्ण दृष्य अधोलोकका है। ८. गिरि-कटक अधोलोकका घनफल : गिरि ( पहाड़ी ) नीचे चौड़ी और ऊपर सँकरी अर्थात् चोटी युक्त होती है किन्तु कटक इससे विपरीत अर्थात् नीचे संकरा और ऊपर चौड़ा होता है । अधोलोकमें गिरि-कटकको रचना करनेसे २७ गिरि और २१ कटक प्राप्त होते हैं । यथा :-- Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २५२ ] पढमो महाहियारो गिरिकटक अधोलोककी प्राकृति करक/ रक/कटका क करक क/करक Enार काका १७ मक/करका -/ - करका - / -- 2 --- / क MAVAT INES राजू गिरिकटक अधोलोकका घनफल एक्कस्सि गिरिगडए' चउसीदी-भाजिदो हवे लोभो । तं 'प्रट्ठतालपहदं विदफलं तम्मि खेतम्मि ॥२५२॥ भर्य :-एक गिरिकटक ( अर्जयव ) क्षेत्रका घनफल चौरासीसे भाजित लोकप्रमाण है। इसको अड़तालीससे गुणा करने पर कुल गिरिकटक क्षेत्रका घनफल होता है ।।२५२॥ १. द. ब. गिरिविडए । के. ज. ८. गिरिविदए। २. क. भटुमाल । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ] तिलोय पण्पत्ती [ गाथा : २५३-२५४ विशेषार्थ :--उपर्युक्त प्राकृतिमें प्रत्येक गिरि एवं कटककी भूमि १ राजू, मुख , उत्सेध राजू और बेध ७ राजू है अतः (+0--)xixix-३ घन राजू प्राप्त है । लोक (३४३) को ८४ से भाजित करने पर भी ( ३४३२८४ )-३३ प्राप्त होते हैं, इसीलिए गाथामें लोकको चौरासीसे भाजित करनेको कहा गया है । क्योंकि एक गिरिका घनफल: धनराजू है अतः २७ पहाड़ियोंका घनफल १३४२*५४५११० घनराजू होगा । इसीप्रकार जब एक कटकका घनफल ३ घनराजू है, तब २१ कटकों का घनफल x = 39-८५३ धनराजू होता है। इन दोनों घनफलोंका योग कर देनेपर ( ११०:+८५३ ) - १९६ घनराजू घनफल सम्पूर्ण गिरिकटक अधोलोक क्षेत्रका प्राप्त होता है । अधोलोकके वर्णनकी समाप्ति एवं ऊर्ध्वलोकके वर्णनकी सूचना एवं अट्ठ-बियप्पो हंटिम सोनी या विषयी एस. । एण्हि उपरिम-लोयं अट्ठ-पयारं शिरूवेमो ॥२५३॥ अर्थ :-इसप्रकार पाठ भेदरूप अधोलोकका वर्णन किया जा चुका है। अब यहाँसे प्रागे आठ प्रकारके कज़लोकका निरूपण करते हैं ।।२५३॥ विशेषार्थ :- इसप्रकार पाठभेदरूप अधोलोकका वर्णन समाप्त करके पूज्य यतिवृषभाचार्य आगे १. सामान्य ऊध्वंलोक, २. ऊर्वायत चतुरस्र ऊवलोक, ३. तिर्यगायत चतुरस्त्र ऊर्वलोक, ४. यवमुरज ऊर्बलोक, ५. यबमध्य ऊर्व लोक, ६ मन्दरमेरु ऊर्ध्व लोक, ७. दुष्य ऊर्ध्वलोक और व गिरिकटक ऊर्ध्वलोकके भेदसे ऊज़लोकका धनफल आठ प्रकारसे कहते हैं। सामान्य तथा ऊर्ध्वायत चतुरस्र कवलोकके घनफल एवं प्राकृतियां सामण्णे विवफलं सत्त-हियो होइ ति-रिणदो लोपो। विदिए वेद-भुजाए" सेढी कोडी ति-रज्जनो ॥२५४॥ |३|-1-1८३ १. द. ब. क. ज. ठ. वियप्पा हेष्टिम-लोउए। २. द. क. तिगुणिधा । ३. द. ब. क. ज. ठ. मजासे। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २.५४ ] पढमो महाहियारो [ १०१ अर्थ :- सामान्य ऊर्बलोकका धनफल सातसे भाजित और तीनसे गुणित लोकके प्रमाण अर्थात् एक सौ सैंतालीस राजूमात्र है । द्वितीय ऊर्ध्वायतचतुरस्र क्षेत्रमें वेध और भुजा जगच्छणी प्रमाण, तथा कोटि तीन राजू मात्र है ।।२५४॥ विशेषार्थ :-सामान्य ऊर्ध्वलोककी प्राकृति : सामान्य ऊर्वलोक ब्रह्मस्वर्गके समीप ५ राजू विस्तार वाला एवं ऊपर नीचे एक-एक राजू विस्तार वाला है अतः ५ राजू भूमि, १ राजू मुख, राजू ऊँचाई और ७ राजू वेध वाले इस ऊर्वलोकके दो भाग करलेनेपर इसका घनफल इसप्रकार होता है-- (भूमि ५+ १ मुख =)xxx१४३१४७ घनराजू सामान्य ऊर्ध्वलोकका घनफल है। . . . . २. ऊर्ध्वायत चतुरस्र ऊर्ध्वलोकका घनफल : ऊर्वायत चतुरस्रक्षेत्रको भुजा जगच्छे रणी ( ७ राजू ), वेध ७ राजू और कोटि ३ राजू प्रमाण है । यथा ( चित्र अगले पृष्ठ पर देखिये ) Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ] ७ राजू भुजा घनफल है । -शाकोट तिलोय पण्णत्ती [ गाया: २५५-२५६ भुजा ७ राजू कोटि ३ रा०x वेध ७ रा० = १४७ घनराजू ऊष्वयित चतुरस्र क्षेत्रका X नोट :- ऊर्ध्वलोकका घनफल प्राप्त करते समय सामान्य ऊर्ध्वलोकको छोड़कर शेष आकृतियोंमें ऊर्ध्वलोककी मूल प्रकृतिसे प्रयोजन नहीं रखा गया है । तिर्यगायत चतुरस्र तथा यवमुरज ऊर्ध्वलोक एवं श्राकृतियाँ तदिए 'भु- कोडी सेढी वेबो' वि तिणि रज्जूश्रो । बहु-जन-मध्ये मुरये' जव-मुरयं होदि तवखेत्तं ।। २५५ ॥ 1 - १ । - १। ७३ । तम्मि जबे विवफलं लोश्रो सत्तेहि भाजिदो होदि । सुरमम्मिय विदफलं सत्त-हिदो दु-गुणिवो लोनो ॥२५६ ॥ ||| १. व. ब. क. ज. उ. मुविकोडीओ । २. [ वेधो ] ३. द. ब. क. ज. . मुरयं । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया : २५६ ] पदमो महाहियारो [ १०३ ___ अर्थ :-तीसरे तिर्यगायश चतुरस्र क्षेत्रमें भुजा और कोटि जगणी प्रमाण तथा वेध तीन राजू मात्र है । बहुतसे यवों युक्त मुरज-क्षेत्रमें वह क्षेत्र यव और मुरज रूप होता है । इसमेंसे यवक्षेत्रका घनफल सातसे भाजित लोकप्रमाण और मुरजक्षेत्रका घनफल सातसे भाजित और दोसे गुणित लोकके प्रमाण होता है ।।... ५.६ विशेषार्थ :-(३) तिर्यगायत चतुरस्रक्षेत्रमें भुजा और कोटि श्रेणी (७ रा० ) प्रमाण तथा वेध (मोटाई) तीन राजू प्रमाण है । यथा : 21 घनफल---यहाँ भुजा अर्थात् ऊँचाई ७ राजू है, उत्तर-दक्षिण कोटि ७ राजू और पूर्वपश्चिम वेध ३ राजू है, अतः ७४७४ ३-१४७ धनराजू तिर्यमायत ऊर्ध्वलोकका घनफल प्राप्त होता है। ४. यवमुरज ऊर्ध्वलोकका घनफल:-इस यबमुरजक्षेत्रको भूमि ५ राजू , मुख १ राजू और ऊँचाई ७ राजू है। यथा--- ( चित्र अगले पृष्ठ पर देखिये ) Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २५७ - - अरव AWशपत्र उपयुक्त प्राकृतिके मध्यमें एक मुरज और दोनों पार्श्वभागोंमें सोलह-सोलह अर्धयव प्राप्त होते हैं । दोनों पार्श्वभागोंके ३२ अर्धयवोंके पूर्णयव १६ होते हैं । एक यवका विस्तार : राजू, ऊंचाई राजू और वेध ७ राजू है, अतः३४३ (अर्धकिया )xxx= धनराजू घनफल प्राप्त होता है । यतः एक यवका घनफल ६ घनराजू है, अतः १६ यवोंका (2x")=४६ घनराजू धनफल प्राप्त हुना। ___ मुरजके बीचसे दो भाग करनेपर अर्धमुरजको भूमि ३ राजू मुख १ राजू, ऊँचाई १ राजू और वेध ७ राजू है, इसप्रकारके अर्धमुरज दो हैं, अतः (३+१=)xxxx३-९८ घनराज पूर्ण मुरजका घनफल होता है और दोनोंका योग कर देने पर ( ४६+६८ )=१४७ धनराजू घनफल यवमुरज ऊर्ध्वलोकका प्राप्त होता है । लोक ( ३४३ ) को ७ से भाजित करने पर ४६ और उसी लोक ( ३४३ ) को ७ से भाजित कर दो से गुरिणत करदेनेसे ६८ घनफल प्राप्त हो जाता है । यही बात गाथामें दर्शायी गई है । यवमध्य ऊर्ध्वलोकका धनफल एवं प्राकृति घणफलमेक्कम्मि जवे अट्ठावीसेहिं भाजिदो लोगो । तं बारसेहि गुणिदं जव-खेत्ते होदि विवफलं ॥२५७।। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २५७ ] पढमो महाहियारो [ १०५ अर्थ :- यवमध्य क्षेत्रमें एक यवका घनफल अट्ठाईससे भाजित लोकप्रमाण है। इसको बारहसे गुणा करनेपर सम्पूर्ण यवमध्य क्षेत्रका घमफल निकलता है ।।२५७।। विशेषार्य :-(५) यवमध्य ऊध्र्यलोकका घनफल : ५ राज़ भूमि, १ राजू मुख और ७ राजू ऊँचाई वाले सम्पूर्ण ऊर्ध्वलोक क्षेत्रमें यवोंको रचना इसप्रकार है :-- इस प्राकृतिमें पूर्ण-यव ६ और अर्धयब ६ हैं । ६. अर्धयवोंके पूर्ण यव बनाकर पूर्ण यवोंमें जोड़ देनेगर (E+३)-१.२ पूर्ण यव प्राप्त हो जाते हैं । एक यवका विस्तार १ राजू, ऊँचाई राजू और बेध ७ राजू है अत: xxx= धनराजू एक यवका धनफल प्राप्त होता है । क्योंकि एक यवका घनफल : धनराजू है अतः १२ यदोंका १४३१४७ धनराज सम्पूर्ण यवमध्य ऊर्वलोक क्षेत्रका वनफल प्राप्त होता है । लोक (३४३) को २८ से भवजितकार - १२ से गुणित करने पर भी ( x)=१४७ धनराजू ही प्राप्त होता है । इसीलिए गाथामें लोकको अट्ठाईससे भाजितकर बारहसे गुणा करनेको कहा मया है। ६. मन्दर-ऊर्ध्वलोकका घनफल :--५ राजू भूमि, १ राजूमुख और ७ राजू ऊँचाई वाले ऊर्बलोक मन्दर ( मेरु ) की रचना करके घनफल निकाला जायगा । यथा : Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ] [ गाथा : २५०-२५६ ।। तिलोयपण्णत्ती मन्दरमेरु ऊर्यलोककी प्राकृति ४% राजू ४ राजू ५ राज मन्दरमेरु ऊर्ध्वलोकका घनफल ति-हियो बु-गुरिणद-रज्जू तिय-भजिवा' चउ-हिवा ति-गुण-रज्जू । एक्कतीसं च रज्जू बारस-भजिदा हवंति उड्ढुड्ढे ॥२५॥ चउ-हिद-ति-गुणिव-रज्जू तेवीसं साम्रो बार-पडिहत्ता । मंवर-सरिसायारे उस्सेहो उड़-खेत्तम्मि ॥२५॥ २ । १.१ । २८३ । ८४३१ । १६३ । १४२३ । अर्थ :--मन्दर सदृश प्राधारवाले ऊर्ध्वक्षेत्रमें ऊपर-ऊपर ऊँचाई क्रमसे सीनसे भाजित दो राजू, तीनसे भाजित एक राजू, चारसे भाजित तीन राजू, बारहसे भाजित इकतीस राजू , चारसे भाजित तीन राजू और बारहसे भाजित तेईस राजू मात्र है ॥२५८-२५६।। १. ज. ठ. भरिणदा। २. द. सरिसायारो। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २६०-२६२ ] पढमो महाहियारो [ १०७ विशेषार्थ : उपर्युक्त आकृतिमें 3 राजू पृथिवीमें सुदर्शन मेरुको जड़ अर्थात् १००० योजनका, ३ राजू भद्रशालवनसे नन्दनबन पर्यन्तकी ऊँचाई अर्थात् ५०० योजनका, ३ राज नन्दनवनसे समविस्तार क्षेत्र अर्थात् ११००० योजनका, ३३ राजू समविस्तारक्षेत्रसे सौमनस वन अर्थात् ५१५०० योजनका, राजू सौमनसवनसे समविस्तार क्षेत्र अर्थात् ११००० योजनका और उसके ऊपर २५ राजू समविस्तारसे पाण्डुकवन अर्थात् २५००० योजनका प्रतीक है। प्राणदानि-विहता ति-गुणः सेढी तडारण' वित्थारो' । 'चउतष्ठ-करणक्खंडिद-खेत्तेणं चूलिया होदि ॥२६॥ तिणि तडा भू-चासो ताण ति-भागेण होदि मुह-रुदं । तच्चूलियाए उदयो चउ-भजिदो ति-गुणिदो रज्जू ॥२६१॥ अर्थ : तटोंका विस्तार अट्ठानवेसे विभक्त और तीनसे गुरिणत जगच्छ्रेणी प्रमाण है। ऐसे चार तटवर्ती करणाकार स्खण्डित क्षेत्रोंसे चूलिका होती है, उस चूलिकाको भूमिका विस्तार तीनतटोंके प्रमाण, मुखका विस्तार इसका तीसरा-भाग तथा ऊँचाई चारसे भाजित और तीनसे गुणित, राजू मात्र है ।।२६०-२६१।। विशेषार्थ :-मन्दराकृतिमें नन्दन और सौमनसवनोंके ऊपरी भागको समविस्तार करनेके लिए दोनों पाश्र्वभागोंमें चार त्रिकोण काटे गये हैं, उनमें प्रत्येकका विस्तार ( 3 = = ) राज और ऊँचाई ३ राजू है । इन चारों त्रिकोणोंमेंसे तीन त्रिकोणोंको सीधा और एक त्रिकोणको पलटकर उल्टा रखनेसे पाण्डुकवनके ऊपर चूलिका बन जाती है, जिसका भूमि विस्तार र राज , मुख ३ राजू , ऊँचाई । राजू और बेध ७ राज है । सत्तट्ठाणे रज्जू उड्ढुड्ढं एकवीस-पविभत्तं । ठविदूण वास-हेदु गुणगारं तेसु साहेमि ॥२६२।। १. द.ब, तदारा । २. द, बिहत्ता रिरे तिष्णि गृया। ३. दै. क. ज.ठ, चउतदकारणावंरिद, ब. उदत्तकारणखंडिद । ८. द. ब. तदा । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ] तिलोय पण्णत्ती सत्ताणउदी तिधिय णउदाश्रो । 'पंचुत्तर - एक्कस चरसीदो सेवा उदाल एक्कवीस गुरणगारा ।। २६३ ।। १४७ १०५ | १४७६७ । ४७९३ । ७६४ । ४७५३ । १४७४४ | १४७२१ ॥ अर्थ :- सातों स्थानों में ऊपर-ऊपर इक्कीससे विभक्त राजू रखकर उनमें विस्तारके निमित्तभूत गुणकार कहता हूं ||२६२ ।। अर्थ :---एकसी पांच सत्तानवे, तेरानवे, चौरासी, तिरेपन, चवालीस और इक्कीस उपर्युक्त सात स्थानों में ये सात गुणकार हैं ।। २६३ ।। 1 विशेषार्थ : - इस मन्दराकृतिक्षेत्रका भूमि विस्तार ५ राजू मुख विस्तार १ राजू और ऊँचाई ७ राजू है । भूमिमेंसे मुख घटा देनेपर ( ५- १ ) = ४ राजू हानि ७ राजू ऊँचाई पर होती है अर्थात् प्रत्येक एक-एक राजूकी ऊँचाईपर राजूकी हानि प्राप्त होती है । इस हानि-चयको अपनीअपनी ऊँचाईसे गुणित करनेपर हानिका प्रमाण प्राप्त हो जाता है । उस हानिको पूर्व-पूर्व विस्तारमेंसे घटा देनेपर ऊपर-ऊपरका विस्तार प्राप्त होता जाता है । यथा : तलभाग ५ राजू अर्थात् ६१५ राजू, राजूकी ऊँचाईपर राजू, राजूकी ऊँचाईपर राजू, राजू, राजूकी ऊँचाईपर राजू और १३ राजूकी ऊँचाईपर राजू विस्तार है । [ गाथा: २६३-२६६ = २०२ = ६५ ३४३ ६ ३४३ ६ उड्डुढं रज्जु-घणं सत्तसु ठासु ठविय हेट्ठादो । विदफल - जाणण दुजुदारिंग दुसर्याारिंग सत्तत्तालजुदारिण पण वदियधिय- चउदस-सयाणि साव इय हवंति गुरपगारा । हारा णव णव एक्कं बाहत्तरि इगि बिहत्तरी चउरो ॥ २६६ ॥ १. ज क ल ब पंचत्तं एक्कसयं । = २१ = ३४३१ | ३४३ = १४१५ = C ३४३ ७२ ३४३४ राजू, राजूकी ऊँचाईपर राजूकी ऊँचाईपर वोच्छं गुणगार-हाराणि ॥ २६४ ॥ पंचाणउदी य एक्कश्रीसं च । बादल - सयाणि एक्करसं ।।२६५।। ४२४७ | = ११ ७२ ३४३ १ | Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २६६ ] पढमो महाहियारो [ १०६ अर्थ :-मात स्थानोंमें नीचेसे ऊपर-ऊपर घनराजू को रखकर घनफल जाननेके लिए गुणकार और भागहार कहता हूं ।।२६४।। अर्थ :-दन सात स्थानों में क्रमशः दोसो दो, पंचानबे, इक्कीस, बयालीसमौ संतालीस, ग्यारह, चौदहसौ पंचानवे और नौ, ये मात गुणकार हैं तथा भागहार यहाँ नौ, नौ, एक, वहतर, एक वहत्तर पीर चार हैं ।।२६५-२६६।। विशेषार्थ : -"मुखभूमिजोगदले-पद-हदे" सूत्रानुमार प्रत्येक खण्डकी भूमि और मुखको जोड़कर, प्राधा करके उसमें अपनी-अपनी ऊँचाई और ७ राजू बेधसे गुणिन करनेपर प्रत्येक खण्डका घनफल प्राप्त हो जाता है । यथा : खण्ड प्रथम खण्ड द्वितीय खण्ड तृतीय खण्ड चतुर्थ खण्ड पंचम खण्ड + भूमि - | मुख= | योग x अर्धकिया x ॐ. x | मोटाई=| घनफल १ १२ घनराजू घनफल ए घनराजू घनफल २. धनराजू घनफल ४३६ घनराजू धनफल 1+ | घनराज घनफल + 18 धनराज घनफल १ धनराजू धनफल ANK AAMA न ANUSMANAata + at xxx x + षष्ठ खण्ड सप्तम खण्ड (चलिका) = ७२ सर्वयोग-२१ + १५+२+३ +++४३५+७= १६१६ + ७६० + १५१२ + ४२४७ + ७९२ + १४६.५ + १६२ _ १०५८४ .. घनराजू मन्दर-ऊर्वलोकका घनफल है । ७. दुष्य ऊर्ध्वलोकका घनफल ५ राजू भूमि, १ राजू मुख और ७ राजू ऊँचाई प्रमाण वाले ऊर्ध्वलोकमें दूष्यकी रचनाकर घनफल प्राप्त करना है, जिसकी आकृति इसप्रकार है। यथा : Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० ] तिलोयपण्पत्ती [ गाथा : २६७-२६८ दूष्य क्षेत्रका धनफल एवं गिरि-कटकक्षेत्र कहने की प्रतिज्ञा घोदस-भजिदो तिउणो विवफल बाहिरोभय-भुजाणं । लोप्रो दुगुणो चोद्दस-हिदो य अन्तरम्भि दूसस्स ॥२६॥ तस्स य जव-खेत्ताणं लोगो चोद्दस-हिवो-दु-विदफलं । एत्तो 'गिरिगड-खंडं वोच्छामो प्राणुपुवीए ॥२६॥ अर्थ :-दूष्यक्षेत्रको बाहरी उभय भुजाओंका घनफल चौदहसे भाजित और तीनसे गुणित लोकप्रमाण ; तथा अभ्यन्तर दोनों भुजाओंका घनफल चौदहसे भाजित और दोसे गुणित लोकप्रमाण है ।।२६७॥ ..- . --- -- - १. द. ब. ज.क. 8. गिरिविडखे। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २६६ ] पदमो महाहियारो [ १११ अर्थ :- इस दूष्यक्षेत्रके यव-क्षेत्रोंका घनफल चौदह से भाजित लोकप्रमाण है । अब यहाँ आगे अनुक्रमसे गिरटक खण्डका वर्णन करते हैं ||२६८ || विशेषार्थ :- इस दृष्यक्षेत्रकी बाहरी उभय भुजाओं अर्थात् क्षेत्र संख्या १ और २ का घनफल :- [ ( भूमि १ राजू + मुख ३ रा० = ३)×××¥×7 ]= १५७ घनराजू है । अभ्यन्तर उभय भुजाओं अर्थात् क्षेत्र संख्या ३ और ४ का घनफल [ ऊँचाई में भूमि ( *+मुख+ ) x ३ × ××३] = ४९ घनराजू है । डेढ़ यवों श्रर्थात् क्षेत्र संख्या ५ और ६ का धनफल [ ( भूमि १ रा० + मुख० ) x x x x ३] = धनराजू है । इसप्रकार सम्पूर्ण ३० + + + ____१४७+६८+४९_२६४ X - १४७ घनराजू दुष्यऊर्ध्वलोकका घनफल है | २ ८. गिरि-कटक ऊर्ध्वलोकका घनफल : भूमि ५ राजू, मुग़ १ राजू और रा पईदा गिरिकटककी रचना करके घनफल निकाला गया है । इसकी प्राकृति इसप्रकार है : : Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ तिलोयपण्णत्ती गिरि-कटक ऊर्ध्वलोकका घनफल छप्पण्ण-हिदो लोश्रो एक्कस्सि 'गिरिगडम्मि विदफलं । तं चउवसप्पहदं सत्त-हिदो ति-गुरिपवो लोभो ॥ २६६ ॥ ३ [ गाथा: २६६-२७० अर्थ :- एक गिरि-कटकका घनफल छप्पनसे भाजित लोकप्रमारण है । इसको चौबीस से गुणा करनेपर सातसे भाजित और तीन से गुरिणत लोकप्रमारग सम्पूर्ण गिरि-कटक क्षेत्रका घनफल आता है || २६६|| ३४ विशेषार्थ :- उपर्युक्त प्रकृति में १४ गिरि और १० कटक बने हैं, जिसमें से प्रत्येक गिरि एवं कटककी भूमि १ राजू, मुख, उत्सेध राजू और वेध ७ राजू है, यतः [ ( १+०) - 4 | × धनराजू वनफल एकं गिरि या एक कटककर है। लोकको ५६ से भाजित करनेपर भी ( ) हो प्राप्त होता है, इसलिए गाथामें एक गिरि या कटकका घनफल छप्पनसे भाजित लोकप्रमाण कहा है । क्योंकि एक गिरिका घनफल धनराजू है अतः १४ गिरिका (x)= ३४३ अर्थात् =५ घनराजू घनफल हुआ । इसीप्रकार जब एक कटकका घनफल धनराजू है अतः १० कटकोंका (x)३४५ अर्थात् ६१४ घनराजू घनफल हुआ। इन दोनोंका योगकर देनेपर ( ८५१ + ६११ ) = १४७ धनराजू घनफल सम्पूर्ण गिरिकंटक ऊर्ध्वलोकका प्राप्त होता है । लोक (३४३) को ७ से भाजितकर तीन से गुणा करनेपर भी ( २४३ ÷ ७ = ४६ ) x ३ = १४७ घनराजू ही आते हैं. इसीलिए गाथामें सात से भाजित और तीन से गुणित लोकप्रमाण सम्पूर्ण गिरिकटंक क्षेत्रका घनफल कहा गया है । वातवलय के प्रकार कहने की प्रतिज्ञा - विहणं साहिय सामगं हेट्ठ उड्ढ होदि जयं । एहि साहेमि पुढं संठाणं वादवलयाणं ॥ २७० ॥ १. ज. क. ठ. गिरिगदम्मि । अर्थ : – सामान्य, अधः और ऊर्ध्वके भेदसे जो तीनप्रकारका जग अर्थात् लोक कहा गया है, उसे आठप्रकारसे कहकर अब वातवलयोंके पृथक्-पृथक् ग्राकारका वर्णन करता हूं ॥ २७० ॥ | Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २७१-२७५ ] पढमो महाहियारो __ लोकको परिवेष्टित करनेवाली बायुका स्वरूप गोमुत्त-मुग्ग-वण्णा 'घणोदधी तह घरणाणिलो वाऊ । तणु-वादी बहु-वण्णो रक्खस्स तयं व वलय-तियं ॥२७१।। पढमो लोयाधारो घणोवही इह घणाणिलो तत्तो।। तप्परदो तणुवादो अंतम्मि णहं णिग्राधारं ॥२७२।। अर्थ :- गोमूत्रके सदृश वर्णवाला घनोदधि, मूगके सदृश वर्णबाला घनवात तथा अनेक वर्णवाला तनुवात इसप्रकारके ये तीनों वातवलय वृक्षकी त्वचाके सदृश ( लोकको घेरे हुए ) हैं । इनमें से प्रथम घनोदधिवातवलय लोकका आधारभूत है । उसके पश्चात् धनवातवलय, उसके पश्चात् तनुवातवलय और फिर अन्तमें निजाधार अाकाश है ॥२७१-२७२।। वातवलयोंके बाल्य (मोटाई) का प्रमाण जोयण-चीस-सहस्सा बहलं तम्मारुवाण पत्तक्कं । अट्ठ-खिवीणं हेतु लोप-तले उवरि जाव इगि-रज्जू ॥२७३॥ २०००० । २०००० १ २००००। अर्थ :- पाठ पृथ्वियोंके नीचे, लोकके तल-भागमें एवं एक राजूकी ऊँचाई तक उन वायुमण्डलों से प्रत्येकको मोटाई बीस हजार योजन प्रमाण है ।।२७३।।। विशेषार्थ :- पाठों भूमियोंके नीचे, लोकाकाशके अधोभागमें एवं दोनों पार्श्वभागोंमें नीचेसे एक राजू ऊँचाई पर्यन्त तीनों वातवलय बीस-बीस हजार योजन मोटे हैं । सग-परण-चउ-जोयरणयं 'ससम-णारयम्मि प्रहवि-पराधोए । पंच-चउ-तिय-पमाणं तिरीय-खेत्तस्य पणिधीए ॥२७४।। ।७।५ । ४ 1 ५ । ४ । ३ । सग-पंच-चउ-समारणा परिणधीए होंति बम्ह-कप्पस्स । परण-चउ-तिय-जोयणया उरिम-लोयस्स अंतम्मि ॥२७॥ ।७।५।४।५।४ । ३ । २. द. ज. सत्तमाय मि, व, सत्तमसारयम्मि । ३. द. पणदीए, १. द. जे. ८. घणदधि । ब, परणधीए। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोय पण्णत्ती [ गाथा २७६ अर्थ :- सातवें नरक में पृथिवीके पार्श्वभाग में क्रमशः इन तीनों वातवलयोंकी मोटाई सात, पांच और चार योजन तथा इसके ऊपर तिर्यग्लोक ( मध्यलोक ) के पार्श्वभाग में पांच, चार और तीन योजन प्रमाण है ॥ २७४ ॥ ११४ ] अर्थ :- इसके आगे तीनों वायुश्रोंकी मोटाई ब्रह्मस्वर्गके पार्श्वभाग में क्रमश: सात, पाँच और चार योजन प्रमाण तथा ऊर्ध्वलोकके अन्त ( पार्श्वभाग ) में पांच, चार और तीन योजन प्रमाण है || २७५ ।। विशेषायें :- दोनों पार्श्वभागों में एक राजुके ऊपर सप्तमपृथिवीके निकट धनोदधिवातवलय सप्त योजन, घनवातवलय पांच योजन और तनुवातवलय चार योजन मोटाईवाले हैं । इस सप्तम पृथिवीके कम हुए सिमीपदी रावलय क्रमशः पाँच, चार और तीन योजन बाहुल्य वाले तथा यहाँ से ब्रह्मलोक पर्यन्त क्रमशः बढ़ते हुए सात, पाँच और चार योजन बाल्य वाले हो जाते हैं तथा ब्रह्मलोकके क्रमानुसार होन होते हुए तीनों बातवलय ऊर्ध्वलोकके निकट तिर्यग्लोक सदृश पाँच, चार और तीन योजन बाहृल्य वाले हो जाते हैं । कोस- गमक्क - कोसं किंचूरोषकं च लोय- सिहरस्मि । ऊण-पमारणं दंडा चउस्सया पंचवीस-जुदा ॥२७६॥ । २ को० | १ को० । १५७५ दंड । अर्थ :- लोकके शिखरपर उक्त तीनों वातवलयोंका बाहुल्य क्रमश: दो कोस, एक कोस और कुछ कम एक कोस है । यहाँ तनुत्रातवलयकी मोटाई जो एक कोससे कुछ कम बतलाई है, उस कमीका प्रमाण चारसौ पच्चीस धनुष है | १२७६ ।। विशेषार्थ :- लोकके अग्रभागपर घनोदधिवातवलयकी मोटाई २ कोस, घनवातवलयकी एक कोस और तनुवात वलयको ४२५ धनुष कम एक कोस अर्थात् १५७५ धनुष प्रमाण है । लोकके सम्पूर्ण वातवलयोंको प्रदर्शित करनेवाला चित्र | चित्र अगले पृष्ठ पर देखिये ] Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक के सम्पूर्ण वातवलयों को प्रदर्शित करने वाला चित्र: --- + . - २३ सपू नुन कम प Uरान -शभू-- नाही मी पाई . . . . सनबाय-180....माभन भातालय - I..... वानवलम वानरसम - | 800.. -- अप बानेवालय I.फजन 卐oo.० फे-नासरला दानवलप फ्र ० .. - मोचन ---- 100वन ... न . .. सोकमती वारसम Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्यात्ती [ गाथा : २७७-२७६ एक राजू पर होने वाली हानि-वृद्धिका प्रमाण तिरियक्खेत्तप्पणिधि गवस्स पवणत्तयस्स बहलत्तं । मेलिय 'सत्तम-पुढवी-पणिधीगय-मरुद-बहलम्मि ॥२७७।। तं सोधिदूण तत्तो भजिदव्यं छप्पमाण-रज्जूहि । लद्ध पडिप्पदेसं जायंत हाणि-वड्ढीओ ॥२७८।। । १६ । १२ ।। प्रर्थ : –तिर्यक्ोत्र ( मध्यलोक ) के पार्श्वभागमें स्थित तीनों वायुनोंके बाहल्यको मिलाकर जो योगफल प्राप्त हो, उसको सातवीं पृथिवीके पार्श्वभागमें स्थित बायुनोंके बाहल्यमेंसे घटाकर शेपमें छह प्रमाण राजुनोंका भाग देनेपर जो लब्ध पावे उतनी सातवीं पृथिवीसे लेकर मध्यलोक पर्यन्त प्रत्येक प्रदेश क्रमशः एक राजूपर बायुकी हानि और वृद्धि होती है ॥२७७-२७८।। विशेषार्थ :-सप्तम पृथिवीके निकट तीनों पवनोंका बाहल्य (५+५+ ४ )=१६ योजन है, यह भूमि है। तथा तिर्यग्लोकके निकट (५+४+३) १२ योजन है, यह मुख है । भूमिमेंसे मुख घटानेपर ( १६ – १२)=४ योजन अवशेष रहे । सातवीं पृथिवीसे तिर्यग्लोक ६ राजू ऊँचा है, अतः अवशेष रहे ४ योजनोंमें ६ का भाग देनेपर ३ योजन प्रतिप्रदेश क्रमश: एक राजूपर होने वाली हानिका प्रमाण प्राप्त हुआ । पार्वभागोंमें वातवलयोंका बाहल्य अट्ठ-छ-चउ-दुगदेयं तालं तालट्ठ-तीस-छत्तीसं । तिय-भजिदा हेट्ठादो मर-अहलं सयल-पासेसु ॥२७६॥ । । । । । । अर्थ :- अड़तालीस, छयालीस, चवालीस, बयालीस, चालीस, अड़तीस और छत्तीसमें तोनका भाग देनेपर जो लब्ध प्राबे, उतना क्रमशः नीचेसे लेकर सब ( सात पुथ्वियोंके ) पार्श्वभागोंमें बातवलयोंका बाहल्य है ।।२७६।। १. द.ब. क. ज. ठ ममपोदवी । २. द. १२।४।१०ज., १२१४१७ । क. १२१४१६। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २८० ] पढमो महाहियारो विशेषार्थ : सातवीं पृथिवीके समीप तीनों-पवनोंका बाहल्य ४ अर्थात् १६ योजन है । छठवीं पृथिवीके समीप तीनों-पवनोंका बाहल्य " अर्थात् १५३ यो० है । पांचवीं , , चौथी , , , १४ ,, ,, तीसरी .. .. .. ॥ १३ , , दूसरी . , , , , १२ , ,, पहली , , , , , १२ ॥ .. बातमण्डलकी मोटाई प्राप्त करने का विधान उड्ढ-जगे खलु वड्ढी इगि-सेढी-भजिव-अट्ठ-जोयणया' । एवं इच्छप्पहदं सोहिय मेलिज्ज भूमि-मुहे ॥२०॥ अर्थ :-ऊर्बलोकमें निश्चयसे एक जगच्छेणीसे भाजित आठ योजन प्रमाण वृद्धि है। इस वृद्धि प्रमाणको इच्छा राशिसे गुरिणत करनेपर जो राशि उत्पन्न हो, उसे भूमिमेंसे कम कर देना चाहिए और मुख में मिला देना चाहिए। ( ऐसा करनेसे ऊर्ध्वलोकमें अभीष्ट स्थानके वायुमण्डलोंकी मोटाईका प्रमाण निकल पाता है ) ॥२८॥ विशेषार्थ :-ऊर्ध्वलोकमें वृद्धिका प्रमाण योजन है। इसे इच्छा अर्थात् अपनी अपनी ऊँचाईसे गुरिणतकर, लब्ध राशिको भूमि मेंसे घटाने और मुखमें जोड़ देनेसे इच्छित स्थानके वायुमण्डलकी मोटाईका प्रमाण निकल आता है । यथा--जब ३३ राजूपर ४ राजूकी वृद्धि है, तब १ राजपर राजूकी वृद्धि प्राप्त हुई । यहाँ ब्रह्मलोकके समीप बायु १६ योजन मोटी है । सानत्कुमारमाहेन्द्रके समीप वायुकी मोटाई प्राप्त करना है । यहाँ १६ योजन भूमि है । यह युगल ब्रह्मलोकसे । राजू नीचे है, यहाँ ३ राजू इच्छा राशि है, अतः वृद्धिके प्रमाण राजूमें इच्छा राशि ३ राजुका मुगा कर, गुणनफल (x ) को १६ राजू भूमिमैसे घटानेपर ( १६ -1)-१५१ राजू मोटाई प्राप्त होती है । मुखकी अपेक्षा दूसरे युगलकी ऊँचाई ३ राजू है, अत: (x)-४ तथा १२+४=१५३ राजू प्राप्त हुए । - . . ... -.... . . ... --.--....१. द. ज. छ. जोयगणसया। - - - Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - तिलोयपण्णात्ती [ गाथा : २८१-२८३ मेरुतलसे ऊपर वातवलयोंकी मोटाईका प्रमाण . . मेरु-सलादो उरि कप्पाणं सिद्ध-खेत्त-पणिधीए । सउसीदी छण्णउदी अडजुव-सय बारसुत्तरं च सयं ॥२१॥ एत्तो घउ-चउ-होणं सत्तसु ठाणेसु ठविय पत्तेक्कं । सत्त-विहत्त होदि हु मारुद-बलयाण बहलत्त ।।२८२॥ |53|8| १०८ | ११२ | १०८ | १०४ ११:०६६६२ / ८८|| अर्थ : मेरुतलसे ऊपर सर्वकल्प तथा सिद्धक्षेत्रके पार्श्वभागमें चौरासी, छयानवे, एकसौ आठ, एकसौ बारह और फिर इसके प्रागे सात स्थानों में उक्त एकसौ बारहमेंसे उत्तरोत्तर चार-चार कम संख्याको रखकर प्रत्येकमें सातका भाग देनेपर जो लब्ध प्राबे उतना वातवलबोंकी मोटाईका प्रमाण है ॥२८१-२८२।। विशेषार्थ :-जब ३३ राजूकी ऊँचाईपर ४ राजूकी वृद्धि है तब १३ राजू और राजूकी ऊँचाईपर कितनी वृद्धि होगी ? इसप्रकार दो त्रैराशिक करनेपर वृद्धिका प्रमाण क्रमशः पुरे राजू और राजू प्राप्त होता है। मेरुतलसे ऊपर सौधर्म युगलके अधोभागमें वायुका बाहुल्य योजन, सौधर्मशानके उपरिम भागमें + = योजन और सानत्कुमार-माहेन्द्र के निकट + 18 योजन है । अन्न प्रत्येक युगलकी ऊँचाई आधा-आधा राजू है, जिसकी वृद्धि एवं हानिका प्रमाण राजू है, अतः अ. ब्रह्मो० के निकट 'ge+ = १ योजन, लो० का० के निकट १३२ .-=gयोजन, शु० महाशुक्रके समीप - - = यो०, सतार सह० के समीप x =18: योजन, प्रा० प्रा० के समीप : - योजन प्रा० अ० के समीप :- = ९२ यो, ग्रैवेयकादिके समीप २- योजन और सिद्धक्षेत्रके समीप -- अर्थात् १२ योजनकी मोटाई है। पार्श्वभागोंमें तथा लोकशिखरपर पयनोंकी मोटाई तीसं इगिदाल-वलं कोसा तिय-भाजिवा य उणवण्णा । सत्तम-खिदि-पणिधोए बम्हजुगे बाउ-बहलत्त ॥२३॥ घनो घ० | तनु । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो महाहियारो दोछार भागभहिश्रो कोसो कमेण वाउ-घणं । लोय - उरिमि एवं लोय-विभायम्मि पण्णसं ||२४|| गाथा : २८४-२८५ ] | १३ | १३ | १२ई । पाठान्तरं अर्थ :- सातवीं पृथिवी और ब्रह्मयुगल के पार्श्वभाग में तीनों वायुओंॉकी मोटाई क्रमशः तीस, इकतालीसके आधे और तोनसे भाजित उनचास कोस है || २८३ ॥ अर्थ :- लोकके ऊपर अर्थात् लोकशिखरपर तीनों बातवलयोंकी मोटाई क्रमश: दूसरे भागसे अधिक एक कोस, छठे भागसे अधिक एक कोस और बारहवें भागले अधिक एक कोरा है, ऐसा "लोकविभाग में" कहा गया है || २६४ || पाठान्तर [ ११६ विशेषार्थ :--- लोक विभागानुसार सप्तम पृथिवी और ब्रह्मयुगल के समीप घनोदधिवात ३० कोस, घनवात को और तनुवात कोस है तथा लोकशिखरपर चनोदधिवातकी मोटाई १३ कोस, धनवाकी ११ कोस पर तनुवालकी मोटाई १६३ कोस है । वायुरुद्धक्षेत्र ग्रादिके घनफलोंके निरूपणकी प्रतिज्ञा विदफलं तह य अ -पुढवीए । 'वाद-रुद्ध सुद्धायास-खिदीणं अर्थ :- यहाँ वायुसे रोके गये लवमात्र (संक्षेप में ) कहते हैं ।। २६५ ।। लव-मेत यत्तस्साम ।। २८५ ।। क्षेत्र, माठ पृथिवियाँ और शुद्ध प्राकाश-प्रदेशके घनफलको वातावरुद्ध क्षेत्र निकालने का विधान एवं घनफल संपहि लोग पेरंत-दि-वादवलय' -रुद्ध खेत्ताणं प्राणयण" विधाणं उच्चदे लोगस्स तले 'तिण्णि-वादाणं बहलं पत्ते ककं वीस-सहत्सा य जोयणमेतं । तं सथ्यमेग' कवे सद्वि- जोयण- सहस्स- बाहल्लं जगपवरं होदि । १. द. व प्रत्योः पाठान्तर' इति पद २००-२६१ गाथयोर्मध्य उपलभ्यते । २. द. वादरुद्ध, ब, २. द. ब. खिदिरणं । ४. द. ब. क. ज. उ. यारण्यण । ६. द. तिपण । ७. द. क. ज. . तं सम्मेगॣ, वादवरुद्ध । वादंवलय रुंधविसारणं । ५. द. ब. क. ज. ठ. कदेगसट्टि, व. तेसमेगट्ठ कदे वासट्ठि Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ] तिलोयपत्ती [ गाथा : २८५ णवरि दोसु वि अंतेस सद्वि-जोयण-सहस्स-उस्सेह-परिहाणि'-खेतण ऊणं एदमजोएदूणं सद्वि-सहस्स बाहल्लं जगपदरमिदि संकप्पिय तच्छेदूण पुढं ठवेदवं' = अर्थ :-अब लोक-पर्यन्तमें स्थित बातवलयोंसे रोके गये क्षेत्रोंको निकालनेका विधान कहते हैं :-- लोकके नीचे तीनों पवनों में प्रत्येकका बाहल्य ( मोटाई ) बीस हजार योजन प्रमाण है। इन तीनों पवनोंके बाहल्यको इकट्ठा करने पर साठ हजार योजन बाल्य-प्रमाण जगत्प्रतर होता है। यहाँ मात्र इतनी विशेषता है कि लोकके दोनों ही अन्तों (पूर्व-पश्चिमके अन्तिम भागों) में साठ हजार योजनकी ऊंचाई पर्यन्त क्षेत्र यद्यपि हानि-रूप है, फिर भी उसे न छोड़कर 'साठ हजार योजन बाल्य वाला जगत्प्रतर है' इसप्रकार संकल्पपूर्वक उसको छेदकर पृथक् स्थापित करना चाहिए । यो० ६००००४४६ । विशेषार्थ : - लोकके नीचे तीनों-पवनोंका बाल्य (२० + २०+२०)=६० हजार योजन है । इनकी लम्बाई, चौड़ाई जगच्छणी प्रमाण है, अतः जगच्छु णीमें जगच्छ्रेणीका परस्पर गुणा करनेसे (जगच्छणी x जगच्छणी) =जगत्प्रतरकी प्राप्ति होती है। ___ लोककी दक्षिणोत्तर चौड़ाई सर्वत्र जगच्छ्रेणी ( ७ राजू ) प्रमाण है, किन्तु पूर्व-पश्चिम चौड़ाई ७ राजूसे कुछ कम है, फिर भी उसे गौराकर लोकके नीचे तीनों-पवनोंसे अबरुद्ध क्षेत्रका घनफल --[७४७=४६ वर्ग राजू अर्थात् जगत्प्रतर ] x ६०००० योजन कहा गया है । यथा र ga परपज MEIN १. [परिहीण, २. द. ब क. ज. ठ. पुर्व ति दव्यं । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २८५ ] पढमो महाहियारो [ १२१ पुणो एग-रज्जुस्सेधेण सत्त-रज्मू-अायामेण सट्ठिजोयण सहस्स-बाहल्लेग बोसु पासेसुठिद-वाद-खेत्त बुद्धोए' पुध करिय जग-पदर-पमारणेण णिबद्ध बीससहस्साहियजोयण-लक्खस्स सत्त-भाग-बाहल्लं जग-पवरं होदि ।=१२०००० । अर्थ :-अनन्तर एक (3) राजू उत्सेध, सात राजू पायाम और साठ हजार योजन बाहल्य वाले वातबलयकी अपेक्षा दोनों पार्श्व-भागों में स्थित वातक्षेत्रको बुद्धिसे अलग करके जगत्प्रतर प्रमाणसे सम्बद्ध करनेपर सातसे भाजित एक लाख बीस हजार योजन जगत्प्रतर होता है । विशेषार्थ :- अधोलोकके एक राजू ऊपरके पार्श्वभागोंतक तीनों पवनोंकी ऊँचाई एक-राजू, आयाम ७ राजू और मोटाई ६० हजार योजन है। इनका परस्पर गुणा करनेसे (४६x६०००० योजन )= ४२x६० हजार योजन एक पार्श्वभागका धनफल प्राप्त होता है । दोनों पार्श्वभागोंका घनफल निकालने हेतु दोसे गुणित करनेपर ( १x६० हजार x ३)- ( अर्थात् जमरप्रतर ) x १२०:१० योजन मनमल पाप्त होता है । यथा -45200-ram पर - ७ - - - तं पुष्पिल्लक्खेत्तस्सुवरि ठिदे चालीस-जोयण-सहस्साहिय-पंचण्हं लक्खाणं सत्तभाग-बाहल्लं जग-पदरं होदि ।-५४०००० । १. द, क. ज, क. बुधि पुदक्करिय, ब, बुड्डि पुदक्करिस । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ] तिलोत्त [ गाथा : २८५ अर्थ :- इसको पूर्वोक्त क्षेत्रके ऊपर स्थापित करनेपर पांचलाख चालीस हजार योजनके सातवें भाग बाहुल्य प्रमाण जगत्प्रतर होता है । विशेषार्थ : -- लोकके नीचे वातवलयका घनफल ४६ वर्ग राजू ४ ६०००० योजन था श्रीर दोनों पार्श्व भागोंका ४६ वर्ग राजू x 2 योजन है । इन दोनोंका योग करने के लिए जगत्त्रत रके ६०००० १२०००० _४२०००० + १२००००_५४०००० स्थानीय ४९ को छोड़कर + प्राप्त हुआ । इसे जगत्प्रतरसे युक्त करनेपर ४१४५५०००० योगफल प्राप्त हुआ ! योजन ७ e पुरण अवरासु दोसु दिसासु एग-रज्जुस्सेधेण तले सप्त- रज्जू- श्रायामेण' मुहे सत्त भागाहिय-छ- रज्जु-रुदत्तेा सहि-जोयण सहस्य बाहल्लेण ठिद-वाद- खेत्ते जग पदरपमाणेण कवे वोस जोयरण - सहस्साहिय- पंच-पंचासज्जोयण-लक्खाणं तेदालीस - तिसव - भागबाहल्लं जग पदरं होदि । - ५५२०००० ३४३ अर्थ :- इसके नागे इतर दो दिशाओं ( दक्षिण और उत्तर ) की अपेक्षा एक राजू उत्सेधरूप, तलभागमें सात राजू श्रायामरूप, मुखमें सातवें भागसे अधिक छह राजू विस्ताररूप और साठ हजार योजन बाहुल्यरूप वायुमण्डल की अपेक्षा स्थित वातक्षेत्रके जगत्प्रतर प्रमाणसे करनेपर पचपन लाख बीस हजार योजनके तीनसी तैंतालीसवें भाग बाहुल्यप्रमाण जगत्प्रतर होता है । विशेषार्थ :- लोकके नीचेकी चौड़ाईका प्रमाण ७ राजू है, यह भूमि है, सातवीं पृथिवीके निकट लोककी चौड़ाईका प्रमाण ६७ राजू है, यह मुख है । लोकके नीचे सप्तम पृथिवी - पर्यन्त ऊँचाई ( १ राजू ) है, तथा यहाँ पर तीनों पवनोंकी मोटाई ६० हजार योजन है । इन सबका घनफल इस प्रकार है भूमि + मुख तथा घनफल वर्ग राजू X 10999 योजन - ४६ वर्ग राजू ४५५३०० योजन घनफल प्राप्त हुआ । यथा X | चित्र अगले पृष्ठ पर देखिये ] १. द. पालियामेण । ज. 5. श्रालियम । २. उ. ब. क. ज. उ. छिंदवादखेतरेण । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २८५ ] पढमो महाहियारो [ १२३ -- गवू . एदे' पुचिल्ल-पसस्तुरि पक्लित एमपीत-लाइ अतीवि-सहस्स-जोयणाहियतिण्हं कोडीरणं तेदालीस-तिसद-भाग-बाहल्लं जग-पदरं होदि । =३१६८०००० । मर्थ :-इस उपयुक्त घनफलके प्रमाणको पूर्वोक्त क्षेत्रके ऊपर रखनेपर तीन करोड़, उन्नीस लाख, अस्सी हजार योजनके तीनसौ तैतालीसवें-भाग बाहल्य प्रमाण जगत्प्रतर होता है। विशेषार्थ :-पूर्वोक्त योगफल ४१४५४१229 था। लोककी एक राजू ऊँचाईपर दोनों पार्श्वभागोंका धनफल १५३ : प्राप्त हुना । यहाँ दोनों जगह ४६ जगत्प्रतरके स्थानीय हैं, अत: योजन [ (५४००११ + ५१३१४ )=138300] ४४९ वर्ग राजू अर्थात् जगत्प्रतर x 180° घनफल प्राप्त हुआ 1 पाश्वभागाका पाश्र्वभागोंका धनफल पुणो सत्त-रज्जु-विक्खंभ-तेरह-रज्जु-प्रायाम-सोलह-बारह- [-सोलसबारह-] जोयरण-बाहल्लेण दोसु वि पासेसु ठिद-वाद-खत्त जग-पवर-पमारणेण कवे चउ-सट्टि-सदजोयणूण-अट्ठारह-सहस्स-जोयगाणं तेवालीस-तिसद-भाग-बाहल्लं जग-पदरमुप्पज्जदि । १७८३६ । ____ अर्य:-इसके अनन्तर सात राजू विष्कम्भ, तेरह राजू पायाम तथा सोलह, बारह ( सोलह एवं बारह ) योजन बाहल्यरूप अर्थात् सातवीं पृथिवीके पार्श्वभागमें सोलह, मध्यलोकके १. एदं पुचिल्लं । २. इ. सोलस । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ] तिलोमपाती [ गाथा : २८५. पार्श्वभागमें बारह ( ब्रह्मस्वर्ग के पार्श्वभागमें सोलह और सिद्धलोकके पार्श्वभागमें बारह ) योजन बाहल्यरूप वातवलयकी अपेक्षा दोनों ही पार्श्वभागोंमें स्थित वातक्षेत्रको जगत्पतर प्रमाणसे करनेपर एकसौ चौंसठ योजन कम अठारह हजार योजरके तीनसौ तैंतालीसवें-भाग बाहल्य प्रमाण जगत्प्रतर होता है। विशेषार्थ :-सप्तम पथिवीसे सिद्धलोव पर्यन्त ऊँचाई १३ राज , विष्कम्भ ७ राज़ वातवलयोंकी मोटाईका प्रोसत ( १६+ १२ =२८ : २= १४ ), १४ योजन तथा पार्वभाग दो हैं, अतः १३ ४७x१४४२=२५४८ प्राप्त हुए, इन्हें जगत्प्रतररूपसे करने के लिए २५४४ अर्थात् १७ घनफल प्राप्त हुआ । ग्रन्थकारने इसे ='ER रूपमें प्रस्तुत किया है। पुणो सस-भागायि-छ-रज्जु-मूल-विक्खंभेरण छ-रज्जूच्छेहेण एग-रज्जु-मुहेण सोलह बारह-जोयरण-बाहल्लेग दोसु वि पासेसु ठिब-वाद-खेत जगपवर-पमाणेण कवे बादालोस जोयण-सदस्स' 'तेदालीस-तिसद-भाग-बाहल्लं जगपदरं होदि = ४२००'। अर्थ :-पुन: सात वभागसे अधिक छह राजू मूलमें विस्ताररूप, छह राजू उत्सेधरूप, मुखमें एक राजू विस्ताररूप अोर सोलह-बारह योजन बाल्यरूप ( सातवीं पृथिवी और मध्यलोकके पार्श्वभागमें ) बातवलयकी अपेक्षा दोनों ही पार्श्वभागोंमें स्थित बातक्षेत्रको जगत्प्रतरप्रमाणसे करनेपर बयालीस सो योजनके तीनसो तैतालीसवें-भाग बाहल्यप्रमाण जगत्प्रतर होता है । . विशेषार्थ :-सप्तमपृथ्वीके निकट पवनोंकी चौड़ाई ६७ अर्थात् । राजू है, यह भूमि है । तिर्थग्लोकके निकट पवनोंकी चौड़ाई १ राजू अर्थात् राजू है, यह मुख है । सप्तमपृथिवीसे मध्यलोक पर्यन्त पवनोंकी ऊँचाई ६ राज , मोटाई (१६+ १४ =२८-२) = १४ राजू है तथा पार्श्वभाग दो हैं, अत: [ + = ]x.xxx =६०० प्राप्त हुए, इन्हें जगत्प्रतरस्वरूप बनाने हेतु ३४३ से गुरिणत किया और ३४३ से ही भाजित किया। यथा- "9813 अर्थात् = ४२११ घनफल प्राप्त हुआ । इसे ४६ वर्गराजू योजन रूप में प्राप्त किया जानेसे ग्रन्थकारने =११ रूपमें प्रस्तुत किया है। पुणो एग-पंच-एग-रज्जु-विक्खंभेण सत्त-रज्जूच्छेहेण बारह-सोलह-बारह-जोयणबाहल्लेण उरिम-दोसु वि पासेसु ठिद-वाद-खेत्तं “जगपदर-पमाणेण कवे प्रवासीविसमहिय-पंच-जोयण-सदाणं एगूणवण्णासभाग-बाहल्लं जगपदरं होदि ।=५८८ । २.६. जोयलक्खतेदालीमसदभागहिबाहल्लं । ३. ब. ४२००० । १.द. ब. सदा। ४, द. जगदपदर । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गांथा : २८५ ] पढमो महाहियारो मर्थ :-अनन्तर एक, पांच एवं एक राजू विष्कम्भरूप (क्रमसे मध्यलोक, ब्रह्मास्वर्ग और सिद्धक्षेत्रले पार्बभागमें !, गात गहू उरोध रूप सौर क्रमश: मध्यलोक, बह्मस्वर्ग एवं सिद्धलोकके पाश्र्वभागमें बारह, सोलह और बारह योजन वाहल्यरूप वातबलयकी अपेक्षा ऊपर दोनों ही पावभागोंमें स्थित वातक्षेत्रको जगत्प्रतरप्रमाणसे करनेपर पाँचसो अठासी योजनके एक कम पचासवें अर्थात् उनचासवें भाग बाहल्यप्रमाण जगत्प्रतर होता है । विशेषार्थ :-ऊर्ध्वलोक ब्रह्मस्वर्गके समीप पांच राजू चौड़ा है यही भूमि है। तिर्थग्लोक एवं सिद्धलोकके समीप १ योजन चौड़ा है यही मुख है। उत्सेध ७ राजू, तीनों पवनोंका औसत १४ योजन और पार्श्वभाग दो हैं, अतः 'भूमि ५+ १ मुख -- ६:२= ३४७ x १४४२-५८८ इसे जगत्प्रतर प्रमाण करनेपर ४१ घनफल प्राप्त होता है । यह ४६ वर्ग राजू x योजन रूप में होनेसे ग्रन्थकारने =५/ संदृष्टि रूपमें लिखा है। लोकके शिखरपर वायुरुद्ध क्षेत्रका धनफल उरि रज्जु-विक्खंभेण सत्त-रज्जु-आयामेण किंचूण-जोयण-बाहल्लेण ठिद-वादखेत्तं जगपदर-पमाणेण कवे ति-उत्तर-तिसदाणं बे-सहस्स विसव चालीस-भाग-बाहल्लं जगपदरं होदि ।-३०३ । २२४० अर्थ : -ऊपर एक राजू विस्ताररूप, सात राजू आयामरूप और कुछ कम एक योजन बाहल्यरूप वातवलयकी अपेक्षा स्थित वातक्षेत्रको जगत्प्रतर प्रमाणसे करनेपर तीनसी तीन योजनके दो हजार, दोसौ चालीसवें भाग चाहल्यप्रमाण जगत्प्रतर होता है । विशेषार्थ :-लोकके अग्रभागपर पूर्व-पश्चिमं अपेक्षा वातवलयका व्यास १ राजू , ऊँचाई ३१३ योजन और दक्षिणोत्तर चौड़ाई ७ राजू है । इनका परस्पर गुणाकर जगत्प्रतरस्वरूप करनेसे xx१३४१३४४ धनफल प्राप्त होता है। यह ४६ वर्गराजू x योजन होनेसे ग्रन्थकारने संदृष्टि रूपमें = ९. लिखा है। यहाँ ३६ कैसे प्राप्त होते हैं, इसका बीज कहते हैं :-- ८००० धनुषका एक योजन और २००० धनुषका एक कोस होता है लोकके अग्रभागपर घनोदधियातवलय दो कोस मोटा है, जिसके ४००० धनुष हुए। धनवात एक कोस मोटा है जिसके २००० धनुष हुए और तनुवात १५७५ धनुष मोटा है । इन तीनोंका योग (४०००+२०००+१५७५) =७५७५ धनुष होता है । जब ८००० धनुषका एक योजन होता है तब ७५७५ धनुषके कितने योजन Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ ] होंगे? इसप्रकार राशिक करने पर गई है। ( त्रिलोकसार गाथा १३८ ) । तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २८५ .x:५७५-११ योजन मोटाई लोकके अग्रभागमें कही चन ." + १ राजू दातालयबादाम -- 02AY चनफल --- - पवनोंसे रुद्ध समस्त क्षेत्रके घनफलोंका योग एवं 'सव्वमेगस्थ मेलाविवे चउवीस-कोडि-समहिय-सहस्स-कोडीनो एगूणवीसलक्ख-तेसोदि-सहस्स-चउसव-सत्तासीदि-जोयणाणं णव-सहस्स-सत्त-सय-सट्टि-रूवाहियलक्खाए अहिदेग-भाग-बाहल्लं जगपदरं होदि । = १०२४१९८३४८७ । १०६७६० प्रय :-इन सबको इकट्ठा करके मिला देनेपर एक हजार चौबीस करोड़, उन्नीस लाख, तयासीहजार, चारसौ सत्तासी योजनोंमें एक लाख नौहजार सातसौ साठका भाग देनेपर लब्ध एक भाग बाल्यप्रमाण जगत्प्रतर होता है । १.ब. सध्यमगं पथमेलाबिदे, द. ज.ठ, सबमेगं पमेलाविदे। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २८५ ] पढमो महाहियारो [ १२७ विशेषाय :-१. लोकके नीचे तीनों-पवनोंसे मवरुद्ध क्षेत्रके घनफल २. लोकके एक राजू ऊपर पूर्व-पश्चिम में अवरुद्ध क्षेत्र के एनफल, ३. लोकके एक राजू ऊपर दक्षिणोत्तरमें अवरुद्ध क्षेत्रके घनफल ४. सप्तमपृथिबीसे सिद्धलोक पर्यन्त अवरुद्ध क्षेत्रके घनफल, ५. सप्तमपृथिवीसे मध्यलोक पर्यन्त दक्षिणोत्तरमें अवरुद्ध क्षेत्रके घनफल, ६. ऊर्ध्वलोकके अबरुद्ध क्षेत्रके घनफलको और ७. लोक के अग्रभागपर वातवलयोंसे अवरुद्ध क्षेत्रके घनफलको एकत्र करनेपर योग इसप्रकार होगा :जगत्प्रतर अथवा ४६४ 31989900+ जगत्प्रतर या ४६x.se+जगत्प्रतर या ४६x +जगत्प्रतर या ४६x +जगत्प्रतर या ४६४१। इनको जोड़ने की प्रक्रिया जगत्प्रत र x 3198690 +8 + ++ R =जगत्प्रतर ४१०२३३६०००००+५७०७५२०+१३४४००० + १३१७१२० + १४८४७ १०६७६० = जगत्प्रतरx." अथवा = १०३४ . पवनोंसे रुद्ध समस्त क्षेत्रका धनफल प्राप्त हुना। पृथिवियों के नीचे पवनसे रुद्ध क्षेत्रोंका घनफल पुणो अट्टण्हं पुढवीणं हेट्ठिम-भागावरुद्ध-बाद-खेत-घनफलं वत्ताइस्सामो तत्थ पढम-पुढवीए हेछिम-भागावरद्ध-बाय-खेत्त-घणफलं एक-रज्जु-विक्खंभसत्त-रज्जु-दोहा सटि-जोयण-सहस्स-बाहरूलं एसा अप्पणो बाहल्लस्स सत्तम-भाग-बाहरुलं जगपवरं होदि । ६०००० । प्रर्थ :--इसके बाद पाठों पृथिबियोंके अधस्तनभागमें वायुसे अवरुद्ध क्षेत्रका घनफल कहले हैं--- इन बाठों पृथिवियों से प्रथम पृथिवीके प्रधस्तनभागमें अवरुन वायुकें क्षेत्रका धनफल कहते हैं-एक राजू विष्कम्भ, सात राजू लम्बाई और साठ हजार योजन बाहल्लवाला प्रथम पृथिवीका Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ] तिलोयपणणती [गाथा : २८५ वातरुद्ध क्षेत्र होता है। इसका घनफल अपने बाल अर्थात् साठ हजार योजनके सातवें-भाग बाल्य प्रमाण जगत्प्रतर होता है । विशेषार्य :- प्रथम पृथिवी अर्थात् मध्यलोकके समीप पवनोंकी चौड़ाई एक राजू, लम्बाई ७ राजू और मोटाई ६०००० योजन है। इसके घनफल को जगत्पतरस्वरूप करनेपर इसप्रकार होता है ==x• 2820x४१ = xx poox घनफल प्राप्त हुआ। विदिय-पुढवीए हेछिम-भागावरुद्ध-वाव-खेत-घणफलं सत्त-भागण-जे रम्जुविचारमा सत्ता प्रहाला सहित जोगन हास-बाहल्ला असीदि-सहस्साहिय-सत्तण्हं लक्खाणं एगणपण्णास-भाग-बाहाल जगपदरं होदि 1=७८०००० । अर्थ :-दूसरी पृथिवीके अधस्तन भागमें वातावरुद्ध क्षेत्रका घनफल कहते हैं : सातवेंभाग कम दो राजू विष्कम्भवाला, सात राजू पायत और ६० हजार योजन बाहल्लवाला दूसरी पृथिवीका बातरुद्ध क्षेत्र है । उसका घनफल सात लाख, अस्सी हजार, योजनके उनचासवेंभाग बाहल्यप्रमाण जगत्प्रतर होता है। . विशेषार्य :- अधोलोककी भूमि सात राजू और मुख एकराजू है। भूमिमें से मुख घटाने पर ( ७ – १) = ६ राजू अवशेष रहा । क्योंकि ७ राजू ऊँचाईपर ६ राजू घटते हैं, अतः एक राजूपर : राजू घटेगा, इसप्रकार प्रत्येक एक राजू ऊपर-ऊपर जाने पर घटेगा । प्रत्येक एक राजूपर राजू घटाते जानेसे नीचेसे क्रमश: ३.० , ३५, ३, और राजू व्यास प्राप्त होता है । इसीलिए गाथामें दूसरी पृथिवीका ट्यास : राजू कहा गया है । =xxop००X%2goox = xx१०००० घनफल दूसरी पृथिवीके वातरुद्ध क्षेत्रका प्राप्त हुआ। . तबिय-पढवीए हेठिम-भागावरुद्ध-वाद-खेस-घणफलं बे-सत्तम-भाग-हीण-तिषिणरज्जु-विक्खंभा सस-रज्जु-पायदा सहि-जोयण-सहस्स-बाहल्ला चालीस-सहस्साधियएक्कारस-लक्ख-जोयणाणं एगणपण्णास-भाग-बाहल्लं जगपदरं होदि । ११४०००० । अर्थ: तीसरी पृथिवीके अधस्तन-भागमें वातरुद्ध क्षेत्रका घनफल कहते हैं :-दो बटे सात भाग (3) कम तीन राजू विष्कम्भ युक्त, सात राजू लम्बा और साठ हजार योजन बाहल्यवाला तीसरी पृथिवीका वातस्त क्षेत्र है । इसका घनफल ग्यारह लाख चालीस हजार योजनके उनचासवें भाग बाहल्यप्रमाण जगत्प्रतर होता है। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २८५ 1 पहनो मवाहिगारो [ १२६ विशेषार्थ :-तीसरी पृथिबीके अधस्तन पवनोंका विष्कम्भ : राजू , लम्बाई ७ राजू और मोटाई ६०००० योजन है। अतः ३५.5x100% = ७X!!Y8e2x = ४०x१/2:00 घनफल प्राप्त हुआ। चउत्थ-पुढवीए हेट्टिम-भागावरुद्ध-बाद-खेत्त-घणफलं तिणि-सत्तम-भागूणचत्तारि-रज्जु-विक्खंभा सत्त-रज्जु-पायदा सद्धि-जोयण-सहस्स-बाहल्ला पण्णरस-लक्खजोयगाणं एगणपण्णास-भाग-बाहल्लं जगपदरं होदि ।= १५०००००। अर्थ :-चौथी पृथिवीके अधस्तन भागमें वातरुद्ध क्षेत्रके घनफलको कहते हैं : -- चौथो पृथिवीका वातरुद्ध क्षेत्र तीन बटे सात (3) भाग कम चार राजू विस्तार वाला, सात राजू लम्बा और साठ हजार योजन मोटा है। इसका धनफल पन्द्रह लाख योजनके उनचासवेंभाग बाहल्ल प्रमाण जगत्प्रतर होता है। विशेषार्थ :-चौथी पृथिबीके अधस्तन पवनोंका विष्कम्भ २१ राजू, लम्बाई ७ राजू और मोटाई ६०००० योजन है । अत: २५xx०६°°= x:५93929X७ = १५००%89xx. घनफल प्राप्त हुआ। पंचम पुढवीए हेदिम-भागावरुद्ध-वाद-खेत्त-घणफलं चत्तारि-सत्तम-भागूण'-पंचरज्जु-विक्खंभा सत्त-रज्जु-प्रायदा सद्वि-जोयण-सहस्स-बाहल्ला सट्ठि सहस्साहिय-अट्ठारसलक्खाणं एगूणपण्णास-भाग-बाहल्लं जगपवरं होवि । = १८६०००० । अर्थ :-पांचवीं पृथिवीके अधस्तनभागमें अवरुद्ध वातक्षेत्रका घनफल कहते हैं पाँचवीं पृथिवीके अधोभागमें वातावरुद्धक्षेत्र चार बटे सात (1) भाग कम पांच राजू विस्ताररूप, सात राजू लम्बा और साठ हजार योजन मोटा है । इसका घनफल अठारह लाख, साठ हजार योजनके उनचासवें-भाग बाहल्य प्रमाण जगत्प्रतर होता है । ___ विशेषार्थ :–पाँचवीं पृथिवीके अधस्तन पवनोंका विष्कम्भ - राजू, लम्बाई ७ राजू और मोटाई ६०००० योजन है । अत: xx.p° = xx?:23920x = ४५०४५ घनफल प्राप्त हुआ। १. द. भागुमाछरज्जु । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २८५ घट्ट - पुढबीए 'हेट्टिम - भागावरुद्ध-वाद-खेत्त- घरणफलं पंच सत्तम-भागूण-छ-रज्जुविभा सत्त-रज्जु -प्रायदा सहि-जोयण सहस्स - बाहल्ला वीस - सहस्सा हिय-बावीस- लक्खा• मेगूणपणास भाग- बाहल्लं जगपवरं होदि 1-२२२०००० । ૪૨ : छठी पृथिवीके श्रधस्तनभाग में वातावरुद्ध क्षेत्रके घनफलको कहते हैं- पॉच बटे सात ( 3 ) भाग कम वह राजू विस्तार वाला, सात राजू लम्बा और साठ हजार योजन बाहुल्यवाला छठी पृथिवीके नीचे वातरुद्ध क्षेत्र है; इसका घनफल बाईस लाख बीस हजार योजनके उनचासभाग बाहुल्य प्रमाण जगत्प्रतर होता है । विशेषार्थ :- छठी पृथिवीके अस्तन पवनोंका विष्कम्भ राजू, लम्बाई ७ राजू और मोटाई ६०००० योजन है । श्रतः २२००००xx= Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा गाथा : २८५ ] पढमो महाहियारो [ १३१ अर्थ :- आठवीं पृथिवीके प्रवस्तन भाग में वातावरुद्ध क्षेत्रके घनफल को कहते हैं- प्राठवीं पृथिवी के प्रस्तन भाग में वातावरुद्ध क्षेत्र ७ राजू लम्बा, एक राजू विस्तार युक्त और साठ हजार योजन बाहुल्य वाला है । इसका चनफल अपने बाल्यके सातवें भाग बाहुल्य प्रसारण जगत्प्रतर होता है । विशेषार्थ :- आठवीं पृथिवीके प्रध्वस्तन - पवनोंका विस्तार एक राजू, लम्बाई ७ राजू और मोटाई ६०००० योजन है । अतः १ x x 10000x1080 अर्थात् ४२०४९ घनफल X ६०००० प्राप्त हुआ । आठ पृथिवियों के सम्पूर्ण घनफलों का योग एवं 'सव्यमेगट्ठ मेलाविदे येत्तियं होदि । १०१२०००० । ४६ ॥ एवं वादावरुद्ध खेत- घरणफलं समत्तं || अर्थ :- इन सबको इकट्टा मिलानेपर कुल घनफल इसप्रकार होता है :४९×६००००० + ४९९०००००० + ४१३५०००० + ४१०००० + ४११६ oodd + ४१×२०४००००० : ४९२५०००० + ४९९४३०००० | 0000 -: नोट :- आठ पृथिवियों के उपर्युक्त ( घनफल निकालते समय ) घनफल को जगत्प्रतर स्वरूप करने हेतु सर्वत्र का गुणा किया गया है। उपर्युक्त घनफलों में अंश का ( ऊपर वाला ) ४६ जगत्प्रतर स्वरूप है, अतः उसे अन्यत्र स्थापित कर देनेपर घनफलोंका स्वरूप इसप्रकार बनता है । १. द. ब. सब्बमेगं पमेलाविये । + ४६ × ४२०००० + 34800+ [११४०००० $400000 + 10100 +0000 २५०००००० + ४२१४६ X 103०० श्रर्थात् जगत्प्रतर x १०१३३००० या = " घनफल सम्पूर्ण ( पाठों ) पृथिवियों के स्तन भागका प्राप्त हुआ । इसप्रकार वातावरुद्ध क्षेत्रके घनफलका वर्णन समाप्त हुआ । लोक स्थित श्राठों पृथिवियों के वायुमण्डलका चित्रण इसप्रकार है २२२०००० -77 + [१०९२०००० ४स Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ ] तिलोयरण्यात्ती [ गाथा : २८५ । स माजमुदिशज अन्म माला जवानाधार पand शिसोका काशी पार काaanand पत्तनाधार साचार XTESTLI MEAपसमो. RT आकाशा 4A आकाश आकाश पाकभासपो Lफर जाजाश आकाश की परप्रभा .... स्याम्पमा आकाश भारमयममा १६...भाजन रम्भायरममा माका A सप्तमात पहा प्रभोद पोजमः 954 12tES CE हजार Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म महाहियारो प्रत्येक पृथिवीके घनफल-कथनका निर्देश संपहि प्रहं पुढवणं पत्तेक्कं विदफलं थोरुच्चएण वत्तइस्सामो गाथा : २८५ ] तत्थ पढम- पुढषीए एग-रज्जु - विक्वंभा सत्त-रज्जु - दोहा वीस-सहस्सूण-बे-जोयणलक्ख - बाहल्ला एसा अप्रपो बाहल्लस्स सत्तम - भाग - बाहल्लं जगपदरं होदि । = १८०००० । ७ अर्थ :- अब आठों पृथिवियोंमेंसे प्रत्येक पृथिवीके घनफलको संक्षेपमें कहते हैं इन आठों पृथित्रियों से पहली पृथिवी एक राजू विस्तृत, सात राजू लम्बी श्रीर बीस हजार कम दो लाख योजन मोटी है । इसका घनफल अपने बाहुल्य के सातवें भाग बाहल्य प्रमाण जगत्प्रतर होता है । XX10000 रत्नप्रभा पृ० का प्राप्त हुआ । [ १३३ '~~ विशेषार्थ :- रत्नप्रभा नामक पहली पृथिवी एक राजू चौड़ी, ७ राजू लम्बी और १८०००० योजन मोटी है, इनको परस्पर गुपित कर धनफल को जगत्प्रतर करने हेतु से पुनः गुरणा किया गया है । यथा - ७५१८ [८०००x* = ४६ वर्ग राजू X १८००००० योजन घनफल प्रथम दूसरी पृथिवीका घनफल fafar yoवीए सत्त-भागूरण-बे-रज्जु - विक्खंभा सत्त-रज्जु प्रायदा बत्तीस-जोयणसहस्स - बाहल्ला सोलस - सहस्सा हिय चदुण्हं' लक्खाणमेगूर पण्णास - भाग- बाहल्लं जगपदरं होदि । - ४१६००० । ४६ १. ब. क चउं । २. द लक्खा एगुसा । अर्थ: -दूसरी पृथिवी सातवें भाग कम दो राजू विस्तृत, सात राजू आयत और बत्तीसहजार योजन मोटी है, इसका घनफल चार लाख सोलह हजार योजनके उनन्चासवेंभाग बाहुल्य प्रमाण जगत्तर होता है। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्यात्ती [ गाथा : २८५ विशेषार्थ : दूसरी शर्करापृथिवी पूर्व-पश्चिम राजू विस्तृत, दक्षिणोत्तर ७ राजू लम्बी और ३२००० योजन मोटी है । इसके घनफलको जगत्प्रतरस्वरूप करने हेतु से गुणा करनेपर Axx १२६०० = 6x1280X७ = ४६ वर्ग राजू x ४१४३०० योजन घनफल प्राप्त होता है । तीसरी पृथिवीका धनफल तदिय-पुढवीए बे-सत्तम-भाग-होग-तिण्णि-रज्जु-विषखंभा सत्त-रज्जु-प्रायदा अट्ठावीस-जोयण-सहस्स-बाहल्ला बत्तीस-सहस्साहिए-पंच-लक्ख-जोयणाणं एगणपण्णासभाग-बाहल्लं जगपदरं होदि ।-५३२००० । अर्थ :-नीसरी पृथिवी दो बटे सात ( ३ ) भाग कम तीन राजू बिस्तृत, सात राजू पायत और अट्ठाईस हजार योजन मोटी है। इसका घनफल पाँच लाख, बत्तीस हजार योजनके उनचासवेभाग बाल्य प्रमाण जगत्प्रतर होता है । विशेषार्थ : तीसरी बालुका पृथिवी पूर्व-पश्चिम राजू विस्तृत, दक्षिणोत्तर ७ राजू लम्बी और २८००० योजन मोटी है । इसके घनफलको जगत्प्रतरस्वरूप करने हेतु से गुणा करनेपर xx २८१०० = » XXBox =४६ वर्ग राजू x ५३२६०० योजन घनफल प्राप्त होता है। चतुर्थ पृथिवीका घनफल चउत्थ-पुढवीए तिण्णि-सत्तम-भागूण-चत्तारि-रज्जु-विक्खंभा सत्त-रज्जु-अायदा चउधीस-जोयण-सहस्स-बाहल्ला छ-जोयण-लक्खाणं एगूणपण्णास-भाग-बाहल्लं जगपदरं होदि । = ६०००००। ४६ अर्थ :-चौथी पृथिवी तीन बटे सात ( 3 ) भाग कम चार राजू बिस्तृत, सात राजू पायत और चौबीस हजार योजन मोटी है। इसका घनफल छह लाख योजनके उनचासवे-भाग प्रमाण जगत्प्रतर होता है। विशेषार्थ :-चौथी पंकप्रभा पृथिवी पूर्व-पश्चिम २५ राजू विस्तृत, दक्षिणोत्तर ७ राजू लम्बी और २४००० योजन मोटी है । इसके घनफलको जगत्प्रतर स्वरूप करने हेतु से गुणा करने परxx२४०°°= sx1988° =४६ बर्गराजूx.०१°० योजन घनफल प्राप्त हुआ। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २८५ ] पढमो महाहियारों पांचवीं पृथिवीका घनफल पंचम-पुढवीए चत्तारि-सत्त-भागण-पंच-रज्जु-विक्खंभा सत्त-रज्जु-प्रायदा बोसजोयरण-सहस्स-बाहल्ला बीस-सहस्साहिय-छण्णं लक्खारगमेगूणपण्णास-भाग-बाहल्लं जगपदरं होदि । = ६२०००० । अर्थ :-पांचवीं पृथिवी चार बटे सात ( 3 ) भाग कम पांच राजू विस्तृत, सात राजू मायत मौर बीस हजार योजन मोटी है । इसका घनफल छह लाख, बीस हजार योजनके उनचासवेंभाग बाहल्य प्रमाण जगत्पतर होता है । विशेषार्थ :-पांचवीं धूमप्रभा पृथिवी पूर्व-पश्चिम राजू विस्तृत, दक्षिणोत्तर ७ राजू लम्बी और २०००० योजन मोटी है । इसके घनफलको जगत्प्रतरस्वरूप करने हेतु से गुणा करने पर xix २०६०°=x२%%9.०४७ = ४६ वर्ग राजूx19°°० योजन घनफल प्राप्त हुआ। छठी पृथिवीका घनफल छट्ठम-पुढयोए पंच-सत्त-भागूण-छ-रज्जु-विषखंभा सत्त-रज्जु-आयदा सोलसजोयण-सहस्स-बाहल्ला बाणउदि-सहस्साहिय-पंचण्हं लक्खाणमेगूणपण्णास-भाग-बाहल्लं जगपदरं होदि । - ५६२००० । ४६ अर्थ:-छठी पृथिवी पाँच बटे साल (५) भाग कम छह राजू विस्तृत, सात राजू आयत और सोलह हजार योजन बाहल्यवाली है। इसका घनफल पाँच लाख, बानब हजार योजनके उनचासवेंभाग बाहल्य-प्रमाण जगत्प्रतर होता है। _ विशेषार्थ :-छठी तमःप्रभा पृथिवी पूर्व-पश्चिम राजू विस्तृत, दक्षिणोत्तर ७ राजू लम्बी और १६००० योजन मोटी है । इसके घनफलको जगत्प्रतर करनेके लिए से गुणा करनेपर Jaxx..१०°=0x५५२०००x* = ४९ वर्गराजू ५५११०" योजन घनफल प्राप्त होता है । सातवीं पृथिवीका घनफल सत्तम-पुढवीए छ-'सत्तम-भागूण-सत्त-रज्जु-विक्खंभा सत्त-रज्जु-प्रायदा अट्ठ १. द. ससत्तभागून Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोरात - [ गाथा : २८५ जोयरग-सहस्स-बाहल्ला चउदाल-सहस्साहिय-तिषणं लक्खाणमेगूणपण्णास-भाग-बाहल्लं जगपदरं होवि । ३४४००० । अर्थ :- सातवीं पृथिवी छह बटे सात (8) भाग कम सात राजू बिस्तृत, सात राजू प्रायत और पाठ हजार योजन बाहल्य वाली है। इसका घनफल तीन लाख चवालीस हजार योजनके उन चासवे-भाग-बाहल्य-प्रमाण जगत्प्रतर होता है । विशेषार्थ :-सातवीं महातमःप्रभा पृथिवी पूर्व-पश्चिम राजू विस्तृत, दक्षिणोत्तर ७ राजू लम्बी और ८००० योजन मोटी है । इसके घनफलको जगत्प्रतरस्वरूप करनेके लिए से गुणा करनेपरxxp=sx 313392x = ४६ वर्गराजू ४ ५११०० योजन घनफल प्राप्त होता है। पाठवीं पृथिवीका घनफल अट्ठम-पुढवीए सत्त-रज्जु-प्रायदा . 'एक्क-रज्जु-रुदा अट्ठ-जोयण-बाहल्ला सत्तम-'भागाहियएगज्जोयण-बाहल्लं जगपवरं होदि । । अर्थ :-पाठवीं पृथिवी सात राजू प्रायत, एक राजू बिस्तृत और पाठ योजन मोटी है। इसका घनफल सातवें-भाग सहित एक योजन बाहल्ल प्रमाण जग-प्रतर होता है । विशेषार्थ :- पाठवीं ईषन्-प्राग्भार पृथिवी पूर्व-पश्चिम एक राजू विस्तृत, दक्षिणोत्तर ७ राजू लम्बी और ८ योजन मोटी है । इसके घनफलको जगत्प्रतरस्वरूप. करने के लिए से गुणा करनेपर १४७४८=७५१४७ =४६ वर्गराजू x ६ योजनघनफल प्राप्त होता है । सम्पूर्ण घनफलोंका योग एदाणि सन्व-मेलिदे एत्तियं होदि । = ४३६४०५६ । ४६ अर्थ :- इन सब घनफलोंको मिलानेपर निम्नलिखित प्रमाण होता है४६x.८००० या ४६४१२१००० + ४६ x ४११००+४६४ ५33800 + ४९४०४०० + ४६x १२११००+४६४५.३१०० + ४६ x 3४४४°°+४६ या ४६४। यहाँ अंशके ४६ जगत्प्रतर स्वरूप हैं । अत :-- -. -.-- - १. द. एगरज्जु । २. द. अद्वसहस्सजोषण°। ३. द. भागाहिययेयज्जो । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो महाहियारो [ १३७ ४६४१२६००००+४१६०००+४३२००० + ६०००००+ ६२०००० + ५६२००० + २४४००० + ५६ *& =४९ वर्गराजू ४४३योजन या जगत्प्रतर फल प्राप्त होता है। गाथा २०५ ] YUST अहाय दा‌दी ७ अनफल रोजन यास- पमाणं होदि । श ४०. ●ग आकाश तस्स ठरणा K ०धरफल पृथ्वी पृथ्वी ६२००० 학 102010 ना १ पृथ्वी मर्द है ४३ RE *११५ LEELA PORODILO NANI ILLA A COMARINA १ राष्ट्र [ चित्र अगले पृष्ठ पर देखिये ] 1200 दोन 18004 10. J२००० चन २६.०० सोमन २४.०० র लोकके शुद्धाकाशका प्रमाण एहि वोहिं साणं विदफलं संमेलिय सयल-लोयम्मि श्रवणीदे श्रवसेसं सुद्धा 15000 योजन १६०० Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ 1 तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २८६ अर्थ :-उपर्युक्त इन दोनों क्षेत्रों (वातावरुद्ध और पाठ भूमियों) के घनफलको मिलाकर उसे सम्पूर्ण लोकमेंसे घटा देने पर अवशिष्ट शुद्ध-अाकाशका प्रमाण प्राप्त होता है । उसकी स्थापना यह है-संदृष्टि मूलमें देखिये ( इस संदृष्टिका भाव समझमें नहीं पाया)। अधिकारान्त मङ्गलाचरण केवलणाण-तिणेत्तं चोत्तीसाबिसय-भूदि-संपण्णं । णाभेय-जिणं तिहुवण-णमंसणिज्जं णमंसामि ॥२६॥ एवमाइरिय-परंपरागय-तिलोयपण्णत्तीए सामण्ण-जगसरूव-रिणरूषण-पण्णत्ती णाम। पढमो महाहियारो सम्मत्तो ॥१॥ .. अर्थ :- केवलज्ञानरूपी तीसरे नेत्रके धारक, चौंतीस प्रतिशयरूपी विभूतिसे सम्पन्न और तीनों लोकोंके द्वारा नमस्करणीय, ऐसे नाभेय जिन अर्थात् ऋषभ जिनेन्द्रको मैं नमस्कार करता हूं ॥२८६॥ इसप्रकार प्राचार्य-परम्परागत त्रिलोक-प्रज्ञप्तिमें सामान्य जगत्स्वरूप निरूपण-प्रज्ञप्ति नामक प्रथम महाधिकार समाप्त हुआ । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदुओ महाहियारो मङ्गलाचरण पूर्वक नारक लोक कथनकी प्रतिज्ञा अजिय-जिणं जिय-मयणं दुरित-हरं प्राजवंजवातीदं । पणमिय णिरुवमाणं णारय-लोयं णिहवेमो ॥१॥ पर्ष:-कामदेवको जीतनेवाले, पापको नष्ट करनेवाले, संसारसे अतीत और अनुपम अजितनाथ भगवानको नमस्कार करके नारकलोकका निरूपण करता हूं ॥१॥ __ पन्द्रह अधिकारोंका निर्देश 'रइय-णिवास-खिदी-परिमाणं आज-उदय-पोहोए । गुणठाणावीरगं संखा उप्पज्जमाण जीवाणं ॥२॥ जम्मण-मरणाणंतर-काल-पमाणावि एक्क समयम्मि । उप्पज्जय-मरणाण य परिमाणं तह य प्रागमणं ॥३॥ णिरय-गदि-आउबंधण-परिणामा तह य जम्म-भूमीयो। गाणादुक्ख-सरूवं दंसण-गहणस्स हेदु जोणीग्रो ॥४॥ एवं पण्णरस-विहा अहियारा वण्णिदा समासेण । तित्थयर-वयण-रिणग्गय-णारय-परणत्ति-णामाए ॥५॥ ----- - - - १. द. क. ब. रिणदह । -.- .. . Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ६-७ अर्थ :-नारकियोंकी निवास १ भूमि, २ परिमाण (संख्या). ३ प्रायु, ४ उत्सेध,५ अवधिज्ञान, ६ गुणस्थानादिकोंका वर्णन, ७ उत्पद्यमान जीवोंकी संख्या, ८ जन्म-मरणके अन्तर-कालका प्रमाण, । एक समयमें उत्पन्न होनेवाले और मरनेवाले जीवोंका प्रमाण, १० मरकसे निकलनेवाले जीवोंका वर्णन, ११ नरकमतिके आयु-बन्धक परिणाम, १२ जन्मभूमि, १३ नानादुःखोंका स्वरूप, १४ सम्यक्त्वग्रहरणके कारण और १५ नरक्रमें उत्पन्न होनेके कारणोंका कथन, तीर्थङ्करके बचनसे निकले हुए इसप्रकार ये पन्द्रह अधिकार इस नारक-प्रज्ञप्ति नामक महाधिकारमें संक्षेपसे कहे गये हैं ॥२-५।। सनालीका स्वरूप एवं ऊँचाई लोय-बह-मझ-देसे तरुम्मि सारं व रज्जु-पदर-जुदा । तेरस-रज्जुच्छेहा किचूणा होदि तस-गाली ॥६॥ ऊण-पमाणं दंडा कोडि-तियं एक्कवीस-लक्खाणं । बासद्धिं च सहस्सा दुसया इगिदाल दुतिभाया ।।७॥ .. । ३२१६२२४१1३। अर्थ :-वृक्षमें (स्थित) सारकी तरह, लोकके बहुमध्यभागमें एक राजू लम्बी-चौड़ी और कुछ कम तेरह राजू ऊँची असनाली है। सनालौकी कमीका प्रमाण तीन करोड़, इक्कीस लाख, बासठ हजार, टोसौ इकतालीस धनुष एवं एक धनुषके तीन-भागोंमेंसे दो (3) भाग है ॥६-७॥ विशेषार्थ :-सनालीकी ऊँचाई १४ राजू प्रमाण है। इसमें सातवें मरकके नीचे एक राज प्रमाण कलकल नामक स्थावर लोक है, यहाँ स जीव नहीं रहते श्रतः उसे (१४ -१)-१३ राजू कहा गया है । इसमें भी सप्तम नरकके मध्यभागमें ही नारकी ( श्रस ) हैं। नीचेके ३६६ET योजन ( ३१६६४६६६ धनुष ) में नहीं हैं। इसीप्रकार ऊर्ध्वलोकमें सर्वार्थसिद्धिसे ईषत्प्राग्भार नामक पाठवीं पृथिवीके मध्य १२ योजन ( ६६००० धनुष ) का अन्तराल है, पाठवीं पृथिवीकी मोटाई ८ योजन ( ६४००० धनुष ) है और इसके ऊपर दो कोस (४००० धनुष ), एक कोस ( २००० धनुष ) एवं १५७५ धनुष मोटाई वाले तीन वातवलय हैं । इस सम्पूर्ण क्षेत्रमें भी वस जीव नहीं हैं इसलिए गाथामें १३ राजू ऊँची अस नालीमेंसे ( ३१६६४६६६ धनुष + ६६००० धनुष + ६४००० धनुष + ४००० धनुष + २००० धनुष और + १५७५ धनुष ) =३२१६२२४१ धनुष कम करनेको कहा गया है । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ८.१० ] विदुनो महायिारो [१४१ सर्वलोकको असनालीपनेकी विवक्षा अहवा उववाद-मारणंतिय-परिणद-तस-लोय-पूरणेण गदो। केवलियो अवलंबिय सम्ध-जगो होदि तस-भाली ॥८॥ अर्थ :- अथवा--उपपाद और मारणांतिक समुद्घातमें परिणत त्रस तथा लोकपूरणसमुद्घातको प्राप्त केवलीका प्राश्रय करके सारा लोक प्रस-नाली है ।।८।। विशेषार्थ :- जीवका अपनी पूर्व पर्यायको छोड़कर नवीन पर्यायजन्य प्रायुके प्रथम समयको उपपाद कहते हैं । पर्यायके अन्तमें मरणके निकट होनेपर बद्धायुके अनुसार जहाँ उत्पन्न होना है, वहाँके क्षेत्रको स्पर्श करने के लिए प्रात्मशोका शरीर से बाहर निकालना मारणान्तिक समुदघात है । १३ ३ गुणस्थानके अन्तमें आयुकर्मके अतिरिक्त शेष तीन अघातिया कर्मोकी स्थितिक्षयके लिए केवलीके (दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूर्ण आकारसे ) अात्मप्रदेशोंका शरीरसे बाहर निकलना केवली समुद्घात है, इन तीनों अवस्थाओं में सजीव प्रस-नालोके बाहर भी पाये जाते हैं । रत्नप्रभा-पृथिवीके तीन-भाग एवं उनका बाहल्य खर-पंकप्पम्बहुला भापा 'रयणप्पहाए पुढवीए । बहलत्तणं सहस्सा सोलस चउसीवि सीवी य॥६॥ १६००० । ८४००० । ८०००० । अर्थ :-रत्नप्रभापृथिवीके खर, पंक और अब्बहुलभाग क्रमशः सोलह हजार, चौरासी हजार और अस्सी हजार योजन प्रमाण बाहल्यवाले हैं ।।६।। विशेषार्थ :-रत्नप्रभापृथिवीका-(१) खरभाग १६००० योजन, (२) पंकभाग ८४००० योजन और (३) अब्बहुल भाग ८०००० योजन मोटा है । खरभागके एवं चित्रापृथिवीके भेद खरभागो णादवो सोलस-भेदेहि संजुदो णियमा । चित्तादीनो खिदिनो तेसिं चित्ता बहु-वियप्पा ॥१०॥ १. द. रयणप्पहायि पुढवीए, ई, रयणप्पहा य युद्धवीरग। २. द. व सोल । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ११-१५ अर्थ :–इन तीनोंमें खरभाग नियमसे सोलह भेदों सहित जानना चाहिए। ये सोलह भेद चित्रादिक सोलह पृथिवीरूप हैं। इनमेंसे चित्रा पृथिवी अनेक प्रकार है ॥ १० ॥ 'चित्रा' नामकी सार्थकता गाणाविषण्ण मट्टीश्रो तह सिलातला उवला' । वालुव - सक्कर- सीसय रुप्प - सुवण्णाण यहरं च ॥११॥ श्रय-दंब - तउर-सासय-मणिस्तिला - हिंगुलाणि हरिदाल । पंजण - पवाल - गोमज्जगाणि रुजगं कप्रब्भ-पदराणि ॥१२॥ तह श्रम्भवालुकाम्रो फलिहं जलकंत-सूरकंताणि । चंदप्पह- वेलुरियं गेरुव - चंदणय - लोहिदंकाणि ।। १३ ।। बंबय बगमश्र-सारग्ग-पहुवीणि विविह यण्णाणि । जा होंति त्ति एत्तेगं चित्तेति पवणिदा एसा ॥ १४ ॥ अर्थ :- यहाँ पर अनेकप्रकारके वर्णोंसे युक्त मिट्टी, शिलातल, उपल, वालु, शक्कर, शीशा, चाँदी, स्वर्ण तथा वज्र, अयस् ( लोहा), तांबा, त्रपु ( रांगा ), सस्यक ( सीसा ), मरिमशिला, हिंगुल ( सिंगरफ), हरिताल, अंजन, प्रवाल ( मूंगा), गोमेदक (मणिविशेष ) रुचक, कदंब ( धातुविशेष ), प्रतर ( धातुविशेष), अभ्रवालुका ( लालरेत), स्फटिकमरिण, जलकान्तमणि, सूर्यकान्तमरिण, चन्द्रप्रभ ( चन्द्रकान्तमपि ), वैडूर्यमणि, गेरू, चन्द्राश्म ( रत्नविशेष ) लोहितांक ( लोहिताक्ष ? ), बंबय ( पत्रक ? ), ( जगमोच ? ) और सारंग इत्यादि विविध वर्णवाली धातुएँ हैं, इसीलिए इस पृथिवीका 'चित्रा' इस नामसे वर्णन किया गया है ।।११-१४ ।। चित्रा - पृथिवीकी मोटाई एदाए बहलतं एक्क - सहस्सा हवंति जोयराया । तीए हेट्ठा कमसो चोद्दस रयणा' य खंड मही ॥ १५ ॥ अर्थ :- इस चित्रा पृथिवीकी मोटाई एक हजार योजन है। इसके नीचे क्रमश: चोदह नयी पृथिवीखण्ड ( पृथिवियाँ ) स्थित हैं ||१५|| १. ब. सिलातला श्रीवदादा | २. द. अरिदलं । ३. व अ. वण्णत्रो एसो ४. ब. एदाय | ५. द. हुवंति । ६ ब. द. क. ठ, रणाय विदमही । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया : १६-१६ ] विदुओ महाहियारो [ १४३ अन्य १४ पुथियियोंके नाम एवं उनका बाहल्य तण्णामा वेरुलियं लोहिययंक' असारगल्लं च । गोमेज्जयं पवालं जोदिरसं अंजणं णाम ॥१६॥ अंजणमूलं अंक फलिहचंदणं च 'बच्चगयं । बउलं सेला' एका पत्त व इगि-सहस्स-बहलाई ॥१७॥ अर्थ :- वैडूर्य, लोहितांक ( लोहिताक्ष ), प्रसारगल्ल ( मसारकल्पा), गोमेदक, प्रवाल, ज्योतिरस, अंजन, अंजनमूल, अंक, स्फटिक, चन्दन, बर्चगत ( सर्वार्थका ), बकुल पोर शैला ये उन उपयुक्त चौदह पृथिवियों के नाम हैं। इनमेंसे प्रत्येककी मोटाई एक-एक हजार योजन है ।।१६-१७॥ सोलहवीं पृथिवीका नाम, स्वरूप एवं बाहल्य ताण खिदोणं हेवा पासाणं णाम 'रयण-सेल-समा। जोयण-सहस्स-बहलं वेत्तासरण-सपिगहाउ* संठाम्रो ॥१८॥ अर्थ :-उन ( १५ ) पृथिवियोंके नीचे पाषाण नामकी एक ( सोलहवीं ) पृथिवी है, जो रत्नपाषाण सदृश है । इसकी मोटाई भी एक हजार योजन प्रमाण है । ये सब पृथिवियाँ बेत्रासनके सदृश स्थित हैं ॥१८॥ पंकभाग एवं अन्बहुलभागका स्वरूप पंकाजिरो य दोसदि एवं पंक-बहुल-भागो वि। अप्पबहुलो वि भागो सलिल-सरूवस्सयो होदि ॥१६॥ अर्थ :-इसीप्रकार पंकबहुलभाग भी पंकसे परिपूर्ण देखा जाता है। उसीप्रकार अब्बहुलभाग जलस्वरूपके प्राश्रयसे है ॥१६॥ १. [ लोहिययक्खं मसार ]। २. 8. चचब्बगयं । ३. ६. क. ब. सेलं इय एदाई। ४. ब. क. ४. रयणसोलसम । ५ द. न. सण्णि हो। ६. क. ठ. संबो। ७. द. क. उ. दिसदि एदा एवं, ब. दिसदि एवं। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ ] तिलोयगणरणत्ती [ गाथा : २०.२२ रत्नप्रभा नामकी सार्थकता एवं बहुविह-रयरगप्पयार-भरिवो बिराजदे जम्हा । रयणप्पहो' ति तम्हा भणिवा णिउणेहि गुणगामा ॥२०॥ प्रथ:-इसप्रकार क्योंकि यह पृथिबी बहुत प्रकारके रत्नोंसे भरी हुई शोभायमान होती। है, इसीलिए निपुण-पुरुषोंने इसका 'रत्नप्रभा' यह सार्थक नाम कहा है ॥२०॥ शेष छह पृथिवियोंके नाम एवं उनकी सार्थकता सक्कर-बालुव-पंका धूमतमा तमतमा हि सहचरिया । जाम्रो' प्रवसेसावो' छप्पुढवीयो वि गुरगणामा ॥२१॥ प्रर्थ :- शेष छह पृथिवियाँ क्रमशः शक्कर, वालू , कीचड़, धूम, अन्धकार और महान्धकारकी प्रभासे सहचरित हैं, इसीलिए इनके भी उपर्युक्त नाम सार्थक हैं ।।२।। विशेषार्थ :- रत्नप्रभापृथिवीके नीचे शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और तमस्तमः प्रभा ( महातमः प्रभा ) ये छह पृथिवियां क्रमशः शर्करा आदिकी प्रभासदृश सार्थक नाम वाली हैं। शर्करा-आदि पृथिवियोंका बाहल्य बत्तीसट्ठावीसं चयीसं वीस-सोलसटुं च । हेटिम-छप्पुढवीणं बहलत्तं जोयण-सहस्सा ॥२२॥ ३२००० । २८००० । २४००० । २०००० १ १६००० । ८००० । पर्य :-इन छह अधस्तन पृथिवियोंकी मोटाई क्रमशः बत्तीस हजार, अट्ठाईस हजार, चौबीस हजार, बोस: हजार, सोलह हजार और आठ हजार योजन प्रमाण है ॥२२॥ विशेषार्थ :--शर्करा पृथिवीकी मोटाई ३२००० योजन, बालुकाकी २८००० योजन, पंकप्रभाकी २४००० योजन, धूमप्रभाकी २०००० योजन, तमःप्रभाकी १६००० योजन और महातमः प्रभाकी ८००० यो मोटाई है। १. [रयणप्पह ति], ठ. रयणप्पह होत्ति। २. द. ब. क. ठ. जेतं। ३. 6. प्रवसेवासो। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २३-२६ ] विदुषो महाहियारो प्रकारान्तरसे पृथिवियोंका बाहल्य वि. गुणिय छच्च सही-सठ्ठी- उणसट्टी अठ्ठ' चजवण्णा । बहलत्तणं सहस्सा होम पुढवीण छष्णं पि ॥२३॥ पाठान्तरम् । १३२००० १२८००० | १२०००० | ११८००० | ११६००० | १०८००० अर्थ :-- घास, चौंसठ साठ, उनसठ अट्ठावन और जीवन इनके दुगुने हजार योजन प्रमाण उन ग्रधस्तन छह पृथिबियोंकी मोटाई हैं ||२३|| [ १४५ विशेषार्थ :- शर्करा पृथिवीकी मोटाई ( ६६ हजार x २ = ) १३२००० योजन बालुकाकी (६४ हजार×२) = १,२८००० यो०, पंकप्रभाकी (६० हजार ४२ ) = १२०००० यो०, धूमप्रभाकी ( ५६ ६० x २ ) = ११८००० यो० तमः प्रभाकी (५८ हृ० ४२ ) - ११६००० यो० और महातमः प्रभाकी ( ५४ हृ० x २ ) - १०८००० योजन प्रमाण है । पृथिवियोंसे घनोदवि वायुकी संलग्नता एवं प्राकार सत्तविय भूमीश्र णव - दिस - भाएरण धरणोवहि-विलग्गा' । अट्टम - भूमी बस - बिस-भागेसु घणोर्वाह' छिवदि ॥ २४॥ पुव्वावर - दिवभाए उत्तर-दक्खिरण- दीहा श्रणावि - णिहरणा य पुरुषी || २५ || वेत्तासण-संरिणहाम्रो संठान । अर्थ : सातों पृथिवियों ( ऊर्ध्व दिशाको छोड़कर शेष ) नी दिशाओंोंके भागसे धनोदधि वातवलयसे लगी हुई हैं परन्तु आठवीं पृथिवी दसों दिशाओंके सभी भागोंमें घनोदधि वातवलयको छूती है । ये पृथिवियाँ पूर्व और पश्चिम दिशा के अन्तराल में वेत्रासनके सदृश आकारवाली तथा उत्तर और दक्षिण में समान रूप से दीर्घ एवं अनादिनिधन हैं ।।२४-२५॥ नरक बिलोंका प्रभारख चुलसीवी 'लक्खाणं णिरय-बिला होंति सम्ब-पुढवीसु । पुढवि पडि पत्तेक्क ताण पमाणं परूवेमो ॥२६॥ ८४००००० | ४. क. ठ. लक्खा । १. ब. क. ब. दुविसट्टि । छचउट्टि सहिदविसठि । २. ठ. पुरणबहीण । ३. ठ, पुणो हि । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ] तिलोयपहात्ती [ गाथा : २० अर्थ :-सर्व पुथिवियोंमें नारकियोंके बिल कुल चौरासी लाख ( ८४००००० ) हैं। अब इनमें से प्रत्येक पृथिचीका आश्रय करके उन बिलोंके प्रमाणका निरूपण करता हूं ॥२६।। पृथिवी क्रमसे बिलोंकी संख्या . तीसं 'पणवीसं पण्णरसं बस तिण्णि होंति लक्खाणि । पण-रहिबेक्कं लक्खं पंच य 'रयणादि-पुढयीणं ।।२७।। ३०००००० । २५००००० । १५००००० । १०००००० । ३००००० | REEE५ । ५। . ....... अर्थ :--रत्नप्रभा प्रादिक पृथिवियोंमें क्रमश: लीस लाख, पच्चीस लाख, पन्द्रह लाख, दस लाख, तीन लाख, पांच--कम एक लाख और केवल पाँच ही बिल हैं ।।२७।। विशेषार्थ :-प्रथम नरकमें ३००००००, दूसरेमें २५०००००, तीसरेमें १५०००००, चौथेमें १००००००, पांचवेंमें ३०००००, छठेमें REE६५ और सातवें नरकमें ५ बिल हैं । सातों नरक पृथिवियों को प्रभा, माहल्य एवं खिल संख्या .गा. ६, २१-२३ और २७ मतान्तरसे । प्रभा बाहल्य योजनोंमें | बिलोंकी संख्या - योजनोंमें बाहल्य कमांक नाम प्रभा रत्नप्रभा रत्नों सहसं १८००० १८०००० 1 शर्कराप्रभा ३२००० १३२०००। २५००००० ००० वालुकाप्रभा २८००० १२८००० पंकप्रभा २४००० शक्कर , बालू , कीचड़. , धूम , अन्धकार , महान्धकार, १०००००० १२४००० १२०००० २०००० धूमप्रभा तमप्रभा १६०००।११६०००। महातमप्रभा དབ༠༠ | १०८००० १. द. पणुवीसं। २. द. ब. क. रयणेइ। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २८-३० ] विदुप्रो महाहियारो [ १४७ बिलोंका स्थान सत्तम-खिदि-बह-मझे 'बिलाणि सेसेसु अप्पबहलंतं । उरि हे जोयण-सहस्समुझिय हवंति पडल-कमे ।।२।। अर्ष :--सातवीं पृथिवीके तो ठीक मध्यभागमें बिल हैं, परन्तु अब्बहुलभाग पर्यन्त शेष छह पृथिवियोंमें नीचे एवं ऊपर एक-एक हजार योजन छोड़कर पटलोंके क्रमसे नारकियोंके बिल होते हैं ।।२८॥ विशेषार्थ :-सातवीं पृथिवी पाठ हजार योजन मोटी है। इसमें ऊपर और नीचे बहुत मोटाई छोड़कर मात्र बीच में एक बिल है, किन्तु अन्य पाँच पृथिवियोंमें और प्रथम पृथिवीके अब्बहुलभागमें नीचे ऊपरकी एक-एक हजार योजन मोटाई छोड़कर बीचमें जितने-जितने पटल बने हैं, उनमें अनुक्रमसे बिल पाये जाते हैं। नरकबिलोंमें उष्णताका विभाग पढ़मादि-बि-ति-चउक्के पंचम-पुढवीए' ति-घउक्क-भागतं । अदि-उण्हा मिरय-बिला तट्ठिय-जीवाण तिव्य-वाघ-करा ।।२६।। प्रर्थ :-पहली पृथिदीसे लेकर दूसरी, तीसरी, चौथी और पाँचवों पृथिवीके चारभागोंमेंसे तीन (३) भागोंमें स्थित नारकियोंके बिल अत्यन्त उष्ण होनेसे वहां रहने वाले जीवोंको गर्मीकी तीन वेदना पहुंचाने वाले हैं।॥२६॥ मरकबिलोंमें शीतताका विभाग पंचमि-खिदिए तुरिमे भागे छट्ठीन सत्तमे महिए। अदि-सीमा णिरय-बिला तट्ठिय-जीवारण धोर-सीद-करा ॥३०॥ अर्थ :-पाँचवीं पृथिवीके अवशिष्ट चतुर्थभागमें तथा छठी और सातवीं पृथिवीमें स्थित नारकियोंके बिल अत्यन्त शीत होने से वहाँ रहनेवाले जीवोंको भयानक शीतकी वेदना उत्पन्न करने वाले हैं ।।३०। ... . १. द. य. क. ठ. बिलारण। २. ब. पडालकमे। ३. द. पुढवीय। ४. ब. के. महीए। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ] तिलोयपगत्ती [ गाथा : ३१-३३ । उष्ण एवं शीतबिलोंकी संख्या वासोदीलक्खाणं उण्ह-बिला पंचवीसदि-सहस्सा। . पणहरि सहस्सा अदि-'सीद-बिलारिण इगिलक्खं ।।३१।। ८२२५००० । १७५००० अर्थ :- नारकियोंके उपर्युक्त चौरासीलाख बिलोंमेंसे बयासीलाख पच्चीस हजार बिल डारण और एक लाख पचहत्तर हजार विल अत्यन्त शीत हैं ।।३१।। विशेषार्थ :- रत्नप्रभापृथिवीके बिलोंसे चतुर्थपृथ्वी पर्यन्तके बिल एवं पाँचवीं धूमप्रभा पृथिवीको बिल राशिके तीनबटेचारभाग (२००१००५३), अर्यात् ३० लाख + २५ लाख + १५ लाख+ १० लाख + २२५००० -- ८२२५००० बिलों पर्यन्त अति उष्ण वेदना है। पांचवीं पथिवीके शेष विलोंके एक बटे चारभाग (२००९१०x१) से सातवीं पृथिवी पर्यन्त बिल अर्थात् ७५००० +९९९९५ + ५=१७५००० बिलोंमें अत्यन्त शोत वेदना है। बिलोंकी अति उष्णताका वर्णन मेरु सम-लोह-पिडं सौदं उण्हे बिलम्मि पक्खित्तं । ण लहदि तलप्पदेसं विलीयदे मयण-खंडं व ॥३२।। अर्थ :-उष्ण बिलोंमें मेरुके बराबर लोहेका शीतल पिण्ड डाल दिया जाय, तो वह तलप्रदेश तक न पहंचकर बीच में ही मैंगण (मोम) के टुकड़े के सदृश पिघलकर नष्ट हो जायगा । तात्पर्य यह है कि इन बिलोंमें उष्णताकी वेदना अत्यधिक है ॥३२॥ बिलोंकी अति-शीतलताका वर्णन मेरु-सम-लोह-पिडं उण्हं सोदे बिलम्मि पक्खितं । ण लहदि तलप्पदेसं विलीयदे लवण-खंडं व ॥३३॥ अर्थ :-इसीप्रकार, यदि मेरुपर्वतके बराबर लोहेका उष्ण पिण्ड उन शीतल बिलोंमें डाल दिया जाय, तो वह भी तल-प्रदेश तक नहीं पहुंचकर बीचमें ही नमकके टुकड़े के समान विलीन हो जावेगा ।।३३1 १. द. ब. प्रदिसीदि। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३४-३७ ] विदुयो महाहियारो [ १४६ बिलोंकी अति दुर्गन्धताका वर्णन अज-गज-महिस तुरंगम-खरो?-मज्जार-अहि-णरादीपं । कुहिदाणं गंधादो णिरय-बिला ते अणंत-गुणा ॥३४॥ अर्थ :-नारकियोंके वे बिल बकरी, हाथी, भैंस, घोड़ा, गधा, ऊँट, बिल्ली, सर्प और मनुष्यादिकके सड़े हुए शरीरोंके गंधकी अपेक्षा अनन्तगुणी दुर्गन्धसे युक्त हैं ॥३४।। __ बिलोंकी अति-भयानकताका वर्णन करवत्तकं छरीदों' खइरिंगालाति-तिक्ख-सूईए । कुजर-चिक्कारादो गिरय-बिला वारुण-तम-सहावा ॥३५॥ अर्थ:-स्वभावतः अन्धकारसे परिपूर्ण-नारकियोंके ये बिल करीत या प्रारी, छरिका, खदिर (खैर) के अंगार, प्रतितीक्ष्ण सुई और हाथियोंकी चिंघाड़से अत्यन्त भयानक हैं ।।३।। बिलोंके भेद इंदय सेढीबद्धा पइण्याइ य हवंति 'तिवियप्पा । ते सव्वे णिरय-बिला दारुण-दुक्खाण संजणणा ॥३६॥ अर्थ :-इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णकके भेदसे तीन प्रकारके ये सभी नरकबिल नारकियोंको भयानक दुःख उत्पन्न करनेवाले होते हैं ॥३६॥ विशेषार्थ : सातों नरक पृथिवियोंमें जीवोंको उत्पत्ति स्थानोंके इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक--ये तीन नाम हैं । जो अपने पटलके सर्व बिलोंके ठीक मध्यमें होता है, उसे इन्द्रक बिल कहते हैं । इन्द्रक बिलकी चारों दिशात्रों एवं विदिशात्रों में जो बिल पंक्तिरूपसे स्थित हैं उन्हें श्रेणीबद्ध तथा जो श्रेणीबद्ध बिलोंके बीचमें बिखरे हुए पुष्पोंके समान यत्र तत्र स्थित हैं उन्हें प्रकीर्णक रत्नप्रभा-प्रादिक-पृथिवियोंके इन्द्रक-विलोंकी संख्या तेरस-एक्कारस-णव-सग-पंच-ति-एक्कईदया होति । रयणप्पह-पहुदोसु पुढवीसु प्राणु-पुन्योए ॥३७॥ - . १. द. ठ, करवकय छुरीदो। क. कुरवकयधुरीदो। [ कक्षककवारणारिदो ] । २. द. ब. खरिगालातिक्वसूईए। ३. द. व. ह्वति वियप्पा । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ३८ १३ । ११ । ६।७।५ । ३।१। अर्थ :-रत्नप्रभा आदिक पृथिवियों में क्रमश: तेरह, ग्यारह, नौ, सात, पाँच, तीन और एक, इसप्रकार कुल उनचास इन्द्रक बिल हैं ॥३७॥ विशेषार्थ :-प्रथम नरकमें १३, दूसरेमें ११, तीसरेमें ६, चौथेमें ७, पाँचवेंमें ५, छठेमें ३ और सातवें नरकमें एक इन्द्रक चिल है । एक-एक पटलमें एक-एक इन्द्रक बिल है, अतः पटलभी ४६ ही हैं। इन्द्रक बिलोंके आश्रित श्रेणीबद्ध विलोंकी संख्या पठमम्हि इंदयम्हि य दिसासु उणवण-सेढिबद्धा य । अडदालं विदिसासु विदियादिसु एक्क-परिहीणा ॥३८॥ अर्थ :-पहले इन्द्रक बिलकी आश्रित दिशाओं में उनचास और विदिशामोंमें अड़तालीस श्रेणीबद्ध बिल हैं । इसके आगे द्वितीयादि इन्द्रक बिलोंके प्राश्रित रहनेवाले श्रेणीबद्ध बिलोंमेंसे एकएक बिल कम होता गया है ॥३८॥ [ चित्र अगले पृष्ठ पर देखिये ] Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३६-४२ } विदुओ महाहियारो [ १५१ AS CON N Xag ..... ३६.... HEA । ३७........ . HD ... koi .. ...........35 -40 विक्रारी उन्द्रक इन्द्रक C a .. .. . . . .। लाख 40 9. .2 ... .. : सात-पृथिवियोंके इन्द्रक बिलोंकी संख्या एक्कंत-तेरसादी सत्तसु ठाणेसु 'मिलिद-परिसंखा । उणवण्णा पढमादो इंदय-णामा इमा होति ।।३६।। अर्थ :--प्रथम पृथिवीसे सातों पृथिवियोंमें तेरहको प्रादि लेकर एक पर्यन्त कुल मिलाकर उनचास संख्यावाले इन्द्रक नामके बिल होते हैं ।।३।। - पृथिवी क्रमसे इन्द्रक बिलोंके नाम सीमंतगो य पढ़मो णिरयो रोरुग य भंत-उन्भत्ता । संभंत-असंभंता विभंता तत्त तसिदा य ॥४०॥ वक्कंत प्रवक्ता विक्कतो होंति पढम-पुढवोए । थणगो तणगो मणगो वणगो घाडो असंघाडो ।।४।। जिब्भा-जिब्भग-लोला लोलय-"थणलोलुगाभिहाणा य । एवे बिदिय खिबीए एक्कारस इंदया होति ॥४२१॥ १३ । ११ । ५. द. लोलय १. क. मिलदि। २. व. तध। ३. द. धलगो। ४. ब. वाघो । क, दायो। घश । ठ. लोलयचरण । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ४३-४६ अर्थ :--प्रथम सीमन्तक तथा द्वितीयादि निरय, रोरुक, भ्रान्त, उद्भ्रान्त, संभ्रान्त, असंभ्रान्त, विभ्रान्त, तप्त, त्रसित, वान्त, अवक्रान्त और विक्रान्त इसप्रकार थे तेरह इन्द्रक बिल प्रथम पृथिवीमें हैं । स्तनक, तनक, मनक, वनक, घात, संघात, जिह्वा, जिह्वक, लोल, लोलक और स्तनलोलुक नामवाले ग्यारह इन्द्रक-बिल दूसरी पृथिवीमें हैं ।।४०-४२।। तत्तो' तसिदो तवणो तावण-रणामो णिदाह-पज्जलिदो। उज्जलिवो संजलिदो संपज्जलिदो य तदिय-पुढवीए ।।४३।। मर्थ : - तप्त, त्रस्त, तपन, तापन, निदाघ, प्रज्वलित, उज्ज्वलित, संज्वलित और संप्रज्वलित ये नौ इन्द्रक बिल तीसरी पृथिवीमें हैं ।।४३॥ आरो' मारो तारो तच्चो तमगो तहेव खाडे य । खडखड-णामा तुरिमक्खोणीए इंदया सत्त ।।४४।। प्रर्थ :-पार, मार, तार, तत्त्व ( चर्चा ) तमक, खाड और खड़खड़ नामक सात इन्द्रक बिल चौथी पृथिवी में हैं ॥४४।। तम-भम-झस-प्रद्धाविय-तिमिसो धूम-पहाए छट्ठीए । हिम बद्दल-लल्लंका सत्तम-प्रवणीए अवधिठाणो ति ।।४५॥ ५।३।१! अर्थ :-तमक, भ्रमक, झषक, अन्ध और तिमिस्र ये पाँच इन्द्रक बिल धूमप्रभा पृथिवीमें हैं । छठी पृथिवीमें हिम, वर्दल और लल्लक इसप्रकार तीन तथा सातवीं पृथिवी में केवल एक अवधिस्थान नामका इन्द्रक बिल है ।।४।। दिशाक्रमसे सातों-पृथिवियोंके प्रथम श्रेणीबद्ध बिलोंके निरूपणकी प्रतिज्ञा घम्मादी-पुढवीणं पढमिवय-पढम-सेढिबद्धाणं । सामाणि णिरूवेमो पुवादि-"पदाहिण-क्कमेण ।।४६।। ४. द. दुचुपहा, १. द. ब. तेत्तो। २. द. पारे, मारे, तारे। ३. ३. ब, क ठ. तस्स। ब. दुच्चुपहा। ५. द. पहादिको कमेण, ब. पहादिको कमेण । क. . पदाहिको कमेण । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ४७-५० ] बिदुभो महाहियारो अर्थ :- धर्मादिक सातों पृथिवियों सम्बन्धी प्रविष्टी समोर aa बिलोंके नामोंका पूर्वादिक दिशाओं में प्रदक्षिण क्रमसे निरूपण करता हूं ||४६ || धर्मा पृथिवीके प्रथम श्रेणीबद्ध-बिलोंके नाम कखा - पिपास-रणामा महकंखा श्रदिपिपास-रणामा य । प्रादिम-ढीबद्धा चत्तारो होंति सोमं ॥४७॥ [ १५३ मी अर्थ :- धर्मा पृथिवीमें सीमन्त इन्द्रक बिलके समीप पूर्वादिक चारों दिशाओं में क्रमशः कांक्षा, पिपासा एवं महाकांक्षा और प्रतिपिपासा नामक चार प्रथम श्रेणीबद्ध बिल हैं ||४७॥ reath प्रथम श्रेणीबद्ध बिलोंके नाम पढमो णिच्चणामो बिदियो विज्जो तहा 'महाणिच्चो । महविज्जो य चउत्यो पुन्वाविसु होंति थण गहि ||४६८ || अर्थ :- वंशा पृथिवी में प्रथम अनिच्छ, दूसरा श्रविन्ध्य, तीसरा महानिच्छ और चतुर्थ महाविन्ध्य, ये चार श्रेणीबद्ध बिल पूर्वादिक दिशानोंमें स्तनक इन्द्रक बिलके समीप हैं ॥४८॥ her पृथिवी प्रथम श्रेणीबद्ध - बिलोंके नाम दुक्खा य वेदणामा महदुक्खा तुरिमया अ महवेदा । यस एवे पुग्वादिसु होंति चत्तारो ॥ ४६ ॥ अर्थ : मेघा पृथिवी में दुःखा, वेदा, महादुःखा और महावेदा ये चार श्रेणीबद्ध बिल पूर्वादिक दिशाओं में तप्त इन्द्रकके समीप हैं ॥४६॥ अंजना - पृथिवीके प्रथम श्रेणीबद्ध बिलोंके नाम आरिए णिसट्टो पढमो बिदिश्रो वि अंजण - रिंग रोधो । तदिश्रो "य श्रदिणिसत्तो महणिरोधो चउत्यो सि ॥५०॥ १. द. ब. महाविज्जो । २. द. बि. क. ठ. घरागन्हि । ३ व तत्तियिस्स । ५. व. उतिउ य । ४. ठ. मिट्टी Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ] तिलोय पण्णत्ती [ गाथा ५१-५४ अर्थ :- अंजना पृथिवीमें धार इन्द्रकके समीप प्रथम निसृष्ट, द्वितीय निरोध, तृतीय प्रतिनिसृष्ट और चतुर्थ महानिरोध ये चार श्रेणीबद्ध बिल हैं || ५० ॥ अरिष्टा पृथिवीके प्रथम श्रेणीबद्ध बिलोंके नाम तमकंदए' णिरुद्धो विमद्दणो अदि- णिरुद्ध-णामो य । तुरिमो महाविमद्दणणामो पुव्वादिसु दिसासु ॥ ५१ ॥ अर्थ :- तमक इन्द्रक बिलके समीप निरुद्ध, विमर्दन, प्रतिनिरुद्ध और चतुर्थ महामर्दन नामक चार श्रेणीबद्ध बिल पूर्वादिक चारों दिशाओं में विद्यमान है ।। ५१ ।। मघवी पृथिवीके प्रथम श्रेणीबद्ध बिलोंके नाम हिम-इंदयहि होंति हु णीला पंका य तह य महणीला । महपंका पुग्वादिसु सेठीबद्धा इमे चउरो ॥५२॥ अर्थ :- हिम इन्द्रक बिलके समीप नीला, पंका, महानीला और महापंका, ये चार श्रेणीबद्ध बिल क्रमशः पूर्वादिक दिशाओं में स्थित हैं ।। ५२ ।। Hraat - पृथिवीके प्रथम श्रेणीबद्ध बिलोंके नाम कालो रोरव-रणामो महकालो पुव्व-पहुवि - दिव्भाए । महरोरथो चउत्थो अवधी- ठाणस्स चिट्ठ ेदि ॥ ५३ ॥ अर्थ :- अवधिस्थान इन्द्रक बिलके समीप पूर्वादिक चारों दिशाओं में काल, रौरव महाकाल और चतुर्थ महारौरव ये चार श्रेणीबद्ध विल हैं || ५३ || अन्य विलोंके नामोंके नष्ट होनेकी सूचना प्रवसेस - इंदयाणं पुण्वादि- दिसासु सेढिबद्धारणं । 3 पट्टाई णामाई पढमाणं बिदिय पहुदि सेठीणं ॥ ५४ ॥ अयं :- शेष द्वितीयादिक इन्द्रकविलोंके समीप पूर्वादिक दिशाओं में स्थित श्रेणीबद्ध बिलोंके नाम घोर पहले इन्द्रकबिलोंके समीप स्थित द्वितीयादिक श्रेणीबद्ध बिलोंके नाम नष्ट हो गये हैं ।। ५४ ।। १. द. व. रु. तमकडये । २. द. ब. क. ठ. यदिगिषुणामो । ३. द. ब. क. ठ. साई । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा: ५५ - ५७ ] विदुओ महाहियारो इन्द्र एवं श्रेणीबद्ध बिलोंकी संख्या विशि-शिविसाणं गिलिदा अट्ठासीबी जुदा य तिण्णि सया । जुत्ता उपणववी समहिया सीमंतएण [ १५५ होंति ।। ५५ ।। ३८८ । ३८६ । अर्थ :- सभी दिशाओं और विदिशाओंके कुल मिलाकर तीनसौ अठासी श्रेणीबद्ध बिल हैं । इनमें सीमन्त इन्द्रक बिल मिला देने पर सब तीनसौ नवासी होते हैं ।। ५५ ।। विशेषार्थ :- प्रथम पृथिवीमें १३ पाथड़े ( पटल) हैं, उनमेंसे प्रथम पाथड़ेकी दिशा और विदिशाके गीबद्ध बिलोंको जोड़कर चार गुणा करनेपर सीमन्तक इन्द्रक सम्बन्धी श्रेणीबद्ध बिल ( ४६+४८= ६७ x ४ = ३८८ प्राप्त होते हैं और इनमें सीमन्त इन्द्रक बिल और जोड़ देने से ( ३८८ + १ ) = ३८ ६ बिल प्राप्त होते हैं । क्रमशः श्ररणीबद्ध - बिलोंको हानि उणवदी तिष्णि सथा पढमाए पदम - पत्थडे' होंति । मिवियादिसु हीयते माघवियाए पुढं पंच ॥ ५६ ॥ । ३८६ । अर्थ :- इसप्रकार प्रथम पृथिवीके प्रथम पाथड़े में इन्द्रकसहित श्रेणीबद्ध बिल तीनसी नवासी ( ३६ ) हैं । इसके आगे द्वितीयादिक पृथिवियों में हीन होते-होते माघवी पृथिवीमें मात्र पाँच ही बिल रह गये हैं ।। ५६ ।। अट्ठाणं पि दिसाणं एक्केक्कं हीयते जहा- कमसो । एक्केषक - होयमाणे पंच च्चिय होंति परिहाणे || ५७|| अर्थ :- प्राठों ही दिशाओं में यथाक्रम एक-एक बिल कम होता गया है । इसप्रकार एक-एक बिल कम होनेसे अर्थात् सम्पूर्ण हानिके होनेपर अन्तमें पांच ही बिल शेष रह जाते हैं ।। ५७ ॥ विशेषार्थ :- सातों पृथिवियोंके ४६ पटल घीर ४६ ही इन्द्रक बिल हैं । प्रथम पृथिवीके प्रथम पटलके प्रथम इन्द्रककी एक-एक दिशा में उनचास उनचास श्रेणीबद्ध बिल और एक-एक १. क. पंथडे 1 २. द. पर जियं व ठ. संरज्जियं । क. जं रज्जियं । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ 1 तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ५५-५६ विदिशामें अड़तालीस-अड़तालीस श्रेणीबद्ध बिल हैं तथा द्वितीयादि पटलसे सप्तम पृथिवीके अन्तिम पटल पर्यन्त एक-एक दिशा एवं विदिशामें क्रमश: एक-एक घटते हुए श्रेणीबद्ध बिल हैं, अतः सप्तम पृथिवीके पटलकी दिशाओंमें तो एक-एक श्रेणीबद्ध है किन्तु विदिशात्रोंमें उनका प्रभाव है इसीलिए सप्तम पृथिवीमें ( एक इन्द्रक और चार दिशाओंके चार श्रेणीबद्ध इसप्रकार मात्र ) पात्र बिल कहे गये हैं। श्रेणीबद्ध बिलोंके प्रमाण निकालने की विधि इढिदयप्पमारणं रूऊणं 'अट्ठ-ताडिया रिणयमा । उणणवदीतिसएसुअवणिय सेसो 'हवंति तप्पडला ।।५।। अर्थ :-इष्ट इन्द्रक प्रमाणमें से एक कम कर अवशिष्टको पाठसे गुणा करनेपर जो गुरणनफल प्राप्त हो उसे तीनसौ नवासीमेंसे घटा देनेपर नियमसे शेष विवक्षित पाथड़ेके श्रेणीबद्ध सहित इन्द्रकका प्रमाण होता है ।।५८॥ विशेषार्थ :-मानलो–इष्ट इन्द्रक प्रमाण ४ है । इसमें से एक कम कर ८ से गुणित करें, पश्चात् गुणनफलको ( प्रथम पृथिवीके प्रथम पापड़ेमें इन्द्रक सहित श्रेणीबद्ध बिलोंकी संख्या) ३८६ मेंसे घटा देनेपर इष्ट प्रमाण प्राप्त होता है । यथा-इष्ट इन्द्रक प्रमाण (४ -१-३)x८=२४ । ३८६ -- २४-३६५ चतुर्थ पाथड़ेके इन्द्रक सहित श्रेणीबद्ध बिलोंका प्रमाण प्राप्त हुआ। ऐसे अन्यत्र भी जानना चाहिए । प्रकारान्तरसे प्रमाण निकालनेकी विधि अहवा इच्छे' पदर-विहीरणा उणवण्णा अट्ठ-ताडिया णियमा । सा पंच-रूव-जुत्ता इच्छिद-सेदिदया होति ॥५६।। अर्थ :- अथवा इष्ट प्रतरके प्रमाणको उनचासमेंसे कम कर देनेपर जो अवशिष्ट रहे उसको नियमपूर्वक पाठसे गुणा कर प्राप्त राशिमें पांच मिलादें । इसप्रकार अन्तमें जो संख्या प्राप्त हो वहीं विवक्षित पटलके इन्द्रकसहित श्रेणीबद्ध बिलोंका प्रमारण होती है ।।५।। विशेषार्थ :-कुल प्रतर प्रमाण संख्या ४६ मेंसे इष्ट प्रतर संख्या ४ को कमकर अवशेषको ८ से गुणित करें, पश्चात् ५ जोड़ दें । यथा---(४९ – ४ =४५)x==३६०+५= ३६५ विवक्षित १. द. इट्टतदिया। २. द. 8. हुवंति। ३. [इ8 ] । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ६०-६२ ] बिदुप्रो महायिारो [ १५७ ( चतुर्थ ) पाथड़ेके इन्द्रक सहित श्रेणीबद्ध बिलोंका प्रमाण प्राप्त हुआ। ऐसे अन्यत्र भी जानना चाहिए। इन्द्रक-बिलोंके प्रमाण निकालने की विधि उद्धि पंचोरणं भजिदं अट्रेहि सोधए लद्ध। एगुणवण्णाहितो' सेसा तत्थिदया होति ॥६०॥ प्रर्थ : (किसी विवक्षित पटलके श्रेणीबद्ध सहित इन्द्रकके प्रमाणरूप) उद्दिष्ट संख्या से पाँच कम करके आठसे भाग देनेपर जो लब्ध प्रावे, उसको उनचासमेंसे कम कर-देनेपर अवशिष्ट संख्याके बराबर वहाँके इन्द्रकका प्रमाण होला है ।। ६० ।। विशेषार्थ :-विवक्षित पटलके इन्द्रक सहित श्रेणीबदोंके प्रमारणको उद्दिष्ट कहते हैं । यहाँ चतुर्थ पटलकी संख्या विवक्षित है, अत: उद्दिष्ट (३६५) में से ५ कम कर आठसे भाम दें । भागफल को सम्पूर्ण इन्द्रक पटल संख्या ४९ मेंसे कम कर देखें । यथा-उद्दिष्ट (३६५ – ५= ३६०):८४५; ४९ – ४५ - ४ चतुर्थ पटलके इन्द्रककी प्रमाण संख्या प्राप्त होती है । मादि (मुख), उत्तर (चय) और गच्छका प्रमारण आदीयो रिपबिट्टा रिणय-णिय-चरिमिंदयस्स' परिमाणं । सन्यत्थुत्तरमळं णिय-णिय-पवराणि गच्छारिए ॥६१॥ अर्थ :--अपने-अपने अन्तिम इन्द्रकका प्रमाण प्रादि कहा गया है, चय सर्वत्र पाठ है और अपने-अपने पटलोंका प्रमाण गच्छ या पद है ।।६।। विशेषार्थ :- आदि और अन्त स्थानमें जो हीन प्रमाण होता है उसे मुख ( बदन ) अथवा प्रभव तथा अधिक प्रमाणको भूमि कहते हैं । अनेक स्थानोंमें समान रूपसे होने वाली वृद्धि अथवा हानिके प्रमाणको चय या उत्तर कहते हैं 1 स्थानको पद या गच्छ कहते हैं। आदिका प्रमाण तेणववि-जुत्त-दुसया पण-जुद-दुसया सयं च तेत्तीसं । सत्तत्तरि सगतीसं तेरस रयणप्पहादि-प्रादीनो ॥६२॥ । २६३ । २०५ । १३३ । ७७ । ३७ । १३ । १. ठ. द. ब. ऊरणावणाहिती। क, अगाविणा। २. द. ठ. चरिमंदयस्य । क. ठ. सवाछु सरमट्ट। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोय पण्णत्ती [ गाथा : ६३-६४ अर्थ : - दोसौ तेरानबं, दोसौ पाँच, एकसौ तेंतीस सतहत्तर सैंतीस और तेरह यह क्रमशः रत्नप्रभादिक छह पृथिवियों में प्रादिका प्रमाण है ||६२ || १५८ विशेषार्थ :- रत्नप्रभासे तमः प्रभा पर्यन्त छह पृथिवियोंके अन्तिम पटलकी दिशाविदिशाओं के श्रेणीबद्ध एवं इन्द्रक सहित क्रमशः २६३, २०५, १३३, ७७, ३७ और १३ बिल प्राप्त होते हैं, अपनी-अपनी पृथिवीका यही प्रादि या मुख या प्रभव है । गच्छ एवं चयका प्रभार तेरस एक्का रस - णव-सगपंच-तियाणि होंति गच्छाणि । सव्वत्थुत्तरमट्ठ' पराप्यह-पहुवि पुढवीसु १३ । ११ । ६ । ७ । ५ । ३ सम्वत्थुत्तरमट्ट अर्थ :- रत्नप्रभादिक पृथिवियोंमें क्रमश: तेरह, ग्यारह, नो, सात, पाँच और तीन गच्छ हैं । उत्तर या चय सब जगह आठ होते हैं || ६३ ॥ विशेषार्थ :- रत्नप्रभादि छह पृथिवियोंमें गच्छका प्रमाण क्रमशः १३, ११, ६, ७, ५ और ३ है तथा सर्वत्र उत्तर या चय में है । संकलित धन निकालने का विधान ॥६३॥ चय- हृदमिच्छूरा-पर्व रूणिच्छाए गुरिणद-चय- जुतं । दुगुणिद" - दरोण जुदं पद-बल-गुरिदं हवेदि संकलिदं ॥ ६४ ॥ चय - हवमिच्छूण पदं । ८ रूणिच्छाए गुरिपद चयं । ८ । जुदं ६६ । गुणिद वदरणादि सुगमं । अर्थ :- इच्छासे, हीन गच्छको चयसे गुरणा करके उसमें एक कम इच्छासे गुपित चयको जोड़कर प्राप्त हुए योगफल में दुगुने मुखको जोड़ देने के पश्चात् उसको गच्छके अर्धभागसे गुणा करनेपर संकलित धनका प्रमारण थाता है । ४. द. व मिक्कुरण पदं । रूणिच्छाए गुरिद चयं १. द. व. क. ठ सम्बद्युत्तरमंत । २. द. ब. क. रयणपढाए । ३. द. ब. सभ्य दुटुर । ५. ६. ब. क. ठ. गुणिदं वद । ६. द. ब. चयम्पदमित्थूण-पदं १३३८ । ८ । जुदं १ । दुगुणि देवादि सुगमं । इति पाठ: ७६ तम गाथायाः पश्चादुपलभ्यते । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदुषो महाहियारो विशेषार्थ :- संकलित धन निकालनेका सुत्र - संकलित धन=[ { (गच्छ इच्छा ) x चय } + { ( इच्छा - १ ) x चय } + मुख x २ | x गच्छ २ गाथा : ६५ ] [ १५६ प्रथम पृथ्वीका संकलित धन = [ ( १३ - १ ) x =+ (१ • १ ) x + २६३ २ ] x '३'८४४३३ । - = दूसरी पृथ्वीका संकलित धन [ ( ११ – २ ) x + ( २ – १ ) x ८ + २०५ × २ ] x 'ई' - २६९५ । - तीसरी पृथ्वीका संकलित धन - [ ( ६ – ३ ) x + ( ३ – १ ) x + १३३×२ ] x ३= १४८५ । चौथी पृथ्वीका संकलित धन == [ ( ७ - ४ ) × ८ + ( ४ - १ १) ८ + ७७२ ] x =७०७ । पाँचवीं पृ० का संकलित धन = [ ( ५ -- ५ ) x +{५ – १ } x + ३७ x २ ] x ३=२६५ । छठी पृ० का संकलित धन = [ ( ३-६ ) x + (६ - १) ४८ + १३ × २ ] x २०६३ । प्रकारान्तरसे संकलितधन निकालनेका प्रमाण एक्कोण मणि' - इंदयमद्विय' वग्गेज्ज मूल-संजुत्तं । प्रट्ठ- गुरणं पंच-जुदं पुढविदय-ताडिदम्मि पुढवि धणं ॥ ६५ ॥ अर्थ :- एक कम इष्ट पृथिवीके इन्द्रकप्रमाणको आधा करके उसका वर्ग करनेपर जो प्रमाण प्राप्त हो उसमें मूलको जोड़कर म्राठसे गुणा करें और पाँच जोड़ दें । पश्चात् विवक्षित पृथिवी इन्द्रकका जो प्रमाण हो उससे गुणा करनेपर विवक्षित पृथिवीका धन अर्थात् इन्द्रक एवं श्रेणीera बिलोंका प्रमाण निकलता है ।। ६५।। १. द. ब. मण्ण । २. ब्र. महिय, द. महिय । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ६६-६८ विशेषार्थ :-जैसे—प्रथम पृ० के इन्द्रक १३ – १ = १२, १२ : २-६, ६x६=३६ वगं फल, ३६+६ मूलराशि = ४२, ४२४ ६ = ३३६, २३६ + ५०-३४१, ३४५४ १५ इन्द्रक संख्या= ४४३३ प्रमारण प्रथम पृ० के इन्द्रक सहित धेरणीबद्ध बिलोंका प्राप्त हुआ। समस्त पृथिवियोंके इ. द्रक एवं श्रेणीबद्ध बिलोंकी संख्या पढमा' इंवय-सेढी चदाल-सयाणि होति तेत्तीसं । छस्सय-दुसहस्साणि पणणउदी बिदिय-पुढवीए ॥६६॥ ४४३३ । २६६५ । प्रपं:-पहली पृथिवीमें इन्द्रक और श्रेणीबद्ध बिल चार हजार चार सौ तेतीस हैं और दूसरी पृथिवीमें दो हजार छह सौ पंचानवे ( इन्द्रक एवं श्रेणीबद्ध बिल ) हैं ॥६६॥ विशेषार्थ :-( १३ – १-१२): २-६ । (६४६ = ३६ )+६ - ४२ । ४२ x ५= ३३६ । ( ३३६+५==३४१) ४ १३=४४३३ पहली पृ० के इन्द्रक और श्रेणीबद्ध बिलोंका प्रमाण है। ( ११ --- १ - १०): २=५ । (५४५-२५)+५=३० । ३०४८=२४० । ( २४०+५=२४५) x ११= २६९५ दूसरी पृ० के इन्द्रक + श्रेणीबद्ध । · तिय-पुढवोए इंदय-सेढी चउदस-सयाणि पणसीदी । सत्तुत्तराणि सत्त य सयारिंग ते होति तुरिमाए ॥६७॥ १४८५ १७०७ अर्थ :-तीसरी पृथिवीमें इन्द्रक एवं श्रेणीबद्ध बिल चौदहसौ पचासी और चौथी पृथिवीमें सातसौ सात हैं ।।६।। विशेषार्भ :-( ६ – १-८): २=४ । ( ४४४=१६)+४-२० । २०४८ १६०, ( १६० + ५)x६= १४८५ तीसरी पृ० के इन्द्रक और श्रेणीबद्ध । पणसट्ठी दोषिण सया इंदय-सेढीए पंचम-खिदीए । तेसट्टी छठीए चरिमाए पंच गादत्वा ॥६॥ २६५ । ६३ । ५। . .--. . - - ---- - १. ब. पुढमा। २. द. बद्धस्स । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया : ६६-७० ] विदुरो महाहियारो [ १६१ अर्थ :पाँचवीं पृथिवीमें दोसौ पैसठ, छठीमें तिरेसठ और अन्तिम सातवीं पृथिवीमें मात्र पांच ही इन्द्रक और श्रेणीबद्ध बिल हैं, ऐसा जानना चाहिए । ६८।। विशेषा:-( ५ ......... ..२, ९=४) + २-६ । ६४८=४८, (४८+५=५३)x५= २६५ पाँचवीं पृ० के इन्द्रक और श्रेणीबद्ध । ( ३ -- १-२)२= १ । (१४१=१)+१=२ । २४८- १६ । ( १६+५-२१)४३-६३ छठी पृथिवीके इन्द्रक और श्रेणीबद्ध बिलोंका प्रमाण । (१ – १-० ):-२८०, ( oxo ==0)+o = 0 1 0x4-0 | ( ०+५=५)x१=५ सातवीं पृथिवीके इन्द्रक और श्रेणीबद्ध बिलोंका प्रमाण । सम्मिलित प्रमाण निकालनेके लिए प्रादि चय एवं गच्छका प्रमाण पंचादी अट्ठ चयं उणवण्णा होंति गच्छ-परिमाणं । सन्याणं पुढवीणं सेढीद्धिदयाण 'इमं ॥६६॥ 'चय-हदमिट्ठाधिय-पदमेक्काधिय-इट्ठ-गुरिणय-यय-होणं । दुगुणिद-वदणेण जुई पद-बल-गुणिवम्मि होदि संकलिदं ॥७०॥ अर्थ :--सम्पूर्ण पृथिवियोंके इन्द्रक एवं श्रेणीबद्ध बिलोंके प्रमाणको निकालनेके लिए आदि पाँच, चय आठ और गच्छका प्रमाण उनचास है ॥६६॥ इष्टसे अधिक पदको चयसे मुरणा करके उसमेंसे, एक अधिक इष्टसे गुणित चयको घटा देनेपर जो शेष रहे उसमें दुगुने मुखको जोड़कर गच्छके अर्धभागसे गुणा करनेपर संकलित धन प्राप्त होता है ।।७॥ विशेषार्थ :-सातों पृथिवियोंके इन्द्रक और श्रेणीबद्धोंकी सामूहिक संख्या निकालने हेतु आदि अर्थात् मुख ५, चय ८ और गच्छ या पदका प्रमाण ४६ है। यहाँ पर इष्ट ७ है अतः इष्ट से अधिक पदको अर्थात् ( ४६+७)=५६ को (चय ) से गुणा करनेपर ( ५६४८)= ४४८ प्राप्त हुए, इसमेंसे एक अधिक इष्ट से गुरिणत चय अर्थात् (७ +१=८ )x८-६४ घटा देनेपर ( ४४८ – ६४ ) = ३८४ शेष रहे, इसमें दुगुने मुख ( ५४२)=१० को जोड़कर जो ३६४ प्राप्त हुए उसमें ३ का गुणा कर देनेपर ( 39Xx)-६६५३ सातों पृथिवियोंका संकलित धन अर्थात् इन्द्रक और श्रेणीवद्धोंका प्रमाण प्राप्त हुआ। १. द. ब. इंदम। २. द. क. चम्पदमिद्वादियपदमेक्कादिय, ब. चयहमिद्रदिय पदेमक्कादिय । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ | श्रहवा तिलोय पणती समस्त पृथिवियोंका संकलित धन निकालने का विधान [ गाथा : ७१-७४ अधियस्य । अट्ठत्तालं दलिगं गुणिदं पहचनं । उणवण्णाए पहदं सव्ब-धणं होइ पुढवीणं ॥ ७१ ॥ अर्थ :- ग्रथवा अड़तालीसके आधेको आठसे गुणा करके उसमें पांच मिला देनेपर प्राप्त हुई राशिको उनचास से गुणा करें तो सातों पृथिवियोंका सर्वधन प्राप्त हो जाता है । विशेषार्थं : -x८ = १६२, १६२+५=१६७, १६७४६ = ६६५३ सर्व पृथिवियोंका संकलित धन 1 प्रकारान्तरसे संकलित धन निकालनेका विधान इंदय सेढीबद्धा णवय सहस्साणि इस्सयागं पि । तेवणं अधियाइ सव्वासु वि होंति खोणीसु ॥ ७२ ॥ । ६६५३ । अर्थ :---सम्पूर्ण पृथिवियों में कुल नौहजार छहसौ तिरेपन ( ६६५३ ) इन्द्रक और श्रेणीबद्ध बिल हैं ||७२ || समस्त पृथिवियोंके इन्द्रक और श्रीबद्ध बिलोंकी संख्या णिय णिय - चरिमिदय' - धण मेक्कोणं' होदि श्रादि- परिमाणं । नियणिय-पदरा गच्छा पचया सव्वत्थ द्वेष ॥७३॥ अर्थ :- प्रत्येक पृथिवीके श्रीधनको निकालने के लिए एक कम अपने-अपने चरम इन्द्रकका प्रमाण आदि, अपने - अपने पटलका प्रमाण गच्छ और चय सर्वत्र प्राठ ही है ||७३ || प्रथमादि पृथिवियोंके श्रीबद्ध बिलोंकी संख्या निकालने के लिए आदि गच्छ एवं चयका निर्देश बाणउदि जुत्त दुसया चउ-जुद दु-सया सयं च बत्तीसं । छावत्तरि छत्तीसं बारस रयणप्पहादि श्रादी ||७४ || १. क. चरमिद धय । २. क. मेक्कारणं । ३. ब. लई व द. ठ. लट्टेव । ४. क. चउ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदुयो महाहियारो २६२ । २०४ । १३२ । ७६ । ३६ । १२ अर्थ : - दोसौ बानवे, दोसौ चार, एकसौ बत्तीस छयत्तर, छत्तीस और बारह, इस प्रकार रत्नप्रभादि छह पृथिवियोंमें भाविका प्रमाण है ||७४ || गाथा : ७५-७७ ] विशेषार्थ :- प्रत्येक पृथिवीके अन्तिम पटलकी दिशा - विदिशाओंके श्रीबद्ध बिलोंका प्रमाण क्रमशः २६२, २०४, १३२, ७६, ३६ और १२ है । श्रादि (मुख) का प्रमाण भी यही है । ग-पंच-तियाणि होति गच्छाणि । सभ्यम्बुठयोगं ७९॥ तेरस एक्कारस - णव सग-पं सव्वत्युत्तरम सेठि अर्थ : सब पृथिवियोंके ( पृथक्-पृथक् ) श्री धनको निकालनेके लिए गच्छका प्रमाण तेरह, ग्यारह, नौ, सात, पाँच श्रौर तीन है; चय सर्वत्र भाव ही हैं 11७५।२ प्रथमादि-पृथिवियोंके श्रेणीबद्ध बिलोंकी संख्या निकालने का विधान पद-वगं चय-पहदं' दुगुणिद-गच्छेण गुणिद-मुह-त्त ं । बद-हद-पद-विहीण दलिदं जाणेज्ज संकलिवं ॥ ७६ ॥ म :--- पदके वर्गको चयसे गुणा करके उसमें दुगुने पदसे गुणित मुखको जोड़ देनेपर जो राशि उत्पन्न हो उसमें से चयसे गुणित पदप्रमाएको घटाकर शेषको आधा करनेपर प्राप्त हुई राशि के प्रकारण संकलित श्र ेणीबद्ध बिलोंकी संख्या जानना चाहिए ||७६ ।। प्रथमादि- पृथिवियोंमें श्रेणीबद्ध - बिलोंकी संख्या चत्तारि सहस्सा रिंग चउस्सया बीस होंति पढमाए । दि-गवा बिविधाए दु-सहस्सा 'छस्सारिण चुलसोदी ॥७७॥१ ४४२० । २६८४ धर्म :- पहली पृथिवीमें चार हजार चार सौ बीस और दूसरी पृथिवीमें दो हजार छहसी चौरासी श्रीबद्ध बिल हैं ।।७७ । विशेषार्थ :- (१३८ ) + (१३४२x२९२ ) – ( ८x१३ ) [ १६३ पहली पृथिवीगत श्र ेणीबद्ध - बिलोंका कुल प्रमाण - ८८४० १. द. क. चयपदं । २. द. न. मुवजुतं । ३. ब. षट्टि । ऊ घड प्रधिप । = ४४२० ४. ब. इसबाण । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४] तिलोयपणती [ गाथा : ७८-७९ (११२४८) + (११४२४२०४) -(८x११) _ ५३६८ - २६८४ दूसरी पृथिवीगत श्रेणीबद्ध बिलोंका कुल प्रमाण । यहाँ गाथा ॥७६॥ के निम्न सूत्रका प्रयोग हुआ है :संकलित धन= [ (पद)२ x चय+ ( २ पद मुख)–पद X चय ] x : चोद्दस-सयारिण छाहत्तरीय तवियाए तह य सत्त-सया । तुरिमाए सट्ठि-जुदं दु-सयारिण पंचमीए' थि ।।७।। १४७६ । ७०० १ २६० । प्रर्थ:-तीसरी पृथिवीमें चौदहसौ छयत्तर, चौथीमें सातसौ और पाँचवों पृथिवीमें दोसौ साठ श्रेणीबद्ध बिल हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥७॥ विशेषार्थ :- (९२४८) + (९४२४१३२) -- (८४६) = २९५२ = १४७६ तीसरी पृथिवीज कोशीबद्ध निझोंका मुल प्रमा। (७२४८) + (७४२४७६), (८४७) = १४०० = ७०० चौथो पृथिवीगत श्रेणीबद्ध बिलोंका कुल प्रमाण । __{५२४८ ) + { ५५२४३६ ) (८४५) = ५२० - २६० पाँचवीं पृथिवीगत श्रेणीबद्ध बिलोंका कुल प्रमाण । सट्ठी तमप्पहाए चरिम-धरित्तीए होति यत्तारि । एवं सेढीबद्धा पत्तेक्कं सत्त-खोणीसु ॥७॥ ६०1४। अर्थ : तमःप्रभा पृथिवीमें साठ और अन्तिम महातमःप्रभा पृथिवीमें चार श्रेणीबद्ध बिल हैं । इसप्रकार सात पृथिवियों से प्रत्येकमें श्रेणीबद्ध बिलोंका प्रमाण समझना चाहिए ॥७॥ ------- - - १. द. ब. क. पंचमिए होदि पायम्यं । उ. पंचमिए होदि यादव। २. . वंतिरिए। ३. द.ब. क.. खोणीए । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ८०.८२ ] विदुप्रो महाहियारो [ १६५ विशेषार्थ :- (३२४८) + (३४२४१२)-(८४३) = १२० - ६० छठी पृथिवीगत श्रेणीबद्ध बिलोंका कुल प्रमाण । सातवीं पृथिवीमें मात्र ४ ही श्रेणीबद्ध बिल हैं। सब पृथिवियोंके समस्त श्रेणीबद्ध बिलोंको संख्या निकालनेके लिए प्रादि, चय और गच्छका निर्देश चउ-रूवाई प्रावि पचय-पमाणं पि अटु-रूवाई। गल्छस्स य परिमाणं हवेदि एक्कोणपण्णासा ।।८०॥ ४15 1४६। मर्थ :-( रत्नप्रभादिक पृथिवियोंमें सम्पूर्ण श्रेणीबद्ध बिलोंका प्रमाण निकालने के लिए) प्रादिका प्रमाण चार, चयका प्रमाण पाठ और गच्छ या पदका प्रमाण एक कम पचास अर्थात् ४९ होता है ।।८।। सब पृथिवियोंके समस्त श्रेणीबद्ध बिलोंकी संख्या निकालनेका विधान पद-वग्गं पद-रहिदं चय-गुणिदं पद-हवादि-जुदमद्ध" । मुह-दल-गुरिणव-पदेणं' संजुत्तं होदि संकलिदं ॥१॥ अर्थ :-पदका वर्गकर उसमेंसे पदके प्रमाणको कम करके अवशिष्ट राशिको चयके प्रमाणसे गुणा करना चाहिए । पश्चात् उसमें पदसे गुणिद यादिको मिलाकर और उसका प्राधा कर प्राप्त राशिमें मुखके अर्घ-भागसे गुणिद पदके मिला देनेपर संकलित धनका प्रमाण निकलता है ।।८।। . (४९—४६ ) x ८+ ( ४६४४) + (२ ४ ४९) = विशेषार्थ २ ( २४०१–४६ }४८+ ( १६६ ) + (९८)= २३५२५८+१६६ +९८-९६०४ संकलित धन । समस्त श्रेणीबद्ध-बिलोंकी संख्या रयरगप्पह-पहृदोसु पुढवीसु सव्व-सेढिबद्धाणं । घउरुसर-छच्च-सया णव य सहस्सारिप परिमाणं ।।८२॥ ९६०४ १. ६. जुदमद, प. जुदमट्ठ। २. द. एदेणं । ३. द. ब. उत्तरछस्ससया। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोय पण्णत्ती [ गाथा : ८३-८४ अर्थ :-- रत्नप्रभादिक पृथिवियों में सम्पूर्ण श्रणीबद्ध बिलोंका प्रमाण नौ हजार छहसी चार (६६०४) है ||२|| १६६ ] प्रादि (मुख) निकालने की विधि पद-दल- हिद- संकलिदं' इच्छाए गुरिणव- पचय - संजुतं । रूणिच्छाधिय-पद-चय-गुणिवं प्रवणि श्रद्धिए प्रादी ॥ ८३ ॥ अर्थ :- पदके अर्धभागसे भाजित संकलित धनमें इच्छा से गुणित चयको जोड़कर और उसमें से चयसे गुणित एक कम इच्छा से अधिक पदको कम करके शेषको आधा करनेपर श्रादिका प्रमाण आता है ||८३॥ विशेषार्य :- यहाँ पद ४९, संकलित धन ९६०४, इच्छा राशि ७ और चय है। (१६०४÷६')+(८ ×७) --( ७७–१+४९ ) × ८ ३६२+५६–४४० ४४८ - ४४० २ २ = ई श्रर्थात् ४ आदि या मुखका प्रमाण प्राप्त होता है । इस गाथाका सूत्र :- श्रादि = [ ( संकलित धन पद / २ ) + ( इच्छा x चय ) ( ( इच्छा - १ ) + पद } चय | । चय निकालने की विधि पव-दल-हब-वेक पदावहरिद-संकलिद-वित्त- परिमाणे । deveद्ध र हिदं श्रादि सोहेज्ज* तत्थ सेस चयं || ६४ || ९६०४ । ६६०४५ प्रपतिते, वेकपदख ेण ४८ हिदं प्रादि सोहेज्ज' शोधित शेषमिवं ४८ प्रपवर्तिते ८" । १० १. ब. क. बलहिदलंस लिदै । पढलहद वेकपाइावहरिद" ५. द. ब. क. . ४६ सोगेज्ज | गाथायाः पश्चादुपलभ्यते । ८.६० ११. अ. ब. क. ठ.९ । - -----....... २. व. पडलहृदयेकपादावहरिद 'परिमाणो । क. ब. .... परिमाणो । ३. द. ब. क. उ. बेकपदेश । ४. द. ब. ठ. ६. द. ब. वेकपदे ४४ । ७. द. व. प्रत्योः इदं ८५ तम । ६. द. ब. क. सोदेज्ज, ठ. कोदेज्ज । १०. ८. ३ । ब. क. ४.३० । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ८५ ] बिदुप्रो महायिारो प्रर्थ :-पदके अर्धभागसे मुणित जो एक कम पद, उससे भाजित संकलित धनके प्रमाणमेंसे एक कम पदके अर्धभागसे भाजित मुखको कम कर देनेपर शेष चयका प्रमाण होता है ।।४।। विशेषार्थ :- पदका अर्धभाग ३', एक कम पद (४६ – १)=४८, संकलित धन ९६०४, एक कम पदका अर्ध भाग ( ४९ -१=४८, मुख ४ । अर्थात ६०४ (४६ -१४ )(४४-- =६६०४:११७६ - १ -४८ चय प्राप्त हुआ। इस गाथाका सूत्रचय संकलित धन = | (पद- १) पद ] --- (मुख : पद-१) दो प्रकारसे गच्छ-निकालनेकी विधि चय-दल-हद-संकलिदं चय-दल-रहिवादि अद्ध-कमि-जुत्तं । मूलं 'पुरिमूलूणं पचयद्ध-हिदम्मि' तं तु 'पदं ।।५।। अहवा संवष्टि 'चय-वल-हव-संकलिदं ४४२० । ४ । चय-दल-रहिवादि २८८ । प्रद्ध १४४ । कदि २०७३६ । जुत्त ३६४१६ । मूलं १६६ पुरिमूल १४४ । ऊणं ५२ । पचयद्ध ४ । हिदं १३ । पर्थ :-चयके अर्धभागसे गुणित संकलित धनमें चयके अर्धभागसे रहित प्रादि (मुख) के अर्धभागके वर्गको मिला देनेपर जो राशि उत्पन्न हो उसका वर्गमूल निकालें, पश्चात् उसमेंसे पूर्व मूलको (जिसके वर्गको संकलित धनमें जोड़ा था) घटाकर अवशिष्ट राशिमें चयके अर्धभागका भाग देनेपर पदका प्रमाण निकलता है ।।५।। विशेषार्थ :-चय ८, इसका दल अर्थात् प्राधा ४, इससे गुणित संकलित धन ४४२०, अर्थात् ४४२०४४ । चय-दल-रहितादि अर्थात् २९२ मुख मेंसे चय (८) का अर्धभाग (४) घटानेपर .१. क. पुरिमूलणं, ठ. उरिमूलग। २. ब. हिदमित्तं । ३ द. ब. पदयथवा । ४. द. व. मूलूरणं पूर्व-मूले भाएं ५२ । चय-भजिदं ५२=१। चय-दल-हद-संकलिदं ४४२० । ४। चय-दल-रहिदाहिदादि २८८ । प्रद्ध १४४ । १०७३७ । जुत्त ३८४१६ । ४ । मूलं १९६ । पुरि २= | दु२। चयट्ठ-हदं संकलिदै ४४२० । १६ चय ८ | द ४ । बदन २९२ । अंतरस्स २८८ । वग्गजुदं १३ । मूलं इंदं ३९२ । पुरिमूल २८८ । चय-भजिदं १०४ 1 पदं १३- ८ । इति पाठः ८६ तम माथायाः पश्चादुपलभ्यते । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ] तिलोय पण्णत्ती [ गाथा ८६ २८ अवशेष रहे तथा इसका आधा १४४ हुए। इसका (१४४) वर्ग २०७३६ इसे (४४२०४ ४=-) १७६८० में मिला देनेपर ३८४१६ होते हैं । इस राशिका वर्गमूल १९६ आता है । इस वर्गमूलमैंसे पूर्वमूल अर्थात् १४४ घटा देनेपर ५२ शेष बचे । इसमें अर्ध-चय ( ४ ) का भाग देनेपर पदका प्रमाण १३ प्राप्त हो जाता है । यथा–{ v{{×४४२०)+(23) – ( २१२ – 01: - = / १७६८० + १४४२–१४४=: 1११gdxx प्रमाण । - १३ पहली पृ० का पद इस गाथाका सूत्र- पद={ v(संकलित धन × चय) + (आदि - चय) - ( श्रादि-चय ) } : च्य अहवा -चम-हदं संकलिदं चय-दल-यवरगंतरस्स वग्ग- जुदं । मूलं पुरिमूलूणं चय- भजिवं होदि तं तु पदं ॥ ८६ ॥ श्रहवा संदृष्टि-दु २ । वय ८ । दु-चय-हवं संकलिवं ४४२० । १६ । चयवल ४ | वदन २६२ । अंतरस्स २८८ | बग ३६२ । मूलं ३६२ पुरिमूल २८८ । ऊणं १०४ । चय भजिवं ४ | पदं १३ । अर्थ : अथवा - - दुगुने चयसे गुणित संकलित धनमें चयके अर्धभाग और मुखके अन्तर रूप संख्या वर्गको जोड़कर उसका वर्गमूल निकालने पर जो संख्या प्राप्त हो उसमेंसे पूर्व मूलको ( जिसके वर्गको संकलित धनमें जोड़ा था ) घटाकर शेषमें चयका भाग देनेपर विवक्षित पृथिवीके पदका प्रमाण निकलता है || ८६ ॥ विशेषार्थ :- दुगुणित चय ६४२-१६ इससे गुणित संकलित धन ४४२०x१६, चयका प्रभाग ४, मुख, २९२ मुख २१२ मेंसे ४ घटाने पर २८८ अवशेष रहे, इसका वर्ग ८२९४४ प्राप्त हुआ, इसमें १६ गुणित सङ्कलित धन ७०७२० जोड़ देनेपर १५३६६४ प्राप्त हुए और इसका वर्गमूल ३९२ श्राया । इस वर्गमूल मेंसे पूर्वमूल अर्थात् २८० घटानेपर १०४ अवशिष्ट रहे । इसमें चय ८ (आठ) का भाग देनेपर (208) १३ प्र० पृ० के पदका प्रमाण प्राप्त हुआ । यथा Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ८७-८१ ] विदुषो महाहियारो { √(२ × = x ४४२०) + (२९२ – ३) ३ - ( २९२–६) }÷= =v७०७२० + ८२९९ – २८८६ = १६४ = १३ प्रथम पृ० के पदका प्रमारण । ८ हैं ॥ ८८ ॥ इस गाथा का सूत्र : पद={ √(२ चय × संकलित धन) + (श्रादिचयू) – ( श्रादि-चय ) } + चय प्रत्येक पृथिवीके प्रकीर्णक बिलोंका प्रमाण निकालने की विधि पत्तेयं रयणादी-सम्ध-बिलारणं ठयेज्ज परिसंखं । णिय - णिय-सेढीबद्ध' य इंदय - रहिदा पइण्णया होंति ॥८७॥ अर्थ :- रत्नप्रभादिक प्रत्येक पृथिवीके सम्पूर्ण बिलोंकी संख्या रखकर उसमेंसे अपने-अपने श्रेणीबद्ध और इन्द्रक बिलोंकी संख्या घटा देउसीको शेष न बिलोंका प्रमाण प्राप्त होता है ।। ८७ ।। उणतीसं लक्खा रिंग पंचारणउदी - सहस्स-पंच-सया | सगसट्ठी - संजुत्ता पइरणया 1 २εε५५६७ । अर्थ :- प्रथम पृथिवीमें उनतीस लाख, पंचान्नवे हजार पाँचसी सडसठ प्रकीर्णक बिल [ १६९ पढम - पुढवीए ||६६ ॥ विशेषार्थ :- प्रथम पृथिवीमें कुल बिल ३०००००० हैं, इनमेंसे १३ इन्द्रक और ४४२० श्रेणीबद्ध घटा देनेपर ३००००००- ( १३ + ४४२० ) = २९९५५६७ प्रथम पृथिवीके प्रकीर्णक बिलोंकी संख्या प्राप्त हो जाती है । चवीस लक्खाणि सत्ताणवदो सहस्त-ति-सयाणि । पंत्तराणि होंति हु पइण्णया विदिय-खोणीए || ८ || २४६७३०५ । १. द. सेडीया, ब. सेहिया ठ. सेढीभा, Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० ! तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ६०-६२ मर्थ :-द्वितीय पृथिवीमें चौबीस लाख सतानब हजार तीनसौ पाँच प्रकीर्णक बिल । हैं ॥९॥ शिवार्थ : -- 'दूसरो चियाम कुल बिल २५८०००० हैं, इनमें से ११ इन्द्रक और २६८४ श्रेणीबद्ध बिल घटा देनेपर शेष २४९७३०५ प्रकीर्णक बिल हैं। 'चोद्दस-लक्खाणि तहा अढाणउदी-सहस्स-पंच-सया । पण्णदसेहिं जुत्ता पइण्गया तदिय-वसुहाए ||६०॥ १४६८५१५ । अर्थ :---तीसरी पृथिवीमें चौदह लाख, अट्ठानचे हजार पाँचसौ पन्द्रह प्रकीर्णक बिल हैं ।।१०।। विशेषाय :-तीसरी पृथिवीमें कुल बिल १५००००० हैं, इनमेंसे इन्द्रक बिल और १४७६ श्रेणीबद्ध बिल घटा देनेपर शेष १४६८५१५ प्रकीर्णक बिल प्राप्त होते हैं । णव-लक्खा णवणउदी-सहस्सया दो-सयाणि 'तेणउदी। तुरियाए वसुमइए पइण्णयाणं च परिमाणं ॥१॥ १६६२६३ । पर्य :-चतुर्थ पृथिवीमें प्रकीर्णक बिलोंका प्रमाण नौ लाख, निन्यानबे हजार दोसौ तेरानब है ।।६१ विशेषार्थ : चतुर्थ पृथिवी में कुल बिल १०००००० हैं, इनमेंसे ७ इन्द्रक और ७०० श्रेणीबद्ध बिल घटा देनेपर शेष प्रकीर्णक बिलोंकी संख्या ६९६२६३ प्राप्त होती है। दो लक्खाणि सहस्सा 'णवरखउदी सग-सयाणि पणतीसं । पंचम-वसुधायाए पइण्णया होंति णियमेणं ॥२॥ २६६७३५ । अर्थ :-पाँचवीं पृथिवीमें नियमसे दो लाख, निन्यानबे हजार सातसौ पैंतीस प्रकीर्णक बिल हैं ॥१२॥ विशेषार्थ :--पाँचवीं पृथिवीमें कुल बिल ३००००० हैं, इनमेंसे ५ इन्द्रक और २६० श्रेणीबद्ध बिल घटा देनेपर शेष प्रकीर्णक बिलोंकी संख्या २,६६,७३५ प्राप्त होती है। १. द. चोहसयं जारिण, ब. नोट्सएं जाणि । ठ. चोदसए झारिण ! म. चोइसए जापि । २. क. तेणवदी। ३. ६. रणउणउदी । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ६३-६४ ] वियुप्रो महाहियारो [ १७१ महासटो-हीणं लक्खं छट्ठीए' मेदिणीए वि । प्रवणीए सत्तमिए पइपया णस्थि णियमेणं ॥३॥ ६६६३२ । अर्थ :-छठी पृथिवीमें अड़सठ कम एक लाख प्रकीर्णक बिल हैं। सातवीं पृथिवीमें नियममे प्रकीर्णक बिल नहीं हैं ॥३॥ विशेषार्थ :-छठी पृथिवीमें कुल बिल REEE५ हैं, इनमेंसे तीन इन्द्रक और ६० श्रेणीबद्ध बिल घटा देनेपर प्रकीर्णक बिलोंकी संख्या ६६६३२ प्राप्त होती है । सप्तम पृथिवीमें एक इन्द्रक और चारों दिशानोंमें एक-एक श्रेणीबद्ध, इसप्रकार कुल पांच ही बिल हैं। प्रकीर्णक बिल वहाँ नहीं हैं। छह-पृथिवियोंके समस्त प्रकीर्णक बिलोंकी संख्या तेसीदि लक्खाणि उदि-सहस्साणि ति-सय-सगवालं । छप्पुढवीणं मिलिदा सब्वे वि पइण्णया होंति ॥१४॥ ८३६०३४७। अर्थ:-छह पृथिवियोंक सभी प्रकीर्णक बिलोंका योग तेरासी लाख, नव्यै हजार तीनसौ सैंतालीस है ।।६४॥ [ विशेषार्थ अगले पृष्ठ पर देखिये ] १. द. छट्ठी, ब. क. छट्ठी । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ ] विशेषार्थं पृथिवियाँ प्र० पृ० द्वि० पृ० तृ० पृ० च० पृ० पं० पृ० ष० पृ० स० पृ० -: सर्व बिल 11 ३०००००० २५००००० १५००००० १०००००० ३००००० CCT६५ ५— - तिलोय पण्णत्ती इन्द्रक + १३ + ११ + £ + 19+ ५ + ३+ १ + श्रेणीबद्ध ४४२० २६८४ १४७६ २६० = = ४ ܒ - ७०० = ६० = [ गाथा : ९५-९६ प्रकीर्णक २६६५५६७ २४६७३०५ १४६८५१५ ६६६२६३ २६६७३५ C६६३२ O ८३,६०,३४७ सर्व पृथिवियोंके प्रकीर्णक बिलोंका प्रमाण । इन्द्राटिक बिलोंका विस्तार संखेज्जमिदयाणं रुदं सेढीगयाण जोयरगया । तं होदि 'प्रसंखेज्जं पइण्णयाणुभय- मिस्सं च ॥६५॥ ७ । रि । ७रि । अर्थ :- इन्द्रक बिलोंका विस्तार संख्यात योजन, श्रेणीबद्ध बिलोंका असंख्यात योजन और प्रकीर्णक बिलोंका विस्तार उभयमिश्र अर्थात् कुछका संख्यात और कुछका प्रसंख्यात योजन है ।। ६५।। संख्यात एवं असंख्यात योजन विस्तारवाले बिलोंका प्रमाण संखेज्जा वित्थारा णिरयाणं पंचमस्स परिमाणा । सेस चउ-पंच-भागा होंति प्रसंखेज्ज-रुंदाई ॥ ६६ ॥ ८४००००० | १६८०००० । ६७२०००० । १. द. व. यसंखेज्जं । २. द. ब. क्र. ट. शुभयमस्सरूवं । ३. [ ७ । २ । ७ । ६ । २ । ७ । ] Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ६७ ] विदुओ महाहियारो अर्थ:-सम्पूर्ण बिलसंख्याके पाँच भागोंमेंसे एक भाग (1) प्रमाण बिलोंका विस्तार संख्यात योजन और शेष चारभाग (३ ) प्रमाण बिलोंका विस्तार असंख्यात योजन है १९६।। विशेषार्य :-सातों पृथिवियोंके समस्त बिलोंका प्रमाण ८४००००० है। इसका भाग अर्थात् ८४००००० =१६८०००० बिल संख्यात योजन प्रमाण वाले और ८४०००००४= ६७२०००० दिल असंख्यात योजन प्रमाण वाले हैं । रत्नप्रभादिक पणिदिरों में संख्या एवं प्रसंगार गोजा विस्तार वाले बिलोंका पृथक्-पृथक् प्रमाण छ-पंच-ति-युग-लक्खा सट्रि-सहस्साणि तह य एक्कोणा। वीस-सहस्सा एक्क 'रयणादिसु संख-वित्थारा ॥६॥ ६००००० 1 ५००००० । ३००००० । २०००००। ६०००० 1 १६६६६।१। पर्म :-रत्नप्रभादिक पृथिवियोंमें क्रमशः छह लाख, पाँच लाख, तीन लाख, दो लाख, साठ हजार, एक कम बीस हजार और एक, इतने बिलोंका विस्तार संख्यात योजन प्रमाण है ॥१७॥ विशेषार्थ :-रत्नप्रभादिक प्रत्येक पृथिवीके सम्पूर्ण बिलोंके 1 वें भाग प्रमाण बिल संख्यात योजन विस्तार वाले हैं । यथा पहली पृ० में–३०००००० का = ६००००० बिल संख्यात यो० विस्तार वाले। दूसरी पृ० में–२५००००० का -५००००० तीसरी , -१५००००० का -३००००० , , , चौथी , –१०००००० का=२००००० पाँचवीं , –३००००० का =६०००० छठी , –९९९९५ का ३= १९९९९ सातवीं ,, –५ का १. ६. व. क. ठ. ट्टयणे दिसु । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ] तिलोयपण्णती [ गाथा : ६८-१०० चउवीस-वीस-बारस-अट्ट-पमारणारिस होंति लक्खाणि । सय-कदि-हद'-चवीसं सीदि-सहस्सा य चउ-हीणा ॥९॥ २४००००० । २०००००० । १२००००० । ८००००० । २४०००० । ७९९९६ । चत्तारि 'च्चिय एदे होंति असंखेज्ज-जोयणा दा । रयणप्पह-पहुदीए कमेण सव्वाण पुढवीणं ॥६॥ अर्थ :-रत्नप्रभादिक-पृथिवियोंमें क्रमश: चौबीस लाख, बीस लाख, बारह लाख, आठ लाख, चौबीससे गुणित सौ के वर्ग प्रमाण अर्थान् दो लाख चालीस हजार, चार कम अस्सी हजार और चार, इतने बिल असंख्यात योजन प्रमारण विस्तार वाले हैं ।।९८-९९॥ विशेषार्ष: रत्नप्रभादिक प्रत्येक पृथिवीके कुल बिलोंके वें भाग प्रमाण बिल असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं । यथा पहली--पृ० में–३०००००० का ३ - २४००००० बिल असंख्यात यो० विस्तार वाले। दूसरी- , --२५००००० का २०००००० तीसरी-, -१५००००० का ३=१२००००० । चौथी -- , -१०००००० का ३६००००० पाँचवीं-- , -३० ०००० का =२४०००० छठी- , -६६६६५ का ३=७६६६६ सातवीं-,, -५ का ३-४ सर्व बिलोंका तिरछे रूपमें जघन्य एवं उत्कृष्ट अन्तराल संखेज्ज-हंद-संजुद-णि रय-बिलारणं जहण्ण-विच्चालं । छक्कोसा तेरिच्छे उक्कस्से 'संदुगुणिदं तु ॥१०॥ को ६ । १२ । - ---- - -- - १. द. सयकदिदि । २. द. रचिय, ब. रविन । ३. ६. जहण-विस्थारं। ४. ६. ब. दुगुरिणदो। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १०१-१०३ ] विदुनो महाहियारो [ १७५ मर्थ :-नारकियोंके संख्यात योजन विस्तार वाले बिलोंमें तिरछे रूपमें जघन्य अन्तराल छह कोस प्रमाण और उत्कृष्ट अन्तराल इससे दुगुना अर्थात् बारह कोस प्रमाण है ।।१००। विशेषार्थ :-संख्यात योजन विस्तार वाले नरकबिलोंका जघन्य तिर्यग् अन्तर छह कोस (१३ योजन ) और उत्कृष्ट तिर्यग् अन्तर १२ कोस ( ३ योजन ) प्रमाण है। रिणरय-बिलाणं होदि हु असंख-रु'दाग प्रवर-विच्चालं । जोयण-सत्त-सहस्सं उक्करसे तं असंखेज्जं ॥१०॥ जो० ७००० । रि। अर्थ:-नारकियोंके असंख्यात योजन विस्तारवाले बिलोंका जघन्य अन्तराल सात हजार योजन और उत्कृष्ट अन्तराल असंख्यात योजन ही है ।।१०१।। विशेषार्थ :-असंख्यात योजन विस्तारवाले नरक बिलोंका अमान्य तिय अन्तर ७००० योजन और उत्कृष्ट तिर्यग् अन्तर असंख्यात योजन प्रमाण है । संदृष्टिमें असंख्यातका चिह्न 'रि' ग्रहण किया गया है। प्रकीर्णक बिलोंमें संख्यात एवं असंख्यात योजन विस्तृत बिलोंका विभाग उत्त-पइण्णय-मज्झे होंति हु 'बहवो' असंख-वित्थारा । संखेज्ज-वास-जुत्ता थोवा 'होर-तिमिर-संजुत्ता ॥१०२१॥ अर्थ : पूर्वोक्त प्रकीर्णक बिलोंमें-प्रसंख्यात योजन विस्तारवाले बिल बहुत है और संख्यात योजन विस्तारवाले बिल थोड़े हैं । ये सब बिल घोर अंधकारसे व्याप्त रहते हैं ॥१०२॥ सग-सग-पुढवि-गयाणं संखासंखेज्ज-हद-रासिम्मि । इंदय-सेटि-विहीणे कमसो सेसा पइण्णए उभयं ॥१०॥ ५६६६८७ । प्र. २३६५५८०५। एवं पुढवि पडि पाणेदव्वं । अर्थ :-अपनी-अपनी पृथिवीके संख्यात योजन विस्तारवाले बिलोंकी राशिमेंसे इन्द्रक बिलोंका प्रमाण-घटा देनेपर-संख्यात योजन विस्तारवाले प्रकीर्णक बिलोंका प्रमाण शेष रहता है । ४. च. होएति १. क. ए. बहुवो। २. द. ब. क. वित्थारो। ठ. वित्थारे। ३. क. होराति। तिमिर । ५. क. 8. २३९५६८० । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ ] . तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : १०३ इसीप्रकार अपनी-अपनी पृथिवीके असंख्यात योजन विस्तारवाले बिलोंकी संख्यामेंसे क्रमशः श्रेणीबद्ध बिलोंका प्रमाण-घटा देनेपर असंख्यात योजन विस्तारवाले प्रकीर्णक बिलोंका प्रमाण अवशिष्ट रहता है ।।१०३।। इसप्रकार प्रत्येक पृथिवीके प्रकीर्णक बिलोंका प्रमाण ज्ञात कर लेना चाहिए । विशेषार्थ :-पहली-पृथिवी संस्थात यो विस्तार बाले सर्व बिल ६०००००–१३ इन्द्रक=५९९९८७ प्रकीर्णक सं० यो० वाले । असंख्यात यो० विस्तार वाले सर्व बिल २४००००० -४४२० श्रेणी०=२३६५५८० प्रकीर्णक असंख्यात यो० बाले । दुसरी-पृथिवी ____ संख्यात यो० वि० वाले सर्व बिल ५०००००-११ इन्द्रक = ४६६६८६ प्रकीर्णक सं० यो. वाले । असंख्यात यो० वि० वाले सर्व बिल २००००००-२६८४ श्रेणी० - १९६७३१६ असं० यो. वाले। तीसरी-पृथिवी ___ संख्यात यो• वि. वाले सर्व बिल ३०००००- १ इन्द्रक = २६६६६१ प्रकीर्णक संख्यात वाले । असं० यो० वाले सर्व बिल १२०००००-१४७६ श्रेणी०=११९८५२४ प्रकीर्णक असंख्यात यो वि वाले। चौथी-पृथिवी संख्यात यो० के सर्व बिल २०००००–७ इन्द्रक= १६६६६३ प्रकी संख्यात यो वाले । असं यो• वाले सर्व बिल ८०००००-७०० श्रेणी०=७६६३०० प्रकी प्रसं० यो वाले। पांचवीं-पृथिवी संख्यात यो के सर्व बिल ६००००-५ इन्द्रक = ५६६६५ प्रकी संख्यात यो० वाले। . असंख्यात. यो० के सर्व बिल २४००००--२६० श्रेणी०=२३९७४० प्रक्री० असं० यो• वाले ! छठी-पृथिवी संख्यात यो के सर्व बिल १९९९९---३ इन्द्रक= १९९६६ प्रकी० सं० यो० वाले । प्रसंख्यात यो० के सर्व बिल ७६६६६ --- ६० श्रेणी०-७६६३६ प्रकी प्रसं० यो० वाले। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १०४.१०६ ] विदुप्रो महाहियारो [ १७७ सातवीं पृथिवीमें प्रकीर्णक बिल नहीं हैं। संख्यात एवं प्रसंख्यात योजन विस्तार वाले नारक बिलोंमें नारकियोंकी संख्या संखेज्ज-वास-जुत्ते णिरय-बिले होंति णारया जीवा । संखेज्जा णियमेणं इदरम्मि तहा असंखेज्जा ॥१०४।। अर्थ :-संख्यात योजन विस्तारवाले नरकबिलमें नियमसे संख्यात नारकी जीव तथा असंख्यात योजन विस्तारवाले बिल में असंख्यात ही नारकी जीव होते हैं ॥१०४।। इन्द्रक बिलोंकी हानि-वृद्धिका प्रमाण पणदालं लक्खारिंग पढमो चरिमिवनो वि इगि-लक्खं । उभयं सोहिय एक्कोणिदय-भजिदम्मि हारिप-चयं ॥१०॥ ४५००००० । १००००० छावट्ठि-छस्सयाणि इगिणउदि-सहस्स-जोयणारिण पि । दु-कलापो ति-विहत्ता परिमाणं हारिण-बड्ढीए ॥१०६॥ अर्थ :-प्रथम इन्द्रकका विस्तार पैतालीस लाख योजन और अन्तिम इन्द्रकका विस्तार एक लाख योजन है । प्रथम इन्द्रकके विस्तारमेंसे अन्तिम इन्द्रकका विस्तार घटाकर शेषमें एक कम इन्द्रक प्रमाणका भाग देनेपर जो लब्ध प्रावे उतना (द्वितीयादि इन्द्रकोंका विस्तार निकालनेके लिए) हानि और वृद्धिका प्रमाण है ।।१०५।। __ इस हानि-वृद्धिका प्रमाण इक्यानवै हजार छह सौ छयासठ योजन और तीनसे विभक्त दो कला है ॥१०६।। विशेषार्थ :- पहली पृथिवीके प्रथम सीमन्त इन्द्रक बिलका बिस्तार मनुष्य क्षेत्र सदृश अर्थात् ४५ लाख योजन प्रमाण है और सातवीं पृ० के अवधिस्थान नामक मन्तिम बिल का विस्तार जम्बूद्वीप सदृश एक लाख योजन प्रमाण है । इन दोनोंका शोधन करनेपर (४५०००००-१०००००) =४४००००० योजन अवशेष रहे। इनमें एक कम इन्द्रकों (४६-१=४८) का भाग देनेपर (४४०००००-४८) = ६१६६६० योजन हानि और वृद्धिका प्रमाण प्राप्त होता है। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ ] [ गाथा : १०७-१०६ तिलोसपात्ती इच्छित इन्द्रकके विस्तारको प्राप्त करनेका विधान विदियादिसु इच्छंतो रूऊरिणच्छाए गुणिद-खय-वड्ढी । सोमंतादो 'सोहिय मेलिज्ज सुअवहि-ठाणम्मि' ॥१०७॥ अर्थ :-द्वितीयादिक इन्द्रकोंका विस्तार निकालने के लिए एक कम इच्छित इन्द्रक प्रमाणसे उक्त क्षय और वृद्धि के प्रसाणको गुग्गा करनेपर जो गुणनफल प्राप्त हो उसे सीमन्त इन्द्रकके विस्तारमें से घटा देनेपर या अवधिस्थान इन्द्र कके विस्तारमें मिलानेपर अभीष्ट इन्द्रकका विस्तार निकलता है ॥१०७॥ विशेषार्थ :--प्रथम सीमन्त बिल और अन्तिम अवधिस्थानकी अपेक्षा २५ वें सप्तनामक इन्द्रकका विस्तार निकालने के लिए क्षय-वृद्धिका प्रमाण ९१६६६३४ (२५–१)= २२०००००; ४५०००००-२२००००० = २३००००० योजन सीमन्त बिलकी अपेक्षा । ६१६६६७४ (२५-१) = २२०००००; २२०००००+१०००००=२३००००० योजन अवधिस्थानकी अपेक्षा तप्त नामक इन्द्रकका विस्तार प्राप्त होता है । पली पृथिवीके तेरह इन्द्रकोंका पृथक्-पृथक् विस्तार रयरगप्पह-अवरणीए सीमंतय-इंदयस्य वित्थारो। पंचत्तालं जोयग-लक्खाणि होदि पियमेणं ॥१०८।। ४५००००० अर्थ :--रत्नप्रभा पृथिवीमें सीमन्त इन्द्रकका विस्तार नियमसे पैतालीस लाख (४५०००००) योजन प्रमाण है ।।१०८।। चोदाल लक्खाणि तेसोदि-सयाणि होति तेत्तीसं । एक्क-कला ति-विहत्ता रिपर-इंक्य-रुद-परिमाणं ॥१०६।। ४४०८३३३ । पर्थ :--निरय (नरक) नामक द्वितीय इन्द्रकके विस्तारका प्रमाण चवालीस लाख, तेरासी सौ सैंतीस योजन और एक योजनके तीनभागोंमेंसे एक-भाग है ॥१०९।। १.द.ब. क. ज. ठ, सेढीम। २. व, ठाणं। ३.द. बादाललक्खाणि । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ११०-११२ ] fagu महाहियारो [ १७९ विशेषार्थ :- सीमन्त बिलका विस्तार ४५०००००–६१६६६४४०८३३३३ योजन विस्तार निरय इन्द्रका है । तेनाल लक्खारिंग - सोलस-सह- सट्ठी 1 दु-ति- भागो वित्थारो 'रोरुग- णामस्स गावच्यो ।। ११० ।। ४३१६६६६३ । अर्थ :- रौरुक ( रौरव ) नामक तृतीय इन्द्रकका विस्तार तैंतालीस लाख, सोलह हजार बहस छ्यासठ योजन और एक योजनके तीन भागों में से दो भाग प्रमाण जानना चाहिए । ११० ।। विशेषार्थ : - ४४०८३३३३ – ६१६६६३ - ४३१६६६६३ योजन विस्तार तृतीय रौरुक इन्द्रकका है पणुवीस - सहस्सा हिय - जोयरण - बादाल - लक्ख परिमाणो । भतिदयस्स भणिदो वित्थारो पढम- पुढवीए ॥ १११ ॥ ४२२५००० । अर्थ :- पहली पृथिवीमें भ्रान्त नामक चतुर्थ इन्द्रकका विस्तार बयालीस लाख, पच्चीस हजार योजन प्रमाण कहा गया है ।।१११|| विशेषार्थ : – ४३१६६६६३ – ९१६६६३ = ४२२५००० योजन विस्तार भ्रान्त नामक चतुर्थ इन्द्र बिलका है । एक्कत्तालं लक्खा तेत्तीस - सहस्स ́-ति-सय-तेत्तीसा । एक्क-कला ति-विहत्ता उभंतय-रुंद परिमाणं ।। ११२ ।। ४१३३३३३३ | अर्थ : – उद्भ्रान्त नामक पाँचवें इन्द्रकके विस्तारका प्रमाण इकतालीस लाख, तैंतीस हजार तीनस तैंतीस योजन और योजनके तीन भागों में से एक भाग है ।।११२।। विशेषार्थ :- ४२२५००० - ९१६६६१ = ४१३३३३३३ योजन विस्तार उद्भ्रान्त नामक पाँचवें इन्द्रक बिलका है । १. द. ब. क. वित्थारा । २. द. लोगणामस्स । ३. द. गावच्या | ४. द. तीससइसगं । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० ] तिलोयपण्णत्ती चालीसं लक्खाणि इगिंदाल सहस्स छस्सय छासट्ठी । दोहि कला ति-विहत्ता वासो 'संभंत - णामम्मि ॥ ११३ ॥ ४०४१६६६ । अर्थ :—सम्भ्रान्त नामक छठे इन्द्रकका विस्तार चालीस लाख, इकतालीस हजार, छहसी छवास योजन और एक योजनके तीन भागों में से दो भाग प्रमाण है ।। ११३ ।। विशेषार्थ : --- ४१३३३३३१ – ९१६६६ ४०४१६६६ योजन विस्तार सम्भ्रान्त नामक छठे इन्द्रक बिलका है। [ गाथा : ११३ ११६ विशेषार्थ :- ४०४१६६६३ नामक सातवें इन्द्रक बिलका है । 40 उदाल लक्खाfरंग पण्णास सहस्स - जोधणाणि पि । होदि प्रसंभविंदय - वित्थारो पदम पुढवीए ।। ११४ ॥ ३१५००००। अर्थ :- पहली पृथिवीमें असम्भ्रान्त नामक सातवें इन्द्रकका विस्तार उनतालीस लाख पचास हजार योजन प्रमाण है ।। ११४ ।। १६६६३ = ३६५०००० योजन विस्तार सम्भ्रान्त प्रट्ठत्तीसं लक्खा अडवण्ण- सहस्स-लि-सय-तेत्तीसं | एक्क - कला ति-वित्ता वासो विभंत - गामम्मि ।। ११५ ।। ३८५८३३३३ । अर्थ :- विभ्रान्त नामक आठवें इन्द्रकका विस्तार भड़तीस लाख, अट्ठावन हजार तीनसौ तैंतीस योजन श्रोर एक योजनके तीन भागों मेंसे एक भाग प्रमाण है ।। ११५ । । विशेषार्थ :- ३६५०००० - ६१६६६३ = ३८५८३३३३ योजन विस्तार विभ्रान्त नामक आठवें इन्द्रक बिलका है । १. द. क. ज. ठ समंत | २. द. क. बासट्टि सगतीसं लक्खाणि 'छासट्टि - सहस्स छ सय छासी । दोणि कला तिय-भजिदा रुंदी तत्तिवये होदि ॥ ११६ ॥ | ३७६६६६६ । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ११७-११६ ] विदुओ महाहियारो [ १८१ पर्थ :-तप्त नामक नवें इन्द्रकका विस्तार संतीस लाख, छयासठ हजार छहसौ छयासठ योजन और योजनके तीन-भागोंमेंसे दो भाग प्रमाण है ।।११६॥ विशेषार्थ :-३८५८३३३३ - ९१६६६३ - ३७६६६६६ योजन विस्तार तप्त नामक नवें इन्द्रक बिलका है। छत्तील जनदवाणि जोपणमा सहरि-सहस्सा । तसिदिदयस्य रुदं णादव्वं पढम-पुढथीए ।।११७॥ ३६७५०००। अर्थ :-पहली पृथिवीमें अमित नामक दसवें इन्द्रकका विस्तार छत्तीस लाख, पचहत्तर हजार योजन प्रमाण जानना चाहिए ।।११७।। विशेषार्थ :- ३७६६६६६ . - ६१६६६-३६७५००० योजन विस्तार त्रसित नामक दसवें इन्द्रक बिलका है। पणतीसं लक्खाणि तेसीदि-सहस्स-ति-सय-तेत्तीसा । एक्क-कला ति-विहत्ता रुंदं धक्कंत-णामम्मि ।।११८।। ३५८३३३३। अर्थ :-बत्रान्त नामक ग्यारहवें इन्द्रकका विस्तार पैंतीस लाख, तेरासी हजार, तीनसौ तेतीस योजन और एक योजनके तीन-भागोंमेंसे एक-भाग है ॥११८॥ विशेषार्थ : -३६७५००० -- ६१६६६३-३५८३३३३३ योजन विस्तार वक्रान्त नामक ग्यारहवें इन्द्रक बिल का है । चउतीसं लक्खाणि 'इगिणउदि-सहस्स-छ-सय-छासट्ठी। बोणि कला तिय-भजिदा एस अयरकंत-वित्थारो ॥११॥ ३४६१६६६। पर्थ :- प्रवक्रान्त नामक बारहवें इन्द्रकका विस्तार चौंतीस लाख, इक्यानबै हजार, छहसो छयासठ योजन और एक योजनके तीन-भागोंमेंसे दो-भाग प्रमाण है ।।११६|| १. द. इगरगउदि। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ ] विशेषार्थं :- ३५८३३३३३ नामक बारहवें इन्द्रक बिलका है । चोत्तीसं लक्खाणि जोयण-संखा य पदम पुढवीए । 'विषकंत - णाम- इंदय - बित्थारो एत्थ णादथ्यो ।। १२० || ३४००००० । अर्थ :- पहली पृथिवीमें विक्रान्त नामक तेरहवें इन्द्रकका विस्तार चौंतीस लाख योजन प्रमारण जानना चाहिए ।। १२० ।। विशेषार्थ : - ३४६१६६६६ तेरहवें इन्द्रक बिलका है । तिलोय पण्णत्ती [ गाथा : १२०-१२२ - ९१६६६३ - ३४९१६६६ योजन विस्तार श्रवक्रान्त दूसरी पृथिवीके ग्यारह इन्द्रककों का पृथक् पृथक् विस्तार तेत्तीसं लक्खाणि श्रट्ट - सहस्साणि ति-सय-तेत्तीसा | एक्क-कला बिaियाए 'थण- इंदय-रुंद परिमाणं ॥ १२१ ॥ विशेषार्थ : ३४००००० स्तन नामक प्रथम इन्द्रक बिलका है । ३३०८३३३१ । प्रर्थ:-दूसरी पृथिवीमें स्तन नामक प्रथम इन्द्रकके विस्तारका प्रमाण तेतीस लाख, श्राठ हजार तीनसौ तैंतीस योजन और योजनके तीन भागोंमेंसे एक भाग है ।। १२१ ।। - ε१६६६९ = ३३०८६३३९ यो० विस्तार दूसरी पृथिवीके --- - ६१६६६३ – ३४००००० योजन विस्तार विक्रान्त नामक विशेषार्थ : ३३०८३३३ बत्तीसं लक्खाणि छहसय- सोलस - सहस्स - छासट्टी | वोणि कला ति-विहत्ता वासो तण इंदए होदि ।। १२२ ।। ३२१६६६६ । अर्थ :- तनक नामक द्वितीय इन्द्रकका विस्तार बत्तीस लाख, सोलह हजार, बहसों छयासठ योजन और एक योजनके तीन भागों में से दो भाग प्रमाण है ।। १२२ ।। १६६६३२१६६६६ योजन विस्तार तनक नामक द्वितीय इन्द्रक बिलका है । १. द. ब. विक्कलं रणामा इय- वित्थारो | २. द, थलइंदय । ठ. ज. धरण वय | Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १२३-१२६ ] विदुनो महाहियारो [ १८३ इमितीनं नागि गुती नाहस्स-जोयणाणि पि । मण-इवयस्स रुंदं गादध्वं विदिय-पुढवीए ॥१२३।। ३१२५०००। अर्थ :--दूसरी पृथिवीमें मन नामक तृतीय इन्द्रकका विस्तार इकतीस लाख, पच्चीस हजार योजन प्रमाण जानना चाहिए ।।१२३॥ विशेषार्थ :-३२१६६६६३ - ६१६६६१३१२५००० योजन विस्तार मन नामक तृतीय इन्द्र क बिल का है। तीसं विय लक्खारिग तेत्तीस-सहस्स-ति-सथ-तेत्तीसा । एक्क-कला बिदियाए वण-इंदय-रद-परिमाणं ॥१२४॥ ३०३३३३३ । अर्थ :-दूसरी पृथिवीमें वन नामक चतुर्थ इन्द्रकके विस्तारका प्रमाण तीस लाख, तेंतीस हजार तीन-सी तैतीस योजन और योजनका एक-तिहाई भाग है ।।१२४॥ विशेषार्थ :–३१२५००० - ६१६६६३३०३३३३३३ योजन विस्तार वन नामक चतुर्थ इन्द्रक बिलका है। एक्कोण-तीस-लषखा इगिदाल-सहस्स-छ-सय-छासट्ठी । दोणि कला ति-विहत्ता धादिदय-णाम-वित्थारो ।।१२।। २६४१६६६३। अर्थ :-घात नामक पंचम इन्द्रकका बिस्तार योजनके तीन-भागोंमेसे दो भाग सहित उनतीस लाख, इकतालीस हजार, छहसौ छयासठ योजन प्रमाण है ।।१२।। विशेषार्थ :-३०३३३३३३ – ११६६६३=२६४१६६६३ योजन बिस्तार घात नामक पंचम इंद्रक बिलका है। अट्ठावीसं लक्खा 'पण्णास-सहस्स-जोयाणि पि । संघात-रणाम-इंदय-वित्थारो बिदिय-पुढयोए ॥१२६॥ २०५००००। १.द. लक्खाणं पूणवीसं। २. द.ब. क. पण्णारस । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : १२७-१२६ अर्थ :--दूसरी पृथिवीमें संघात नामक छठे इन्द्रकका विस्तार अट्ठाईस लाख पचास हजार योजन प्रमाण है ॥ १२६॥ विशेषार्थ :- २९४१६६६३ - ६१६६६ = २८५०००० योजन विस्तार संघात नामक छठे इन्द्रक बिलका है । सत्तावीसं लक्खा अडवण्ण- सहस्स-ति-सय-तेत्तीसा । एक्क-कला ति विहसा 'जिभिदय-रुंद परिमाणं ।। १२७ ।। २७५८३३३३ । अर्थ :- जिह्न नामक सातवें इन्द्रक के विस्तारका प्रमाण सत्ताईस लाख, अट्ठावन हजार, तीनस तैंतीस योजन और एक योजनके तीसरे भाग प्रमाण है ।।१२७/ विशेषार्थ :- २८५०००० - ε१६६६३-२७५८३३३३ योजन विस्तार जिल्ह्न नामक सातवें इन्द्रक बिलका है । छब्बीसं लक्खाणि छासट्ठि सहस्स छ-सय-छासट्ठि' । दोणि कला ति-विहत्ता जिन्भग-स्पामस्स वित्थारो ॥ १२८ ॥ २६६६६६६ । अर्थ :- जिल्ह्वक नामक आठवें इन्द्रकका विस्तार छब्बीस लाख, छ्यासठ हजार, हसी छयासठ योजन और एक योजनके तीन भागों में से दो भाग प्रमाण है ।। १२८ ।। विशेषार्थ :- - २७५८३३३९ - ९१६६६३ = २६६६६६६३ योजन विस्तार जिल्ह्नक नामक आठवें इन्द्रक बिलका है । पणुवीसं लक्खाणि जोयराया पंचहतरि सहस्सा । लोलियस रुदो बिदियाए होदि पुढवीए ॥ १२६ ॥ २५७५००० । अर्थ :-दूसरी पृथिवी में नये लोल इन्द्रकका विस्तार पच्चीस लाख पचहत्तर हजार योजन प्रमाण है ।। १२६ । १. द. ब. दिमिंदय । २. दाद्र । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १३० १३२ ] विशेषार्थ : - २६६६६६६ नामक नवें इन्द्रक बिलका है । चवीसं लक्खाणि तैसीदि-सहस्स-ति-सय-तेत्तीसा । एक्क - कला ति वित्ता लोलग णामस्स' वित्थारो ॥१३०॥ २४८३३३३१ । अर्थ :--- लोलक नामक दसवें इन्द्रकका विस्तार चोबीस लाख, तेरासी हजार तीनसो तेतीस योजन और एक योजनके तीसरे भाग प्रमाण है ।। १३० ॥ ९१६६६= २४८३३३३३ योजन विस्तार लोलक नामक विशेषार्थ : --- २५७५००० दसवें इन्द्रकका है । विदु महाहियारो [ १८५ ६१६६६३२५७५००० योजन प्रमाण विस्तार लोल - तेवीसं लक्खाणि इगिणउदि - सहस्स छ-सय-छासट्टि । दोणि कला तिय-भजिदा रुंदा थरगलोलगे होंति ।।१३१।। २ २३६१६६६ | अर्थ :- स्तनलोलक नामक ग्यारहवें इन्द्रकका विस्तार तेईस लाख, इक्यानबे हजार छहसी छयासठ योजन श्रीर योजनके तीन भागों मेंसे दो भाग प्रमाण है ।। १३१ ।। विशेषार्थ :- २४८३३३३३ नामक ग्यारहवें इन्द्रक बिलका है । - प्रथम इन्द्रक बिलका है । ९१६६६३ – २३६१६६६३ योजन विस्तार स्तनखोलक = तीसरी पृथिवीके नव इन्द्रकों का पृथक् पृथक् विस्तार तेवीस लक्खाणि जोमरण - संखा य तधि-पुढबीए । पढमदयम्मि वासो गादथ्यो तत्तणामस्स ॥१३२॥ २३०००००१ अर्थ :- तीसरी पृथिवीमें तप्त नामक प्रथम इन्द्रकका विस्तार तेईस लाख योजन प्रमाण जानना चाहिए || १३२ ॥ विशेषार्थ : -- २३९१६६६३ - १६६६३ १. द. लोलग णामास । २. द. पुस्तक एव । - २३००००० योजन विस्तार तप्त नामक Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.८६ ] तिलोयपात्ती [ गाथा : १३३-१३६ बावीसं लक्खारिण अद्व-सहस्सारिण ति-सय-तेत्तीसं । एक्क-कला ति-विहत्ता पुढवीए तसिद-वित्यारो ॥१३३॥ २२०८३३३ । प्रर्थ :-तीसरी पृथिवीमें असित नामक द्वितीय इन्द्रकका विस्तार बाईस लाख, पाठ हजार, तीनसौ तीस योजन और योजनका तीसरा भाग है ।।१३३।। विशेषार्थ :--२३००००० - ६१६६६३=२२०८३३३, योजन विस्तार असित नामक द्वितोय इन्द्रक बिलका है। सोल-सहस्सं छस्सय-छासट्टि एक्कबोस-लक्खाणि । पोलिय कला परियार सुदलीय ता-विशारो ॥१३४॥ पर्थ : -तीसरी पृथिवीमें तपन नामक तृतीय इन्द्रकका विस्तार इक्कीस लाख, सोलह हजार, छहसौ छयासठ योजन और योजनके तीन-भागोंमें से दो भाग प्रमाण है ।।१३४॥ विशेषार्थ :-२२०८३३३ - ६१६६६४२११६६६६० योजन विस्तार तपन नामक तृतीय इन्द्रक बिलका है। पणवीस-सहस्साधिय-विसदि-लक्खाणि जोयणाणि पि । तदियाए खोणीए तावण-णानस्स वित्थारो ॥१३॥ २०२५००० । अर्थ :-- तीसरी पृथिवी में तापन नामक चतुर्थ इन्द्रकका विस्तार बीस लाख, पच्चीस हजार योजन प्रमाण है ।।१३५।। विशेषार्थ :-२११६६६६३ - ६१६६६१=२०२५००० योजन विस्तार तापन नामक चतुर्थ इन्द्रक बिलका है। एक्कोणवीस-लक्खा तेत्तीस-सहस्स-ति-सय-तेत्तीसा । एक्क-कला तदियाए वसुहाए णिदाघ' वित्थारो ॥१३६॥ १६३३३३३३। १. द.ब. क. ज. ४. वणि होइ। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : गाया : १३७-१३९ ] विदुनो महाहियारो / १८७ अर्थ : तीसरी पृथिवीमें निदाघ नामक पंचम इन्द्रकका विस्तार उन्नीस लाख, तैंतीस हजार, तीनसौ तैंतीस योजन और योजनके तृतीय-भाग प्रमाण है ॥। १३६ ।। ९१६६६६= १९३३३३३ योजन विस्तार निदाघ नामक खार्थ: २०२५००० पंचम इन्द्रक बिलका है । प्रद्वारस- लक्खाणि इगिदाल - सहस्स-छ-सय-छासट्ठी । दोणि कला तदियाए भूए पज्जलिव- वित्थारो ॥१३७॥ १८४१६६६३ । अर्थ :- तीसरी पृथिवी में प्रज्वलित नामक छठे इन्द्रकका विस्तार अठारह लाख, इकतालीस हजार, छह सौ छ्यासठ योजन और एक योजनके तीन भागों में से दो भाग प्रमाण है ।। १३७ ।। विशेषार्थ :- १९३३३३३ नामक छठे इन्द्रक बिलका है । - - ९१६६६३ = १८४१६६६ योजन विस्तार प्रज्वलित सतरसं लक्खाणि पण्णास सहस्स जोयरगाणि च । उज्ञ्जलि - इंदयस्स व वासो वसुहाए तबियाए ।। १३८ ।। १७५००००। अर्थ :- तीसरी पृथिवीमें उज्ज्वलित नामक सातवें इन्द्रकका विस्तार सत्तरह लाख पचास हजार योजन प्रमारण है ।। १३८ ।। विशेषार्थ :- ९८४१६६६ - ६१६६६३ - १७५०००० योजन विस्तार उज्ज्वलित नामक सातवें इन्द्रक बिलका है । सोलस जोय रग- लक्खा डवरण सहस्स-ति-सय-तेत्तीसा । एक्क - कला संजलिदिवस्स' वित्थारो ॥१३६॥ तदिधाए १६५८३३३३ । अयं : तीसरी - भूमिमें संज्वलित नामक आठवें इन्द्रकका विस्तार सोलह लाख भट्ठावन हजार तीन सौ तैंतीस योजन और एक योजनका तीसरा भाग है ।। १३९ ।। १. द. व संपज्ञ्जलिस्स । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपत्ती [ गाथा : १४०-१४२ विशेषार्थं : --- १७५००००-६१६६६६ - १६५८३३३ योजन विस्तार संज्वलित नामक to इन्द्रक बिलका है । १८८] पण्णा रस - लक्खापि छस्सट्टि - सहस्स छ सय छासड्डी | दोणि कला 'तदियाए संपज्ञ्जलिदस्स वित्थारो ॥ १४० ॥ १५६६६६६३ । अर्थ :- तीसरी - पृथिवी में संप्रज्वलित नामक नवें इन्द्रकका विस्तार पन्द्रह लाख, छ्यासठ हजार, छहसौ छयासठ योजन और एक योजन के तीन भागों में से दो भाग प्रमाण है ।। १४० ॥ c१६६६३ = १५६६६६६ योजन विस्तार संप्रज्वलित विशेषार्थ :- १६५८३३३३ नामक नवें इन्द्रक बिलका है । tet पृथिवी सात इन्द्रकोंका पृथक्-पृथक् विस्तार चोट्स जोयण - लक्खा पण-जुद सत्तरि सहस्स परिमाणा । तुरिमाए श्रारिदय व परिमाणं पुढवीए १४७५००० । अर्थ :- चौथी पृथिवीमें प्रार नामक प्रथम इन्द्ररूके विस्तारका प्रसारण चौदह लाख, पचहत्तर हजार योजन है || १४१ ॥ विशेषार्थ : --- १५६६६६६ प्रथम इन्द्रक-बिलका है । तेरस - जोय रण- लक्खा तेसीदि-सहस्स-ति-सय-तेत्तीसा | एक्क-कला तुरिमाए महिए मारिए दो ॥१४२॥ विशेषार्थ :- १४७५००० १३८३३३३३ | अर्थ : चौथी पृथिवी में मार नामक द्वितीय इन्द्रकका विस्तार तेरह लाख, तेरासी हजार, तीनस तैतीस योजन और एक योजनके तीसरे भाग प्रमाण है || १४२ ॥ ६१६६६३ - १३८३३३३३ योजन विस्तार मार नामक द्वितीय इन्द्रक बिलका हूँ । ॥ १४१ ॥ - ९१६६६ – १४७५००० योजन विस्तार श्रार नामक — १. द. ब. तदिए । क. ज. ठ. सदिए । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदु महाहियारो बारस - जोयण - लक्खा इगिणउवि - सहस्स छ सय छासट्ठी । दोणि कला लि-विहता 'तुरिमा तारिक्यस्स रु दाउ || १४३ ॥ गाथा : १४३-१४६ ] १२९१६६६३ । अर्थ :- चौथी पृथिवी में तार नामक तृतीय इन्द्रकका विस्तार बारह लाख, इक्यानब हजार, छहसौ छ्यासठ यो एक बोबो है ।।१४३ ।। ६१६६६३ = १२ε१६६६ योजन विस्तार तार नामक विशेषार्थं :- १३८३३२३५ तृतीय इन्द्र बिलका है । बारस - जोयण - लक्खा तुरिमाए वसुंधरा वित्थारो । तच्चिवयस्सर रुंदो णिहि सव्वदरिसीहि ।। १४४ । । १२०००००। अर्थ :-- सर्वज्ञदेवने चौथी पृथिवी में तत्व ( चर्चा ) नामक चतुर्थ इन्द्रकका विस्तार बारह लाख योजन प्रमारण बतलाया है || १४४ ।। [ १८६ विशेषार्थ :- १२६१६६६३ – ६१६६६ - १२००००० योजन विस्तार तत्व नामक चतुर्थ इन्द्र बिलका है । एक्कारस- लक्खाणि अट्ठ सहस्वाणि ति-सय-तेत्तीसा | एक्क - कला तुरिमाए महिए तभगस्स वित्थारो ॥ १४५ ॥ | ११०८३३३३ । ३ अर्थ :-- चौथी पृथिवी में नमक नामक पंचम इन्द्रकका विस्तार ग्यारह लाख आठ हजार, तीनस तेतीस योजन और एक योजनके तीसरे भाग प्रमाण है ।। १४५ ।। ९१६६६३ - ११०८३३३३ योजन विस्तार तमक नामक विशेषार्थ : १२००००० पंचम इन्द्रक बिलका है । दस- जोयण - लक्खण छस्सय सोलस-सहस्स छा सट्ठी । दोणि कला तुरिमाए खाडिदय-वास परिमाणा ॥ १४६ ॥ । १०१६६६६३ । १. द. ब क. ज. ठ. तुरिमाई दस्स । २. द. ब, क ज ठ त मंतमस्य ३. द. ३ । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : १४७ - १४९ अर्थ :- चौथी भूमिमें खाड नामक छठे इन्द्रके विस्तारका प्रमाण, दस लाख, सोलह हजार बहस छ्यास योजन और एक योजनके तीन भागों से दो-भाग प्रमाण है ।। १४६ ।। ९१६६६६= १०१६६६६ योजन विस्तार वाद नामक विशेषार्थ :- ११०८३३३३ छठे इन्द्रक बिलका है । पणवीस - सहस्साधिय-णव- जोयण - सय सहस्स परिमाणा । तुरिमाए खोणीए खडखड - णामस्स वित्थारो ६२५००० | अर्थ :- चौथी पृथिवीमें खलखल ( खडखड ) नामक सातवें इन्द्रकका विस्तार नौ लाख, पच्चीस हजार योजन प्रमाण है ।।१४७।। विशेषार्थ :- १०१६६६६ नामक सातवें इन्द्रक बिलका है । 1128011 ६१६६६५ – ६२५००० योजन प्रमाण विस्तार खलखल पांचवीं पृथिवीके पाँच इन्द्रकोंका पृथक्-पृथक् विस्तार लक्खाणि प्रट्ठ- जोयण-तेत्तीस - सहस्स-लि-सय-तेत्तीसा | एक्क-कला 'तम - इंदय - वित्थारो पंचम- धराए ।। १४८ ॥ ८३३३३३३ | अर्थ :- पाँचवीं पृथिवीमें तम नामक प्रथम इन्द्रकका विस्तार बाठ लाख, तैंतीस हजार, तीनसौ तेतीस योजन और एक योजनके तीसरे भाग प्रमाण है ।। १४८ सग जोयण - लक्खा दोणि कला विशेषार्थ :- ६२५००० - ६१६६६६३३३३३३ योजन विस्तार पांचवीं पृ० के तम नामक प्रथम इन्द्रक बिलका है । इगिदाल सहस्त-छ-सय-छासट्ठी । भम - इ बय-रुंदी पंचम धरित्तीए ॥१४६॥ ७४१६६६ । अर्थ :- पांचवीं पृथिवीमें भ्रम नामक द्वितीय इन्द्रकका विस्तार सात लाख, इकतालीस हजार छह सौ छ्यासठ योजन और एक योजनके तीन भागोंमेंसे दो भाग प्रमाण है ||१४|| १. द. तमयं इंदय । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १५०-१५२ ] . विदुप्रो महाहियारो [ १६१ विशेषार्थ :--८३३३३३३ --- ६१६६६३-७४१६६६३ योजन विस्तार भ्रम नामक द्वितीय इन्द्रकका है। छज्जोयण-लक्खाणि पण्णास-सहस्स-समाहियाणि च । धूमप्पहावणीए झस-इंदय-रद-परिमाणा ॥१५०॥ ६५०००० । प्रथं :-धूमप्रभा (पाँचवीं) पृथिवीमें झस नामक तृतीय इन्द्रकके विस्तारका प्रमाण छह लाख, पचास हजार योजन है ।। १५०।। विशेषार्थ :-७४१६६६ - ६१६६१ == ६५.०० योजन सिम्तार झम मापन तृतीय इन्द्रक बिलका है। लक्खाणि पंच जोयण-अडवण्ण-सहस्स-ति-सय-तेत्तीसा । 'एक्क-कला अधिदय-वित्थारो पंचम-खिदीए ॥१५१॥ ५५६३३३ । पर्थ :-पांचवीं पृथिवीमें अन्ध नामक चतुर्थ इन्द्रकका विस्तार पांच लाख, अट्ठावन हजार, तीनसौ तैतीस योजन और एक योजनके तीसरे-भाग प्रमाण है ।।१५१।। विशेषार्थ:-६५०००० - ६१६६६३=५५८३३३३ योजन विस्तार अन्ध नामक चतुर्थ इन्द्रक बिलका है। चज-जोयण-लक्खारिण छासहि-सहस्स-छ-सय-छासट्ठी । दोणि कला तिमिसिंदय-रुदं पंचम-धरित्तीए ।।१५२॥ अर्थ :–पाँचवीं पृथिवीमें तिमिस्र नामक पांचवें इन्द्रकका विस्तार चार लाख छयासठ हजार छहसौ छयासठ योजन और एक योजनके तीन-भागोंमेंसे दो-भाग प्रमाण है ॥१५२।। विशेषार्थ :-५५८३३३, - ६१६६६३ - ४६६६६६, योजन विस्तार तिमिस्र नामक पाँचवें इन्द्रक विलका है। १. द. ब. 3. ज, एककलार्यदिदय । क. दिदिय । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ] तिलोयपण्पत्ती [ गाथा : १५३-१५५ छठी पृथिवीके तीन इन्द्रकोंका पृथक्-पृथक् विस्तार तिय-जोयण-लक्खाणि सहस्सया पंचहत्तरि-पमाणा। छट्टोए 'वमुगदए हिम- दय-रद-परिसंखा ॥१५३।। ३७५००० । अर्थ :--छठी पुथिवीमें हिम नामक प्रथम इन्द्रकके विस्तारका प्रमाण तीन लाख पचहत्तर हजार योजन है ।।१५३।। विशेषार्थ :-४६६६६६ - ६१६६६३-३७५००० योजन विस्तार छठी पृ० के प्रथम हिम इन्द्रक बिलका है। दो जोयण-लक्खाणि तेसोदि-सहस्स-ति-सय-तेत्तीसा । एक्क-कला छट्ठीए पुढवीए होइ बद्दले रुदो ॥१५४॥ २८३३३३३। अर्थ :-छठी पथिवीमें वर्दल नामक द्वितीय इन्द्रकका विस्तार दो लाख, तेरासी हजार, तीनसौ तेतीस योजन और एक योजनके तीसरे भाग प्रमाण है ।।१५४॥ विशेषार्थ:-३७५००० - ६१६६६१=२८३३३३१ योजन विस्तार छठी पृ० के दूसरे वर्दल इन्द्रक बिलका है। एक्कं जोयण-लक्खं इगिणउदि-सहस्स-छ-सय-छासट्ठी । दोणि कला वित्थारो लल्लंके छट्ठ-वसुहाए ॥१५॥ १६१६६६३ । अर्थ :-छठी पृथिवीमें लल्लक नामक तृतीय इन्द्रकका विस्तार एक लाख, इक्यानबे हजार छहसौ छयासठ योजन और एक योजनके तीन-भागोंमेंसे दो-भाग प्रमाण है ।।१५।। विशेषार्थ :-२८३३३३३ – ११६६६३ - १९१६६६१ योजन विस्तार लल्लक नामक तीसरे इन्द्रक बिलका है। १. ६. न. क. ज. ठ, वसुमाई। २. द. बद्दलेसु । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १५६ ] प्रो हामिले [ १६३ सातवीं पृथिवीके अवधिस्थान इन्द्रकका विस्तार वासो जोयरण-लक्खो 'अयहि-छारणस्स सत्तम-खिवीए । जिपवर-वयरण-विरिणग्गद-तिलोयपण्णसि-णामाए ॥१५६॥ १०००००। अर्थ :- सातवीं पृथिवीमें अवधिस्थान नामक इन्द्रकका विस्तार एक लाख योजन प्रमाण है, इसप्रकार जिनेन्द्रदेवके बचनोंसे उपदिष्ट त्रिलोक-प्रज्ञप्तिमें इन्द्रक बिलोंका विस्तार कहा गया है ॥१५६॥ विशेषाय :-१६१६६६ - ६.१६६६३ = १००००० योजन विस्तार सप्तम नरक में अवधिस्थान नामक इन्द्रक बिलका है। 1 चार्ट पृष्ठ १९४ पर देखिये । १. द. अत्रदिठाररास्स । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ ] . तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : १५६ पहली पृथिवी दूसरी पृथिवी तीसरी पृथिवी इन्द्रक विस्तार इन्द्रका विस्तार | इन्द्रक । विस्तार स्तन २ س m तनक | त्रसित ४ तपन م و सीमंत ४५००००० यो. निरय ४४०८३ रौरुक | ४३१६६६६, भ्रान्त ४२२५००० ॥ उद्भ्रान्त ४१३३ संभ्रांत | ४०४१६ असंभ्रांत ३६५०००० , विभ्रांत ३८५८३३३३॥ ي घात . m ० muro ur . संघात ३३०८३३३३ यो० तप्त ' २३००००० यो० ३२१६६६६३ यो. २२०८ ३१२५००० । २११६६६६३, ३०३३३३३३ तापन २०२५००० २६४१६६६ ., निदाघ १९३३३३३३, प्रज्वलित | १८४१६६६ , | २७५८३३३३, उज्ज्वलित १७५०००० यो २६६६६६६३ , संज्वलित | १६५८३३३३ ., २५७५००० यो० संप्रज्वलित १५६६६६६३ , २४८३३३३ ॥ २३६१६६६३, م जिह्व जिह्वक लोल लोलक तप्त ३७६६६६६१, असित वक्रांत अवक्रांत ३६७५००० यो ३५८३३३३३, ३४६१६६६३ , ३४००००० यो० लोलक विक्रांत Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १५७ ] छठी पृथिवी सातवीं पृथिवी विस्तार इन्द्रक विस्तार इन्द्रक विस्तार १४७५००० यो० तम ८३३३३३३ यो हिम ३७५००० यो अवधि १००००० घो I स्थान - १३८३३३३३ भ्रम ४१६६६,,, वर्दल २८३३३३३, १२९१६६६३ झस ६५०००० लल्लंक १६१६६६३ १२००००० श्रन्ध ! ५५८३३३३ तमक ११०५३३३३, तिमिस्र ४६६६६६६,, खाड १०१६६६६३ खलखल ६२५००० यो० इन्द्रक विस्तार आर मार चौथी पृथिवी तार तत्व ג, 21 विदु महाहियारो इन्द्रक पाँचवीं पृथिवी 23 १. ब. क. सत्तवि । [ १९५ " इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक-बिलोंके बाहुल्यका प्रमाण एक्का हिय-खिदि-संखं तिय-चउ सत्तेहि' गुणिय छन्भजिदे । कोसा इंदय-सेढी पइरणयासं पि बहलत्तं ॥१५७॥ अर्थ : एक अधिक पृथिवी संख्याको तीन, चार और सातसे गुणा करके छहका भाग देने पर जो लब्ध आवे उतने कोस प्रमाण क्रमशः इन्द्रक, श्र ेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलोंका बाहल्य होता है || १५७ ।। विशेषार्थ :- नारक पृथिवियोंकी संख्या में एक-एक धन करके तीन जगह स्थापन कर क्रमश : तीन, चार और सातका गुणा करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसमें छहका भाग देनेसे इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलोंका बाहुल्य ( ऊँचाई ) प्राप्त होता है । यथा [ चार्ट पृष्ठ १६६ पर देखिये ] Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ ] तिलोयपत्ती [ गाथा : १५८ इन्द्रक बिलोंका बाहल्य श्रेणीबद्धोंका बाहल्य प्रकीर्णकों का बाहल्य पहली पृ०.१ + १ = २,२४३-६,६६=१ कोस २४४=८,८:६ = १ कोस२४७=१४, १४ |-६-२, कोस दूसरी पृ०-२+१-३,३४३ - ६,६-:-६=१६, ३४४=१२,१२:६-२, ३४७-२१, २२ ६-३६कोस तीसरीपृ०-३+१= ४,४४३-१२,१२:६= २.४४४=१६,१६.६=२ ४x७=२८, २९ +६=४३ कोस चौथी पृ०.-४+१-५,५४ ३ ८ १५,१५, ६-२३,५४४=२०,२०२६-३ ५.४७=३५, ३५ :६- कोस पाँचवीं,,-५+१= ६,६४३ = १८,१८:६-३, ६x४=२४,२४ : ६-४,६४७-४२, ४२ । ६ = ७ कोस | छछी पृ०-६ +१-७,७४३=२१,२१+६=३६, ७४४ =२८,२१:६= ४३,७४७ = ४६, ४६/ :.६= कोस! सातवीं प०-७+१=८,८४३-२४,२४:६४८४४-३२,३२, ६-५, प्रकीर्णकों का । अभाव है। अहवा प्रादी छ अट्ट चोद्दस तद्दल-वढिय जाब सत्त-खिदी। कोसच्छ-हिवे इंदय-सेढी-पइण्णयाण बहलत्तं ॥१५॥ इ० १ । ३ । २।५ । ३ ३ ३ । ४ । सेढी ।। २ । । । ४ । ३ । । प्र०।11। । ७ । १९ । मर्थ : अथवा–यहाँ प्रादिका प्रमाण क्रमशः छह, पाठ और चौदह है। इसमें दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी पर्यन्त उत्तरोत्तर इसी आदिके अर्ध भागको जोड़कर प्राप्त संख्यामें छह कोस का भाग देनेपर क्रमश: विवक्षित पृथिवीके इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलोंका बाहल्य निकल आता है ।।१५।। विशेषार्थ :-पहली पृथिवी के आदि (मुख) इन्द्रक बिलोंका बाहल्य प्राप्त करनेके लिए ६, श्रेणीबद्ध बिलोंके लिए ८ और प्रकीर्णक बिलोंका बाहल्य प्राप्त करने हेतु १४ है। इसमें दूसरी पृथिवीसे सातवीं पृथिवी पर्यन्त उत्तरोत्तर इसी प्रादि (मुख) के अर्ध-भागको जोड़कर जो लब्ध प्राप्त हो उसमें ६ का भाग देनेपर क्रमशः इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलोंका बाहल्य प्राप्त हो जाता है । यथा Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १५६-१६२ ] विदुओ महाहियारो अर्धमुख इन्द्रक, श्रेणीबद्ध एवं प्रकी fक बिलों के पर मुख या ग्रादि ! के प्रमाण + क योगफल : | पथिवियाँ भाग- इन्द्रक बिलों श्रेणीबद्ध | प्रकीर्णक हार | बिलों का बिलों का बाहल्य | बाहल्य बाहल्य प्रमाण - १ कोस " Gnku ६, ८, १४+ 1 ०,०, ०८- ६, ८, १४६ =| | ६, ८, १४ + | ३, ४,७= ९, १२, २१:/६= 1 ९, १२, २१ + | ३, ४, ७ = | १२, १६, २८, १२,१६, २८+ | ३, ४, ५= | १५, २०, ३५ १५,२०, ३५+ | ३, ४, ७= ! १८, २४,४२:६| १८,२४,४२ + | ३, ४, ७= | २१, २८, ४१:/६-- ७ | २१, २८, • + ] ३, ४, ०= | २४, ३२, ५, ६- ४ रत्नप्रभादि छह पृथिवियोंमें इन्द्रकादि बिलोंका स्वस्थान ऊर्ध्वग अन्तराल रयणादि-छट्टमंतं रिणय-णिय-पुढवीण बहल-मज्झादो। जोयण-सहस्स-जुगलं प्रवरिणय सेसं करेज्ज कोसाणि ॥१५६।। अर्थ :-- रत्नप्रभा पृथिवीको आदि लेकर छठी पथिवी-पर्यन्त अपनी-अपनी पृथिवीके बाहल्यमेंसे दो हजार योजन कम करके शेष योजनोंके कोस बनाना चाहिए ।।१५९।। णिय-णिय-इंदय-सेढोबद्धाण पइण्णयाण बहलाई । णिय-रिणय-पदर-पवािव-संखा-गुणिदास लद्धरासी य ॥१६॥ पुरिवल्लय-रासीणं माझे तं सोहिदूण पत्तेक्कं । एक्कोण-रिणय-'णियिंदय-चउ-गुणिदेणं च भजिदव्यं ॥१६१।। लद्धो जोयण-संखा रिणय-णिय 'क्यंतरालमुड्वेण । जाणेज्ज परहाणे किंचूणय-रज्जु-परिमारणं ॥१६२॥ - २. द. ज... तराणमुडग, ब. क. १. द. ज. ल. शियरिणइंदय, ब, क, सिय-रिणय-इंदय । तराणमढ़ेगा। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : १६२ अर्थ :-अपने-अपने पटलोंकी पूर्व-वरिंगत संख्यासे गुणित अपनी-अपनी पुथियोके इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलोंके बाहल्यको पूर्वोक्त राशिमेंसे ( दो हजार योजन कम बिबक्षित पृथिवीके बाहल्यके किए गये कोसोंमेंसे ) कम करके प्रत्येकमें एक कम अपने-अपने इन्द्रक प्रमाणसे गुणित चारका भाग देनेपर जो लब्ध प्रावे उतने योजन प्रमाण अपनी-अपनी पृथिवीके इन्द्रकादि बिलोंमें ऊध्वंग अन्तराल तथा परस्थान ( एक पृथिवीके प्रन्निम और पागली पुश्लिी में नमादिभुत इन्दकादि बिलों) में कुछ कम एक राजू प्रमाण अन्तराल समझना चाहिए ।।१६०-१६२॥ विशेषार्थ :-रत्नप्रभादि छहों पृथिवियोंकी मोटाई पूर्व में कही गई है, इन पृथिवियोंमें जपर नीचे एक-एक योजनमें बिल नहीं है, अतः पृथिवियोंकी मोटाईमेंसे २००० योजन घटानेपर जो शेष रहे, उसके कोस बनाने हेतु चारसे गुणितकर लब्धमेंसे अपनी-अपनी पृथिवीके इन्द्रक बिलोंका बाहल्य घटाकर एक कम इन्द्रक बिलोंसे गुणित चारका भाग देनेपर अपनी-अपनी पृथिवीके इन्द्रक बिलोंका ऊर्ध्व अन्तराल प्राप्त होता है । यथा पहली पृथिवीके इन्द्रक बिलोंका ऊर्ध्व अन्तराल - _.. (८०००० - २०००)४४--(१४१३).-६४६६१ योजन । (१३ - १)४४ दूसरी पृथिबीके इन्द्रक बिलों का ऊर्ध्व अन्तराल-.. (३२००० -- २०००)x४ (३४ ११)-२६ २ ६६६ योजन। योजन। . . . .(११-२४४ तीसरी पृथिवीके इन्द्रक बिलों का ऊवं अन्तराल---- = (२८००० - २०००)२४ = (२x६)-३२४९१ योजन। चौथी पृथिवीके इन्द्रक बिलोंका ऊर्ध्व अन्तराल- (२४००० - २०००)४४ (३४७) =३६६५३३ योजन । पांचवीं पृथिबीके इन्द्रक बिलोंका ऊर्ध्व अन्तराल (२००००-२०००)x४- ३४२ =४ायोजन । (५ – १)४४ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १६३-१६४ ] विदुनो महायिारो छठी पृथिवीके इन्द्रक बिलोंका ऊर्ध्व अन्तराल - = (१६००० २०००) (१४३) = ६९६८ योजन। मातवीं पृथिवीमें इन्द्रक एवं श्रेणीबद्ध बिलोंके अधस्तन और उपरिम पृथिवियोंका बाहल्य सत्तम-खिदीन बहले इंदय-सेढीण बहल-परिमाणं । सोधिय-दलिदे हेट्ठिम-उबारम-भागा हवंति एदाणं ॥१६३।। अर्थ :-- सातवीं पृथिवीके बाहल्यमेंसे इन्द्रक प्रौर श्रेणीबद्ध बिलोंके बाहुल्य प्रमाएको घटाकर अवशिष्ट राशिको प्राधा करनेपर क्रमशः इन इन्द्रक और श्रेणीबद्ध बिलोंके ऊपर-नीचेकी पृथिवियोंकी मोटाईके प्रमाण निकलते हैं ।।१६३। विशेषार्थ :-०११-१=३६६ योजन सातवीं पृथिवीके इन्द्रक बिलके नीचे और ऊपरकी पृथिवीका बाहल्य । ८०००=३६६६ योजन सातवों पृथिवीके श्रेणीबद्ध बिलोंके ऊपर-नीचेकी पृथिवी का घाहल्य । पहली पृथिवीके अन्तिम और दूसरी पृथिवीके प्रथम इन्द्रकका परस्थान अन्तराल पढम-बिदीयवणीणं' रुदं सोहेज्ज एक्क-रज्जूए । जोयरण-ति-सहस्स-जुदे होदि परट्ठाण-विच्चालं ॥१६४॥ अर्थ : पहली और दूसरी पृथिवीके बाहुल्य प्रमाणको एक राजूमेंसे कम करके अवशिष्ट राशिमें तीन हजार योजन घटानेपर पहली पृथिवीके अन्तिम और दूसरी पृथिवीके प्रथम बिलके मध्यमें परस्थान अन्तरालका प्रमाण निकलता है ।।१६४।। विशेषार्थ :-पहली पृथिवीकी मोटाई १८०००० योजन और दूसरी पृथिवीकी मोटाई ३२००० योजन प्रमाण है । इस मोटाईसे रहित दोनों पृथिवियोंके मध्यमें एक राजू प्रमाण अन्तराल है । यद्यपि एक हजार योजन प्रमाण चित्रा पृथिवीकी मोटाई पहली पृथिवीकी मोटाई में सम्मिलित है, परन्तु उसको गणना ऊर्ध्व लोककी मोटाई में की गई है, अतएव इसमेंसे इन एक हजार योजनोंको कम - - . १. द.ब. पढम-खिदीयवाणी । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : १६५ - १६६ कर देना चाहिए | इसके अतिरिक्त पहली पृथिवीके नीचे और दूसरी पृथिवीके ऊपर एक-एक हजार योजन प्रमाण क्षेत्रमें नारकियोंके बिल न होनेसे इन दो हजार योजनोंको भी कम कर देने पर (१८००००+ ३२००० - ३००० ) = शेष २०६००० योजनोंसे रहित एक राजू प्रमाण पहली पृथिवी के प्रति (विक्रान्त) और दूसरी पृथिवीके प्रथम ( स्तन ) इन्द्रकके बीच परस्थान अन्तराल रहता है । तीसरी पृथिवी से छठी पृथिवी तक परस्थान अन्तराल दु- सहस्स - जोयराधिय- रज्जू तवियादि - पुढवि-रुणं । छट्टो त्ति 'परट्ठासो विच्चाल - पमाणमुद्दिट्ट ॥ १६५॥ अर्थ :- दो हजार योजन श्रधिक एक राजूमेंसे तीसरी श्रादि पृथिवियोंके बाहुल्यको घटा देनेपर जो शेष रहे उतना छठी पृथिवी पर्यन्त ( इन्द्रक बिलोंके ) परस्थानमें अन्तरालका प्रमाण कहा गया है ।। १६५ ।। विशेषार्थ :- गाथामें एक राजूमें दो हजार योजन जोड़कर पश्चात् पृथिवियोंका बाहुल्य घटाने का निर्देश है किन्तु १७० श्रादि गाथाओं में बाल्य से २००० योजन घटाकर पश्चात राजूमेंसे कम किया गया है । यथा- १ राज २६००० योजन | छठी एवं सातवीं पृथिवीके इन्द्रकों का परस्थान अन्तराल सम-कवि-रूऊणद्ध रज्जु-जुदं चरिम भूमि-रुणं । "मघस्सि चरिम - इंदय - प्रवहिद्वाणस्स विच्चालं ॥१६६॥ अर्थ :---सौ के वर्गमेंसे एक कम करके शेषको आधा कर और उसे एक राजूमें जोड़कर लब्धमेंसे अन्तिम भूमिके बाल्यको घटा देनेपर मघवी पृथिवीके अन्तिम इन्द्रक और (माधवी पृथिवीके) . अवधिस्थान इन्द्रकके बीच परस्थान अन्तरालका प्रमाण निकलता है ।। १६६ ।। विशेषार्थ :- सौ के वर्गमेंसे एक घटाकर आधा करनेपर - (१०० - १ = ६६६६ ) ÷ २८४६६६३ योजन प्राप्त होते हैं । इन्हें एक राजूमें जोड़कर लब्ध ( १ राजू + ४९९९३ यो० ) में से अन्तिम भूमिके बाहत्य ( ८००० यो० ) को घटा देनेपर ( १ राजू +४९९९३ यो० ) --- ८००० यो० = १ राजू – ( ८००० यो० – ४६६६३ यो० ) = १ राजू – ३०००३ योजन छटी पृथिवीके अन्तिम लल्लक इन्द्रक और सातवी पृ० के अवधिस्थान इन्द्रकके परस्थान अन्तरालका प्रमाण प्राप्त होता है । १. ब. परिट्टा २. द. ज. ठ. मघवस्स । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १६७-१६६ ] विदुप्रो महायिारो [ २०१ पहली पृथिवीके इन्द्रक-बिलोंका स्वस्थान अन्तराल पवणवदि-जुव-घउस्सय-छ-सहस्सा जोयणावि बे कोसा। एक्करस-कला-बारस-हिदा य घम्भिवयारण विच्चालं ॥१६७॥ जो ६४६६ । को २ । । अर्थ :--धर्मा पृथिवी के इन्द्रक बिलोंका अन्तराल छह हजार चार सौ निन्यानबै योजन, दो कोस और एक कोसके बारह भागोंमेंसे ग्यारह-भाग प्रमाण है ॥१६७|| विशेषार्थ :-गाथा १५६-१६२ के नियमानुसार पहली पृथिवीके इन्द्रक बिलोंका अन्तराल (५०००० - २०००) x ४ – (१x१३) =६४९९३५ योजन अथवा ६४९९ योजन २३ (१३ - १)x४ कोस है। पहली और दूसरी पृथिवियोंके इन्द्रक-बिलोंका परस्थान अन्तराल रयणप्पह-चरमिदय-सक्कर-पुढविदयाण विच्चालं । दो-लक्ख-णव-सहस्सा जोयण-हीणेकक-रज्जू य ॥१६॥ छ । रिण । जो २०६००० । अर्थ :-रत्नप्रभा पृथिवीके अन्तिम इन्द्रक श्रीर शर्करा प्रभाके प्रादि ( प्रथम ) इन्द्रकविलोंका अन्तराल दो लाख नौ हजार ( २०६००० ) योजन कम एक राजू अर्थात् १ राजू - २०९००० योजन प्रमाण है ॥१६॥ दूसरी पृथिवीके इन्द्रकोंका स्वस्थान अन्तराल एक्क-विहीणा जोयण-ति-सहस्सा धणु-सहस्स-चत्तारि । सत्त-सया बसाए एक्कारस-इंदयाण विच्चालं ॥१६॥ जो २६९L | दंड ४७००। प्रर्थ :-वंशा पृथिवीके ग्यारह इन्द्रक बिलोंका अन्तराल एक कम तीन हजार योजन और चार हजार सातसौ धनुष प्रमाण है ।।१६६।। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : १५०-१७२ विशेषार्थ:-दूसरी पृ० के इन्द्रक बिलौका अन्तराल ---- (३२००० -२०००)x४-(३४११) -RRE४ योजन अथवा २६.६६ यो० और (११ -१)४४ ४७०० धनुष है। दूसरी और तीसरी पृथिवीके इन्द्रक-बिलोंका परस्थान अन्तराल 'एक्को हबेदि रज्जू छब्बीस-सहस्स-जोयण-विहीणा । थललोलुगस्स तत्तिवपस्स दोण्हं पि विच्चालं ॥१७०॥ । रिण । यो २६००० । प्रर्थ :-वंशा पृथिवीके अन्तिम स्तनलोलुक इन्द्रकसे मेघा पृथिवीके प्रथम तप्तका अर्थात् दोनों इन्द्रक बिलोंका अन्तराल छब्बीस हजार योजन कम एक राजू अर्थात् १ राजू -- २६००० योजन प्रमाण है ।।१७०।। नीपरी पृथिवीके इन्टकोंका स्वस्थान अन्तग़ल तिष्णि सहस्सा दु-सया जोयरण-उणवण्ण तविय-पुढवीए। पणतीस-सय-वणि पत्तेक्कं इंक्याण विचालं ॥१७१।। यो ३२४१ । दंड ३५०० । अर्थ :-तीसरी पृथिवीके प्रत्येक इन्द्रक बिलका अन्तराल तीन हजार दो सौ उनचास योजन और तीन हजार पाँचसौ धनुष प्रमाण है ।।१७१॥ विशेषार्थ :-( २८००० - २०० २८००० -- २०००)x४- (२४६) ३२४९१ योजन । अथवा ३२४६ योजन ३५०० धनुष प्रमाण अन्तराल है। तीसरी और चौथी पृथिवीके इन्द्रकोंका परस्थान अन्तराल . : एक्को हवेवि रज्जू बावीस-सहस्स-जोयण-विहीणा । दोण्हं विच्चालमिणं संपज्जलिदार णामारणं ॥१७२॥ रिण ! जो २२००० । १. ब. क. ज. ठ. एक्का । २. द. ब. के. ज. 3. धणलोलगस्स । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १७३ १७५ ] विदुधो महाहियारो [ २०३ अर्थ : तीसरी पृथिवीका अन्तिम इन्द्रक संप्रज्वलित और चौथी पृथिवीका प्रथम इन्द्रक आर, इन दोनों इन्द्रक बिलोंका अन्तराल बाईस हजार योजन कम एक राजू अर्थात् १ राजू - २२००० योजन प्रमाण है ।। १७२ ।। चौथी पृथिवीके इन्द्रकोंका स्वस्थान अन्तराल तिणि सहस्सा 'छस्सय पणसट्ठी - जोयणाणि पंकाए । पण्णत्तरि-सय-दंडा पत्तेक्कं इंदयाण विचलं ॥१७३॥ जो ३६६५ । दंड ७५०० । अर्थ :- पंकप्रभा पृथिवीके इन्द्रक बिलोंका अन्तराल तीन हजार छसौ पेंसठ योजन और सात हजार पाँचसी दण्ड प्रमाण है ।। १७३ ।। (२४००० – २००० ) × ४ – ( विशेषार्थ :(७- १) ४४ ३६६४ पोज ७५० अनुषप्रसाल है । ×७ ) = ३६६५१५ योजन चौथी और पांचवीं पृथिवीके इन्द्रकोंका परस्थान अन्तराल एक्को हवेदि रज्जू अट्ठरस - सहस्स जोयरण - विहीणा । खडखड-तमिदयाणं दोन्हं विरुचाल - परिमाणं ॥ १७४॥ ७। रिण । जो १८००० । अर्थ :- चौथी पृथिवीके अन्तिम इन्द्रक खड़खड़ और पाँचवीं पृथिवीके प्रथम इन्द्रक तम, इन दोनोंके अन्तरालका प्रमाण अठारह हजार योजन कम एक राजू अर्थात् १ राजू – १८००० योजन है ।। १७४ ।। पाँचवीं पृथिवीके इन्द्रकोंका स्वस्थान अन्तराल चत्तारि सहस्वाणि च सय णवणउदि जोयणाणि च । पंच-सयाणि धूमपहा- इंदयाण विच्चालं ॥ १७५ ॥ दंडा जो ४४६६ | दंड ५०० । १. द. ब. क. ज. ठसट्टी । २. द. व. जोयरण विद्वीणा । अथवा Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ ] तिलोयपत्ती [ गाथा : १७६-१७८ अर्थ:-धूमप्रभाके इन्द्रक बिलोंका अन्तराल चार हजार चार सौ निन्यानबै योजन और पाँचसौ दण्ड प्रमाण है ॥१७५।। २०००० - २०००)x४–(३४५) =४४६ विशेषार्थ :-( २००००-- योजन अथवा ४४६६ (५-१)४४ योजन ५०० धनुष अन्तराल है । पांचवीं और छटी पृथिवीके इन्द्रकोंका परस्थान अन्तराल चोइस-सहस्स-जोयण-परिहीणो होदि केवलो रज्जू । तिमिसिदयस्स हिम-इंदयस्स दोण्हं पि विच्चालं ॥१७६॥ छ । रिए । जो १४००० । अर्थ : - पाँचवीं पृथिवीके अन्तिम इन्द्रक तिमिस्र और छठी पृथिवीके प्रथम इन्द्रक हिम, इन दोनों बिलोंका अन्तराल चौदह हजार योजन कम एक राजू अर्थात् १ राजू – १४००० योजन प्रमाण है ।।१७६।। छठी पृथिबीके इन्द्रकोंका स्वस्थान अन्तराल अट्ठाणउदी णव-सय-छ-सहस्सा 'जोयणाणि मघवीए। पणवण्ण-सयाणि धणू पत्तक्कं इंदयाण विच्चालं ।।१७७॥ जो ६६६८ । दंड ५५०० । अर्थ : मघवी पृथिवीमें प्रत्येक इन्द्रकका अन्तराल छह हजार नौ सौ अट्ठानबै योजन और पाँच हजार पाँच सौ धनुष है ॥१७७॥ ... मिला:.. ( १६००० - २००१) ४४-४३)= ६६६८९ योजन अथवा (३-१)x४ ६९९८ योजन ५५०० धनुष अन्तराल है । छठी और सातवीं पृथिवीके इन्द्रकोंका परस्थान अन्तराल 'छद्रुम-खिदि-चरिमिवय-प्रवहिट्ठाणाण होइ विच्चालं । एक्को रज्जू ऊणो जोयण-ति-सहस्स-कोस-जुगलेहिं ॥१७॥ । रिण । जो ३००० । को २ । १. द. ब. क. ज. ठ. जोयणादि । २. द. छठ्ठम । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १७६-१८० ] विदुप्रो महाहियारो [ २०५ अर्थ :-छठी पृथिवीके अंतिम इन्द्रक लल्लंक और सातवीं पृथिवीके अवधिस्थान इन्द्रकका मन्तराल तीन हजार योजन और दो कोस कम एक राजू अर्थात् १ राजू -- ३००० योजन २ कोस प्रमाण है ॥१७॥ अवधिस्थान इन्द्रककी ऊवं एवं प्रधस्तन भूमिके बाहल्यका प्रमाण तिणि सहस्सा णव-सय-णवणउदी' जोयणाणि ये कोसा। उड्ढाधर-भूमीणं प्रवाहिवाणस्स परिमाणं ॥१७॥ ३६६६ ! को २ । ॥ इंदय-विच्चालं समत्तं ॥ अर्थ :-अवधिस्थान इन्द्रका ऊर्ध्व और प्रवक्ता भूनिक जाहल्यका प्रमाण तीन हजार नौ सौ निन्यानवे योजन और दो कोस है ।।१७६।। विशेषार्थ:-गाथा १६३ के अनुसार - ---- ३६६६३ योजन बाहुल्य सातवीं पृथिवीके अवधिस्थान इन्द्रक बिल के नीचेकी और ऊपरकी पृथिवीका है । [1 इन्द्रक बिलोंके अन्तरालका वर्णन समाप्त हुआ । घर्मादिक पृथिवियों में श्रेणीबद्ध बिलोंके स्वस्थान अन्तरालका प्रमारण प्रथम नरक में श्रेणीबद्धोंका अन्तराल णवणदि-जुद-चउस्सय-छ-सहस्सा जोयपाणि बे कोसा। पंच-कला णव-भजिदा धम्माए सेटिबद्ध-विच्चालं ॥१०॥ ६४६६ । को २ ।। अर्थ :-धर्मा पृथिवीमें श्रेणीबद्ध बिलोंका अन्तराल छह हजार चार सौ निन्यानब योजन दो कोस और एक कोसके नौ-भागों से पाँच भाग प्रमाण है ।।१८०॥ नोट-१८० से १८६ तककी गाथाओं द्वारा सातों पृथिवियोंके श्रेणीबद्ध बिलोंका पृथक्पृथक् अन्तराल गाथा १५९-१६२ के नियमानुसार प्राप्त होगा । यथा-- -. -- -...- -.- -- १. द. गाउणउदी। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : १८१-१८३ . विशेषार्थ :--(८०००० – २००० -- ५३) (351)= (७८००० – १३)xs= २३१६-८६४६६ योजन अथवा ६४६६ योजन २१ कोस पहली पृथिवीमें श्रेणीबद्ध बिलोंका अन्तराल है। दूसरे नरकमें श्रेणीबद्धोंका अन्तराल गवरणउदि रणव-सयाणि बु-सहस्सा जोयणाणि वंसाए। ति-सहस्स-छ-सय-दंडा 'उड्डेणं सेटिबद्ध-विच्चालं ॥१८१॥ जो २६६६ । दंड ३६०० । पर्य :-वंशा पृथिवीमें श्रेणीबद्ध बिलोंका अन्तराल दो हजार नौ सौ निन्यानबै योजन और तीन हजार छह सौ धनुष प्रमाण है ॥१५१॥ विशेषार्थ :---( ३२००० - २०००)-(3xxi): 17-12 (102 -- १) =२६६९ योजन अथवा २९९९ योजन ३६०० दण्ड अन्तराल है। तीसरे नरकमें श्रेणीबद्धोंका अन्तराल उरणवण्णा दु-सयाणि ति-सहस्सा जोयणाणि मेघाए । दोणि सहस्साणि धणू सेढीबद्धाण विच्चालं ॥१२॥ जो ३२४६ । दंड २००० । अर्थ :-मेघा पृथिवी में श्रेणीबद्ध बिलोंका अन्तराल तीन हजार दो सौ उनचास योजन और दो हजार धनुष है ॥१८२।। विशेषार्थ :-(२८००० – २०००)-(ixix):= ( २५ -1)xt =३२४६१ योजन अथवा ३२४६ योजन २००० दण्ड मेघा पृथिवीमें श्रेणीबद्ध बिलोंका अन्तराल है। चतुर्थ नरकमें थेणीबद्धोंका अन्तराल रणव-हिद-बावीस-सहस्स-वंड-हीरणा हवेदि छासट्री। जोयण-छत्तीस'-सयं तुरिमाए सेढीबद्ध-विच्चालं ॥१३॥ जो ३६६५ । दंड ५५५५ । ५ । १. द. योउढोणं, ब. क उढीणं । २. द. हुवेदि। ३. ब. बत्तीससयं । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १८४-१८५ ] विदुनो महाहियारो [ २०७ अर्थ :-चौथी पृथिवीमें श्रेणीबद्ध बिलोंका अन्तराल, बाईस हजारमें नौ का भाग देनेपर जो लब्ध प्राबे, उतने (२७.९ : १२:४३, 13 -... २४४४३५५५५ ) धनुष कम तीन हजार छह सौ छयासठ योजन प्रमाण है ॥१८॥ विशेषार्थ :-(२४००० - २०००)-(3xx1) =(२२६०० – १)xi = ३६६५३५ योजन अथवा ३६६५ योजन ५५५५५ धनुष अन्तराल है। पाँचवें नरकमें श्रेणीबद्धोंका अन्तराल 'अट्ठाणउदी जोयण-चउदाल-सयारिण छस्सहस्स-धणू । धूमप्पह-पुढवीए सेडीबद्धारण विच्चालं ॥१४॥ जो ४४९८ । दंड ६०००। पर्थ :-धूमप्रभा पृथिवीमें श्रेणीबद्ध बिलोंका अन्तराल चार हजार चार सौ अट्ठानब योजन और छह हजार धनुष है ॥१८४।। विशेषार्थ :-( २०००० - - २०००)-(xix) =(१९६० -५)x= ४४६८ योजन अथवा ४४९८ योजन ६००० धनुष अन्तराल है। छठवें नरकमें श्रेणीबद्धोंका अन्तराल अद्वारगउदी णव-सय-छ-सहस्सा जोयणाणि मघवीए । दोणि सहस्साणि धणू सेढीबद्धाण विच्चालं ॥१८॥ जो ६६६८ | दंड २००० । ...अर्थ :- मधवी पृथिवीमें श्रेणीबद्ध बिलोंका अन्तराल छह हजार नौ सौ अट्ठानबै योजन और दो हजार धनुष है ।।१८५।। विशेषार्थ :-(१.६००० - २०००)--(४५६४३)*(३ – १)=(""०० +३) x३=६९९८१ योजन या ६६६८ यो० २००० दण्ड प्रमाण अन्तराल है । : १. ब. अट्ठाणणउदी। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ ] तिलोयपण्णत्ती [ माथा : १८६-१८८ सातवें नरकमें श्रेणीबद्धोंका अन्तराल णवणउदि-सहिय-णव-सय-ति-सहस्सा जोयणारिण एक्क-कला । ति-हिदा य माघबीए सेढीयद्वाण विच्चालं ॥१८६।। जो ३९६६ ।। अर्थ :-माधवी पृथिवीमें श्रेणीबद्ध बिलोंका अन्तराल तीन हजार नौ सौ निन्यानबै योजन और एक योजनके तीसरे-भाग प्रमाण है ।।१८६।। विशेषार्थ :-सातवीं पृथिवीकी मोटाई ८००० योजन है और श्रेणीबद्धोंका बाहल्य यो० है। इसे ८००० यो० बाल्यमेंसे घटाकर प्राधा करनेपर अन्तरालका प्रमाण प्राप्त होता है। यथा-८००-=k४०९:-x="३" योजन अर्थात् ३६६६) यो० सातवीं पृथिवीमें श्रेणीबद्ध बिलोंका अन्तराल है। धर्मादिक-पृथिवियोंमें श्रेणीबद्ध बिलोंके परस्थान अन्तरालोंका प्रमाण सट्ठाणे विच्चालं एवं जाणिज्ज तह परट्ठाणे । जं इंदय-परठाणे' भणिदं तं एत्थ वत्तन्वं ॥१८७॥ णवरि विसेसो एसो लल्लंकय-प्रवहिठाण-विच्चाले। 'जोयर-छब्भागूणं सेढीबद्धाण विच्चालं ॥१८॥ । सेढीबद्धारा विच्चालं समत्त । अर्थ : यह श्रेणीबद्ध बिलोंका अन्तराल स्वस्थानमें समझना चाहिए ! तथा परस्थानमें जो इन्द्रक बिलोंका अन्तराल कहा जा चुका है, उसीको यहाँभी कहना चाहिए, किन्तु विशेषता यह है कि लल्लंक और अवधिस्थान इन्द्रकके मध्यमें जो अन्तराल कहा गया है, उसमेंसे एक योजनके छह भागोंमेंसे एक-भाग कम यहाँ श्रेणीबद्ध बिलोंका अन्तराल जानना चाहिए ।।१७-१८८।। विशेषार्थ :- गाथा १८० से १८६ पर्यन्त श्रेणीबद्ध बिलोंका अन्तराल स्वस्थानमें कहा गया है । तथा गाथा १६४ एवं १६५ में इन्द्रक बिलोंका जो परस्थान (एक पृथिवीके अन्तिम और अगली पृथिवीके प्रथम बिलका ) अन्तराल कहा गया है, वही अन्तराल श्रेणीबद्ध बिलोंका है । यथा १. द. क, ज. ठ. इंदयपरणाणे, ब. ईदयवरठाणे। २. द ब. जोयण्या५ । ३. ब. सम्मत्त । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १८ ] विदुश्रो महाहियारो [ २०३ पहली धर्मापृथिवीकी १५०००० योजन और वंशाकी ३२००० योजन प्रमाण मोटाई है । इन दोनोंका योग २१२००० योजन हुआ, इसमेंसे चित्रा पृथिवीकी मोटाई १००० यो०, पहली पृथिवीके नीचे १००० योजन और दूसरी पृथिवी के ऊपरका एक हजार योजन इसप्रकार ३००० योजन घटा देनेपर ( २१२००० - - ३००० ) = २०६००० योजन अवशेष रहे, इनको एक राजमेंसे घटा ( १ राजू – २०९००० ) कर जो अवशेष रहे वही पहली पृथिवीके अन्तिम और दूसरी पृथिवीके प्रथम श्रेणीबद्ध बिलों का परस्थान अन्तराल है । वंशा पृथिवीके नीचेका १००० योजन + मेघा पृथिवीके ऊपरका १००० योजन = दो हजार योजनोंको मेघा पृथिवीकी मोटाई ( २८००० योजनों ) मेंसे कम करदेने पर ( २८०० २०००) २६००० योजन श्रवशेष रहे। इन्हें एक राजू में से घटा देनेपर ( १ राजू २६००० ) जो अवशेष रहे, वही वंशा पृथिबीके अन्तिम श्रेणीबद्ध और मेघा पृथिवीके प्रथम श्रेणीबद्ध बिलोंका परस्थान अन्तराल है । अन्जना पृथिवीकी मोटाई २४००० योजन है । २४००० २००० = २२००० योजन कम एक राजू ( १ राजू - २२००० यो० ) प्रमाण मेघा पृथिवीके अन्तिम श्रेणीबद्ध और अञ्जना पृथिवीके आदि श्रेणीबद्ध बिलोंका परस्थान अन्तराल है । अरिष्टा पृथिवीकी मोटाई २०००० योजन १८००० योजन अञ्जनाके अन्तिम और अन्तराल है । २००० यो० = १८०००। १ राजू - अरिष्टाके प्रथम श्रेणीबद्ध बिलोंका परस्थान मघवी पृथिवीकी मोटाई १६००० योजन अरिष्ट्रा के अन्तिम श्रौर मत्रवी अन्तराल है । --- २०००-१४००० योजन । १ राजू - पृथिवीके प्रथम श्रेणीबद्ध बिलोंका १४००० परस्थान गा० १६६ में छठी पृ० के अन्तिम इन्द्रक लल्लेक और सातवीं पृ० के अवधिस्थान इन्द्रकका परस्थान अन्तराल १ राजू ८००० योजन + ४६६६३ योजन कहा गया है। इसमेंसे एक योजना का भाग ( दे यो० ) कम करदेने पर ( १ राजू - ८०००+४१९९३ १ ) = १ राजू - ८००० + ४६६६१ योजन अर्थात् १ राजू - ३००० योजन छठी पृथिवीके सातवीं पृथिवी प्रथम श्र ेणीबद्ध बिलका परस्थान अन्तराल है। अन्तिम और || श्रेणीबद्ध बिलोंके अन्तरालका वर्णन समाप्त हुआ || Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० ] तिलोय पण्णत्ती [ गाथा : १८९-१९१ धर्मादिक छह पृथिवियोंमें प्रकीर्णक- बिलोंके स्वस्थान एवं परस्थान अन्तरालोंका प्रमाण छक्कदि हिदेवकणउदी - कोसोणा छस्सहस्स-पंच-सया । जोयणया धम्माए पइण्णयाणं हवेदि विच्चालं ॥ १६६ ॥ ६४६६ । को १ । १ । श्रयं :- घर्मा पृथिवीमें प्रकीर्णक बिलोंका अन्तराल, इक्यानबे में छहके वर्गका भाग देने पर जो लब्ध प्रावे, उतने कोस कम छह हजार पाँचसी योजन प्रमाण है ॥ १८९॥ विशेषार्थ : - योजन ६५०० पृथिवीकी मोटाई ५०००० -- - २००० = ७६००० यो० ३२) × ६३ = ६४६६६४ योजन या ६४६६ योजन १३ अन्तराल है । x १ ) = ६४९९ यो० १३ कोस, अथवा धर्मा : (७८००० - १३) + ' (००००. कोस पहली पृथिवीमें प्रकीर्णक बिलोंका वरणजदी - जुद-व-सय-दु-सहस्सा जोयस्पाणि बसाए । तिथि सारिंग दंडा उड्ढे पइण्णयाण विच्चालं ॥ १६०॥ २६६६ | दंड ३०० । अर्थ :- वंशा पृथिवी में प्रकीर्णक बिलोंका ऊर्ध्वग अन्तराल दो हजार नौ सौ निन्यानबे योजन और तीनसी धनुष प्रमाण है ।। १९० ॥ - २००० = 30000. विशेषार्थ :- ३२००० (xx २४) (११ - १ ) – (300 *) × १० = २६६६६४] योजन या २६६६ यो० ३०० दण्ड वंशा पृथिवीमें प्रकीर्शक विलोंका श्रन्तराल है । - प्रवृत्तालं दुसयं ति सहस्स- जोयरणारिप' मेघाए । वरण-सारिण धणू उठेण पइण्णयारण विच्चालं ॥। १६१ ॥ ३२४८ | दंड ५५०० । अर्थ :- मेघा पृथिवीमें प्रकीकि बिलोंका ऊर्ध्वग अन्तराल तीन हजार दो सौ अड़तालीस योजन र पाँच हजार पाँचसौं धनुष हैं ।।१६१॥ १. द. जोया । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १९२-१६४ ] विदुनो महाहियारो [ २११ विशेषार्थ :-(२८००० - २००० -- २६०००)- (xxx) 4-2 = (१६०० – R'x'=३२४५१ योजन या ३२४८ योजन ५५०० दण्ड मेघा पृथिवीमें प्रकीर्णक बिलोंका अन्तराल है। चउसट्टि छस्सयाणि सि-सहस्सा जोयणाणि तुरिमाए । उणहत्तरी-सहस्सा पण-सय-दंडा य गब-भजिदा ॥१६२।। ३६६: । ४ । । अर्थ :-चौथी पृथिवीमें प्रकीर्णक बिलोंका अन्तराल तीन हजार, छहसौ चौंसठ योजन और नौ से भाजित उनहत्तर हजार, पाँच सौ धनुष प्रमाण है ॥१६२।। . . विशेषार्थ :-( २४००० - २००० =२२०००)-(३.x x .) = ( २१९०० – २४५)xt=३६६४३ योजन या ३६६४ योजन ५०० दण्ड अञ्जना पृथिवीमें प्रकीर्णक बिलोंका अन्तराल है। सत्ताणउदी-जोयण-चउदाल-सयाणि पंचम-खिदीए । पण-सय-जुद-छ-सहस्सा दंडेण पइण्णयाण विच्चालं ॥१९३॥ ४४६७ । दंड ६५०० अर्थ:-पांचवीं पृथिवी में प्रकीर्णक बिलोंका अन्तराल चार हजार चारसौ सत्तानबै योजन और छह हजार पाँचसौ धनुष प्रमाण है ।।१६३॥ विशेषार्थ :--( २०००. .- २००० - १८०००) -- (* x x3) + 5 = (१०० -- x-४४६७३१ योजन या ४४६७ योजन ६५०० दण्ड अरिष्टा पृथिवीमें प्रकीर्णक बिलोंका अर्ध्व अन्तराल है । छण्णउदि णव-सयापि छ-सहस्सा जोयणारिण मघवोए । पणहत्तरि सय-दंडा उड्ढेण पइण्णयाण विच्चालं ॥१६४॥ ।। ६६६६ 1 दंड ७५०० ॥ प्रथं : मघवी नामक छठी पृथिवीमें प्रकीर्णक बिलोंका ऊर्ध्व अन्तराल छह हजार नौ सौ छयानब योजन और पचहत्तर सौ धनुष प्रमाण है ।।१६४|| Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ ] तिलोयपत्ती [ गाथा : १६५ विषार्थ :-(१६०००-२०००-१४०००)-(१xx)-3-1= (xpi --xs)x= ६९९६१५ योजन अथवा ६६६६ योजन ७५०० दण्ड (धनुष) मघवी पृथिवीमें प्रकीर्णक बिलोंका ऊर्ध्व अन्तराल है। 'सहारणे विच्चालं एवं जाणिज्ज तह परहाणे । जं इंदय-परठाणे भरिणदं तं एस्थ वक्तव्वं ॥१९॥ । एवं पइग्णया विच्चाले समय ॥ एवं णिवास-खेत्तं समत्तं ॥१॥ प्रर्थ :-इस प्रकार यह प्रकीर्णक बिलोंका अन्तराल स्वस्थानमें समझना चाहिए । परस्थानमें जो इन्द्रक बिलोका अन्तराल कहा जा चुका है उसीको यहाँपर भी कहना चाहिए ।।१९।। । इसप्रकार प्रकीर्णक बिलोंका अन्तराल समाप्त हुआ। ।। इसप्रकार निवास-क्षेत्रका वर्णन समाप्त हुप्रा ।।१।। १. ठ. अट्ठाणे। २. द. वत्थच्वं । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रक, श्रेणीबद्ध एवं प्रकीर्णक बिलोंका स्वस्थान, परस्थान अन्तराल गा० १६४-१९५ श्रेणीबद्ध बिलोंका अन्तराल । प्रकीर्णक बिलोंका इन्द्रक-बिलोंका अन्तराल अन्तराल गाथा ; १९५ ] क्रमांक | नरकों के नाम | स्वस्थान परस्थान स्वस्थान स्वस्थान परस्थान | धम्मा वंशा मेधा ६४६ यो . ६४६६यो ६४९९१ यो १ राजू-२०६०००यो. १रा.-२०६०००यो। | २६EE यो० २६६६.यो. २९९९६. यो | १ राजू-२६००० यो राजू-२६०००यो । ३२४६ यो ३२४९. यो.. ३२४८१ यो. १ राजू-२२००० यो. राजू-२२०००यो. ३६६५६४ यो. ३६६५३ यो ३६६४३यो. १ राजू-१८००. यो. राजू-१८०००यो। . ४४६यो १४४६८ यो। ४४६७१॥ यो. १ राजू-१४००० यो. राजू-१४००० यो.. ६६६८५४ यो | ६ERE यो. १ राजू-३०००३ यो. | १राजू-३०००३पो. ३६६६यो. अंजना विदुनो महाहियारो इन्दक-बिलोंके प्रस्थान प्रमाण सदृश अरि मघवी माघवी [ २१३ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : १६६-१६६ घम्माए णारइया संखातीताप्रो होंति सेढीयो । एवाणं गुणगारा बिवंगुल-बिदिय-मूल-किंचूणं ॥१६॥ अर्थ :- धर्मा पृथिवीमें नारकी जीव असंख्यात आयुके धारक होते हैं। इनकी संख्या निकालनेके लिए गुणकार घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलसे कुछ कम है । अर्थात् इस गुणकारसे जगच्छेगीको गुणा करनेपर जो राशि उत्पन्न हो उतने नारकी जीव धर्मा पृथिवीमें विद्यमान हैं ।।१९६॥ श्रेणी x धनांगुलके दूसरे वर्गमूलसे कुछ कम धर्मा पृ० के नारकी। शंसाए मारहरा मेलीय प्रसंशभाग मेता वि। सो रासी सेढोए बारस-मूलावहिद सेढी ॥१९॥ अर्थ :-वंशा पृथिवीमें नारकी जीव जगच्छ्रणीके असंख्यातभाग मात्र हैं, वह राशि भी जगच्छ्रेणीके बारहवें वर्गमूलसे भाजित जगच्ऋणी मात्र है 11१९७।। श्रेणी श्रेणीका बारहवां वर्गमूल = वंशा पृथिवीके नारकियोंका प्रमाण । मेधाए णारइया सेढीए असंखभाग-मेत्ता वि । सेढीए 'दसम-मूलेण भाजिदो होदि सो सेढी ॥१६॥ अर्थ : मेघा पृथिवीमें भारको जीव जगच्छणीके असंख्यातभाग प्रमाण होते हुए भी जगन्छ रणीके दसवें वर्गमूलसे भाजित जगच्छणी प्रमाण है ।।१९८।। श्रेणी श्रेणीका दसवाँ वर्गमूल = मेधा पृ० के नारकियोंका प्रमाण । तुरिमाए णारइया सेढीए असंखभाग-मेत्ते वि । सो सेढोए अट्ठम-मूलेणं अवहिदा सेढी ॥१६॥ १. द. क. ठ. दसमलेग । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २००-२०३ ] विदुनो महायिारो [ २१५ अर्थ :-चौथी पृथिवीमें नारकी जीव जगच्छणीके असंख्यातभाग प्रमाण हैं, बह प्रमाण भी जगच्छरणीमें जगच्छणीके आठवें वर्गमूलका भाग देने पर जो लब्ध प्रावे, उतना है ॥१६॥ थेणी श्रेणीका प्राठवां वर्गमूल-चौथी पृ० के नारकियोंका प्रमाण पंचम-खिदि-णारइया सेढीए असंखभाग-मेत्ते थि । सो सेढीए छट्ठम-मलेणं भाजिदा सेढी ॥२००।। अर्थ :–पाँचवीं पृथिवीमें नारकी जीव जगच्छ्रणीके असंख्यातवें-भाग प्रमाण होकर भी जगच्छणीके छठे वर्गमूलसे भाजित जगच्छृणी प्रमाण हैं ॥२००।। श्रेणी श्रेणीका छठा वर्गमूल पाँचवीं पृ० के नारकियोंका प्रमाण । मघवीए णारइया सेढीए असंखभाग मेत्ते वि। सेढीए तविय-मलेण 'हरिद-सेढी सो रासी ॥२०१॥ अर्थ :-मघवी पृथिवीमें भी नारको जीव जगच्छ्रणीके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं, बह प्रमाण भी जगच्छेणीमें उसके तीसरे वर्गमूलका भाग देनेपर जो लञ्च प्रावे, उतना है ।।२०१।। श्रेणी: श्रेणीका तीसरा वर्गमूल = छठी पृ० के नारकियोंका प्रमाण । सत्तम-खिदि-णारइया सेढीए असंखभाग-मेत्ते यि । सेढोए बिदिय-मूलेण हरिद-सेढीन सो रासी ॥२०२॥ । एवं संखा समत्ता ।।२।। अर्थ :-सातवीं पृथिवीमें नारकी जीव जगच्छणीके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं, वह राशि जगच्छ णीके द्वितीय वर्गमूलसे भाजित जगच्छणी प्रमाण है ॥२०२।। श्रेणी: श्रेणीका दुसरा वर्गमूल सातवों पृ० के नारकियों का प्रमाण । इसप्रकार संख्याका वर्णन समाप्त हुआ 11२।। १.द, ब. क. हरिदा सेतोय । Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ ] तिलोयपणाची [ गाथा : २०३-२०६ पहली पृथिवीमें पटल क्रमसे नारकियोंकी प्रायुका प्रमाण णिरय-पदरेसु' पाऊ सौमंतादीसु दोसु संखेम्जा । तदिए संखासंखो ससु असंखो तहेव सेसेसु ॥२०३॥ ७ । ७ । ७ रि । १० । रि । से । रि' मर्थ :-नरक-पटलोंमेंसे सीमन्त आदिक दो पटलोंमें संख्यात वर्षकी प्रायु है। तीसरे पटलमें संख्यात एवं असंख्यात बर्षकी आयु है और पागेके दस पटलोंमें तथा शेष पटलोंमें भी असंख्यात वर्ष प्रमाण ही नारकियोंकी प्रायु होती है ।।२०३।। एक्कत्तिणि य सत्तं वह सत्तारह दुवीस तेत्तीसा । रयणादी-चरिमिंदय'-जेडाऊ उवहि-उवमाणा ॥२०४॥ १ । ३ । ७ । १० । १७ । २२ । ३३ । सागरोवमाणि । अर्थ :-रत्नप्रभादिक सातों पृथिवियों के अन्तिम इन्द्रक बिलोंमें क्रमश: एक, तीन, सात, दस, सत्तरह. बाईस और तैतीस सागरोपम-प्रमाण उत्कृष्ट प्रायु है ।।२०४।। दस-णदि-सहस्साणि ग्राऊ अवरो वरो य सोमंते । धरिसाणि णवि-लक्खा णिर-इंदय-ग्राउ-उपकस्सो ॥२०५॥ . . १०००० । ६०००० । ६०००००० । अर्थ :-सीमन्त इन्द्रकमें जघन्य प्रायु दस हजार ( १०००० ) वर्ष और उत्कृष्ट प्रायु नब्ब ( २०००० ) हजार वर्ष-प्रमाण है। निरय इन्द्रकमें उत्कृष्ट प्रायुका प्रमाण नव्वं लाख (९०००००) वर्ष है ।।२०।। रोरुगए जेट्ठाऊ संखातीदा हु पुन्व-कोडीयो। भंतस्सुक्कस्साऊ सायर-उवमस्स दसमंसो ॥२०६॥ पुव्व । रि ! सा । । अर्थ :-रोरुक इन्द्रकमें उत्कृष्ट आयु असंख्यात पूर्वकोटी और भ्रान्त इन्द्रको सागरोपमके दसवें-भाग ( सागर ) प्रमाण उत्कृष्ट प्रायु है ।।२०६।। - ..- - - ....... -- - २. द. २।७। ७०।१०।०॥ ३. ब. परमिदिय । १. द. ज.क. ठ, पदरस्स । ४. द. ब. माउक्कस्सो । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१७ गाथा : २०७-२०६ ] विदुओ महाहियारो दसमंस चउत्थस्स य जेट्ठाऊ सोहिऊण णव-भजिदे । पाउस्स पढम-भूए' णायचा हाणि-बड्ढीयो ।२०७॥ अर्थ :-पहली पृथिवीके चतुर्थ पटल में जो एक सागरके दसवें भाग-प्रमाण उत्कृष्ट प्रायु है, उसे पहली पृथिवीस्थ नारकियोंकी उत्कृष्ट आयुमेंसे कम करके शेषमें नौ का भाग देनेपर जो लब्ध प्रावे उतना, पहली पृथिवीके अवशिष्ट नौ पटलोंमें प्रायुके प्रमाणको लानेके लिए हानि-वृद्धिका प्रमाण जानना चाहिए । ( इस हानि-वृद्धिके प्रमाणको चतुर्थादि पटलोंको आयुमें उत्तरोत्तर जोड़ने पर पंचमादि पटलोंमें प्रायुका प्रमाण निकलता है ) ॥२०७॥ रत्नप्रभा—पृ० में उत्कृष्ट प्रायु एक सागरोपम है, अतः १ - सागर हानि-वृद्धिका प्रमाण हुआ। सायर-उवमा इगि-बु-ति-चउ-पण-छस्सत्त-अद-रणव-बसया। बस-भजिदा रयरगप्पह-तुरिमिदय-पहुदि-जेट्ठाऊ ॥२०॥ २।२०। । । ५ । । । । । । अर्थ :- रत्नप्रभा पृथिवीके चतुर्थ पंचमादि इन्द्रकोंमें क्रमशः दससे भाजित एक, दो, तीन, चार, पौंच, छह, सात, आठ, नौ और दस सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट प्रायु है ।।२०।। भ्रान्तमें सागर; उद्भ्रान्तमें 20 संभ्रान्तमें ; असंभ्रान्तमें ; विभ्रान्तमें ; तप्तमें १४; असितमें ; वक्रान्तमें 42; अवक्रान्तमें हैं और विक्रान्त इन्द्रक बिल में उत्कृष्टायु या १ सागर प्रमाण है। आयुकी हानि-वृद्धिका प्रमाण प्राप्त करनेका विधान उरिम-खिदि-जेट्ठाऊ सोहिय' हेट्ठिम-खिदीए जेटुम्मि । सेसं णिय-णिय-इंदय-संखा-भजिदम्मि हारिण-वड्ढीयो ।२०६॥ अर्थ :--उपरिम पृथिवीकी उत्कृष्ट प्रायुको नीचेको पृथिवीको उत्कृष्ट प्रायुमेंसे कम करके शेषमें अपने-अपने इन्द्रकोंकी संख्याका भाग देनेपर जो लब्ध पावे, उतना विवक्षित पृथिवीमें आयुकी हानि-वृद्धिका प्रमाण जानना चाहिए ।।२०६।। १. द. ब. ज.क., पढमभाए। २. क. ब. ज. क. 8. सोहस । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोय पण्णत्ती उदाहरण :- दूसरी पृ० की उ० श्रायु सागर ( ३ पृथी में प्रयुकी हानि - वृद्धिका प्रमाण है । २१८ ] - [ गाथा : २१०-२११ १-२ ) ÷ ११ - १ सागर दूसरी दूसरी पृथिवीमें पटल क्रमसे नारकियोंकी आयुका प्रमाण तेरह उबही पढमे दो-दो जुत्ता' य जाव तेत्तीसं । एक्कारसेहि भजिदा बिदिय खिदी-इंदयाण' जेट्ठाऊ ॥२१० ॥ २३ । २६ । ९७ । १६ । ३ । ३ । ३ । २७ । १ । ३३ । ३ । 14 स्तनक जिह्वामें ३५ जिह्नक में उत्कृष्टायु है । अर्थ :- दूसरी पृथिवीके ग्यारह इन्द्रक बिलोंमेंसे प्रथम इन्द्रक बिलमें ग्यारहसे भाजित तेरह (77) सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट आयु है । इसमें तैंतीस (३) प्राप्त होने तक ग्यारहसे भाजित दो दो ( ) को मिलानेपर क्रमश: दूसरी पृथिवीके शेष द्वितीयादिक इन्द्रकोंकी उत्कृष्ट श्रायुका प्रमाण होता है || २१० ॥ में पैसा उनकरों में बन में घात में संघात में १३ लोल में ३६, लोलक में है और स्तनलोलक या ३ सागर प्रमाण तीसरी पृथिवी में पटल क्रमसे नारकियोंकी श्रायुका प्रमाण । इगतीस उवहि उवमा पभश्रो चज - वड्ढिदो य पत्तेक्कं । जा तेसठि णव भजिदं एदं तदियावणिम्मि जेट्ठ|ऊ ॥२११॥ १३५२४३६३ । ४७ । ५ । ५५ । ५१ । ६३ । अर्थ :- तीसरी पृथिवीमें नौसे भाजित इकतीस ( ) सागरोपम प्रभव या आदि है । इसके आगे प्रत्येक पटल में नीसे भाजित चार ( ) की तिरेसठ ( ) तक वृद्धि करनेपर उत्कृष्ट यायुका प्रमाण निकलता है | २११ । । तप्त में त्रसित में ; तपनमें ; तापन में ; निदाय में प्रज्वलित में उज्ज्वलित में 44 संज्वलित में और संप्रज्वलित नामक इन्द्रकमें अथवा ७ सागर प्रमाण उत्कृष्टायु है । १. द. दोड़ो जेद्वा य । ज क. ठ. दोद्दो जेत्ता थे । २. खिदीयं दया रण । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २१२-२१४ ] विदुओ महाहियारो [ २१६ चौथी पृथिवीमें नारकियोंकी प्रायुका प्रमाण बावण्णुवही-उवमा पभो तिय-वढिदा य पत्तेक्कं । सत्तरि-परियंतं ते सत्त-हिदा तुरिम-पुढवि-जेट्ठाऊ ॥२१२॥ ५२ ५५ ५८ । ६१ ६४ | ६७/ ७ ७ ७ ७ ७ | ७ ७ अर्थ :-चौथी पृथिवीमें सातसे भाजित बाबन सागरोपम प्रभव है। इसके प्रागे प्रत्येक पटलमें सत्तर पर्यन्त सातसे—भाजित तीन (3) की वृद्धि करने पर उत्कृष्टायुका प्रमाण निकलता है ॥२११॥ पारमें 3; मारमें ५५; तारमें ; चर्चा में ; तमकमें वादमें : खड़खड़में या १० सागरोपम उत्कृष्ट प्रायु है ।।२१२।। । पांचवीं पृथिवीमें नारकियोंकी आयुका प्रमाण सगवण्णोवहि-उवमा प्रावो ससाहिया य पत्ते वकं । परणसीदी-परिअंतं पंच-हिदा पंचमोन जेट्ठाऊ ॥२१३॥ ५७/६४१७१७८| | अर्थ :-पांचवीं पृथिवीमें पाँचसे भाजित सत्तावन सागरोपम प्रादि है। अनन्तर प्रत्येक पटलमें पचासी तक पांचसे भाजित सात-सात (३) के जोड़नेपर उत्कृष्ट प्रायुका प्रमाण जाना जाता है ।।२१३१॥ तममें सागरोपम; भ्रममें -४; झसमें :-; अन्धमें और तिमिस्र इन्द्रककी उत्कृष्टायु अर्थात् १७ सागर प्रमाण है ! छठी पृथिवीमें नारकियोंकी पायुका प्रमाण छप्पण्णा इगिसट्ठी 'छासट्ठी होंति उवहि-उवमारणा । तिय-भजिदा मघवीए णारय-जीवाण जेट्ठाऊ ॥२१४॥ १. क. ब. वासट्ठी। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० ] तिलोयपगती [ गाथा : २१५-२१६ अर्थ :-मघवी पृथिवीके तीन पटलोंमें नारकियोंकी उत्कृष्टायु क्रमशः तीनसे भाजित छप्पन, इकसठ और छयासठ सागरोपम है 11२१४।। हिममें 1; वर्दसमें और लल्लंकमें - या २२ सागर प्रमाण उत्कृष्टायु है । सत्तम-खिदि-जीवाणं पाऊ तेत्तीस-उवहि-परिमाणा । उवरिम-उपकस्साऊ 'समय-जुदो हेलिमे जहणं खु ॥२१॥ अर्थ :-सातवीं पृथिवीके जीवोंकी आयु तैतीस सागरोपम प्रमाण है। ऊपर-ऊपरके पटलोंमें जो उत्कृष्ट प्रायु है, उसमें एक-एक समय मिलानेपर वही नीचेके पटलोंमें जघन्यायु हो जाती है ॥२१॥ अवधिस्थान नामक इन्द्रककी प्रायु ३३ सागरोपम प्रमाण है। श्रेणीबद्ध एवं प्रकीर्णक बिलोंमें स्थित नारकियोंकी प्रायु एवं सम-खिदीणं पत्तवक इंदयारण जो प्राऊ । सेढि-विसेढि-गदाणं सो चेय पइण्णयाणं पि ॥२१६॥ एवं ग्राऊ समत्ता ॥३॥ प्रर्थ:--इसप्रकार सातों पृथिवियोंके प्रत्येक इन्द्रक में जो उत्कृष्ट प्रायु कही गई है, वहीं वहाँक श्रेणीबद्ध और विश्रेणीगत (प्रकीर्णक) बिलोंकी भी भायु समझना चाहिए ॥२१६।। इसप्रकार प्रायुका वर्णन समाप्त हुप्रा ॥३॥ १. द. ठ. समग्रो जुदो, ब. क. ज. समउ-जुदो। २. द. २० । ३३ ।। ब. २२ । ३३ । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २१६ ॥ विदुग्रो महाहियारो [ २२१ सातों नरकोंके प्रत्येक पटलकी जघन्य-उत्कृष्ट प्रायुका विवरण घर्मा पृथिवी वंशा पृथिवी मेघा पृथिवी पटल सं०) जघन्य मायु | उत्कृष्ट प्रायु | जघन्य आयु | उत्कृष्ट आयु पटल संव | जघन्य अायु उत्कृष्ट प्रायु - १ सागर || | ३ ३ सागर - सागर २ १०.०० वर्ष | ९००००वर्ष | १ | १ सागर ९०००० बर्ष १०लाख वर्ष | २ | १ ,, . ६० लाख वर्ष असं पूर्व | ३ . असं० पूर्व | सागर |४ + सागर २ सागर rm कोटियाँ । कोटियाँ Gnk x ur 2 - ५ | ७ सागर ३सागर १सागरोपम | Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २१६ सातों नरकोंके प्रत्येक पटलकी जघन्य-उत्कृष्ट प्रायुका विवरण अञ्जना पृथिवी । अरिष्टा पृथियो | मघवी पृथिवी । माघवी पृथिवी जघन्य प्रायु.उस्कृष्ट प्राय जघन्य प्रायु अत्यु अनन्यु उत्कृष्ट प्रायु, जत्रायु उत्कृष्ट प्रायु १.१३ सा०१ १७ सा० सागर २२ सा. ३३ सागर १२६ ,, २ १८३, २० ॥ , ३ :१६५ .. ११.३०, २२ पार - arr र . . ५ | १५६ ,, १७ सागर x...xur_2_। ९ ॥ | १० सागर नोट :-१. प्रत्येक पटल की जघन्य प्रायुमें एक समय अधिक करना चाहिए । गा० २१४ । २. यह जघन्य उत्कृष्ट प्रायुका प्रमाण सातों पृथिवियोंके इन्द्रक बिलोंका कहा गया है, यही प्रमाण प्रत्येक पृथिवीके श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलोंमें रहने वाले नारकियों का भी जानना चाहिए । गा० २१५ । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२३ गाथा : २१७-२१६ ] विदुप्रो महाहियारो पहली पृथिवी में पटलत्रामसे नारकियोंके शरीरका उत्सेध सत्त-ति-छ-दंड-हत्थंगुलारिण कमसो हति घम्माए । चरिमिदम्मि उदश्रो दुगुणो दुगुणो य सेस-परिमाणं' ॥२१७॥ दं ७, ह ३, अं६ । दं १५, ह २, अं १२ । दं ३१, ह १ । दं ६२, ह २ । दं १२५ । ५ २५० । दं ५०० प्रर्य :–घर्मा पृथिवीके अन्तिम इन्द्रकमें मारकियोंके शरीरको ऊँचाई सात धनुष, तीन हाथ और छह अंगुल है । इसके आगे शेष पृथिवियोंके अन्तिम इन्द्र कोंमें रहने वाले नारकियोंके शरीरको ऊँचाईका प्रमाण उत्तरोत्तर इससे दुगुना-दुगुना होता गया है ।।२१७॥ विशेषार्थ :--धर्मा पृथिवीमें शरीरको ऊंचाई ७ दंड, ३ हाथ, ६ अंगुल; वंशा पृ० में १५ दण्ड, २ हाथ, १२ अंगुल ; मेधा पृ० में ३१ दण्ड, १ हाथ; अंजना पृ० में ६२ दण्ड, २ हाथ : अरिष्टा पृ० में १२५ दण्ड ; मघवी पृ० में २५० दण्ड और माधवी पृथिवीमें ५०० दण्ड ऊँचाई है । रयरगप्पहक्विदीए' उदनो सीमंत-णाम-पडलम्मि । जीवाणं हत्थ-तियं सेसेसु हारिण-वड्ढोमो ॥२१॥ अर्थ :–रत्नप्रभा पृथिवीके सीमन्त नामक पटलमें जीवोंके शरीरकी ऊँचाई तीन हाथ है; इसके आगे शेष पटलोंमें शरीरकी ऊँचाई हानि-वृद्धिको लिए हुए है ।।२१८।। आदी अंते सोहिय रूऊणिदाहिदम्मि हाणि-चया । मुह-सहिदे खिदि-सुद्ध णिय-णिय-पदरेसु उच्छेहो ॥२१६॥ ह २ । अं८ । भा । अर्थ :-अन्तमेंसे प्रादिको घटाकर शेष में एक कम अपने इन्द्रकके प्रमाणका भाग देनेपर. जो लब्ध नावे उतना प्रथम पृथिवीमें हानि-वृद्धिका प्रमाण है । इसे उत्तरोत्तर मुखमें मिलाने अथवा भूमि मेंसे कम करनेपर अपने-अपने पटलोंमें ऊँचाईका प्रमाण ज्ञात होता है ।।२१।। १. द. ठ. ज. सेसचरिमाणं। २. द. ब. ज, क. ठ. पुत्थीए। ३. द. प्रोदनो। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ] तिलोयपत्ती उदाहरण :- अन्त ७ धनुष, ३ हाथ, ६ अंगुल ३ हाथ=२८१ ) ÷५ - अर्थात् ( ३११ हाथप्रमाण है । [ गाथा : २२०-२२३ यादि ३ हाथ; ७ ६०, ३ हा०, ६ अं = २ हाथ ई अंगुल हानि-वृद्धिका हारिण चारण पमारणं घम्माए होंति दोष्णि हत्था य । अट्ठगुलाणि अंगुल - भागो 'दोहि वित्तो य ॥ २२० ॥ २ । ८ । भा३ । अर्थ :- धर्मां पृथिवी में इस हानि-वृद्धिका प्रमाण दो हाथ, आठ अंगुल और एक अंगुलका दूसरा ( ३ ) भाग है ॥२२० ॥ हानि का प्रमाण २ हाथ, अंगुल प्रमारण है । एक्क· धणुमेवक - हत्थो सत्तरसंगुल-वलं च णिरयम्मि । इगि- दंडोतिय-हत्या' सत्तरसं अंगुलारिण रोरुपए ।।२२१ ।। दं १, १, अं । दं १, २, अं १७ । अर्थ :- पहली पृथिवीके निरय नामक द्वितीय पटलमें एक धनुष एक हाथ और सत्तरह अंगुलके आधे अर्थात् साढ़े आठ अंगुल प्रमाण तथा रौरुक पटलमें एक धनुष, तीन हाथ और सत्तरह अंगुल प्रमाण शरीरकी ऊँचाई है ।।२२१|| दो दंडा वो हत्या अंतम्मि विवड्ढमंगुलं होदि । जबसंते दंड-तियं दहंगुलाणि च उच्छे हो ॥ २२२ ॥ दं २, २, ३ । दं ३, अंगु १० । : अर्थ :- भ्रान्त पटल में दो धनुष, दो हाथ और डेढ़ अंगुल तथा उद्भ्रान्त पटलमें तीन धनुष एवं दस अंगुल प्रमाण शरीरका उत्सेध है ||२२२|| लिय बंडा दो हत्था अट्ठारह अंगुलाणि पश्यद्ध । संभंत - णाम- इंदय उच्छे हो पढम-पुढथीए दं ३, ह २, अं १८ भा३ । १. द. दोहि बित्यो य । २. द. ज. क. उ. हत्थो । ॥२२३॥ ३ द. सम्वस्थ, ब क ज ठ सम्वत्थ । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' गाथा : २२४-२२७ ] विदुओ महाहियारो [ २२५ प :- पहली पृथिवीके संभ्रान्त नामक इन्द्रकमें शरीर की ऊँचाई तीन धनुष, दो हाथ और साढ़े अठारह अंगुल प्रमाण है ।। २२३|| चत्तारो चायाणि सत्तावीसं च अंगुलाणिपि । होदि प्रसंभंतिदय उदयो पढमाए पुढवीए ॥ २२४ ॥ । दं ४ | अं २७ । अर्थ :- पहली पृथिवीके प्रसंभ्रान्त इन्द्रकमें नारकियोंके शरीरकी ऊँचाईका प्रमाण चार धनुष और सत्ताईस अंगुल है ।। २२४ || चत्तारो कोदंडा तिय हत्या अंगुलाणि तेवीसं । बलिवाणि होदि उदघो विभतय णाम पडलम्मि || २२५ || दं ४, ३, अर्थ : – विभ्रान्त नामक पटल में चार धनुष, तीन हाथ और तेईस अंगुलके श्राधे अर्थात् साढ़े ग्यारह अंगुल प्रमाण उत्सेध है || २२५ ॥ पंच चिचय कोदंडा एक्को हत्थो य बीस पव्वाणि । ततियम्मि उदश्रो पण्णत्तो पढम - खोणीए ॥ २२६॥ दं ५, ६ १ अ २० अर्थ :- पहली पृथिवीके तप्त इन्द्रकमें शरीरका उत्सेध पाँच धनुष एक हाथ और बीस अंगुल प्रमाण कहा गया है ।। २२६ || छ च्चिय कोदंडारिंग चत्तारो अंगुलाणि पव्वद्ध ं । उच्छे हो गावथ्वी पडलम्मि य तसिद- गामम्मि ॥ २२७ ॥ ६, ४ भाई । अर्थ :- त्रसित नामक पटलमें नारकियोंके शरीरकी ऊँचाई छह धनुष और अर्ध अंगुल सहित चार अंगुल प्रमाण जाननी चाहिए || २२७॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २२८-२३१ वारणासपाणि छ च्चिय दो हत्था तेरसंगलाणि पि । वक्कंत-णाम-पडले उच्छेहो पढम-पुढवीए ॥२२॥ दं ६, ह २ । अं १३ । अर्थ :- पहली पृथिवीके वक्रान्त पटलमें शरीरका उत्सेध छह धनुष, दो हाथ और तेरह अंगुल है ।।२२८॥ सत्त य सरासणाणि अंगलया एक्कवीस-पच्चद्ध। पडलम्मि य उच्छेहो होदि अवयकंत-णामम्मि ॥२२॥ दं ७, अं२१३ । मयं :-अवक्रान्त नामक पटलमें सात धनुष और साढ़े इक्कीस अंगुल प्रमाए शरीरका उत्सेध है ॥२२६।। सत्त विसिखासणाणि हत्थाई तिण्णि छच्च अंगुलयं । चरमिदम्मि उदो विक्कते पढम-पुढमीए ॥२३०॥ दं ७, ह ३, अं६। अर्थ :-पहली पृथिवीके विक्रान्त नामक अन्तिम इन्द्रकमें शरीरका उत्सेध सात धनुष, तीन हाथ और छह अंगुल है ।।२३०।1 दूसरी पृथिवीमें उत्सेधकी वृद्धिका प्रमाण दो हत्था वीसंगल एक्कारस-भजिव-वो वि पध्वाई। वंसाए वढीप्रो मुह-सहिदा होंति उच्छेहो ॥२३१॥ ह २, अं२० भा १३। अर्थ :---वंशा पृथिवीमें दो हाथ, बीस अंगुल और ग्यारहसे भाजित दो-भाग प्रमाण प्रत्येक पटलमें वृद्धि होती है । इस वृद्धिको मुख अर्थात् पहली पृथिवीके उत्कृष्ट उत्सेध-प्रमाणमें उत्तरोत्तर मिलाते जानेसे क्रमश: दूसरी पृथिवीके प्रथमादि पटलोंमें उत्सेधका प्रमाण निकलता है ।।२३।। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२७ गाथा : २३२-२३५ ] विदुनो महाहियारो दूसरी पृथिवीमें पटल क्रमसे नारकियोंके शरीरका उत्सेध अट्ठ विसिहासणारिंग दो हत्था अंगुलाणि घउवीसं । एक्कारस-भजिदाई उदनो थरणगम्मि बिदिय-यसुहाए॥२३२।। दं ८, ह २, अं । अर्थ : -दूसरी पृथिवी स्तनकन प्रम इन्द्रा में ) नारकियोंके शरीरका उत्सेध पाठ धनुष, दो हाथ और ग्यारहसे भाजित चौबीस अंगुल-प्रमाण है ॥२३२।। णय बंडा बाबीसंगुलाणि एक्करस-भजिद चउ-भागा । बिदिय-पुढवीए तणगिंदयम्हि णारइय उच्छेहो ॥२३३॥ ___९, अं २२ भा । पर्थ :-दूसरी पृथिवीके तनक पटलमें नारकियोंके शरीरकी ऊँचाई नौ धनुष, बाईस अंगुल और ग्यारहसे भाजित चार भाग प्रमाण है ।।२३३।। णय दंडा तिय-हत्थं चउरुत्तर-यो-सयाणि पव्वाणि । एक्कारस-भजिवाणि उदो मण-इंदयम्मि जीवाणं ॥२३४॥ दं ९, ह ३, अं १८ भा । अर्थ :--मन इन्द्रकमें जीवोंके शरीरका उत्सेध नौ धनुष, तीन हाथ और ग्यारहसे भाजित दोसो चार अंगुल प्रमाण है ॥२३४॥ दस वंढा दो हत्था चोट्स पन्याणि प्रट्ट भागा य । एक्कारसेहि भजिदा उवमो 'वर्णागदम्मि बिदियाए ॥२३॥ दं १०, ह २, अं १४ भा १६ । अर्थ :-दूसरी पृथिवीके वनक इन्द्रकमें शरीरका उत्सेध दस-धनुष, दो हाय, चौदह अंगुल और आठ अंगुलोंका ग्यारहवाँ भाग है ॥२३५।। १. द.ब. क. ज. ठ तणगिंदयम्मि । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८] तिलोयपात्ती [ गाथा : २३६-२३६ एक्कारस चावारिंण एक्को हत्यो दसंगुलाणि पि । एक्करस-हिद-दसंसा उदयो 'घादिवयम्मि बिदियाए ॥२३६॥ दं ११, ह १, अं १० भा १ । प्रर्य :-दूसरी पृथिवीके घात इन्द्रकमें ग्यारह धनुष, १ हाथ, दस अंगुल और ग्यारहसे भाजित दस-भाग प्रमाण शरीरका उत्सेध है ।।२३६।। बारस सरासणाणि पत्वारिंग अट्ठहत्तरी होति । एक्कारस भजिदाणि संघादे णारयारण उच्छेहो ॥२३७।। दं १२ अं०१६। प्रर्य :-संघात इन्द्रकमें नारकियोंके शरीरका उत्सेध बारह धनुष और ग्यारहसे भाजित अठहत्तर भंगुल प्रमाण है ॥२३७।। बारस सरासणाणि तिय हत्था तिप्णि अंगुलाणि च । एक्करस-हिद-ति-भाया उदयो जिब्भिवमम्मि बिवियाए ॥२३८। दं १२, ह ३, अं ३ भा । अर्थ :-दूसरी पृथिवीके जिह्व इन्द्रकमें शरीरका उत्सेध बारह धनुष, तीन हाथ, तीन अंगुल और ग्यारहसे भाजित तीन भाग प्रमाण है ।।२३८।। तेवण्णा हत्थाई तेवीसा अंगुलाणि परण भागा । एक्कारसेहि भजिदा जिब्भग-पडलम्मि उच्छेहो ॥२३६३ ह ५३ अं२३ भा । अर्थ :-जिह्वक पदल में शरीरका उत्सेध तिरेपन हाथ ( १३ दण्ड १ हाथ ) तेईस अंगुल और एक अंगुलके म्यारह-भागों मेंसे पाँच-भाग प्रमाण है ।।२३६।। । १.ब, घादिदियम्मि । २. द, भजिदाणं । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ fags महाहियारो चोस दंडा सोल-जुत्ता णि सयाणि दोन्हि पव्वाणि । एक्कारस- भजिदाई उदओ 'लोलिदयहि बिदिया ||२४० ॥ दं १४, अं १ । अयं : -दूसरी पृथिवीके लोल नामक पदलमें शरीरका उत्सेध चौदह धनुष और ग्यारहसे भाजित दोसौ सोलह ( १९२५) अंगुल प्रमाण है || २४० || गाथा : २४०-२४३ ] एक्कोण-सट्ठि हत्या पण्णरसं अंगुलाणि णव भागा । एक्कारसेहि भजिवा लोलयरणामम्मि उच्छे हो ॥ २४९ ॥ ह ५६, १५ भा अर्थ :- लोलक नामक पदल में नारकियोंके शरीरकी ऊँचाई उनसठ हाथ ( १४ दण्ड, ३ हाथ ), १५ अंगुल और ग्यारहसे भाजित अंगुलके नौ-भाग प्रमाण है ।। २४१ ॥ पण्णरसं कोदंडा दो हत्था बारसंगुलारिं च । अंतिम - पडले थणलोलगम्मि बिविया उच्छेो ॥ २४२ ॥ दं १५, २, १२ । प्रथं : -दूसरी पृथिवीके स्तनलोलक नामक अन्तिम पटल में पन्द्रह धनुष, दो हाथ और बारह अंगुल - प्रमाण शरीरका उत्सेध है ॥२४२॥ तीसरी पृथिवीमें उत्सेधकी हानि - वृद्धिका प्रमाण एक घणू बे "हत्या बाबीसं अंगुलाणि बे भागा । तिय-भजिदा' णाबव्या" मेघाए हाणि बड्ढीम्रो ॥२४३॥ ध १ . २, २२ भा ३ । १. द. क. ज. 5. लोलय । ६. द. क. उ. भजिदं । [ २२६ ५. द. हृत्य । २. ब. पण रस । ३. ब. पारस ७. द. क. अ. गावब्बो व गायब्यो । ४. ब. द. उ. धरलोलमम्मि | Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३०. ] तिलोयपात्ती [ गाथा : २४४-२४७ अर्थ : मेघा पृथिवीमें एक धनुष, दो हाथ, २२ अंगुल और तीनसे भाजित एक अंगुलके दो-भाग-प्रमाण हानि-वृद्धि जाननी चाहिए ।।२४३।। तीसरी पृथिवीमें पटल क्रमसे नारकियोंके शरीरका उत्सेध सत्तरसं चावाणि चोत्तीसं अंगुलाणि दो भागा। तिय भजिदा मेघाए उवनो तत्तिदम्मि जीवाणं ॥२४४॥ ध १७, अं३४ भा । अर्थ :-मेघा पृथिवीके तप्त इन्द्रकमें जीवोंके शरीरका उत्सेध सत्तरह धनुष, चौंतीस अंगुल ( १ हाथ, १० अंगुल ) और तीनसे भाजित अंगुलके दो-भाग-प्रमाण है ॥२४४।। एक्कोणवीस दंडा अट्ठावीसंगुलाणि 'तिहिदाणि । तसिदिदयम्मि तदियक्खोरणीए णारयाण उच्छेहो ॥२४५॥ ध १९, अंः । अर्थ :-तीसरी पृथिवीके असित इन्द्रकमें नारकियोंका उत्सेध उन्नीस धनुष और तीनसे भाजित अट्ठाईस (९3) अंगुल प्रमाण है ।।२४५।। वीसए सिखासयाणि असीदिमेत्तारिग अंगुलाणि च । "तविय-पुढवीए तणि दयम्मि णारइय उच्छेहो ॥२४६॥ दं २० । अं८०। अर्थ :-तीसरी पृथिवीके तपन इन्द्रक बिलमें नारकियोंके शरीरका उत्सेध बोस धनुष अस्सी (३ हाथ ८) अंगुल प्रमाण है ॥२४६।। णउदि-पमारणा हत्था 'तिदय-विहत्तारिण वीस पथ्याणि । मेघाए तावणिवय-ठिदाण जीवाण उच्छेहो ॥२४७॥ है ६०, अं ! १. द. क. 8. तिहिदाणं । २. द. ब, कं. . तदियं चम पुढचौए। ३, द. तीयविहत्थाणि, क, तीद विहत्याणि, ठ. तीदी विहत्यारिण, व. तदिविहत्ताणि । ४. द. ब. क. उ. तवरिण दय । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २४०-२५१ विदुप्रो महाहियारो अर्थ : मेघा पृथिवीके तापन इन्द्रकमें स्थित जीवोंके शरीरका उत्सेध नब्बे हाथ ( २२ धनुष २ हाथ) और तीनसे भाजित बीस अंगुल प्रमाण है । २४७।। सत्ताणउदी हत्था सोलस पश्वाणि तिय-विहत्तारिए । उदो विदाहणामा-पडले गैरइय जीवाणं ॥२४॥ है ५७ अं । अर्थ : -निदाघ नामक पटलमें नारकी जोवोंके शरीरकी ऊँचाई सत्तानबै (२४ दण्ड १) 'हाथ और तीनसे भाजित सोलह-अंगुल प्रमाण है ।।२४८।। छन्वीसं चावाणि चत्तारी अंगुलाणि मेघाए । पज्जलिय नाम-पडो टिनाणजी-रक्षा उच्चोहो १४६॥ ध २६, अं ४ । अर्थ : मेघा पृथिवीके प्रज्वलित नामक पटलमें स्थित जीवोंके शरीरका उत्सेध छब्बीस धनुष और चार अंगुल प्रमाण है 11२४९।। सत्तावीसं वंडा तिय-हत्था अट्ट अंगुलाणि च । तिय-भजिदाई उदयो 'उज्जलिदे णारयाण णायन्यो ॥२५०॥ अर्थ :-उज्वलित इन्द्रकमें नारकियोंके शरीरका उत्सेष सत्ताईस धनुष, तीन हाथ और तीनसे भाजित आठ अंगुल प्रमाण है ॥२५०।। एक्कोणतीस दंडा दो हत्या अंगुलाणि चत्तारि । तिय-जिदाई उदो 'संजलिदे तदिय-पुढथीए ॥२५१॥ ध २६, हे २, अं | १. द.उज्जलिदो। २.ब.क, एकोणतीस । ३. संजलि-सविय । Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २५२-२५४ .. : तीसरी पृथिवीके संज्वलित इन्द्रकमें शरीरका उत्सेध उनतीस धनुष, दो हाथ और तीनसे भाजित चार (१३) अंगुल प्रमाण है ।।२५१॥ एक्कतीर दंडा एसो हत्यो हो 'सनिय युद्धनीर । संपज्जलिदे' चरिमिंदयम्हि 'गारइय उस्सेहो ॥२५२॥ घ ३१, ह । अर्थ :- तीसरी पृथिवीके संप्रज्वलित नामक अन्तिम इन्द्रकमें नारकियोंके शरीरका उत्सेध इकतीस-धनुष और एक हाथ प्रमाण है ।।२५२।। चौथी पृथिवीमें उत्सेधकी हानि-वृद्धिका प्रमाण चउ दंडा इगि हत्यो पव्याणि वीस-सत्त-पविहत्ता । चउ भागा तुरिमाए पुढवीए हारिण-बड्डीओ ॥२५३।। ध४. ह १, अं २० भा । अर्थ :- चौथी पृथिवीमें चार धनुष, एक हाथ, बीस अंगुल और सातसे भाजित चार-भाग प्रमारण हानि-वृद्धि है ।।२५३।।. चौथी पृथिवीमें पटल क्रमसे नारकियोंके शरीरका उत्सेध पणतीसं दंडाई हत्थाई दोण्णि बीस-पवारिण । सत्त-हिवा चउ-भागा उदयो प्रार-ट्टिवाण जीवाणं ॥२५४॥ ध ३५, ह २, अं २० भा । अर्थ :--पार पटलमें स्थित जीवोंके शारीरका उत्सेध पैतीस धनुष, दो हाथ, बीस अंगुल और सातसे भाजित चार-भाग-प्रमाण है ॥२५४।। १.ब. तदिह । २. द. ब. क. उ. संजलिदे। ३. द. ब. क. ठ. पारइया । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २५५-२५८ ] विदु महाहियारो चालीसं कोदंडा वीसन्भहिथं सयं च पव्वाणि । सत्त-हिवा उच्छेहो 'तुरिमाए मार पडल- जीवाणं ।। २५५ ॥ ४०, १२० । पोथी धनुष और सातसे भाजित एकसी बीस ( १७ ) अंगुल प्रमाण है ।। २५५ ।। में रहने वाले जीवोंके शरीरकी ऊँचाई चालीस चउदाल चावाणि दो हत्था अंगुलाणि छष्ण उदी । सत्त-हिदा उच्छेहो तारिदय-संठिदाण जीवाणं ॥ २५६ ॥ ४४२ अं [ २३३ प्रथं : चौथी पृथिवीके तार इन्द्रक में स्थित जीवोंके शरीरका उत्सेध चवालीस धनुष, दो हाथ और सातसे भाजित छ्यानबे ( १३ ) अंगुल प्रमाण है ।। २५६ ।। एक्कोण पण बंडा महत्तरि अंगुला यसप्त-हिदा चिदस्मि' तुरिमक्लोणीए णारयाण उच्छेहो ।। २५७ ।। ध ४६, ७२ । अर्थ :- चौथी पृथिवीमें तत्व (चर्चा) इन्द्रकमें नारकियोंके शरीरका उत्सेध उनचास धनुष और सातसे भाजित बहत्तर ( १० ) अंगुल प्रमाण है ।। २५७ ।। " तेवण्णा चावाणि बिय हत्था श्रट्टताल पव्वाणि । सत्त-हिदाणि उदश्रो तमगिदय- संठियाण जीवाणं ।। २५८ ।। ५३,२, ४८ । :-तमक इन्द्रकमें स्थित जीवोंके शरीरका उत्सेध तिरेपन धनुष, दो भाजित अड़तालीस ( ६ ) अंगुल प्रमाण है ।१२५८ || १. व. ब क उ पंचाए । २. व. ब. क. ठ. तसिदयस्मि । ३. ब. तेपणाव । हाथ और सात से Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ ] . तिलोयपणती [ गाथा : २५९.२६२ अट्ठावण्णा दंडा. सत्त-हिदा अंगुला य चउनीसं । खाडिदयम्मि तुरिमक्खोणीए णारयाण उच्छहो ॥२५॥ ध्र ५८, अं२४ । अर्थ :- चौथी पृथिवीके खाड इन्द्रकमें नारकियोंके शरीरका उत्सेध अट्ठावन धनुष और सातसे भाजित चौबीस ( ३३ ) अंगुल प्रमाण है ।।२५६।। वासट्ठी कोदंडा हत्थाई दोणि सुरिम-पुढवीए । चरिमिदयम्मि खडखड-णामाए णारयाण उच्छेहो ॥२६०॥ अर्थ :-चौथी पृथिवीके खड़खड़ नामक अन्तिम इन्द्रकमें नारकियोंके शरीरका उत्सेध बासठ धनुष और दो हाथ प्रमारण है ।।२६०।। पाँचवीं पृथिवीके उत्सेधको हानि-वृद्धिका प्रमाण बारस सरासणाणि दो हत्या पंचमीए पुढवीए । खय-बड्डीय पमाणं णिद्दिद्द वीयराएहि ॥२६॥ दं १२, ह २ । प्रयं :-वीतरागदेवने पाँचवीं पृथिवी में क्षय एवं वृद्धिका प्रमाण बारह धनुष और दो हाथ कहा है ।।२६१॥ पांचवीं पृथिवीमें पटलक्रमसे नारकियोंके शरीरका उत्सेध पणहत्तरि-परिमाणा कोदंडा पंचमीए पुढवीए । पढमिदम्मि उदो तम-पामे संठिदाण जीवाणं ॥२६२॥ अर्थ:-पाँचवीं पृथिवीके तम नामक प्रथम इन्द्रक बिलमें स्थित जीवोंके शरीरकी ऊंचाई पचहत्तर धनुष प्रमाण है ॥२६२३. Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माथा : २६३-२६६ ] विदुओ महाहियारो [ २३५ सत्तासीवी दंडा दो हत्या पंचमीए खोरपीए । पडलम्मि य भम-णामे णारय-जीवाण उच्छेहो ॥२६३॥ दं ८७, ह २ । अर्ग: - पचनी पृवितीवे. ब्रः पटला में को जीवोंके शरीरका उत्सेध सत्तासी धनुष और दो हाथ-प्रमाण है ।।२६३॥ एक्कं कोदंड-सयं झस-णामे णारयाण उच्छेहो। ... ... चावाणि बारसुत्तर-सयमेक्कं अंधम्मि दो हत्था ॥२६४॥ द १००। दं ११२, ह २। अर्थ :-भस नामक पटलमें मात्र सौ धनुष तथा अन्धक पटलमें एकसौ बारह धनुष और दो हाथ प्रमाण नारकियोंके शरीरकी ऊँचाई है ॥२६४।। एक्कं कोदंड-सयं अब्भहियं पंचवीस-हवेहि । धूमप्पहाए' चरिमिदम्मि तिमिसम्मि उच्छेहो ॥२६५।। अर्थ :--धूमप्रभा पृथिवीके तिमिस्र नामक अन्तिम इन्द्र कमें नारकियोंके शरीरका उत्सेध पच्चीस अधिक एकसौ अर्थात् एकसौ पच्चीस धनुष प्रमाण है ।।२६५॥ छठी पृथिवीके उत्सेधकी हानि-वृद्धिका प्रमाण एक्कचाल दंडा हत्थाई वोणि सोलसंगुलया । छठ्ठीए वसुहाए परिमाणं हाणि-वड्ढीए ॥२६६॥ दंड ४१, ह २, अं १६ । अर्थ :---छठी पृथिवीमें हानि-वृद्धिका प्रमाण इकतालीस धनुष, दो हाथ और सोलह अंगुल है ।।२६६।। -.-- ---- - . १. द. क. ठ. धूमप्पहाय । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ] तिलोयपणाती [ गाथा : २६७-२७० छठी पृथिवीमें पटलक्रमसे नारकियोंके शरीरका उत्सेध छासट्ठी-हिय-सयं कोदंडा दोषिण होंति हत्था य । सोलस पव्वा य पुढं हिम-पडल-गदाण उच्छेहो ॥२६७।। दं १६६, ह २, अं १६ । अर्थ :-(छठी पृथिवीके) हिम पटलगत जीवोंके शरीरकी ऊँचाई एकसौ छयासठ धनुष, दो हाथ और सोलह अंगुल प्रमाण है ।।२६७॥ दोण्णि सयाणि अट्ठाउत्तर-दंडाणि अंगुलाणि च । बत्तीसं 'छट्ठीए 'बद्दल-ठिद-जीव-उच्छेहो ॥२६॥ २०८, नं ३२ । अर्थ : छठी पृथिवीके वर्दल पटलमें स्थित जीवोंके शरीरका उत्सेध दोसी माठ धनुष और बत्तीस ( १ हाथ 4) अंगुल प्रमाण है ॥२६॥ पण्णासन्भहियाणि दोण्णि सयाणि सरासणाणि च । लल्लंक-णाम-इंदय-ठिवाण जीवाण उच्छहो ॥२६॥ अर्थ : लल्लंक नामक इन्द्रकमें स्थित जीवोंके शरीरका उस्सेध दोसौ पचास धनुष-प्रमाण है ॥२६॥ सातवीं पृथिवीके नारकियोंके शरीरका उत्सेघ पुढमीए सत्तमिए अवधिछाम्हि एस्क पडलम्हि । पंच-सयाणि दंडा णारय-जीवाण उस्सेहो ॥२७॥ ६५००1 - --- १. द. छट्ठाए। २ . क. ठ बंदला द्विदल-जोय । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २७१ ] विदुनो महाहियारो [ २३७ अर्थ :-सातवीं पृथिवीके अवधिस्थान इन्द्रकमें नारकियोंका उत्सेध पाँच सौ (५०० ) धनुष प्रमाण है ॥२७॥ श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक-बिलोंके नारकियोंका उत्सेध एवं रयणावीणं पक्कं इक्याण जो उदयो। सेडि-विसेडि-गदाणं पइण्णयाणं च सो च्चे ॥२७॥ !! इदि गणारयाण उच्छेहो समत्तो' ॥४।। अर्थ :-इसप्रकार रत्नप्रभादिक पृथिवियोंके प्रत्येक इन्द्रकर्मे शरीरका जो उत्सेध है, वही उत्सेध उन-उन पृथिवियोंके श्रेणीबद्ध और विश्रेणीगत प्रकीर्णक बिलोंमें स्थित नारकियोंके शरीरका भी जानना चाहिए ।।२७१।। ॥ इसप्रकार नारकियोंके शरीरका उत्सेध-प्रमाण समाप्त हुआ ॥४॥ नोट :-गाथा २१७, २२० से २२६, २३१ से २४१, २४३ से २५१, २५३ से २५६, २६१ से २६४ और २६६ से २६६ से सम्बन्धित मूल संदृष्टियोंका अर्थ निम्नांकित तालिका द्वारा दर्शाया गया है : (तालिका अगले पृष्ठ पर देखिए] १. द. समत्ता। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपणती । [ गाथा : २७१ 'सांतों नरकों के प्रत्येक पटल-स्थित नारकियों के शरीरके उत्सेधको विवरण पहली पृथिवी दूसरी पृथिवी । तीसरी पृथिवा E | हाथ | अंगुल हाथ। अंगल ' हाथ | अंगुल 12 धनुष पटल से | धनुष or - .. nr Kundपटल सं० A - ort x - * x -- 16. N . " ७ * . Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २७१ ] पटल ० धनुष ४ ५. ६ e चौथी पृथिवी विदुद्यो महाहियारो सातों नरकोंके प्रत्येक पटल स्थित नारकियोंके शरीरके उत्सेधका विवरण पाँचवीं पृथिवी छठी पृथिवी | हाथ | अंगुल 쿠모 २ २०४ ** ० १७३ ४४ २ १३५ ४६ १०३ ५३ ५८ ० ६२ २ 0 २ ३ पटल स० २ ח Jo धनुष ૪ ७५ ८७ हाथ | अंगुल १०० .११२ २ ५ १२५ ० ० २ ० D o o ० 0 H पटल सं० १ २ ३ धनुष हाथ अंगुल २०८ | २५० | १६६ २ १६ १ १ · 5 ७० सातवीं पृथिवी धनुष पटल [ २३६ ५०० Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती रत्नप्रभादि पृथिवियों में अवधिज्ञानका निरूपण पहावणी कोसा चत्तारि श्रहिणारण- खिढी । पत्तेक्क परिहारणी गाउदद्वेण ॥ २७२॥ तप्परदो को ४ | ३ | ३ | ३ । २ । ३ । १ । || ओहि समत्ता ||५|| अर्थ :- रत्नप्रभा पृथिवीमें अवधिज्ञानका क्षेत्र चार कोस प्रमाण है, इसके आगे प्रत्येक पृथिवी में उक्त अवधि क्षेत्रमेंसे अर्धगव्यूति ( कोस ) की कमी होती गई है ।। २७२ ।। २४० ] [ गाथा : २७२-२७४ विशेषार्थ :- रत्नप्रभा पृथिवीके नारकी जीव अपने अवधिज्ञानसे ४ कोस तक, शर्कराके ३३ कोस तक, बालुका पृ० के ३ कोस तक, पंक पृ० के २३ कोस तक धूम पृ० के २ कोस तक, तमः पृ० के १३ कोस तक और महातमः प्रभाके नारकी जीव एक कोस तक जानते हैं । ॥ इसप्रकार अवधिज्ञानका वर्णन समाप्त हुआ ||५|| नारकी जीवोंमें बीस प्ररूपणाओंका निर्देश गुणजीवा पज्जत्ती पारणा सण्णाय मग्गरणा कमसो । उवजोगा 'कहिदथ्वा णारइयाणं जहा- जोगं ॥ २७३ ॥ अर्थ :- नारको जीवों में यथायोग्य क्रमशः गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, मार्गरण और उपयोग ( ज्ञान दर्शन ), इनका कथन करने योग्य है ॥। २७३ ।। नारको जीवों में गुणस्थान चत्तारो गुणठारणा णारय-जीवाण होंति सव्याणं । मिच्छादिट्ठी सासण- मिस्साणि तह प्रविरको सम्मो || २७४ || अयं : सब नारकी जीवोंके मिथ्यादृष्टि, सासादन, मिश्र और श्रविरतसम्यग्दृष्टि, ये चार गुणस्थान हो सकते हैं ।। २७४ || १. क. कमदग्वा । २. द. जहाजोगं । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदुश्री महाहियारो द- सव्व जीवाणं । उपरितन गुणस्थानोंका निषेध तारण प्रपच्चक्खाणावर गोवय सहिदहिंसाणंद-जुदा गाणाविह संकिलेस -पउराणं देस विरदादि-उयरिम- दस- गुणठाणाण' हेतुभूदाश्रो । जाओ विसोहिया कड्या विण ताम्रो जायंति ॥ २७६ ॥ ॥२७५॥ गाथा : २७५ - २७६ ] अर्थ :- अप्रत्याख्यानावरण कषायके उदयसे सहित, हिसानन्दो रौद्र ध्यान और नानाप्रकार के प्रचुर संक्लेशोंसे संयुक्त उन सब नारकी जीवोंके देशविरत आदि उपरितन दस गुणस्थानोंके हेतुभूत जो विशुद्ध परिणाम हैं, वे कदा नहीं होते हैं ।।२७५-२७६ ।। नारकी जीवोंमें जीव-समास और पर्याप्तियां पज्जतापज्जता जीय-समासा य होंति एदा । पज्जत्ती छन्भेया तेसियमेत्ता अपज्जती ॥ २७७॥ अर्थ :- इन नारकी पर्याप्तियाँ एवं इतनी (छह ) ही [ २४१ जीवोंके पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो जीवसमास तथा छह प्रकारकी पर्याप्तियाँ भी होती हैं || २७७ || नारकी जीवों में प्रारण और संज्ञाएँ पंच वि इंदिय पारणा 'मण वय कायाणि प्राउयाणा य । आरणप्पाणपाणां दस पाणा होंति चड सण्णा ॥२७८॥ अर्थ :-- ( नारकी जीवोंके ) पाँचों इन्द्रियाँ, मन-वचन-काय ये तीन बल, आयु और प्रान प्राण ( श्वासोच्छ्वास ) ये दसों प्राण तथा आहार, भय, मैथुन और परिग्रह, ये चारों संज्ञाएँ होती हैं ।। २७८ || नारकी जीवोंमें चौदह मार्गणाए गिर - गदीए सहिदा पंचक्खा तह य होंति तस - काया । चउ-मण-वय- दुग-वेगुन्निय-कम्मइय- सरीरजोग - जुदा १. द. अ. ज. क. ठ. गुणठारपारि । २. ब. उवसोधियाउ । ३. उ. ज. मणि, वचि । ॥२७६॥ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २८०-२५३ होंति णपुसय-वेदा णारय-जीवा य दव-भावेहि । सयल-कसाया-सत्ता संजुत्ता गाण-छक्केण ॥२०॥ ते सव्वे णारइया विविहिं असंजमेहिं परिपुण्णा । चक्नु-प्रचक्खू-प्रोही-दसण-तिदएरण जुत्ता य ॥२८१॥ भावेसुतिय-लेस्सा तालो किण्हा य गोल-काोया । दवेणुक्कड़-किण्हा' भन्याभन्वा य ते सव्वे ॥२८२।। छसम्मता ताई उधसम-सइयाई-वेदगं-मिच्छो । 'सासरण-मिस्सा य तहा संणी पाहारिणो प्रणाहारा ॥२८३॥ अर्थ :-सब नारकी नरकगतिसे सहित, पंचेन्द्रिय, त्रसकायवाले, चार मनोयोगों, चार वचनयोगों तथा दो वैक्रियिक और कार्मरा, इन तीन काय-योगोंसे संयुक्त हैं। वे नारकी जीव द्रव्य और भावसे नपुसकवेदवाले; सम्पूर्ण कपायोंसे युक्त, छह शान बाले, विविध प्रकारके असंयमोंसे परिपूर्ण; चक्षु, अचक्षु, अवधि, इन तीन दर्शनोंसे युक्त; भावको अपेक्षा कृष्ण, नील, कापोत, इन तीन लेश्याओं और द्रव्यकी अपेक्षा उत्कृष्ट कृष्ण लेश्यासे सहित; भव्यत्व और अभव्यत्व परिणामसे युक्त, प्रौपशमिक, क्षायिक, वेदक, मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र इन छह सम्यक्त्वोंसे सहित, संज्ञी, आहारक एवं अनाहारक होते हैं ।।२७६-२८३।। विशेषार्थ :--नरक भूमियोंमें स्थित सभी नारकी जीव १ गति ( नरक ), २ जाति (पंचेन्द्रिय ), ३ काय (अस), ४ योग (सत्य, असत्य, उभय, अनुभयरूप चार मनोयोग, चार वचन योग तथा वैक्रियिक, वैक्रियिक मिश्र और कार्मा तीन काययोग), ५ वेद { नपुसकर्वेद ), ६ कषाय ( स्त्रीवेद और पुरुष बेदसे रहित तेईस ), ७ ज्ञान (मति, श्रुत, अवधि, कुमति, कुश्रुत और विभंग ), ८ असंयम, ६ दर्शन ( चक्षु, अचक्षु, अवधि ), १० लेश्या ( भावापेक्षा तीन अशुभ और द्रव्यापेक्षा उत्कृष्ट कृष्ण), ११ भव्यत्व ( एवं अभव्यत्व), १२ सम्यक्त्व (प्रौपशमिक, क्षायिक, वेदक, मिथ्यात्व, सासादन और मिथ), १३ संज्ञी और १४ आहारक ( एवं अनाहारक ) इन चौदह मार्गणाओंमेंसे यथायोग्य भिन्न भिन्न मार्गणापोंसे संयुक्त होते हैं। १. द. किण्हो। २. ब. सासरिण- मिस्सा । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २८४-२८७ बिटुलो नाहाडिवाने [ २४३ नारकी जीवोंमें उपयोग सायार-अणायारा उवयोगा दोणि होति तेसि च । तिव्व-कसारण शुदा तिन्योदय-अप्पसत्त-पयडि-जुदा ॥२८४॥ ।। गुण्ठागादी समत्ता ।।६।। प्रर्ष : तीन कषाय एवं तीव्र उदयवाली पाप-प्रकृतियोंसे युक्त उन-उन नारकी जीवोंके साकार ( ज्ञान ) और निराकार ( दर्शन ) दोनों ही उपयोग होते हैं ।।२८४।। ॥ इसप्रकार गुणस्थानादिका वर्णन समाप्त हुआ ।।६।। नरकोंमें उत्पन्न होने वाले जीवोंका निरूपण पढम-धरंतमसण्णी पढ़मं बिदियास सरिसश्रो जादि । पढमादी-तदियंत पक्खो भुजगा' वि प्रातुरिमं ।।२८५॥ पंचम-खिदि-परियंत सिंहो इत्थी वि छद्र-खिदि-अंतं । पासत्तम-भूवलयं मच्छा मणुवा य वच्चंति ॥२६॥ अर्थ:-पहली पृथिवीके अन्त-पर्यन्त प्रसंज्ञी तथा पहली और दूसरी पृथिवीमें सरीसृप जाता है। पहली से तीसरी पृथिवी पर्यन्त पक्षी एवं चौथी पृथिवी पर्यन्त भुजंगादिक उत्पन्न होते हैं ॥२८॥ अर्थ :- पांचवीं पृथिवी पर्यन्त सिंह, छठो पृथिबी तक स्त्री और सातवीं भूमि तक मत्स्य एवं मनुष्य ही जाते हैं ।।२८६।। नरकोंमें निरन्तर उत्पत्तिका प्रमाण अट्ट-सग-छक्क-पण-चउ-तिय-दुग-वारानो सत्त-पुढवीसु । कमसो उप्पजते असपिण-पमुहाइ उपकस्से ॥२८॥ ।। उप्पण्णामारण-जीवाणं वण्णाणं समत्तं ॥७॥ १. द. ज. ठ. भुयंगावियायए। २. द. ज. सम्मत्ता। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ ] तिलोय पण्णत्ती [ गाथा : २८८ थर्थ :- सातों पृथिवियों में क्रमशः वे श्रसंज्ञी प्रादिक जीव उत्कृष्ट रूप से ग्राठ, सात, छह, पाँच, चार, तीन और दो बार उत्पन्न होते हैं ।। २८७ || विशेषार्थ :- नरकसे निकला हुआ कोई भी जीव प्रसंज्ञी और सम्मूच्र्च्छन जन्म वाला नहीं होता तथा सातवें नरकसे निकला हुआ कोई भी जोब मनुष्य नहीं होता, अतः नरकसे निकले हुए जीवको श्रसंज्ञी, मत्स्य और मनुष्य पर्याय धारण करनेके पूर्व एक बार नियमसे क्रमश: संज्ञी तथा गर्भज तिर्यञ्च पर्याय धारण करनी ही पड़ती है । इसी कारण इन जीवोंके बोचमें एक-एक पर्यायका अन्तर होता है, किन्तु सरीसृप, पक्षी, सर्प, सिंह और स्त्रीके लिए ऐसा नियम नहीं है, वे बीच में अन्य किसी पर्यायका अन्तर डाले बिना ही उत्पन्न हो सकते हैं । । इसप्रकार उत्पद्यमान जीवों का वर्णन समाप्त हुआ ||७|| रत्नप्रभादिक पृथिवियोंमें जन्म-मरण के अन्तरालका प्रमाण चवीस मुहत्तार्णि सत्त दिणा एक्क पक्ख मासं च । दो चउ छम्मासाई पढमादो जम्म-मरण-अंतरियं ॥२८८॥ मु२४ | दि ७ दि १५ । मा १ मा २ मा ४ मा ६ । ।। जम्मण - मरण अंतर- काल-मारणं समत्तं ॥ ८ ॥ अर्थ :- चौबीस मुहूर्त, सात दिन, एक पक्ष, एक मास, दो मास, चार मास और छह मास यह क्रमशः प्रथमादिक पृथिवियोंमें जन्म-मरण के अन्तरका प्रमाण है ||२६|| विशेषार्थ : यदि कोई भी जीव पहली पृथिवीमें जन्म या मरण न करे तो अधिक से अधिक २४ मुहूर्त तक, दूसरी में ७ दिन तक, तीसरीमें एक पक्ष ( पन्द्रह दिन ) तक. चौथीमें एक माह तक, पाँचवीं में दो माह तक, छठी ४ माह तक और सातवीं पृथिवीमें उत्कृष्टतः ६ माह तक न करे, इसके बाद नियमसे वहाँ जन्म-मरण होगा ही होगा । इसप्रकार जन्म-मरण के अन्तरकालका प्रमाण समाप्त हुआ || 5 || १६. ज. सम्मत्ता । Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४५ गाथा : २८६-२६० ] विदुनो महायिारो नरकोंमें एक समयमें जन्म-मरण करने वालोंका प्रमाण रयणादि-णारयाणं णिय-संखादो असंखभागमिदा । पडि-समयं जायते 'तत्तिय-मत्ता य मरंति पुढे ॥२८॥ २उप्पज्जण-मरणाण परिमाण-वष्णणा समत्ता ।।६।। अर्थ :--रत्नप्रभादिक पृथिवियोंमें स्थित नारकियोंके अपनी संख्याके असंखनातवें भागप्रमाण नारकी प्रत्येक समयमें उत्पन्न होते हैं और उतने ही मरते हैं ।।२८६।। विशेषार्थ :-प्रत्येक नरकोंके नारकियोंकी संख्याका प्रमाग गा० १९६-२०२ पर्यन्त दर्शाया गया है । जिनकी संदृष्टियाँ २, २०], [.." इसप्रकार दी गई हैं। इनमें प्राड़ी लाइन () जगच्छणीकी, खड़ी पाई (1) वर्गमूलको और १२, १०, ८ आदि संख्या वर्गमूलके प्रमाणको द्योतक है। गा० २८६ की संधि (रि । "रि इत्यादि ) उन्हीं उपयुक्त संख्याओंमें असंख्यात ( जिसका चिह्न रि है ) का भाग देने हेतु परि इसप्रकार रखी गई हैं। इसप्रकार एक समयमें जन्म-मरण करने वाले जीवोंका कथन समाप्त हुआ ।।६।। नरकसे निकले हुए जीवोंकी उत्पत्तिका कथन णिकता णिरयादो गब्भ-भवे कम्म-संरिण-पज्जते । गर-तिरिएसुजम्मवि तिरिय चिय चरम-पुढवीदो ॥२६०।। अर्थ :-नरकसे निकले हुए जीव गर्भज, कर्मभूमिज, संज्ञी एवं पर्याप्तक मनुष्यों और तिर्यञ्चों में ही जन्म लेते हैं परन्तु सातवीं पृथिवीसे निकला हुआ जीव तिर्यञ्च ही होता है ( मनुष्य नहीं होता) ॥२९॥ २. द. ब. ज. क. ठ, उपज्ज। ३. द. तिरियेचिय, क.अ. . १.व.क. ज..तेत्तियमेत्ताए। तिरियच्चिय। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ ] तिलोपपत्ती वासु दाढीसु पक्खी जलचरेसु जाऊणं । णिरएसु वच्चति ॥२६१॥ संखेज्जाऊ - जुत्ता केई וּ २ सिलोव्ख । [ गाथा : २६१-२६४ अर्थ :- नरकों से निकले हुए उन जीवोंमेंसे कितने ही जीव व्यालों ( सर्पादिकों) में, ढों वाले ( तीक्ष्ण दाँतों वाले व्याघ्रादिक पशुओंों) में (गुद्धादिक) पक्षियोंमें तथा जलचर जीवों में जन्म लेकर और संख्यात वर्षकी आयु प्राप्तकर पुन: नरकोंमें जाते हैं ।। २९१॥ केसव - बल - चक्कहरा ण होंति कइयावि गिरय-संचारी । जायंते तित्थयरा तदीय-खोणीश्र परियंतं ॥२६२॥ अर्थ :- नरकोंमें रहने वाले जीव वहाँसे निकलकर नारायण (प्रतिनारायण ), बलभद्र और चक्रवर्ती कदापि नहीं होते हैं। तीसरी पृथिवी पर्यन्तके नारकी जीव वहाँसे निकलकर तीर्थंकर हो सकते हैं । २९२ ।। श्रातुरिम-खिदो चरिमंगधारिणो संजदा थ घूमंतं । घट्टतं देसवदा सम्मत्तधरा केह चरितं ॥ २६३ ॥ ॥ श्रागमण वण्ण्णा समत्ता ॥ १० ॥ अर्थ :- चौथी पृथिवी पर्यन्तके नारकी वहांसे निकलकर चरम-शरीरी, धूमप्रभा पृथिवी तकके जीव सकलसंयमी एवं छठी पृथिवी - पर्यन्तके नारकी जीव देशव्रती हो सकते हैं। सातवीं पृथिवीसे निकले हुए जीवोंमेंसे विरले ही सम्यक्त्वके धारक होते हैं ।। २९३ ।। 11 इसप्रकार श्रागमका वर्णन समाप्त हुआ || १०॥ नरकायुके बन्धक परिणाम उस बंध-समये सिलो व सेलो व वेणु-मूले य । frferror कसा प्रोदयम्हि बंधेदि णिरयाउं ॥ २६४ ॥ १. द. ब. ज. क. छ. बालीसु । २. द. क. ज. ठ. दालीसु ३ द. व. क. ज. उ. सिलोन्य ४. ज. द. किंमिशउकसा उदयभि द कसानोदयंमि, क. कसाया उदयंमि । + Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २६५-२६६ ] विदुषो महाहियारो [ २४७ बांसकी जड़ सदृश अर्थ :- श्रायुबन्धके समय शिलाकी रेखा सदृश क्रोध, शैल सदृश मान, माया और किमिराग | किरमिच (लालरंग) ] सदश लोभ कथाका उप होनेपर नरकाका बन्ध होता है ||२४|| किव्हा मरिक गोल- काऊणुदयादो बंधिऊण णिरयाऊ । ताहि जुत्तो पावद णिरयं महाघोरं ॥२६५॥ अर्थ :--कृष्ण, नील अथवा कापोत इन तीन लेश्याओं का उदय होनेसे ( जीव ) नरकायु बांधकर और मरकर उन्हीं लेश्याओंोंसे युक्त हुआ महा-भयानक नरकको प्राप्त करता है ||२२५ || ३. ज ठ चरिमंतो अशुभ- लेश्या युक्त जीवोंके लक्षण किव्हा दि-ति-लेस्स-जुदा जे पुरिसा ताण लक्खणं एदं । गोत्तं तह स-कलत्तं एवकं बंछेदि मारिदु दुट्ठो ॥ २६६ ॥ धम्मदया- परिचत्तो प्रमुक्क- वइरो पर्यड कलह न्यरो | बहु-कोहो कि हाए जम्मदि धूमादि- चरिमंते ॥ २६७॥ ญ अर्थ :---जो पुरुष कृष्णादि तीन लेश्याओं सहित होते हैं, उनके लक्षण इसप्रकार हैंऐसे दुष्ट पुरुष ( अपने ही ) गोत्रीय तथा एक मात्र स्वकलत्रको भी मारनेकी इच्छा करते हैं, दयाधर्मसे रहित होते हैं, कभी शत्रुताका त्याग नहीं करते, प्रचण्ड कलह करने वाले और बहुत कधी होते हैं । कृष्ण लेश्याधारी ऐसे जीव धूमप्रभा पृथिवीसे लेकर अन्तिम पृथिवी पर्यन्त जन्म लेते हैं । २६६-२६७।। बिसयासत्तो विसदी माणी विष्णाण - वज्जिदो मंदो । अलसो भीरू माया-पवंच- बहुलो य णिद्दालू ॥ २६८ ॥ परवंचणप्पसस्तो लोहंधो घण्ण धण-सुहाकंखो । बहु-सण्णा णीलाए जम्मदि तबियादि धूमंतं ॥ २६६ ॥ १. द. ब. क. ज. ठ. प्रत्योः गाथेयं अग्रिम - गाभायाः पश्चादुपलभ्यते । ४. द. ज ठ धण्णधष्णसुहाकंखी । क. धरण धरण सुहाकंखी । २. ब. परिचितो । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ } तिलोयगणतो [ गाथा : ३००-३०४ पर्य :--विषयों में आसक्त, मति-हीन, मानी, विवेक-बुद्धिसे रहित, मूर्ख, आलसी, कायर, प्रचुर माया-प्रपंच में संलग्न, निद्राशील, दूसरोंको ठगनेमें तत्पर, लोभसे अन्धा, धन-धान्यजनित सुखका इच्छुक एवं बहुसंज्ञा (आहार-भय-मैथुन और परिग्रह संज्ञानोंमें ) पासक्त जीव नील लेश्याको धारण कर धूमप्रभा पृथिवी पर्यन्त जन्म लेता है ।।२६८-२६६॥ अप्पाणं मण्णता अण्णं णिदेदि अलिय-दोसेहि । भीरू, सोक-विसण्णो परावमाणी असूया अ' ॥३०॥ अमुणिय-कज्जाकज्जो धूवंतो 'परम-पहरिसं वहइ । अप्पं पि बि मण्णंतो परं पि कस्स वि एण-पत्तिमई ॥३०१।। थुव्वंतो देइ धणं मरिदु बंछदि' समर-संघट्ट । काऊए संजुत्तो जम्मदि धम्मादि-मेघतं ॥३०२॥ || पाऊ-बंधण-परिणामा समत्ता ।।११।। अर्थ :-जो स्वयंकी प्रशंसा और मिथ्या दोषोंके द्वारा दूसरोंकी निन्दा करता है, भीरु है, शोकसे खेद खिन्न होता है, परका अपमान करता है, ईर्ष्या ग्रस्त है, कार्य-अकार्यको नहीं समझता, चंचलचित्त होते हुए भी अत्यन्त हर्षका अनुभव करता है, अपने समान ही दूसरोंको भी समझकर किसीका भी विश्वास नहीं करता है, स्तुति करने वालोंको धन देता है और समर-संघर्षमें मरनेकी इच्छा करता है, ऐसा प्राणी कापोत लेश्यासे संयुक्त होकर घमासे मेघा पृथिवी पर्यन्त जन्म लेता है ।।३००-३०२।। ।। इसप्रकार आयु-बन्धक परिणामोंका कथन समाप्त हुअा ।।११।। रत्नप्रभादि नरकोंमें जन्म-भूमियोंके प्राकारादि इंदय-'सेढीबद्ध-प्पइण्णयाणं हवंति उरिम्मि । बाहिं बहु अस्सि-जुदो अंतो वड्ढा अहोमुहा-कंठा ।।३०३।। चेटु दि जम्मभूमी सा घम्म पहुवि-खेत्त-तिदयम्मि । ट्टिय -कोत्थलि-कुभी-मोद्दलि-मोग्गर-मुइंग-णालि-णिहा ॥३०४॥ ३. द. वदि । १. द.ब. क. ज.ट. मसूयाय। २. द, ब. ज. क. ठ, परमपहर सम्बहइ। ४. द. ब. ज. क. ठ. इंदियसेढी। ५ ६. उब्विय, ब, क ज. ठ. उत्तिय । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३०५ ३०५ ] विदुम महाहियारो [ २४९ अर्थ :--- इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलोंके ऊपर अनेक प्रकारको तलवारोंसे युक्त, भीतर गोल और अधोमुखकण्डवाली जन्म भूमियाँ हैं । वे जन्म भूमियाँ धर्मा पृथिवीसे तीसरी पृथिवी पर्यन्त उष्ट्रिका, कोयली, कुम्भी, मुगलिका, मुद्दगर, मृदंग और नालीके सहश हैं ।।३०३-३०४।। गो-हत्थि तुरय-भत्था 'अज्जप्पुड-अंबरीस - दोणीश्रो । च-पंचमढवी श्रायारो जम्म-भूमोणं ।।३०५ ।। अर्थ :- चौथी और पांचवीं पृथिवीमें जन्म भूमियोंके श्राकार गाय, हाथी, घोड़ा, भस्त्रा, अब्जपुट, अम्बरीष (भड़भू जाके भाड़ ) प्रोर द्रोणी ( नाव ) जैसे हैं ||३०५ || भल्लारि-'मल्लय - पत्थो केयूर मसूर साणय- किलिजा । धय-दीव - 'चक्कया यस्तिगाल-सरिसा महाभीमा ||३०६ ॥ अज्ज-खर- करह - सरिसा संदोल प्र-रिव-संणिहायारा | छस्सतम- पुढवीणं "दुरिक्ख - णिज्जा महाघोरा करवत्त- सरिच्छा अंते बट्टा समंतदो' वज्जमईग्रो णारय- जम्मरण-भूमीश्र ॥३०७॥ अर्थ :- छठी और सातवीं पृथिवीको जन्म भूमियाँ झालर (वाद्य विशेष ), मल्लक ( पात्रविशेष ), बांसका बना हुआ पात्र, केयूर, मसूर, शासक, किलिंज ( तृरणको बनी बड़ी टोकरी ), ध्वज, द्वीपी, चक्रवाल, शृगाल, अज, खर, करभ, संदोलक ( भूला ) और रीछके सदृश हैं। ये जन्म-भूमियाँ दुष्प्रय एवं महाभयानक हैं ||३०६-३०७ ।। ठाम्रो । भीमाश्रो ॥ ३०८ ॥ श्रर्थ :-- नारकियोंकी ( उपर्युक्त ) जन्म भूमियाँ अन्तमें करोंतके सदृश, चारों ओरसे गोल, वज्रमय, कठोर और भयंकर है ॥ ३०८ ॥ १. द. ब. क. ज. ठ. अंतंपुढ २. ज. ठ. मल्लरि मल्लय, क. मल्लय पत्री । ३. द. चक्कवायसीगाल 1 ज. क. ल. चक्कवायासीगाल : ब. चक्कचावासीगाल | ४. क. ज. ठ. सरिया संदोलन | ५. द. पिज्जा । ६. द. समंतदाऊ । ७. . . क. ज. द. भीमाए । Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ३०६-३११ नरकोंमें दुर्गन्ध अज-ज-महिस-तुरंगम-खरो-मज्जार-मेस-पहुदीएं । 'कुथिताणं गंधादो णिरए गंधा अणंतगुणा ॥३०॥ अर्थ :-बकरी, हाथी, भंस, घोडा, गधा, ऊँट, बिलाव और मैढ़े प्रादिके सहे-गले शरीरोंकी दुर्गन्धकी अपेक्षा नरकोंमें अनन्तगुणी दुर्गन्ध है ॥३०६।। जन्म-भूमियोंका विस्तार पण-कोस-बास-जुत्ता होंति जहणम्हि जम्म-भूमीनो। जे? 'उस्सयाणि वह-पण्णरसं च मज्झिमए ॥३१०॥ ।५ । ४०० । १०-१५ । प्रर्थ :-नारकी जीवोंकी जन्म-भूमियोंका विस्तार जघन्यतः पांच कोस, उत्कृष्टतः चारसौ कोस और मध्यम रूपसे दस-पन्द्रह कोस प्रमाण वाला है ।।३१०॥ विशेषार्थ :-इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलोंके ऊपर जो जन्म-भूमियां हैं, उनका जघन्य विस्तार ५ कोस, मध्यम विस्तार १०-१५ कोस और उत्कृष्ट बिस्तार ४०० कोस प्रमाण है। जन्म-भूमियोंकी ऊँचाई एवं प्राकार जम्मरण-खिदीण उदया रिणय-रिणय-रुवाणि पंच-गुणिदाणि । सत्त-लि-दुगेक्क-कोणा' पण-कोणा होति एदाओ ॥३११॥ । २५ । २०००० । ५०-७५ ॥ ७॥ ३ । २१ । ५ । अर्थ :-जन्म-भूमियोंकी ऊँचाई अपने-अपने विस्तारको अपेक्षा पांच गुनी है। ये जन्मभूमियां सात, तीन, दो, एक और पांच कोन वाली हैं ॥३११॥ विशेषार्य :-जन्म-भूमियोंकी जघन्य ऊंचाई (५४५)=२५ कोस या ६ योजन, मध्यम ऊँचाई (१०४५=५०), ( १५४५)-७५ कोस अथवा १२३ । १८१ योजन और उत्कृष्ट ऊंचाई १. ६. कुधिता। २. द. ज. क. चउस्सपाणि । ठ, चउसयारिण। ३. द. ब. कोणे। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३१२-३१५ ] विदुनो महाहियारो [ २५१ (४०००४५)=२०००० कोस अथवा ५००० योजन प्रमाण है । वे जन्म-भूमियाँ ७ । ३ । २ । १ और ५ कोन वाली हैं। जन्म-भूमियोंके द्वार-कोण एवं दरवाजे एक्क दु ति पंच सत्त य जम्मण-खेत्त सुदार-कोणाणि । तेत्तियमेत्ता दारा सेढीबद्ध पदण्णए एवं ॥३१२।। ॥ १।२।३।५। ७ ।। अर्थ :-जन्म-भूमियोंमें एक, दो, तीन, पांच और सात द्वारकोण तथा इतने ही दरवाजे होते हैं, इसप्रकारकी व्यवस्था केवल श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलोंमें ही है ।।३१२।। तिहार-ति-कोणाश्रो इंदय-णिरयाण' जम्म-भूमोनो। णिच्चंधयार-बहुला कत्थुरोहितो प्रणंत-गुणो ॥३१३॥ जम्मण-भूमी गदा ॥१२॥ अर्थ :-इन्द्रक बिलोंकी जन्म-भूमियाँ तीन द्वार और तीन कोनोंसे युक्त हैं । उक्त सम्पूर्ण जन्म-भूमियाँ नित्य हो कस्तुरीसे भी अनन्तगुरिणत काले अन्धकारसे व्याप्त हैं ॥३१३।। ।। इसप्रकार जन्म-भूमियोंका वर्णन समाप्त हुआ ।।१२।। नरकोंके दुःखोंका वर्णन पावेणं णिरय-बिले जाणं तो' मुहुत्तमत्तण । छप्पजति पाविय प्राकस्सिय-भय-जुदो-होदि ॥३१४॥ भोवीए कंपमाणा चलिदुदुक्खेण "पेल्लियो संतो। छत्तीसाउह-मज्झे पडिणं तत्थ उप्पलइ ॥३१५॥ १. द. ब. क. मिरमाणि, ज.ठ, णिरायाणि । २. क. ज. 3. कछु । ३. द. ताममुत्तरण मेत्ते, ब. क. ज. ठ. ता मुहत्तणं-मेत। ४, ब. होंदि। ५. द. पवियो, ब. पश्चिमो, क. पफिचड़, ज. पश्विमो, ४.पवित। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ ] तिलोयपारणत्ती [ गाथा : ३१६-३१६ पर्ष : नारकी जीव पापसे नरकबिल में उत्पन्न होकर और एक मुहूर्त मात्र कालमें छह पर्याप्तियोंको प्राप्त कर प्राकस्मिक भयसे युक्त होता है । भयसे कांपता हुआ बड़े कष्टसे चलनेके लिए प्रस्तुत होकर छत्तीस प्रायुधोंके मध्यमें गिरकर वहाँसे उछलता है ॥३१४-३१५॥ उच्छेह-जोयणाणि सत्त धणू छस्सहस्स-पंच-सया। उप्पलइ पढम-खेत्ते दुगुणं दुगुणं कमेण सेसेसु ॥३१६॥ । जो ७ । ध ६५०० ॥ अर्थ - पहली पृथ्वीमें जीव सात उत्सेध योजन और छह हजार, पांच सौ धनुष प्रमाण ऊँचा उछलता है, शेष पृथिवियोंमें उछलनेका प्रमाण क्रमश: उत्तरोत्तर दूना-दूना है ।।३१६|| विशेषार्थ :-धर्मा पृथ्वीके नारकी ७ उत्सेध योजन ३ कोस, वंशाके १५ योजन २१ कोस, मेधाके ३१ योजन १ कोस, अञ्जनाके ६२६ योजन, अरिष्टाके १२५ योजन, मघवीके २५० योजन और माघवी पृथ्वीके नारकी जीव ५०० योजन ऊँचे उछलते हैं। वण मय-सिलिबं जह वग्धो तह पुराण-णेरइया । णव-णारयं णिसंसा णिन्भच्छता पधावति ॥३१७।। अर्थ :-जैसे व्याघ्र, मृगशाबकको देखकर उस पर झपटता है, वैसे ही क्रूर पुराने नारकी नये नारकीको देखकर धमकाते हुए उसकी ओर दौड़ते हैं ॥३१७॥ साण-गरणा एक्केवके दुक्खं 'दावंति दारुण पयारं । तह अण्णोणं णिच्चं दुस्सह-पीडायो कुवंति ॥३१॥ अर्थ :-जिसप्रकार कुत्तोंके झुण्ड एक दूसरेको दारुण दुःख देते हैं उसीप्रकार वे नारकी भी नित्य ही परस्पर में एक दूसरे को असह्य रूपसे पीड़ित किया करते हैं ॥३१॥ चक्क-सर-सूल-तोमर-मोग्गर-करवत्त- कोंत-सूईणं । मुसलासि-पहुदीणं वण-णग-दावाणलादीरणं ॥३१॥ १.द, ब, क. ज. ठ. धावति । २. द. कुंत। ३. द. ब. का.ज.6. दावारणगादीरणं । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदुश्री महाहियारो -' पक्खीणं । वय वग्ध-तरच्छ-सिगाल - साण-मज्जार-सोह - ' अष्णोष्णं च सया ते णिय-रिणय देहं विगुव्वंति ॥३२० ॥ गाथा : ३२०-३२४ ] अर्थ :- नारकी जीव, चक्र, बाण, शूली, तोमर, मुद्गर, करौंत, भाला, सुई, मुसल और तलवार आदिक शस्त्रास्त्र रूप वन एवं पर्वतकी आाग रूप तथा भेड़िया, व्याघ्र, तरक्ष ( श्वापद), शृगाल, कुत्ता, बिलाव और सिंह श्रादि पशुओंों एवं पक्षियोंके समान परस्पर सदैव अपने-अपने शरीरकी विक्रिया किया करते हैं ।।३१९-३२०।। गहिर - बिल - धूम - मारुद - प्रइतत्त कहल्लि - जंत- चुल्लीणं । कंड रि-पीस गि-दबीरग रूवमण्णे विकुति ॥३२१॥ अर्थ : श्रन्य नारकी जीव, गहरे बिल, धुआ, वायु, अत्यन्त तपे हुए खप्पर, यंत्र, चूल्हे, कण्डनी ( एक प्रकारका कूटने का उपकरण ), चक्की और दव ( ब ) श्राकाररूप अपने-अपने शरीरको विक्रिया करते हैं ।। ३२१ ।। [ २५३ सूवर वणग्गि-सोणिव- किमि-सरि दह- कूय- "वाइ- पहुदीणं । पुह-पुहरूव-विहीणा णिय- णिय- देहं पकुब्वति ॥ ३२२ ॥ अर्थ :- नारकी जीव शूकर, दावानल तथा शोणित और कीडोंसे युक्त नदी, तालाब, कूप एवं बापी आदि रूप पृथक्-पृथक् रूपसे रहित अपने-अपने शरीर की विक्रिया करते हैं । तात्पर्य यह है कि नारकियों के पृथक् विक्रिया होती है, देवोंके सदृश उनके पृथक् विक्रिया नहीं होती ॥ ३२२ ॥ पेच्छ्रिय पलायमारणं णारइयं वग्घ-केसरि हुदी । वज्जमय - वियल-तोंडा "कत्थ वि भक्रांति रोसेण ॥ ३२३॥ म :- वज्रमय विकट मुखवाले व्याघ्र और सिंहादिक, पोछेको भागने वाले दूसरे नारकी को कहीं पर भी कोसे खा डालते हैं ।। ३२३॥ पोलिज्जते' केई जंत- सहस्सेहि विरस - तिलवंता । श्रपणे हम्मेति तहि अवरे छेज्जंति विविह भंगेहिं ॥ ३२४ ॥ १. द. ब. क. ज. ठ. पसू २. द. अण्णा । ५. द. सुडो खत्यवि । क. तोंडो कवि, ज. ठ. तोंड़े कवि । ३. ब. जंतच्चूली । ४. द. कुववदि । ६. द. उ. पालिज्जते । Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ३२५--३२६ अर्थ :-चिल्लाते हुए कितने ही नारकी जीव हजारों यंत्रों ( कोल्हुषों ) में तिलको तरह पेल दिए जाते हैं। दूसरे नारकी जीव वहींपर मारे जाते हैं और इतर नारकी विविध प्रकारोंसे छेदे जाते हैं ॥३२४।। अण्णोणं बझते वज्जोयम-संखलाहिं थंभेसु । पज्जलिदम्मि हुदासे केई छुम्भंति दुप्पिच्छे ॥३२५॥ अर्थ :-कई नारकी परस्पर वज्रतुल्य सांकलों द्वारा खम्भोंसे बांधे जाते हैं और कई अत्यन्त जाज्वल्यमान दुष्प्रक्ष्य अग्निमें फेंके जाते हैं ।।३२।। फालिज्जते केई दारुण-करवत्त-कंटन-मुहेहि । अण्णे भयंकरहिं विनंति विचित्त-भल्लेहिं ॥३२६॥ मय:-कई नारकी करोंत ( पारी ) के काँटोंके मुखोंसे फाड़े जाते हैं और इतर नारकी भयंकर और विचित्र भालोंसे बीधे जाते हैं ।।३२६।। लोह-कडाहावटिव-तेल्ले तत्तम्मि के थि छुम्भंति । 'घेत्तूणं पच्चंते जलंत-जालुक्कडे जलणे ॥३२७॥ अर्थ:-कितने ही नारकी जीव लोहेके कड़ाहोंमें स्थित गरम तेल में फेंके जाते हैं और कितनेही जलती हुई ज्वालापोंसे उत्कट अग्निमें पकाये जाते हैं ।।३२७।। इंगालजाल-मुम्मुर-अग्गी-दझंत-मह-सरीरा ते । सोदल-जल-मण्णता धाविय पविसति वइतरिणि ॥३२॥ अर्थ :- कोयले और उपलोंकी पागमें जलते हुए स्थूल शरीर वाले वे नारकी जीव शीतल जल समझते हुए वैतरिणी नदीमें दौड़कर प्रवेश करते है ॥३२८॥ कतरि-सलिलायारा णारइया तत्थ ताण अंगाणि । छिदति 'दुस्सहावो पावंता विविह-पोडापो ॥३२६॥ - --- १. द, पुरूषां। २, द. दुस्सहावे । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३३०-३३४ ] विदु महाहियारो [ २५५ अर्थ :- उस वैतरणी नदीमें कर्तरी (कैची) के समान तीक्ष्ण जलके आकार परिणत हुए दूसरे नारकी उन नारकियों के शरीरों को अनेक प्रकारको दुस्सह पीड़ाओोंको पहुँचाते हुए छेदते हैं ||३२|| जलयर-कच्छव-मंडूक-मयर-पहूदीण विविह' -रुबधरा । प्रण्णोष्णं "भक्वंते वइतरिणि जलम्मि 'णारइया ॥३३०॥ अर्थ : तरणी नदी के जल में नारकी कछुआ, मेंढक और मगर यदि जलचर जीवोंके विविध रूप धारण कर एक दूसरेका भक्षण करते हैं ||३३०|| वइतरणी-सलिलादो णिस्सरिवा पय्वदं पलावंति । तस्सिहरमारुहंते तत्तो लोट्रुति श्रष्णोष्णं गिरि-कंदरं विसंतो खज्जते वग्घ-सिंह, पहुबीहि । वज्जुक्कड - दाहि दारुण - दुक्खाणि ।।३३१॥ सहमाणा ॥ ३३२ ॥ अर्थ :-- ( पश्चात् ) वंतररणीके जलसे निकलते हुए (बे नारकी) पर्वत की ओर भागते हैं । वे उन पर्वतोंके शिखरोंपर चढ़ते हैं तथा वहाँ से एक दूसरेको गिराते हैं । ( इसप्रकार ) दारुण दुःखों को सहते हुए ( वे नारकी ) पर्वतकी गुफाओं में प्रवेश करते हैं। वहाँ वा सहरा प्रचण्ड दाड़ों वाले व्याघ्रों एवं सिंहों आदिके द्वारा खाये जाते हैं ।।३३१-३३२ ।। विउल-सिला- विच्चाले बट्ठूण बिलाणि भत्ति पविसंति । तत्य वि विसाल - जालो उट्ठबि सहसा - महाश्रग्गी ॥३३३॥ अर्थ :- पश्चात् वे नारकी विस्तीर्णं शिलानोंके बीच में बिलोंको देखकर शीघ्र ही उनमें प्रवेश करते हैं परन्तु वहाँ पर भी सहसा विशाल ज्वालाओं वाली महान् अग्नि उठती है ।१३३३|| दारुण-हुदा स-जाला - मालाहिं दज्झमाण-सवंगा । सीवल छायं मणिय प्रसिपल वणम्मि पविसंति ॥ ३३४ ॥ १. द. विविसरूवचरा । २. द. भगवंता । ६. द. ब. क. ज. 5. जलचरंमि । ४. द. मंति ब. क. ज. ठ. जंति । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ ] ਵਿਹਾਰ ਦੀ [ गाथा : ३३५-३३८ अर्थ :- पुनः जिनके सम्पूर्ण अंग भीषण अग्निकी ज्वाला समूहोंसे जल रहे हैं, ऐसे वे नारकी ( वृक्षोंकी) शीतल छाया जानकर असिपत्र वनमें प्रवेश करते हैं ||३३४ ॥१ तत्थ व विदिह तरूणं पवण हवा तव - पला-फल- पूजा । नियति तारा उवर दुष्पिच्छा वज्जदंडे व अर्थ :- वहाँ पर भी विविध प्रकारके वृक्ष, गुच्छे, पत्र और फलोंके समूह पवनसे ताड़ित होकर उन नारकियों के ऊपर दुष्प्रेक्ष्य वज्रदण्ड के समान गिरते हैं ।। ३३५ ।। ।।३३५॥ चक्क - सर करणय-तोमर - मोग्गर- करवाल - कोंत- मुसलाणिं । अण्णाणि वि ताण सिरं प्रतिपत्त-वणादु निवति ॥ ३३६ ॥ अर्थ :- उस असिपत्र - वनसे चक्र, बाण, कनक ( शलाकाकार ज्योतिः पिंड ), तोमर ( बाण - विशेष ), मुदगर, तलवार, भाला, मूसल तथा अन्य और भी अस्त्र-शस्त्र उन नारकियोंके सिरोपर गिरते हैं ||३३६|| तवसम्म | छिरण' - सिरा भिण्ण-करा 'तुडिवच्छा लंबमारण - श्रतचया । रुहिरारुरण घोरतणू णिस्सरस्या तं वणं पि मुचेति ॥ ३३७ ॥ अर्थ :- अनन्तर छिन्न सिरवाले, खण्डित हाथवाले व्यथित नेत्र-वाले, लटकती हुई प्रांतोंके समूहवाले और खूनसे लाल तथा भयानक वे नारकी प्रशारण होते हुए उस वनको भी छोड़ देत हैं ||३३७ ॥ गिद्धा गरुडा काया विहगा अवरे वि वज्जमय-तुडा | काढूण खंड-खंड ताणंगं ताणि कवलंति ।। ३३८ । i अर्थ :- गृद्ध, गरुड़, काक तथा और भी वज्रमय मुख ( चोंच ) वाले पक्षी नारकियों के शरीर के टुकड़े-टुकड़े करके खा जाते हैं ।। ३३८ ॥ १. ब. क. ज. ठ. शिसिरा । २. द. ब. क. ज. य. बुदियंा । ४. द खंडु-दंतारांग ब. क. ज. ठ. खडु-दंता तारांगं । ३. द. व. क. ज. ठ. Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३३६-३४४ ] विदुप्रो महायिारो [ २५७ अंगोवंगट्ठीणं चुपणं काढूण चंड-घादेहि । विउप-वणाणं मझे छुहति बहुखार-दवाणि ।।३३६॥ जह चिलवयंति करुणं 'लग्गते जइ विचलण-जुगलम्मि। तह विह सणं खंडिय छहंति चुल्लीसु रणारइया ॥३४०॥ अर्थ :-अन्य नारको उन नारकियोंके अंग और उपांगोंको हड्डियोंका प्रचंड घातोंसे चूर्ण करके विस्तृत घावोंके मध्यमें क्षार-पदार्थोंको डालते हैं, जिससे वे नारकी करुणापूर्ण विलाप करते हैं और चरणोंमें या लगते हैं, तथापि अन्य नारकी उसी खिन्न अवस्थामें उन्हें खण्ड-खण्ड करके चूल्हेमें डाल देते हैं ।।३३९-३४०।। लोहमय-जुबइ-पडिमं परदार-रदाण' गाढमंगेसु । लायंते अइ-तत्तं खिवंति जलणे जलतम्मि ॥३४१॥ अर्थ :-परस्त्रीमें प्रासक्त रहने वाले जीवोंके शरीरों में अतिशय तपी हुई लोहमय युवतीको मूर्तिको दृढ़तासे लगाते हैं और उन्हें जलती हुई पागमें फेंक देते हैं ।।३४१॥ मंसाहार-रदाणं णारइया ताण अंग-मंसाइं । छेत्तूण तम्मुहेसु छुहंति रुहिरोल्लरूवाणि ॥३४२॥ अर्थ :-जो जीव पूर्व भवमें मांस-भक्षणके प्रेमी थे, उनके शरीरके मांसको काटकर अन्य नारकी रक्तसे भीगे हुए उन्हीं मांस-खंडोंको उन्हींके मुखोंमें डालते हैं ॥३३९।। महु-मज्जाहाराणं णारइया तम्मुहेसु अइ-तत्तं । लोह-दव घालते विलीयमाणंग-पम्भारं ॥३४३॥ अर्थ:-मधु और मद्यका सेवन करने वाले प्राणियोंके मुखोंमें नारकी अत्यन्त तपे हुए द्रवित लोहेको डालते हैं, जिससे उनके संतप्त अवयव-समूह भी पिघल जाते हैं 11 ३४३॥ करवाल-पहर-भिण्णं कूव-जलं जह पुणो वि संघडवि । तह णारयाण अंग छिज्जतं विविह-सत्थेहि ॥३४४॥ २. द. परदार-रदारिण। ३. ज. ठ. मुहु। ४ ब. १. द. मसंगते, व.क. ज. 3. मंगते । सोहदव्यं । ५. द. विविइ-सत्तेहिं । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ ] तिलोयपगत्ती [ गाथा : ३४५-३४६ अर्थ :-जिसप्रकार तलवारके प्रहारसे भिन्न हुआ कुएका जल फिरसे मिल जाता है, उसी प्रकार अनेकानेक शस्त्रोंसे छेदा गया नारकियोंका शरीर भी फिरसे मिल जाता है । अर्थात् अनेकानेक शस्त्रोंसे छेदनेपर भी मारकियोंका अकाल-मरण कभी नहीं होता ॥३४४।। फच्छुरि-करकच-'सूई-खदिरंगारादि-विविह-भंगोहिं । अण्णोण्ण-जादणामो कुणंति गिरएस गारइया ॥३४५।। अर्थ :-तरकोंमें करि ( कपिकच्छु केवाँच अर्थात् खाज पैदा करने वाली औषधि ), करोंत, सुई और खैरकी प्राग इत्यादि विविध प्रकारोंसे नारकी परस्पर यातनाएँ दिया करते हैं ।।३४५।। अइ-तित्त-कडुव-कार-सत्तीदो मट्टियं अणंतगुणं । घम्माए णारइया थोवं ति चिरेण भुजंति ॥३४६॥ अर्थ :-धर्मा पृथ्वीके नारकी अत्यन्त तिक्त और कड़वी कथरि ( कचरी या प्रचार?} की शक्तिसे भी अनन्तगुनी तिक्त और कड़वी थोड़ी-थोड़ी मिट्टी चिरकाल खाते रहते हैं ।।३४६।। अज-गज-महिस-तुरंगम-खरोट्ट-मज्जार- मेस-पहुदीणं"। कुहिताणं गंधादो प्रणंत-गुणिदो हवेदि प्राहारो ।।३४७॥ अर्थ :-नरकोंमें बकरी, हाथी, भैस, घोड़ा, गधा, ऊँट, बिल्ली और मेट् प्रादिके सड़े हुए शरीरोंकी गंधसे अनन्तगुनी गन्धवाला आहार होता है ।।३४७11 अदि-कुणिम-मसुह-मण्णं रयणप्पह-पहदि जाव चरिमखिदि । संखातीद-गुणेहिं दुगुच्छणिज्जो हु प्राहारो ॥३४८॥ अर्थ :--रत्नप्रभासे लेकर अन्तिम पृथिवी पर्यन्त अत्यन्त सड़ा, अशुभ और उत्तरोत्तर असंख्यात गुणा म्लानिकर अन्य प्रकारका ही प्राहार होता है ॥३४८।। १. द. ब. क. ज. छ. सूजीए । २. द. ब. अथणण। ३. ६. संत्तीदोमंधिम, ब. क. ज. 3. संती. दोमंधियं । ४ द. ब. क. तुरग। ५. ज. ४. उपहुचीणं । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३४६-३५ विदुओ महाहियारो [ २५६ प्रत्येक पृथियीके पाहारकी गंध-शक्तिका प्रमाण घम्माए आहारो कोसस्सभंतरम्मि ठिद-जीवे । इह 'मारइ गंधेण सेसे कोसद्ध-बढिया सत्ती ॥३४६॥ 1॥ १।३।२।३।३।। ४ ।। अर्थ :-धर्मा पृथिवीमें जो पाहार है, उसकी गंधसे यहाँ ( मध्यलोकमें ) पर एक कोसके भीतर स्थित जीव मर सकते हैं, इसके प्रागे शेष दूसरी आदि पृथिवियोंमें इसकी घातक शक्ति प्राधाप्राधा कोस और भी बढ़ती गई है ॥३४९।। विशेषाय : प्रथम नरकके नारको जिस मिट्टीका प्रहार करते हैं वह मिट्टी अपनी दुर्गन्धसे मनुष्य क्षेत्रके एक कोसमें स्थित जीवोंको, द्वितीय नरकको मिट्टी १३ कोसमें, तृतीयको २ कोसमें, चतुर्थकी २६ कोसमें, पंचमकी ३ कोसमें, षष्ठकी ३३ कोसमें और सप्तम नरककी मिट्टी ४ कोसमें स्थित जीवोंको मार सकती है। असुरकुमार-देवोंमें उत्पन्न होने के कारण पुग्वं बह-सुराऊ अणंतअणुबंधि-अण्णदर-उदया । पासिय-ति-रयण-भावा णर-तिरिया केइ असुर-सुरा॥३५०॥ मर्थ :--पूर्वमें देवायुका बंध करने वाले कोई-कोई मनुष्य और तिर्यंच अनन्तानुबन्धीमेंसे किसी एकका उदय आजानेसे रत्नत्रयके भावको नष्ट करके असुर-कुमार जातिके देव होते हैं ।।३५० ।। ___ असुरकुमार-देवोंकी जातियाँ एवं उनके कार्य सिकदाणणासिपत्ता* महबल-काला य साम-सबला' हि । रुहबरिसा विलसिद-णामो महरूद-खर-णामा ॥३५१॥ १. द. ब. मातहि । २. अंबे अंबरिसी चेव, सामे य सवलेपि य । रोद्दोबरुद्द काले य महाकालेत्ति प्रावरे ॥६॥ प्रसिपत्तं घणुकुभे वालुबेपरणीदि म । खरस्सरे महाघोंसे एवं पण्णरसाहिया ॥६६॥ सूत्रकृताग-नियुक्ति, प्रवचनसारोदार :- पृ. ३२१ ३. द.ब. क.ज. ठ. सवलं । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ३५२-३५६ कालग्गिरुद्द-णामा कुभो' वेतरणि-पहुवि-असुर-सुरा। गंतूण वालुकंतं णारइयारणं' पकोपंति ॥३५२॥ अर्थ :--सिकतानन, असिपत्र, महाबल, महाकाल, श्याम, सबल, बद्र, अम्बरीष, विलसित, महारुद्र, महाखर, काल, अग्निरुद्र, कुम्भ और वैतरणी प्रादिक असुरकुमार जातिके देव तीसरी बालुका प्रभा पृथिवी तक जाकर नारको जीवोंको कुपित करते हैं ।।३५१-३५२।। इह खेत्ते जह मणुवा पेच्छंते मेस-महिस-जुद्धादि । तह णिरये असुर-सुरा णारय-कलहं पतुट्ठ-मणा ॥३५३।। अर्थ :- इस क्षेत्र ( मध्यलोक ) में जैसे मनुष्य, मैले और भैसे आदिके युद्धको देखते हैं, उसीप्रकार नरकमें असुरकुमार जातिके देव नारकियोंके युद्धको देखते हैं और मनमें सन्तुष्ट होते नरकोंमें दुःख भोगनेकी अवधि एक्क ति सग दस सत्तरसतह बावीसं होंति तेत्तीसं । जा सायर-उवमाता पार्वते ताव मह-दुक्खं ।।३५४।। अर्थ :-रत्नप्रभादि पृथिवियोंमें नारकी जीव जब तक ऋमशः एक, तीन, सात, दस, सत्तरह, बाईस और तैतीस सागरोपम पूर्ण होते हैं, तब तक बहुत भारी दु:ख उठाते हैं ॥३५४।। गिरएस स्थि सोक्खं 'रिणमेस-मत्तं पि रणारयाण सदा । दुक्खाइ दारुणाई बढ़ते पच्चमाणाणं ॥३५५॥ अर्थ :-नरकोंके दुःखोंमें पचने वाले नारकियोंको क्षणमात्रके लिए भी सुख नहीं है । अपितु उनके दारुण-दुःख बढ़ते ही रहते हैं ।।३५५।। कदलीघावण धिणा णारय-गत्ताणि प्राउ-अयसाणे । मारुद-पदभाइ व णिस्सेसाणि विलीयंते ॥३५६॥ ४. द. जह भरउवमा, १. द.ब.क.ज. ४. भो। २. दःणारयप्पकोपति । ३. द. तसय । ब. क. ज. ठ. जह परडवुमा। ५ द. ब. क. ज. 8. अणुमिसमेत्त पि । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६१ गाथा : ३५४-३६० ] विदुषो महाहियारो अर्थ :-नारकियोंके शरीर कदलीघात ( अकालमरण ) के बिना पूर्ण प्रायुके अन्त में वायुसे ताड़ित मेघोंके सदृश सम्पूर्ण विलीन हो जाते हैं ।।३५६।। एवं बहुविह-दुक्खं जीवा पावंति पुथ्व-कद-दोसा। तदुक्खस्स सरूवं को सक्कइ वण्णिदु सयलं ॥३५७॥ कार्य :- मका: पूर्व में किये गये दोनों में जीव ( नरकोंमें ) नाना प्रकारके दुःख प्राप्त करते हैं, उस दुःखके सम्पूर्ण स्वरूपका वर्णन करनेमें कौन समर्थ है ? ॥३५७॥ नरकोंमें उत्पन्न होनेके अन्य भी कारण सम्मत्त-रयण-पव्वद-सिहरादो मिच्छभाव-खिदि-पडिदो। णिरयाविसु अइ-दुक्खं पाविय' पविसइ णिगोदम्मि ॥३५॥ अर्थ : सम्यक्त्वरूपी रलपर्वतके शिखरसे मिथ्यात्व-भाव रूपी पृथिवीपर पतित हुआ प्राणी नारकादि पर्यायोंमें अत्यन्त दुःख-प्राप्त कर (परम्परासे ) निगोदमें प्रवेश करता है ।।३५८॥ सम्मतं देसजमं लहिरणं विसय हेदणा चलिदो। णिरयादिसु अइ-बुक्खं पाविय पविसइ णिगोदम्मि ॥३५६।। अर्थ :-सम्यक्त्व और देशचारित्रको प्राप्तकर जीव विषयसुखके निमित्त ( सम्यक्त्व और चारित्रसे ) चलायमान हुआ नरकोंमें अत्यन्त दुःख भोगकर (परम्परासे ) निगोदमें प्रविष्ट होता है ॥३५६।। सम्मत्त सयलजम लहिणं विसय-कारणा चलिदो । णिरयादिसु अइ-दुक्खं पाविय पविसइ णिगोदम्मि ॥३६०।। मर्थ : सम्यक्त्व और सकल संयमको भी प्राप्तकर विषयोंके कारण उनसे चलायमान होता हुआ यह जीव नरकोंमें अत्यन्त दुःख पाकर ( परम्परासे) निगोदमें प्रवेश करता है ।।३६० - १. द. पावी पइस रिबनोदम्मि। २. द. क. ज, ठ. लघणं । ३, ६. ज. ठ. गिरयादी। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ] तिलोयपत्ती [ गाथा : ३६१-३६४ सम्मत्त-रहिय-चित्तो जोइस-मंताविएहि वतो । णिरयाविस बहुदुक्खं पात्रिय पविसइ णिगोदम्मि ॥३६१॥ । दुक्ख-सरूवं समत्तं ॥१३।। प्रर्थ :-सम्यग्दर्शनसे विमुख चित्तवाला, ज्योतिष और मंत्रादिकोंसे आजीविका करता हुआ जीव, नरकादिकमें बहुत दुःख पाकर ( परम्परासे ) निगोदमें प्रवेश करता है ॥३६१।। ॥ दु:खके स्वरूपका वर्णन समाप्त हुआ ।।१३।। नरकोंमें सम्यक्त्व ग्रहणके कारण घम्मादी-खिवि-तिवये गारइया मिच्छ-भाव-संजुत्ता । जाइ-भरणेण केई केई दुव्वार-वेदणाभिहदा ॥३६२॥ केई देवाहितो धम्म-णिबद्धा कहा व सोदूर्ण । गेहंते सम्मत्तं प्रणंत-भव-चूरण-णिमित्तं ॥३६३॥ प्रथं :-धर्मा प्रादि तीन पृथिदियोंमें मिथ्यात्वभावसे संयुक्त नारकियोंमेंसे कोई जातिस्मरणसे, कोई दुर्वार वेदनासे और कोई धर्मसे सम्बन्ध रखनेवाली कथानोंको देवोंसे सुनकर अनन्त भवोंको चूर्ण करने में निमित्तभूत सम्यग्दर्शनको ग्रहण करते हैं ॥३६२-३६३॥ पंकपहा'-पहुवोणं णार इया तिवस-बोहणेण बिणा । समरिदजाई दुक्खप्पहवा गेण्हंति' सम्मत्त ॥३६४॥ ॥ सण-गहण समत्तं ॥१४|| अर्थ :-पंकप्रभादिक शेष चार पृथिवियोंके नारको जीव देवकृत प्रबोधके बिना जातिस्मरण और वेदनाके अनुभवसे सम्यग्दर्शन ग्रहण करते हैं ॥३६४॥ ॥ सम्यग्दर्शनके ग्रहणका कथन समाप्त हुमा 11१४।। १. क. मही। २. द गे ति । ३. क, ३. मगदं । ६.ज. ठ. मगरणं । Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३६५-३६८ ] विदुश्रो महाहियारो [ २६३ नारकी-जीवोंकी योनियोंका कथन जोणीमो णारइयाणं उधरे सोद-उण्ह प्रचित्ता। संघडया सामण्णे चउ-लक्खे होंति हु विसेसे ॥३६५॥ ॥ जोरणी समत्ता ॥१।। अर्थ :- सामान्यरूपसे नारकियोंकी योनियोंकी संरचना शीत, उष्ण और अचित्त कही गई हैं । विशेष रूपसे उनकी संख्या चार लाख प्रमाण है ॥३६५।। 11 इसप्रकार योनिका वर्णन समाप्त हुअा ॥१५॥ नरकगतिकी उत्पत्ति के कारण मज्जं पिबंता पिसिदं लसंता, जीवे हणंता मिगयाणुरत्ता । णिमेस-मेत्तण' सुहेण पावं, पावंति दुषखं णिरए अणंतं ॥३६६॥ प्रर्य :-मद्य पीते हुए, मांसको अभिलाषा करते हुए, जीवोंका धात करते हुए और मृगयामें अनुरक्त होते हुए जो मनुष्य क्षणमात्रके सुखके लिए पाप उत्पन्न करते हैं वे नरकमें अनन्त दुःख उठाते हैं ॥३६६॥ लोह-कोह-भय-मोह-बलेणं जे वदति वयणं पि असच्चं । तेणिरंतर-भये उरु-दुक्खे दारुणम्मिणिरम्मि पड़ते ॥३६७।। अर्थ :-जो जीव लोभ, क्रोध, भय अथवा मोहके बलसे असत्य वचन बोलते हैं, वे निरन्तर भय उत्पन्न करने वाले, महान् कष्टकारक और अत्यन्त भयानक नरकमें पड़ते हैं ।।३६७। छेत्त ण भित्ति वधिवूण पोयं, पट्टादि घेत्त रा धणं हरता। अण्णेहि अण्णाप्रसएहि मूढा, भुति दुक्खं गिरयम्मि घोरे ॥३६॥ ४. द. क. ज. 3. पिपं, ब. १. घ. क, ज. ठ. मोहेण । २. द. सुह रण पावंति। ३. भयं। ५. द. ब. क. ज. ठ. असहेइ । पियं । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ] तिलोयपणती [ गाथा : ३६६-३७१ अर्थ :-भीतको छेदकर अर्थात् सेंध लगाकर प्रियजनको मारकर और पट्टादिकको ग्रहण करके, धनका हरण करने वाले तथा अन्य भी ऐसे ही सैकड़ों अन्यायोंसे, मूर्ख लोग भयानक नरकमें दुःख भोगते हैं 11३६८।। लज्जाए चत्ता मयणेण मसा तारुण्ण-रत्ता परदार सत्ता। रसी-दिरणं मेहुण-माचरंता पार्वति दुक्खं णिरएसु घोरं ॥३६६॥ प्रर्थ :-लज्जासे रहित, कामसे उन्मत्त, जवानीमें मस्त, परस्त्रीमें प्रासक्त और रात-दिन मैथुनका सेवन करने वाले प्राणी नरकोंमें जाकर घोर दुःख प्राप्त करते हैं ॥३६९॥ पुत्ते कलते सुजणमि मित्ते जे जीवणत्थं पर-पंचणेणं । वड्दति तिण्णा दविणं हरते ते तिव्य-दुक्खे रिगरयम्मि जति ॥३७०॥ अर्थ :-पुत्र, स्त्री, स्वजन और मित्रके जीवनाथं जो लोग दूसरोंको ठगते हुए अपनी तृष्णा बढ़ाते हैं तथा परके धनका हरण करते हैं, वे तीव्र दुःखको उत्पन्न करने वाले नरकमें जाते हैं ।।३७०॥ अधिकारान्त मङ्गलाचरण संसारण्णवमहणं तिहवण-भन्दाण 'पेम्म-सुह-जणणं । संदरिसिय-सयलट्ठ संभवदेवं णमामि तिविहेण ॥३७१॥ एवमाइरिय-परंपरा-गय-तिलोयपणत्तीए णारय-लोय-सरूव-रिणरूवण-पण्णत्ती णाम || बिदुनो महाहियारो समत्तो ॥२।। अर्थ :-संसार समुद्रका मथन करने वाले ( बीतराम ), तीनों लोकोंके भव्य-जनोंको धर्म-प्रेम और सुखके दायक ( हितोपदेशक ) तथा सम्पूर्ण पदार्थोके यथार्थ स्वरूपको दिखलाने वाले { सर्वज्ञ ), सम्भवनाथ भगवानको मैं ( यतिवृषभ ) मन, बचन और कायसे नमस्कार करता हूं ।।३७१। इसप्रकार प्राचार्य-परम्परागत त्रिलोक-प्रज्ञप्तिमें "नारक-लोक स्वरूप निरूपण-प्रज्ञप्ति" नामक द्वितीय महाधिकार समाप्त हुआ ।।२।। १. द. पेममुह । Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदिओ महाहियारो मङ्गलाचरण भव्य - जरा मोक्ख जणणं सुणिद-देविंद- पणद-पय-कमलं । णमिय प्रहिणंदणेसं भावरण- लोयं पयेमो ॥१॥ अर्थ :-- भव्य जीवोंको मोक्ष प्रदान करने वाले तथा मुनीन्द्र ( गणधर ) एवं देवेन्द्रोंके द्वारा वन्दनीय चरण कमलवाले अभिनन्दन स्वामीको नमस्कार करके भावन-लोकका निरूपण करता हूं ॥ 11 भावनलोक-निरूपण में चौबीस अधिकारोंका निर्देश भावरण- णिवास-खेत्त' भवण सुराणं' वियप्प- चिण्हाणि । भवणाणं परिसंस्था इंदार पमाण - णाभाई ॥२॥ दक्षिण-उत्तर - इंदा पत्तक्कं ताण भवण- परिमाणं । अप्प - महद्धिय-मज्झिम: भावण- देवाण भवणवासं च ||३|| भवरणं वेदी कूडा जिणघर पासाद इंद-भूदोश्रो । भवणामराण संखा श्राउ-प्रमाणं जहा जोगं ॥४॥ उस्सेहोहि पमाणं गुणठाणादीणि एक्क समयस्मि । उपज्जण- मरगाण य परिमाणं तह य श्रागमणं ॥५॥ भावणलोयस्साऊ-बंधण - पाप्रोग्ग सम्मत्त गहण हेक अहिवारा १. ६. ब. क. पूरण । २. व । भवरणं वासं । भाव-भेदा य । एत्थ चसं ॥६॥ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ] तिलोय पण्णत्ती [ गाथा : ७-६ अर्थ :- भवनवासियोंके १ निवासक्षेत्र, २ भवनवासी देवोंके भेद ३ चिह्न ४ भवनोंकी संख्या, ५ इन्द्रका प्रमाण, ६ इन्द्रोंके नाम, ७ दक्षिणेन्द्र और उत्तरेन्द्र, उनमेंसे प्रत्येकके भवनों का परिमाण ९ पद्धक, महद्धिक और मर्थ्याद्भक भवनवासी देवोंके भवनोंका व्यास ( विस्तार ), १० भवन, ११ वेदी, १२ कूट, १३ जिनमन्दिर १४ प्रासाद, १५ इन्द्रोंकी विभूति, १६ भवनवासी देवोंकी संख्या, १७ यथायोग्य आयुका प्रमाण १८ शरीर की ऊँचाईका प्रमाण, १६ अवधिज्ञानके क्षेत्रका प्रमारण, २० गुरणस्थानादिक, २१ एक समयमें उत्पन्न होने वालों और मरने वालोंका प्रमाण तथा २२ आगमन, २३ भवनवासी देवोंकी श्रायुके बन्धयोग्य भावोंके भेद और २४ सम्यक्त्व ग्रहण के कारण, ( इस तीसरे महाधिकारमें ) ये चौबीस अधिकार हैं ॥२-६॥ भवनवासी देवोंका निवास-क्षेत्र | रणपह-पुढचीए खरभाए बहु-भाग भवसुराणं भवणाई होंति वर- रयण सोहाणि ॥ ७ ॥ सोलस - सहस्स- मेत्तो' खरभागो पंकबहुल भागो वि । चउसीवि-सहस्सा रिंग जोयण- लक्खं दुबे मिलिदा ||८|| १६००० | ८४००० । मिलिता १ ला 11 भावरण- देवागं निवास - खेत्तं गदं ॥ १ ॥ अर्थ :- रत्नप्रभा पृथिवीके खरभाग एवं पंकबहुल भाग में उत्कृष्ट रत्नोंसे शोभायमान भवनवासी देवोंके भवन हैं । खर-भाग सोलह हजार ( १६००० ) योजन और पंकबहुल भाग चौरासी हजार ( ८४००० ) योजन प्रमाण मोटा है तथा इन दोनों भागोंको मोटाई मिलाकर एक लाख योजन प्रमाण है ||७-८ || भवनवासी देवोंके निवास क्षेत्रका कथन समाप्त हुआ ॥ १ ॥ भवनवासी देवोंके भेद सुरा णाग सुवण्णा दीनोवहि-थणिद-विज्जु- दिस- श्रग्गी । बाउकुमारा परया वस- मेदा होंति भवणसुरा ॥ ६ ॥ || वियप्पा समत्ता ||२|| १. द. ज. ठ. मेत्ता । Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १०-१२ ] तदिन महाहियारो | २६७ अर्थ :- असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, द्वीपकुमार उदधिकुमार स्तनितकुमार, विद्यत्कुमार, दिक्कुमार, अग्निकुमार और वायुकुमार इसप्रकार भवनवासी देव दस प्रकारके 11211 || विकल्पों का वर्णन समाप्त हुआ || २ || भवनवासियोंके चिह्न चूडामरि-ग्रहि गरुडा करि-मयरा वढमाण वज्ज-हरी । कलसो तुरयो मउडे कमसो चिण्हाणि एदाणि ॥१०॥ || चिण्हा समत्ता ||३|| अर्थ :- इन देवोंके मुकुटोंमें क्रमश: चूडामणि, सर्प, गरुड़, हाथी, मगर बर्धमान ( स्वस्तिक ), बच्च, सिंह, कलश और तुरंग ये चिह्न होते हैं ||१०|| 11 चिह्नोंका वर्णन समाप्त हुआ ||३|| भवनवासी देवोंकी भवन संख्या चट्टी चउसीदी बाहत्तर होंति छस्सु ठाणेसु । छाहतरि छण्णउदी 'लक्खारिंग भवरणवासि - भवराणि ॥११॥ ६४ ल । ८४ ल । ७२ ल । ७६ ल । ७६ ल । ७६ ल । ७६ ल । ७६ ल १ ७६ ल । ६६ ल । vari' भवणाणं एक्कसि मेलिदारण परिमाणं । बाहत्तरि लक्खाणि कोडीश्रो सत्तमेत्ताओ ॥१२॥ ७७२००००० ॥ भवरण संखा गदा ॥४॥ १. ६. ब. क. ज. ठ. एक्कारिण । २. द. ज. एवाणं भवरणाक्कस्सि । उ. एदाणि भवाक्कस्सि । Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ] तिलोयपणती [ गाथा : १३-१५ अर्थ :-भवनवासी देबोंके भवनोंकी संख्या क्रमशः ६४ लाख, ८४ लाख, ७२ लाख, छह स्थानोंमें ७६ लाख और ९६ लाख है, इन सबके प्रमाणको एकत्र मिला देनेपर सात करोड़, बहत्तर लाख होते हैं ।।११-१२।। विशेषार्थ :- असुरकुमारदेवोंके ६४०००००, नागकुमारके ८४०००००, सुपर्णकुमारके ७२०००००, द्वीपकुमारके ७६०००००, उदधिकुमारके ७६०००००, स्तनितकुमारके ७६०००००, विद्य कुमारके ७६०००००, दिक्कुमारके ७६०००००, अग्निकुमारके ७६००००० और वायुकुमार देवोंके १६००००० भवन हैं। इन दस कुलोंके सर्व भवनोंका सम्मिलित योग | ६४ ला० +८४ ला०+ ७२ ला० + (७६ ला० x ६)+६६ लाख= ] ७७२००००० अर्थात् सात करोड़, बहत्तर लाख है। ।। भवनोंकी संख्याका कथन समाप्त हुा ।।४।। भवनवासी-देवों में इन्द्र संख्या देससु कुलेसुपुह पुह दो दो' इदा हवंति णियमेण । ते एक्करिंस 'मिलिदा बीस विराजंति भूदीहि ॥१३॥ । इंद-पमाणं समत्तं ॥५।। अर्थ :-भवनवासियोंके दसों कुलोंमें नियमसे पृथक-पृथक् दो-दो इन्द्र होते हैं, वे सब मिलकर बीस हैं, जो अनेक विभूतियोंसे शोभायमान हैं ।।१३।। ॥ इन्द्रोंका प्रमाण समाप्त हुआ ।।५।। भवनबासी-इन्द्रोंके नाम पढमो हु चमर-णामो इंदो वइरोयणो ति बिदियो य । भूदाणंदो धरणाणंदो 'वेण य वेणुधारी य ॥१४॥ पुण्ण-वसिद-जलप्पह-जलकता तह य घोस-महघोसा । हरिसेणो हरिकतो अमिदादी अभिववाहग्गिसिही ॥१५॥ १. ब. क. दो हो। २. ६. ब. क. ज. ठ. मेलिदा। ३ द. भूदोही। ४. द. वेणु । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १६-१९ ] तदिश्रो महाहियारो अग्गीवाहण-रणामो वेलंब-पभंजणाभिहाणा य 1 एवं सुरपहुविसु कुलेसु दो-दो कमेरण देविदा ।। १६ ।। || इंदाणं - णामारि समत्तारिण || ६ || अर्थ :- प्रथम चमर और द्वितीय वैरोचन नामक इन्द्र भूतानन्द और धरणानन्द; बेणु-वेणुधारी; पूर्ण वशिष्ठ; जलप्रभ-जलकान्त, घोष -महाघोष, हरिषेण हरिकान्त, श्रमितगतिअमितवाहन, अग्निशिखी अग्निवाहन तथा वेलम्ब और प्रभंजन नामक ये दो-दो इन्द्र क्रमश: असुरकुमारादि निकायों में होते हैं ।। १४- १६ ।। 11 इन्द्रोंके नामोंका कथन समाप्त हुआ || ६॥ दक्षिणेन्द्रों और उत्तरेन्द्रोंका विभाग after- इंवा मरो भूदाणंदो य वेणु-पुण्णा य । जलपह-घोसा हरिसेणामिदगदी अग्गिसिहि-वेलंबा ||१७|| [ २६६ 'वइरोप्रणो य धरणाणंदो तह 'बेणुधारी वसिट्ठा । जलकंत- महाघोसा हरिकंतो श्रमिद- श्रग्गिवाहणया ||१८|| तह य पहंजण - णामो उत्तर-इंदा हवंति वह एवे । प्रणिमादि-गुणेहि जुदा मणि- कुंडल-मंडिय- कबोला ॥१६॥ ॥ दक्खि उत्तर इंदा गदा ||७|| अर्थ : – चमर, भूतानन्द, वेणु, पूर्ण, जलप्रभ, घोष, हरिषेण श्रमितगति, श्रग्निशिखी और लम्ब ये दस दक्षिरण इन्द्र तथा वैरोचन, धरणानन्द वेणुधारी, वशिष्ठ, जलकान्त, महाघोष, हरिकान्त, श्रमितवाहन, अग्निवाहन और प्रभंजन नामक ये दस उत्तर इन्द्र हैं। ये सभी इन्द्र प्रणमादिक ऋद्धियोंसे युक्त और मणिमय कुण्डलोंसे अलंकृत कपोलोंको धारण करने वाले हैं ।। १७- १६ ।। ।। दक्षिण-उत्तर इन्द्रोंका वर्णन समाप्त हुआ ||७|| १. ब. वइरो प्रो २. द. ब. के. ज. ठ. दार | ३. द. मणिमादिगुणे जुदा, ब. क. ज. ठ. मादिगुणे जुत्ता | Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २०-२१ भवन-संख्या चउतीसं' चउदालं अत्तोसं हवंति लक्खाणि । चालीसं छट्ठाणे तत्तो पण्णास-लक्खाणि ॥२०॥ तीसं चालं चउतीस छस्सु ठाणेसु होंति छत्तीसं । छत्तालं चरिमम्मि य इदाएं भवरण-लक्खाणि ॥२१॥ ४ ८ : । ४० ल। ४० ल । ४० ल। ४० ल ४० ल । ५० ल । ३० ल । ४० ल । ३४ ल । ३६ ल । ३६ ल । ३६ ल ३६ ल । ३६ ल । ३६ ल । ४६ ल। अर्थ :---चौंतीस ला०, चवालीस ला०, अड़तीस ला०, छह स्थानोंमें चालीस लाख, इसके आगे पचास लाख, तीस ला०, चालीस ला०, चौंतीस लाख, छह स्थानोंमें छत्तीस लाख और अन्तमें छयालीस लाख क्रमश : दक्षिणेन्द्र और उत्तरेन्द्रोंके भवनोंकी संख्याका प्रमाण है ।।२०-२१।। [ तालिका अगले पृष्ठ पर देखिये ] १.द.क. ज. ठ. चीत्तीसं। २.द.ब. क.ज. 6. छसू बिठाए । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २१ ] तदिनो महाहियारो [ २७१ भवनवासी देवोंके कुल, चिह्न, भवन सं०, इन्द्र एवं उनकी भवन सं० का विवरण कुल नाम भवन-संख्या दक्षिणेन्द्र | उत्तरेन्द्र भवन-सं० क्र. सं. १. मर ३४ लाख असुरकुमार चूडामणि ६४ लाख पक्षिणेन्द्र उत्तरेन्द्र २. वैरोचन ३० लाख ४४ लाख नागकुमार ४० लाख १. भूतानन्द २. धरणानन्द । १. वेणु २. वेणुधारी १ पूर्ण । ३८ लाख सुपर्णकुमार 14रा ३४ लाख ४० लाख द्वीपकुमार | हाथी | ७६ , २. वशिष्ठ ३६ लाख १. जलप्रभ ४० लाख | ५ | उदधिकुमार | मगर | ७६ ॥ २. जलकान्त ३६ लाख १. घोष ४० लाख | स्तनितकुमार | वर्धमान| ७६ , ३६ लाख ४० लाख ३६ लाख [७ । विद्युत्कुमार । बन्न । ७६ , २. महाघोष १. हरिषेण २. हरिकान्त १. अमितगति २. अमितवाहन १. अग्निशिखी । २. अग्निवाहन ४० लाख दिक्कुमार | सिंह | ७६ ।। ३६ लाख ४० लाख | | अग्निकुमार | कलश | ७६ , ३६ लाख १. वेलम्ब ५० लाख १०। वायुकुमार | तुरग | ६६ लाख २. प्रभंजन ४६ लाख Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ ] तिलोय पण्णत्ती निवास स्थानोंके भेद एवं स्वरूप सुराण होदि तिविहा गं । भरणा शनण-पुराण रयण पहाए भवणा बीब-समुद्दाण उबरि भवणपुरा ||२२|| दह- सेल - कुमादी रम्माणं उवरि होंति श्रावासा जागादीण केसि तिय- खिलया भवामेवकमसुराणं ॥२३॥ [ गाथा : २२-२४ || भवरण - वण्णरणा समता ||८|| अर्थ :- भवनवासी देवोंके निवास स्थान भवन, भवनपुर और प्रावासके भेदसे तीन प्रकार के होते हैं । इनमेंसे रत्नप्रभा पृथिवीमें भवन, द्वीप समुद्रोंके ऊपर भवनपुर एवं रमणीय तालाब, पर्वत तथा वृक्षादिकके ऊपर आवास हैं । नागकुमारादिकोंमेंसे किन्हीं के भवन, भवनपुर एवं श्रावास - रूप तीनों निवास हैं परन्तु असुरकुमारोंके केवल एक भवनरूप ही निवास स्थान होते हैं ।।२२-२३ ।। 11 का वर्णन समाप्त हुआ ||८|| पद्धिक, महद्धक र मध्यम ऋद्धिधारक देवोंके भवनों के स्थान प्रष्प-महद्धिय-मज्झिम-भावण देवाण होंति भवणाणि । दुग- बादाल- सहस्सा लक्खमधोधो खिदीए गंतूणं ॥ २४ ॥ । २००० | ४२००० | १००००० । || अप्पमहद्धिय-मज्झिम भावण देवाण रिणवास-खेत्तं समत्तं ॥९॥ अर्थ : अपद्धिक, महद्धिक एवं मध्यम ऋद्धिके धारक भवनवासी देवोंके भवन क्रमशः चित्रा पृथिवीके नीचे-नीचे दो हजार, बयालीस हजार और एक लाख योजन- पर्यन्त जाकर हैं ||२४|| विशेषार्थ :- चित्रा पृथिवी से २००० योजन नीचे जाकर अल्पऋद्धि धारक देवोंके ४२००० योजन नीचे जाकर महाऋद्धि धारक देवोंके और १००००० योजन नीचे जाकर मध्यम ऋद्धि धारक भवनवासी देवोंके भवन हैं । इसप्रकार प्रपद्धिक, महर्दिक एवं मध्यम ऋद्धिके धारक भवनवासी देवोंका निवास क्षेत्र समाप्त हुआ ।। 8 ।। १. द. भुवरण । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदियो महाहियारो भवनोंका विस्तार आदि एवं उनमें निवास करने वाले देवोंका प्रमाणसमचउरस्सा भवणा वज्जमया-दार वज्जिया सव्वे । बहलत्त तिसर्याणि संखासंखेज्ज-जोयणा वासे ॥२५॥ संखेज्ज-रु व भवणेसु भवण - देवा वसंति संखेज्जा । संखातीदा वासे प्रच्छंती सुरा असंखेज्जा ॥ २६ ॥ गाया : २५-२६ ] भवरण- सरूवं समत्ता ॥१०॥ अर्थ :- भवनवासी देवोंके ये सब भवन समचतुष्कोण और वज्रमय द्वारोंसे शोभायमान हैं। इनकी ऊँचाई तीनसो योजन एवं विस्तार संख्यात और असंख्यात योजन प्रमाण है । इनमेंसे संख्यात योजन विस्तार वाले भवनों में संख्यात देव रहते हैं तथा श्रसंख्यात योजन विस्तार वाले भवनों में प्रसंख्यात भवनवासी देव रहते हैं ।। २५-२६।। भवनों के विस्तारका कथन समाप्त हुआ ।।१०।। भवन - वेदियों का स्थान, स्वरूप तथा उत्सेध श्रादि तेसु चसु दिसासु जिरा-विट्ट - प्रमाण- जोयणे गंता । मज्झमि दिव्य वेदी पुह पुह बेटु दि एक्केक्का ॥२७॥ [ २७३ अर्थ :- जिनेन्द्र भगवान् से उपदिष्ट उन भवनोंकी चारों दिशाओं में योजन प्रमाण जाते हुए एक-एक दिव्य वेदी ( कोट ) पृथक्-पृथक् उन भवनोंको मध्यमें वेष्टित करती है ||२७|| बे कोसा उच्छेहा बेदीरणमकट्टिमाण सव्वाणं । पंच- सयाणि दंडा वासो वर - रयण - छण्णापं ॥ २८ ॥ श्रथं :- उत्तमोत्तम रत्नोंसे व्याप्त ( उन ) सब प्रकृत्रिम वेदियों की ऊँचाई दो कोस और विस्तार पाँचौ धनुष प्रमाण होता है ||२८|| गोउर-दार जुवाओ उवरिम्मि जिनिंद-गेह-सहिदाश्रो । भवण- सुर- रक्खिदाश्रो वेदोश्रो तासु सोहति ॥ २६ ॥ १. द. व. क. ज. ठ. सम्मत्ता । २. द. ब. क. ज. ल. भवरासुर-तविनदायो वेदी तेसु । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ ] तिलोयपती गाथा : ३०-३२ अर्थ :- गोपुरद्वारोंसे युक्त और उपरिम भाग में जिनमन्दिरोंसे सहित वे वेदियाँ भवनवासी देवोंसे रक्षित होती हुई सुशोभित होती हैं ||२९|| दियो बाह्य स्थित चनोंका निर्देश तब्बाहिरे सोयं सत्तच्छद - चंपयाय चूदवरणा । पुत्रादिसु णाणातरु-चेत्ता चिट्ठति चेत्त-तरू सहिया ||३०|| अर्थ : – वेदियोंके बाह्यभागमें चैत्यवृक्षोंसे सहित और अपने नाना वृक्षोंसे युक्त, (क्रमश:) पूर्वादि दिशाओं में पवित्र अशोक, सप्तच्छद, चम्पक और आम्रवन स्थित हैं ||३०|| चैत्यवृक्षों का वर्णन चेत्तद्द म-थल-रुदं दोणि सया जोयणाणि पण्णासा । चत्तारो मज्झम्मि य अंते को सद्धमुच्छेहो ॥३१॥ * २५० १ अर्थ :- चैत्यवृक्षोंके स्थलका विस्तार दोसो पचास योजन तथा ऊँचाई मध्य में चार योजन और अन्तमें अर्धकोस प्रमाण है ||३१|| छद्दो- सू-मुह-रुंदा चउ-जोयण- उच्छिवाणि पीठाणि । पीठोवरि बहुमज्भे रम्मा चेति चेत-दुमा ॥३२॥ जो ६ । २ । ४ । १. उपरोक्त चित्र प्रक्षेप रूप है एवं उसमें दिया हुआ प्रमाण स्केल रूप नहीं है । २. द. ब. क. ज. ठ. रुंदो । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३३-३६ ] तदियो महाहियारो [ २७५ प्रर्ष:-पीठोंकी भूमिका विस्तार छह योजन, मुखका विस्तार दो योजन और ऊँचाई चार योजन है, इन पीठों के ऊपर बहुमध्यभागमें रमणीय चैत्यवृक्ष स्थित हैं ।॥३२॥ पत्तेक रुक्खाणं 'प्रवगाढं कोसमेक्कमुट्ठि । जोधग खंधुच्छही साहा-दोहत्तणं च चत्तारि ॥३३॥ को १ । जो १।४।। अर्थ :-प्रत्येक वृक्षका अवगाढ़ एक कोस, स्कन्धका उत्सेध एक योजन और शाखाओंकी लम्बाई चार योजन प्रमाण कही गयी है ।॥३३॥ विविह-वर-रयण-साहा विचित्त-कुसुमोवसोहिदा सच्चे । मरगयमय-वर-पत्ता दिव्य-तरू ते विरायंति ॥३४॥ अर्थ :-वे सब दिव्य वृक्ष विविध प्रकारके उत्तम रत्नोंको शाखामोंसे युक्त, विचित्र पुष्पोंसे अलंकृत और मरकत मणिमय उत्तम पत्रोंसे व्याप्त होते हुए अतिशय शोभाको प्राप्त हैं ॥३४॥ विविहंकुर चेचइया विविह-फला विविह-रयण-परिणामा । छत्तादी छत्त-जुदा घंटा-जालादि-रमणिज्जा ॥३५॥ प्रावि-णिहणेण हीणा पुढविमया सन्न-भवण-चेत्त-दुमा । जीवपत्ति"-लयाणं होति णिमित्तारिण ते णियमा' ॥३६॥ अर्थ : विविध प्रकारके अंकुरोंसे मण्डित अनेक प्रकारके फलोंसे युक्त, नाना प्रकारके रत्नोंसे निर्मित, छत्रके ऊपर छत्रसे संयुक्त, घण्टा-जालादिसे रमणीय और आदि-अन्तसे रहित, वे प्रथिवीके परिणाम स्वरूप सब भवनों के चैत्यवृक्ष नियमसे जीवोंकी उत्पत्ति और विनाशके निमित्त होते हैं ॥३५-३६॥ विशेषार्थ :---यहाँ चत्यवृक्षोंको 'नियमसे जीवोंकी उत्पत्ति और विनाशका कारण कहा गया है !' उसका अर्थ यह प्रतीत होता है कि-चैत्यवृक्ष अनादि-निधन हैं, अतः कभी उनका उत्पत्ति १. ब, क. प्रवगाढ। २. न. को १ । जो ४। ३. द. ज. ठ. परिमाणा। ४. ६. ब. क. ज. ठ. जूदा । ५ द.व. ठ.जीहपति प्रायाणं, क. ज. जीऊरपति पापाणं। ६.द.ब.णिमायामा । Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ ] तिलोयपणाती [ गाथा : ३७-४० या विनाश नहीं होता है, किन्तु चैत्यवृक्षोंके पृथिवीकायिक जीवोंका पृथिवीकायिकपना अनादि-निधन नहीं है । अर्थात् उन वृक्षोंमें पृथिवीकायिक जीव स्वयं जन्म लेते तथा आयुके अनुसार मरते रहते हैं, इसीलिए चैत्यवृक्षोंको जीवोंकी उत्पत्ति और विनाशका कारण कहा गया है। यही विवरण चतुर्थअधिकारकी गाथा १६०८ और २१५६ में तथा पांचवें अधिकार की गाथा २६ में पायगा। चैत्यवृक्षोंके मूलमें-स्थित जिन प्रतिमाएँ चेत्त-छम मूलेसु पत्तेक्कं घउ-दिसासु पंचेव । चेट्ठति जिणपडिमा पलियंक-ठिया सुरेहि महणिज्जा ॥३७।। चउ-तोरणाहिरामा अनु-महा-पंगतेहि सोहिल्ला । वर-रयण-रिपम्मिदेहिं मारपत्थंभेहि अइरम्मा ॥३॥ ॥ वेदी-वण्णणा गदा ।।११।। अर्थ : चैत्यवृक्षों के मूल में चारों दिशाओंमेंसे प्रत्येक दिशामें पद्मासनसे स्थित और देवोंसे पुजनीय पाँच-पाँच जिनप्रतिमायें विराजमान हैं, जो चार तोरणोंसे रमणीय, अष्ट महामंगल द्रव्योंसे सुशोभित और उत्तमोत्तम रत्नोंसे निर्मित मानस्तम्भोंसे अतिशय शोभायमान हैं ॥३७-३८।। ।। इसप्रकार वेदियोंका वर्णन समाप्त हुआ ॥११॥ वेदियोंके मध्यमें कूटोंका निरूपण वेवीणं बहुमज्झे जोयण-सयमुचिछदा महाकूडा । वेत्तासण-संठाणा रयणमया होंति सन्वदा ॥३६॥ अर्थ :-वेदियोंके बहुगध्य भागमें सर्वत्र एकसौ योजन ऊँचे, वेत्रासनके प्राकार और रत्नमय महाकूट स्थित हैं ॥३६।। ताणं मले उरि समतदो दिव-वेदोनो । पुबिल्ल-वैदियाणं सारिच्छे वणणं सन्वं ॥४०॥ अर्थ :-उन कूटोंके मूलभागमें और ऊपर चारों ओर दिव्य वेदियाँ हैं । इन वेदियोंका सम्पूर्ण वर्णन पूर्वोल्लिखित बेदियों जैसा ही समझना चाहिए ।।४।। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २७७ गाथा : ४१-४४ ] तदिनो महाहियारो वेदीणभंतरए वण-संढा वर-विचित्त-तरु-णियरा । पुक्खरिणोहि समग्गा तप्परदो दिव-वेदीनो' ॥४१॥ ।। कूड़ा गदा ॥१२॥ प्रर्ष :--वेदियोंके भीतर उत्तम एवं विविध प्रकारके बृक्ष-समुह और वापिकानों से परिपूर्ण वन-समूह हैं तथा इनके आगे दिव्य वेदियाँ हैं ॥४१॥ ॥ इसप्रकार कूटोंका वर्णन समाप्त हुअा ।।१२।। कूटोंके ऊपर स्थित-जिन-भवनोंका निरूपरग फूडोवरि पक्कं जिणवर-भवणं 'हवेदि एक्केक्कं । वर-रयण-कंचणमयं विचित्त-विष्णास'-रमणिज्जं ॥४२॥ अर्थ :- प्रत्येक कुटके ऊपर उत्तम रत्नों एवं स्वर्णसे निर्मित तथा विचित्र विन्याससे रमणीय एक-एक जिनभवन है ॥४२॥ चउ-गोउरा ति-साला वीहि पडि माणथंभ-णव-थहा । घण"-धय-चेत्त-खिदीयो सन्वेसु जिण-णिकेदेसु ॥४३॥ अर्थ :- सब जिनालयों में चार-चार गोपुरोंसे संयुक्त तीन कोट, प्रत्येक वीथी में एक-एक मानस्तम्भ एवं नौ स्तूप तथा ( कोटोंके अन्तरालमें क्रमश: ) वन, ध्वज और चैत्य-भूमियाँ हैं ॥४३।। गंदादिलो ति-मेहल ति-पीढ-पुष्याणि धम्म-विभवाणि । चउ-वण-मझेसु ठिदा चेत्त-तरू तेसु सोहंति ॥४४॥ प्रयं:-उन जिनालयोंमें चारों वनोंके मध्यमें स्थित तीन मेखलाओंसे युक्त नन्दादिक बापिकायें एवं तीन पीठोंसे संयुक्त धर्म-विभव तथा चैत्यवृक्ष शोभायमान होते हैं ।।४४।। १. द. दिवदेवीओ । २. व. हुवेदि । ३. द. व. क, विणणाणरमरिणज। ४. द. ब. क. ज. ठ. ५. ब. क. ज. ठ. रावधय । परि। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ] तिलोय पण्णत्ती महाध्वजाओं एवं लघु ध्वजाओं की संख्या हरि-रि-वसहखगाहिव' - सिहि ससि रवि हंस पउम चक्क धया । एक्केकम - जुद-सयमेवकेवकं अट्ठ-सय खुल्ला ।।४५।। [ गाथा : ४५-४७ अर्थ :- ( ध्वज भूमिमें ) सिंह, गज, वृषभ, गरुड़, मयूर, चन्द्र, सूर्य, हंस, पद्म और चक्र, इन चिह्न अंकित प्रत्येक चिह्नवाली एकसौ आठ महाध्वजाएँ और एक-एक महाध्वजाके श्राश्रित एकसी श्राट क्षुद्र ( छोटी ) ध्वजाएँ होती हैं ।। ४५ ।। विशेषार्थ :- सिंह प्रादि १० चिह्न हैं प्रतः १०x१०८ - १०८० महाध्वजाएँ । १०८०x१०८ = ११६६४० छोटी ध्वजाएँ हैं । जिनालय में बन रहा का वंदणभिसेय -णच्चण-संगी दालोय-मंड वेहि जुदा । कीण - गुसार- गिहि विसाल वर पट्टसालेह ॥४६॥ अर्थ :- ( उपर्युक्त जिनालय ) वन्दन, अभिषेक, नर्तन, संगीत और आलोक (प्रेक्षण) मण्डप तथा क्रीडागृह, गुणनगृह ( स्वाध्यायशाला ) एवं विशाल तथा उत्तम पट्ट (चित्र) शालाओंसे सहित हैं ||४६ || जिनमन्दिरों में श्रुत आदि देवियोंकी एवं यक्षोंकी मूर्तियोंका निरूपण सिरिदेवी- सुददेवी-सव्वाण सणक्कुमार- जक्खारणं । वाणि श्रट्ट - मंगल देवच्छंदभिम जिण णिकेदे ||४७ || अर्थ :- जिनमन्दिरों में देवच्छन्दके भीतर श्रीदेवी, श्रुतदेवी तथा सर्वाह और सनत्कुमार यक्षोंकी मूर्तियाँ एवं अष्ट मंगलद्रव्य होते हैं ॥४७॥ १. द. व. क. ज ठ खगावद्द | २. द. चंदरण भिसेय 1 ३. द. देवशच्चारिण, ब. देवच्चारिण । ज. उ. देव देवच्चारिण, क. मेव रिंगच्चारिए । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ४८-५२ ] तदियो महाहियारो अष्टमंगल द्रव्य भिंगार - कलस दप्पण - घय-चामर छत्त- वियण-सुपइट्ठा । इय श्रटु-मंगल वर्क प्रतिपर्ण ॥१४८॥ अर्थ :- भारी, कलश, दर्पण, ध्वजा, चामर, छत्र, व्यजन और सुप्रतिष्ठ ये आठ मंगल द्रव्य हैं, जो प्रत्येक एकसौ आठ कहे गये हैं ॥४८॥ जिनालयोंको शोभाका वर्णन विप्पंत- रयण-दीवा जिण भवणा पंच-वण्ण रयस्प-मया । 'गोसीस - मलय चंदण - कालागरु-धूव-गंधड्ढा १४६॥ भंभा-मुइंग-मद्दल- जयघंटा - कंसताल - तिबलीगं । दुहि पहावीणं सद्दहिं पिच्च हलबोला ॥। ५० ।। अर्थ :-- देदीप्यमान रत्नदीपकोंसे युक्त वे जिनभवन पाँच वर्णके रत्नोंसे निर्मित गोशीर्ष, मलयचन्दन, कालागरु और धूपकी गंधसे व्याप्त तथा भम्भा, मृदंग, मल, जयघंटा, कांस्यताल, तिवली, दुन्दुभि एवं पटहादिकके शब्दोंसे नित्य ही शब्दायमान रहते हैं ।।४६ ५०11 नागयक्ष युगलोंसे युक्त जिनप्रतिमाएँ सिंहासनादि सहिदा चामर करणागजक्खमिहुण-जुदा । जाणाविह रामया जिण-परिमा ।।५१॥ तेसु भवणे [ २७९ अर्थ :-- उन भवनों में सिहासनादिकसे सहित, हाथमें चैवर लिए हुए नागयक्ष युगलसे युक्त तथा नाना प्रकारके रत्नोंसे निर्मित जिनप्रतिमायें हैं ||११|| जिनभवनों की संख्या बाहतरि लक्खाfरंग कोडीओ सत्त जिण णिगेण । प्रादि- हिगुज्भिाणि भवण- समाई विराजति ॥५२॥ ७७२००००० । १. ब. सियं । २. द. ब. क. ज. ठ. गोसीर । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० । तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ५३-५६ अर्थ :-आदि-अन्तसे रहित (अनादिनिधन ) वे जिनभवन, भवनवासी देवोंके भवनोंको संख्या प्रमाण सात करोड, बहत्तर लाख, सुशोभित होते हैं ॥५२॥ ७७२००००० जिनभवन हैं। भवनबासी-देव, जिनेन्द्रको ही पूजते हैं सम्मत्त-रयण-जुत्ता णिन्भर-भत्तीए णिच्चमच्चंति । कम्मक्खवण-णिमित्तं देवा जिणणाह-पडिमानो ॥५३॥ कुलदेवा इदि मण्णिय अण्णेहि बोहिया बहुपयारं । मिच्छाइट्ठी णिच्चं पूर्जति जिणिद-पडिमानो ॥५४।। ॥ जिणभवणा गदा ।।१३।। अर्थ :-सम्यग्दर्शनरूपी रत्नसे युक्त देव तो कर्मक्षयके निमित्त नित्य ही अत्यधिक भक्तिसे जिनेन्द्र-प्रतिमानोंकी पूजा करते हैं, किन्तु सम्यग्दृष्टि देवोंसे सम्बोधित किये गये मिथ्यादृष्टि देव भी कुलदेवता मानकर जिनेन्द्र-प्रतिमाओंकी नित्य ही नाना प्रकारसे पूजा करते हैं ! ५३-५४|| ॥ जिनभवनोंका वर्णन समाप्त हुमा ।।१३।। कूटोंके चारों पोर स्थित भवनवासी-देवोंके प्रासादोंका निरूपण कुडाण 'समंतादो पासादा होंति भवण-देवाणं । 'णाणाविह-विण्णासा वर-कंचण -रयण-णियरमया ॥५५॥ अर्थ :-कूटोंके चारों ओर नानाप्रकारकी रचनापोंसे युक्त और उत्तम स्वर्ण एवं रत्नसमूहसे निर्मित भवनवासी देवोंके प्रासाद हैं ॥५५।। सत्तट्ठ-णव-बसादिय-विचित्त-भूमीहि भूसिवा सन्थे । लंबंत-रयण-माला विप्पंत-मणिप्पवीव-कंठिल्ला ॥५६।। १. द. ब, क. ज. समत्तादो। २. द. ब. पासायो। ३, द, ब. क. ज. ठ. पाणा विविविणासं । ४. ब. कंचणरिणयर । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ५७-६१ ] तदिनो महाहियारो [ २८१ जम्माभिसेय-भूसण-मेहुण-अोलग्ग'-मंत सालाहि । विविधाहिं' रमणिज्जा मणि-तोरण-सुदर-दुवारा ॥७॥ *सामण्ण-गब्भ-कदली-चित्तासण-णालयावि-गिह-जुत्ता। कंचण-पायार-जुदा विसाल-बलही विराजमाणा य ॥५॥ धुच्यत-य-बडाया पोक्खरणी-वावि-कव-वण-सहिवा' । धूव-घडेहि सुजुट्ठा णाणावर-मत्त-धारणोपेदा ॥५६।। मणहर-जाल-कवाडा जाणाविह-सालभंजिका-बहुला । आदि-णिहणेण होणा कि बहुणा ते णिरुवमा णेया ॥६०॥ म :-सब भान नारकर, नौ, दमा इत्याहिक विचित्र भूमियोंसे विभूषित; लम्बायमान रत्नमालानोंसे सहित; चमकते हुए मणिमय दीपकोंसे सुशोभित ; जन्मशाला, अभिषेकशाला, भूषणशाला, मैथुनशाला, पोलगशाला ( परिचर्यागृह ) और मंत्रशाला, इन विविध प्रकारकी शालाओंसे रमणीक; मणिमय तोरणोंसे सुन्दर द्वारों वाले ; सामान्यगृह, गर्भगृह, कदलीगृह, चित्रगृह, प्रासनगृह, नादगृह और लतागृह इत्यादि गृह-विशेषोंसे सहित; स्वर्णमय प्राकारसे संयुक्त विशाल छज्जोंसे विराजमान; फहराती हुई ध्वजा-पताकानोंसे सहित; पुष्करिणी, वापी, कूप और वनोंसे संयुक्त; धूपघटोंसे युक्त अनेक उत्तम मत्तवारणों (छज्जों) से संयुक्त ; मनोहर गवाक्ष और कपाटोंसे सुशोभित; नानाप्रकारको पुत्तलिकाओं सहित और आदि-अन्तसे हीन ( अनादिनिधन ) हैं । बहुत कहनेसे क्या ? ये सब प्रासाद उपमासे रहित ( अनुपम ) हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥५६-६०।। चर-पासाणि तेसु विचित्त-रूवाणि आसपाणि च । वर-रयण-विरइदारिण सयणाणि हवंति दिन्वाणि ॥६१।। ॥पासादा गदा ।।१४॥ अर्थ :-उन भवनोंके चारों पार्श्वभागोंमें विचित्र रूपवाले आसन और उत्तम रत्नोंसे रचित दिव्य शय्यायें स्थित हैं ॥६१।। ।। प्रासादोंका कथन समाप्त हुमा ।।१४।। ३. द. ब.क, ज. ठ. विदिलाहि । १. द. प्रोलंग, ब. क. उलग। २. द. ब. क. ज. 3. सालाइ। ४. ब. क. सामेण । ५. ब. कूड। ६ द. ब. क्र. ज. 3. संथई । Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ६२-६८ प्रत्येक इन्द्रके परिवार-देव-देवियोंका निरूपण एक्केक्कस्सि इंदे परिवार-सुरा हवंति 'दस भेदा । पडिइंदा तेत्तीसत्तिदसा सामाणिया-दिसाइंवा ।।६२॥ तणुरक्खा तिप्परिसा सत्ताणीया पइण्णभियोगा। विधिलिया हमि समतोमगिया इंट-पारिवारा ।।६३॥ अर्थ :-प्रतीन्द्र, वायस्त्रिश, सामानिक, दिशाइन्द्र (लोकपाल), तनुरक्षक, तीन पारिषद, सात-अनीक, प्रकीर्णक, प्राभियोग्य और किल्विषिक, ये दस, प्रत्येक इन्द्र के परिवार देव होते हैं। इसप्रकार क्रमशः इन्द्रके परिवार देव कहे गये हैं ॥६२-६३।।। इंदा राय-सरिच्छा जुवराय-समा हवंति पडिइंवा । पुत्त-णिहा तेत्तीसत्तिवसा सामारिगया कलत्तं वा ॥६५॥ अर्थ :-इन्द्र राजा सदृश, प्रतीन्द्र युवराज सदृश, त्रास्त्रिश देव पुत्र सदृश और सामानिक देव कलत्र तुल्य होते हैं ।।६५।। चत्तारि लोयपाला 'सारिच्छा होंति तंतवालाएं । तणुरक्खारण समाणा सरीर-रक्खा सुरा सन्चे ॥६६॥ प्रर्य :-चारों लोकपाल तन्त्रपालोंके समान और सब तनुरक्षक देव राजाके अंग-रक्षकके । समान होते हैं ॥६६॥ बाहिर-मज्झन्भंतर तंडय-सरिसा हवंति तिप्परिसा। सेणोवमा अरणीया पदण्णया पुरजण-सरिच्छा ॥६७॥ प्रर्प :-राजाकी वाह्य, मध्य और अभ्यन्तर समितिके सदृश देवोंमें भी तीन प्रकारको परिषद् होती है । अनीक देव सेना तुल्य और प्रकीर्णक देव पुरजन सदृश होते हैं ॥६७! परिवार-समाणा ते अभियोग-सुरा हवंति" किदिबसिया। पाणीयमाणधारी' देवाणिवस्स गावव्यं ॥६ ॥ - १. क. दह । २, द. ब. क. ज. ठ. सावंता। ३ द. ससरीरं, व. सरीरं बा। ४. द. हुवंति । ५. द. हुवंति । ६. ब. माणाधीरो । क. ज. स. माणुधारी। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ६९-७३ ] तदिनो महाहियारो [ २८३ अर्थ :-वे आभियोग्य जाति के देव दास सदृश तथा किल्बिषिक देव चण्डालको उपमाको धारण करने वाले हैं । इसप्रकार देवोंके इन्द्रका परिवार जानना चाहिए ॥६॥ इंद-समा पडिइंदा तेत्तीस-सुरा हवंति तेत्तीसं । चमरादी-इंदाणं पुह पुह सामाणिया इमे देवा ॥६६॥ अर्थ :-प्रतीन्द्र, इन्द्र प्रमाण और त्रास्त्रिश देव तेतीस होते हैं। चमर-वैरोचनादि इन्द्रोंके सामानिक देवोंका प्रमाण पृथक्-पृथक् इसप्रकार है ॥६६।। चउसट्ठि सहस्साणि सट्ठी छप्पण्ण चमर-तिदयम्मि । पण्णास सहस्साणि पत्तेक्कं होति सेसेसु ॥७०॥ ६४००० । ६०००० । ५६००० । सेसे १७ । ५०००० अर्थ :-चमरादिक तीन इन्द्रोंके सामानिक देव क्रमशः चौंसठ हजार, साठ हजार और छप्पन हजार होते हैं, इसके प्रागे शेष सत्तरह इन्द्रोंमेंसे प्रत्येकके पचास हजार प्रमाण सामानिक देव होते हैं ।।७।। पत्तेक्क-इंदयाणं सोमो यम-वरुण-धरणद-गामा य । पुवादि-लोयपाला 'हवंति चत्तारि चत्तारि ॥७१॥ मर्थ :-प्रत्येक इन्द्र के पूर्वादिक दिशानोंके ( रक्षक ) क्रमश: सोम, यम, वरुण एवं धनद ( कुधेर ) नामक चार-चार लोकपाल होते हैं ।।७१।। छप्पण्ण-सहस्साहिय-बे-लक्खा होति चमर-तणुरक्खा । चालीस-सहस्साहिय-लक्ख-दुगं बिदिय-इंदम्मि ॥७२॥ २५६००० ! २४०००० । चउवीस-सहस्साहिय-लक्ख-बुगं तदिय-इंव-तणुरक्खा । सेसेसुपत्तेक्कं णादच्या दोषिण लक्खाणि ॥७३॥ २२४००० । सेसे १७ । २००००० । १. द. हुवंति। २. ब तदियतरण । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ ] तिलोयपम्पत्ती [ गाथा : ७४-७६ अर्थ :--चमरेन्द्र के तनुरक्षक देव दो लाख, छप्पन हजार और द्वितीय (वैरोचन ) इन्द्रके दो लाख, चालीस हजार होते हैं । तृतीय ( भूतानन्द ) इन्द्रके तनुरक्षक दो लाख, चौबीस हजार तथा शेषमेंसे प्रत्येकके दो-दो लाख प्रमाण तनुरक्षक देव जानने चाहिए ।।७२-७३।। प्रवीसं छव्वीसं छच्च सहस्साणि चमर-तिदयम्मि । आदिम-परिसाए' सुरा सेसे पसेक्क-चउ-सहस्साणि ॥७॥ २८००० । २६००० । ६००० । सेसे १७ । ४००० । प्रर्य :-चमरादिक तीन इन्द्रोंके आदिम पारिषद देव क्रमशः अट्ठाईस हजार, छब्बीस हजार और छह हजार प्रमाण तथा शेष . इन्द्रोंमेंसे प्रत्येकके चार-चार हजार प्रमाण होते हैं ।।७४।। तीसं अट्ठावीसं अट्ठ सहस्साणि चमर-तिदयम्मि । मज्झिम-परिसाए सुरा सेसेसु छस्सहस्साणि ॥७॥ ३०००० । २८००० । ८००० । सेसे १७ । ६००० । अर्थ :-चमरादिक तीन इन्द्रोंके मध्यम पारिषद देव श्रमशः तीस हजार, अट्ठाईस हजार और साठ हजार तथा शेष इन्द्रों से प्रत्येकके छह-छह हजार प्रमाण होते हैं ।।७।। बत्तीसं तीसं दस होति सहस्साणि चमर-तिदयम्मि । बाहिर परिसाए सुरा अट्ट सहस्साणि सेसेसु ॥७६।। ३२००० । ३०००० । १०.००० । सेसे १७ । ८००० । अर्थ :-- चमरादिक तीन इन्द्रोंके क्रमशः बत्तीस हजार, तीस हजार और दस हजार तथा शेष इन्द्रों में से प्रत्येकके पाठ-पाठ हजार प्रमाण बाह्य पारिषद देव होते हैं ॥७६॥ [भवनवासी-इन्द्रोंके परिवार-देवोंकी संख्याकी तालिका अगले पृष्ठ पर देखिये] - -... १. क.ज. परिसारण । Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया : ७६ ] क्र० स० १ २ ३ ४ 契 ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ १.३ ૪ १५ १६ १७ १५ १६ २० इन्द्रोंके नाम चमर वैरोचन भूतानन्द धरणानन्द बेणु वेणुधारी पूर्ण बशिष्ट जलप्रभ जलकान्त घोष महाघोष हरिपेण हरिकान्त अमितगति अमितवाहन अग्निशिखी अग्निवाहन लम्ब प्रभंजन प्रतीन्द्र १ १ १ १ १ ? ३३ १ ३३ १ ३३ १ ३३ ३३ ३३ ३३ तदियो महाहियारो भवनवासी इन्द्रोंके परिवार देवोंकी संख्या १ १ त्राय स्त्रिश १ १ १ ३३. १ ३३ १ ३३ १ ३३ १ ३३ ३३ ३३ ३३ ३३ ३३ सामानिक देव तनुरक्षक ३३ ६४००० ४ | २५६००० | २८००० ३३. ६०००० ४ २४०००० १६००० ५६००० ४ २२४००० ६००० ५०००० ४ २००००० ४००० ५०००० ४ २००००० ४००० ५०००० ४ २००००० ४००० 21 11 23 18 つま " JB 23 Jt 13 17 11 लोकपाल 13 ४ ४ ४ મ ४ ४ ४ ४ * ४ ४ ४ ४ ४ 37 73 13 27 33 32 "} 27 " " " पारिषद आदि | मध्य 21 27 12 21 7 " 5 " " " 18 23 "1 37 12 ३०००० ३२००० २८००० ३०००० ८००० १०००० ६००० ६००० ६००० " If St J 23 ." " + " 11 גf 31 [ २८५. 21 बाह्य ५००० ८००० ८००० 21 " " " 33 " " " 13 " " 71 " 21 Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलीयपण्णत्ती [ गाथा : ७७-७६ अनीकदेवोंका वर्णन सत्ताणीया होंति हु पत्तेषक सत्त सत्त कक्ख-जुदा । पढमा ससमाण-समा तद्गुणा चरम-कक्खंतं ॥७७।। अर्थ:-सात अनीकोंमें से प्रत्येक अनीक सात-सात कक्षाओंसे युक्त होती हैं। उनमेंसे प्रथम कक्षाका प्रमाण अपने-अपने सामानिक देवोंके बराबर तथा इसके प्रागे अन्तिम कक्षातक उत्तरोत्तर प्रथम कक्षासे दूना-दूना प्रमाण होता गया है ।।७७।। विशेषार्थ :-एक एक इन्द्रके पास सात-सात अनीक ( सेना या फौज ) होती हैं। प्रत्येक अनीककी सात-सात कक्षाएं होती हैं । प्रथम कक्षामें अनीक देवोंका प्रमाण अपने अपने सामानिक देवोंकी संख्या सदृश, पश्चात् दूना-दूना होता जाता है । असुरम्मि महिस-तुरगा रह-करिणो' तह पदाति-गंधध्वो । णच्चणया एदाणं महत्तरा छम्महत्तरी एक्का ॥७॥ अर्थ :-असुरकुमारोंमें महिष, घोडा, रथ, हाथी, पादचारी, गन्धर्व और नर्तकी, ये सात अनीकें होती हैं । इनके छह महत्तर (प्रधान देव) और एक महत्तरी ( प्रधान देवी ) होती हैं ॥७८।। णावा गरड-गइंदा मयरुवा खग्गि-सोह-सिधिकस्सा । णागादीणं पढमाणीया बिदियान असुरं वा ।।७।। अर्थ :-नागकुमारादिकोंके क्रमश: नाव, गरुड, गजेन्द्र, मगर, ऊँट, गैंडा (खड्गी), सिंह, शिविका और अश्व, ये प्रथम अनीक होती हैं, शेष द्वितीयादि अनीकें असुरकुमारोंके ही सदृश होती हैं ॥७॥ विशेषार्थ :-दसों भवनवासी देवोंमें इसप्रकार अनीकें होती हैं१. असुरकुमार-महिष, घोड़ा, रथ, हाथी, पयादे, गन्धर्व और नर्तकी । २. नागकुमार-नाव, घोड़ा, रथ, हाथी, पयादे, गन्धर्व और नर्तको । ३. सुपर्णकुमार-गरुड, घोड़ा, रथ, हाथी, पयादे, गन्धर्व पोर नतंकी। १. ब. रहकरणो। २ द.ज. उ. स्नग्ग । Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदिश्रो महाहियारो ४. द्वीपकुमार - हाथी, घोड़ा, रथ, हाथी, पयादे, गन्धर्व और नर्तकी 1 ५. उदधिकुमार – मगर, घोड़ा, रथ, हाथी, पयादे, गन्धर्व श्रौर नर्तकी । ६. विद्यनुकुमार - ऊँट, घोड़ा, रथ, हाथी, पयादे, गन्धर्व और नर्तकी । ७. स्तनितकुमार - गंडा, घोड़ा, रथ, हाथी, पयादे, गन्धर्व और नर्तकी । ८. दिक्कुमार सिंह, घोड़ा, रथ, हाथी, पयादे, गन्ध और नर्तकी । ६. अग्निकुमार - शिविका, घोड़ा, रथ, हाथी, पयादे, गन्धर्व और नर्तकी । १०. वायुकुमार - अश्व, घोड़ा, रथ, हाथी, पयादे, गन्धवं और नर्तकी । गाथा : ८०-८१ ] गच्छ समे गुणयारे परोप्परं गुणिय रूत्र-परिहीणे' । एक्कोण-गुण-विहते गुणिवे वयणेण गुण-गणिवं ॥ ८० ॥ अर्थ :- गच्छके बराबर गुणकारको परस्पर गुणा करके प्राप्त गुणनफलमेंसे एक कम करके शेष में एक कम गुणकारका भाग देनेपर जो लब्ध श्रावे उसको मुखसे गुणा करनेपर गुरणसंकलित धनका प्रमाण भाता है ||८०|| [ २८७ विशेषार्थ : स्थानोंके प्रमाणको पद और प्रत्येक स्थानपर जितनेका गुणा किया जाता है उसे गुणकार कहते हैं । यहाँ पदका प्रमाण ७, गुणकार ( प्रत्येक कक्षाका प्रमाण दुगुना दुगुना है अतः गुणकारका प्रमाण ) दो और मुख ६४००० है । उदाहरण - पद बराबर गुणकारोंका परस्पर गुणा करनेपर (२४२x२x२४२४२४२) अर्थात् १२० फल प्राप्त हुआ, इसमेंसे १ घटाकर एक कम गुणकार ( २ – १ == १ ) का भाग देनेपर ( १२८ - ११२७÷१ ) = १६७ लब्ध प्राप्त हुआ । इसका मुखसे गुणा करनेपर (६४०००x१२७ ) अर्थात् ८१२८००० गुणसंकलित धन प्राप्त होता है । एक्कासी लक्खा प्रडवीस - सहस्स- संजुदा चमरे । होंति हु महिसासपीया पुह पुह तुरयादिया वि तम्मेत्ता ॥ ८१ ॥ ८१२५००० । १. ब. द. क. ज. ठ. परिहरणो । Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८] तिलोत्त [ गाथा : ८२-८५ अर्थ :- चमरेन्द्रके इक्यासी लाख, प्रट्ठाईस हजार महिष सेना तथा पृथक्-पृथक् हो होते है तुरगादिक भी तिट्ठाणे सुष्णाणि छष्णव- श्रउ छ्क्क पंच-अंक- कमे सत्ताणीया मिलिदा णादव्वा खमर-इ दहि ॥ ८२ ॥ ५६८९६००० । अर्थ :- तीन स्थानों में शून्य, छह, नौ, आठ, छह और पाँच अंक स्वरूप क्रमशः चमरेन्द्रकी सातों श्रनीकों का सम्मिलित प्रमाण जानना चाहिए ||२|| विशेषार्थ :- गाथा ८० के विशेषार्थ में प्राप्त हुए गुणसंकलित धनको ७ से गुणित करने पर ( ८१२८००० x ७ = ) पाँच करोड़, अड़सठ लाख, छ्यानबे हजार ( ४६८९६०००) सातों कोंका सम्मिलित धन प्राप्त हो जाता है । यह अमरेन्द्रको अनीकों का सम्मिलित धन है । छाहचरि लक्खाणि वीस-सहस्साणि होंति महिसाणं । वयामि इंदे पुह पुह तुरयादिणो वि तम्मेत्ता ॥ ८३ ॥ ७६२००००। अर्थः – वैरोचन इन्द्रके छिहत्तर लाख बीस हजार महिष और पृथक्-पृथक् तुरगादिक भी इतने ही हैं ||३|| चउ-ठाणेसु सुण्णा चउ तिय तिय पंच-अंक माणाए । वइरोपणस्स मिलिदा सत्ताणीया इमे होंति ॥ ८४ ॥ । ५३३४०००० अर्थ :- चार स्थानों में शून्य, चार, तीन तीन और पांच, इन अंकोंके क्रमशः मिलानेपर जो संख्या हो, इतने मात्र वैरोचन इन्द्रके मिलकर ये सात श्रनीकें होती है ॥ ८४ ॥ एक्कत्तरि लक्खाणि णावाम्रो होति बारस सहस्ता । भूदारणंबे पुह पुह 'तुरग - "पहूदीणि तम्मेा ॥ ८५ ॥ ७११२००० १ ब. उरग । Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ६६.८६ ] तदियो महाहियारो [ २८६ अर्थ :-भूतानन्दके इकहत्तर लाख, बारह हजार नाव और पृथक्-पृथक् तुरगादिक भी इतने ही होते हैं ।।८।। ति-टाणे सुषणारिण चउक-अड'-सत्त-णव-वउक्क-कमे। सत्तारणीया मिलिदे भूदाणंदस्स णादव्या ॥६॥ ४९७८४००० अर्थ : तीन स्थानों में शुन्य चार, पाठ, सात नौ और चार इन अंकोंको त्रामशः मिलाकर भूतानन्द इन्द्रकी सात अनीकें जाननी चाहिए । अर्थात् भूतानन्दको सातों अनीके चार करोड़ सत्तानबै लाख चौरासी हजार प्रमाण हैं ।।८६।। तेसट्ठो लक्खाइ पण्णास सहस्सयाणि पत्तेक्कं । सेसेस इदेसु पठमाणीयाण परिमाणा ॥७॥ अर्थ :- शेष सत्तरह इन्द्रों से प्रत्येकके प्रथम अनीकका प्रमाण तिरेसठ लाख पचास हजार प्रमाण है ।।७।। 'चउ-ठाणेसुसुण्णा पंच य तिढाणए चउक्काणि । अंक-कमे सेसाणं सत्ताणीयारण परिमारणं ॥८॥ ४४४५००००। अर्थ :-चार स्थानों में शून्य, पाँच और तीन स्थानोंमें चार इस अंक कभसे यह शेष इन्द्रोंमेंसे प्रत्येकको सात अनीकोंका प्रमारण होता है ।।८।। होंति पयण्णय-पहुदी जेत्तियमेत्ता य सयल-इ देसु । तप्परिमाण-परूवण"-उपएसो पत्थि काल-वसा ॥६॥ । अर्थ :---सम्पूर्ण इन्द्रोंमें जितने प्रकीर्णक प्रादिक देव हैं, कालके वशसे उनके प्रमाण के प्ररूपणका उपदेश नहीं है ।।८।। १. ब. अटुसत्त । २. द. सत्तारणीमा। ३.२. चवट्ठाणेसु। ४. द. ब. क. ज. छ. सत्ताणीयाणि । ५. दै.ब, गरूणा। Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमाक १ ३ ४-२० इन्द्रोंके नाम चमरेन्द्र वैरोचन भूतानन्द भवनवासी इन्द्रोंके अनीक देवोंका प्रमाण गाथा ८१-६६ शेष १७ मेंसे प्रत्येक इन्द्रके प्रथम कक्षाका नाम प्रथम कक्षाका प्रमाण x कक्षाएँ ७ = महिष 17 नाव गरुड़, गज मगर आदि ८१२८०००X ७६२००००X ७११२००० प्रत्येकके ६३५०००० X 19 = ७ ७ = 6. = सातों अनीकों का सम्मिलित प्रमाणा ५६८६६००० ५३३४०००० ४६७८४००० प्रत्येक इन्द्रके ४४४५०००० प्रकीरांक सेनाका प्रभारण काल-वश उपदेशका प्रभाव । २६० ] तिलोयपत्ती गामा: ८.९ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ६०-६३ ] तदिश्रो महाहियारो भवनवासिनीदेवियोंका निरूपण किण्हा रयण-सुमेधा देवी - णामा सुकंठ - श्रभिहारणा । णिरुवम-रूव-धराम्रो चमरे पंचग्ग-महिसीश्री ||२०|| अर्थ :- चमरेन्द्र के कृष्णा, रत्ना, सुमेधा देवी और सुकंठा नामकी अनुपम रूपको धारण करनेवाली पाँच अग्रमहिषियों हैं ॥१०॥ महिसीप समं सहस्याणि होति पत्तेक्कं । परिवारा देवीथ्रो चाल- सहस्साणि संमिलिदा ॥१॥ ८००० | ४०००० | अर्थ :- देवियों में से प्रत्येकके अपने साथ आठ हजार परिवार देवियाँ होती हैं। इसप्रकार मिलकर सब परिवार देवियाँ चालीस हजार प्रमाण होती हैं ॥ ६१ ॥ चमरग्गिम-महिसीणं श्रट्ठ-सहस्सा विकुब्वणा संति । पत्तक्कं श्रप्प-समं णिरुवम- लावण्ण-रूहि ॥६२॥ [ २९१ अर्थ :-- चमरेन्द्रकी श्रग्र-महिषियोंमेंसे प्रत्येक अपने ( मूल शरीरके ) साथ, अनुपम रूप-लावण्य से युक्त श्राठ हजार प्रमाण विक्रियानिर्मित रूपोंको धारण कर सकती हैं ||२|| सोलस - सहरसमेत्ता वरुलहियाओ हवंति चमरस्स । छप्पण्ण- सहस्साणि संमिलिदे सव्व - देवी १६००० | ५६००० ।।६३॥ अर्थ :- चमरेन्द्र के सोलह हजार प्रमाण वल्लभा देवियां होती हैं। इसप्रकार चमरेन्द्रकी पाँचों प्रग्र-देवियोंकी परिवार देवियों और वल्लभा देवियोंको मिलाकर, सर्व देवियाँ छप्पन हजार होती हैं ||१३|| Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] तिलोय पण्णत्ती पउमा पउम सिरीश्री कणयसिरो करणयमाल-महपउमा । अग्ग- महिसीउ बिदिए विविकरिया पहुवि पुखं व' ॥६४॥ अर्थ :- द्वितीय (वैरोचन ) इन्द्र के पद्मा पद्मश्री, कनकश्री कनकमाला और महापद्मा, ये पाँच अग्र देवियाँ होती हैं, इनके विक्रिया श्रादिका प्रमाण पूर्व ( प्रथम इन्द्र) के सदृश ही जानना चाहिए ।। ६४ ।। पण अग्ग - महिसियाओ पत्तं क्कं बल्लहा दस सहस्ता । णागिदाणं होंति हु विविकरियप्पहृदि पुरुषं व ॥६५॥ [ गाथा : ६४-६७ ५ | १०००० ४०००० | ५०००० । अर्थ :- नागेन्द्र ( भूतानन्द और धरणानन्द ) मेंसे प्रत्येककी पांच अग्र देवियाँ श्रोर दस हजार वल्लभाएँ होती हैं। शेष विक्रिया आदिका प्रमाण पूर्ववत् ही है ||२५|| चत्तारि सहस्सा रिंग यल्लहियात्री हवंति गरुडदाणं सेसं पुन्वं पिव एत्थ ५४००० | ४०००० | ४४००० पत्त वकं । वक्तव्यं ॥६६॥ अर्थ :--गरुडेन्द्रोंमेंसे प्रत्येककी चार हजार वल्लभायें होती हैं । यहाँ पर शेष कथन पूर्वके सदृश ही समझना चाहिए ||३६|| सेसारणं इंदारणं पतक्कं पंच प्रग्ण महिसीओो । एदेसु छस्सहस्सा स-समं परिवार देवी ॥ ६७ ॥ १. द. वा । क्र. ज. ठ. च । २. द. वाक. च ५ । ६००० | ३०००० । अर्थ :-- शेष इन्द्रोंमेंसे प्रत्येकके पांच अग्र देवियां और उनमेंसे प्रत्येकके अपने (मूल शरीर ) को सम्मिलित कर छह हजार परिवार देवियाँ होती हैं ।। ६७ ॥ ३. द. व. गरुरंगदारण। ज. द. गाणं Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदियो महाहियारो 'दीविंद-हुदीणं वेवीणं वरविजष्यणा' संति छ-सहस्साणि च समं पत्तवकं विविह-रूवेहि ||१८|| गाथा : ६८-६६ ] अर्थ :- द्वीपेन्द्रादिकों को देवियोंमेंसे प्रत्येकके मूलशरीर के साथ विविध प्रकार के रूपोंसे छह हजार प्रमाण उत्तम विक्रिया होती है | २६३ पुह पुह सेसिंदाणं वल्लहिया होंति दो सहस्तारि । बत्तीस - सहस्साणि संमिलिदे २००० । ३२००० | अर्थ :- शेष इन्द्रोंके पृथक्-पृथक् दो हजार वल्लभा देवियाँ होती हैं इन्हें मिला देनेपर प्रत्येक इन्द्रके सब देवियां बत्तीस हजार प्रमाण होती हैं ॥ ६६ ॥ सय्यदेवी 118211 [ भवनवासी इन्द्रोंकी देवियोंके प्रमाण की तालिका पृष्ठ २९४ पर देखिये ] १. च. ब. क. ज. ठ. देविंद २. द. वरविश्वा ब. बार विववरणा । ज. द. वार तिव्वणा । क. वार दिकुष्वणा । Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 [ भवनवासी इन्द्रोंकी देवियों का प्रमारण गाथा ६०-६६ क्रमांक | मूल शरीर । । कुल इन्द्रोंके नाम । इन्द्रोंके नाम | अग्रदेवियाँ » अग्रदेवि परिवारदेवियाँ वल्लभादेवियाँ सर्वयोग । सहित विक्रिया चमर ८००० - ४०००० + ५६००० ८००० असुर कु० वैरोचन । ५x ८००० = ४०००० + |१६००० - ५६००० ८००० ५x = ८००० = ४०००० +|१००००= ५०००० २. । नाग क्रु० । भूतानन्द । धरणानंद ५x ८००० - ४०००० +|१००००=| ८००० तिलोयपण्यात्ती ४०००० +४००० =|४४००० ३. | सुपर्ण कुछ वेणु । वेणुधारी ५x ८००० = |४०००० +४००० - ४४००० ५००० शेष ४. | द्वोपकुमार प्रादि शेष |३०००० + २००० - ३२००० | ६००० (प्रयंक को) (प्रत्येककी) ॐ : this ] Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६५ गाथा : १००-१०४ ] तदिओ महाहियारो पडिइंदावि-चउण्हं वल्लहियाणं तहेव देवीणं । सव्वं विउन्वरणादि णिय-रिणय-इयाण सारिच्छं ॥१०॥ मर्थ :--प्रतीन्द्र, त्रास्त्रिश, सामानिक और लोकपाल, इन चारोंकी बल्लभाएं तथा इन देवियोंकी सम्पूर्ण विक्रिया आदि अपने-अपने इन्द्रोंके सदृश ही होती हैं ।।१००। सय्येसु इंदेसु तगुरक्ख-सराण होंति देवीश्रो । पसक सय-भत्ता निश्चम-लांब-लीलामो ॥१०१।। १०० मर्थ :-सब इन्द्रोंमें प्रत्येक तनुरक्षक देवको अनुपम-लावण्य लीलाको धाररा करने वाली सौ देवियाँ होती हैं ॥१०१11 अढाइज्ज-सयाणि देवीमो दुवे सया दिवड़द-सयं । प्राविम-मज्झिम बाहिर-परिसासु होंति चमरस्स ॥१०२।। २५० । २००। १५ । अर्थ :-चमरेन्द्र के प्रादिम, मध्यम और बाह्य पारिषद देवोंके क्रमशः ढाईसौ, दोसौ एवं डेढ़सौ देवियाँ होती हैं ॥१०२।। देवीमो तिण्णि सया अड्ढाइज्जं सयाणि दु-सयारिण । पादिम-मज्झिम बाहिर-परिसासु हाँति बिदिय-इंबस्स ।।१०३॥ __३०० । २५० । २००। अर्थ :-द्वितीय इन्द्रके आदिम, मध्यम और बाह्य पारिषद देवोंके क्रमशः तीनसी, ढाईसी एवं दोसी देवियाँ होती हैं ॥१०३।। वोणि सया देवीप्रो सट्ठी-घालादिरित्त' एक्क-सयं । जागिदाणं अभितरादि-ति-परिस-वेवसु ॥१०॥ २०० । १६० । १४० । १. द.ब. चालादिरत्त । २. द. ब. क. ज. ठ. तिप्परिसदेवीस । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : १०५ - १०८ अर्थ :- नागेन्द्रोंके अभ्यन्तरादिक तीनों प्रकारके पारिषद देवोंमें क्रमश: दोसी, एक्सो साठ और एक्सौ चालीस देवियां होती हैं । ११०४ ।। सट्टी जुदमेवक-सयं चालीस जुदं च वीस अम्भहियं । refsari श्रभंतरादि-ति-परिस- देवी १६० । १४० । १२० । अर्थ :- गरुडेन्द्रों के अभ्यन्तरादिक तीनों पारिषद देवोंके क्रमश: एक्सौ साठ एक्सौ चालीस और एकसी बीस देवियाँ होती हैं ॥ १०५ ॥ चालुतरमेक्कसय बीसन्भहियं सयं च केवलयं । सेसिदाणं' श्रादिम-परिस-प्पहूदीसु देवीओ ॥१०६॥ ॥ १०५॥ १४० | १२० | १०० अर्थ :- शेष इन्द्रों के आदिम पारिषदादिक देवोंमें क्रमश: एक सौ चालीस एकसौ बीस और केवल सौ देवियां होती हैं ।। १०६॥ । उदहि पहुदि कुलेसु इदारणं दोष- इंद-सरिसाओ । श्रादिम-मज्झिम- बाहिर परिसत्तिवयस्स देवीश्री ॥ १०७ ॥ १४० । १२० । १०० अर्थ : - उदधिकुमार पर्यंत कुलोंमें द्वीपेन्द्रके सदृश १४०, १२० और १०० देवियाँ क्रमशः आदि, मध्य और बाह्य पारिषादिक इन्द्रोंकी होती हैं ||१०७ || श्रसुरादि-दस- कुलेसु हवंति पण्णासा देवीयो सयं च देवोंके सी देवियाँ होती है ॥ १०५ ॥ । ५० । १०० | अर्थ :- श्रसुरादिक दस कुलों में सेना सुरोंमेंसे प्रत्येकके उत्कृष्टत: पचास और महत्तर १. ब. ब. क. ज. 5. देविदास सेणा - सुराण पत्सेवकं । परो महत्तर - सुराणं ॥ १०८ ॥ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुल नाम असुर कु० नाग कु० सुपर्ण कु द्वीपकुमार आदि शेष भवनवासी इन्द्रोंके परिवार देवोंकी देवियोंका प्रमाण इन्द्र-नाम चमरेन्द्र वैरोचन भूतानन्द घरणानन्द वेणु बेणुवारी शेष सर्व इन्द्र स्व- इन्द्रवत् स्व- इन्द्रवन् स्व- इन्द्रवन् स्त्र-इन्द्रवत् १०० १०० १०० ܘܘܕ १०० १०० गाथा - १०० १०८ पारिषद श्रादि २५० ३०० २०० २०० १६० १६० मध्य २०० २५० १६० १६० १४० १४० बाह्य १५० २०० १४. १४० १२० १२० १०० १४० १२० १०० (प्रत्येक ) (प्रत्येक ) (प्रत्येक ) ( प्रत्येक ) का की की सेना- सुर महत्तर J22 2013: !! ५० १०० ३२ ५० १०० ३२ ५० १०० ३२ ५० १०० ३२ ५० [१०० ३२ ५० १०० ३२ ५०:१०० । ३२ गाथा : १०८ ] तदिश्रो महाहियारो [ २६७ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६८ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : १०६-११२ जिण-विट्ठ-पमाणाओ' होति पइण्णय-तियस्स देवीयो। सव्व-णि गिट्ठ-सुराणं, पियाओ बत्तीस पत्त षकं ॥१०॥ । ३२ । अर्थ :-प्रकीर्णक, प्राभियोग्य और किल्बिषिक, इन तीन देवोंकी देवियाँ जिनेन्द्रदेव द्वारा कहे गये प्रमाण स्वरूप होती हैं । सम्पूर्ण निकृष्ट देवोंके भी प्रत्येकके बत्तीस-बत्तीस प्रिया ( देवियाँ) होती हैं ।।१०६॥ अप्रधान परिवार देबोंका प्रमाण एदै सव्वे देवा देविदाणं पहाण-परिवारा। अण्णे वि अप्पहाणा संखातीदा विराजति ॥११०॥ प्रर्थ :- ये सब उपर्युक्त देव इन्द्रोंके प्रधान परिवार स्वरूप होते हैं। इनके अतिरिक्त अन्य और भी असंख्यात अप्रधान परिवार सुशोभित होते हैं ।।११०॥ भवनबासी देवोंका आहार और उसका काल प्रमाण इद-पडिद-प्पहुदी तह वीओ मरण पाहारं । अमयमय-मइसिद्धि संगेण्हते णिरुवमारणं ॥१११॥ अर्थ : इन्द्र-प्रतीन्द्रादिक तथा इनकी देवियाँ अति-स्निग्ध और अनुपम अमृतमय पाहारको मनसे ग्रहण करती हैं ॥१११।। 'चमर-दुगे आहारो परिस-सहस्सेण होइ णियमेण । पणुवीस-दिणाण दलं भूदाणंदादि-छह पि ॥११२॥ व १००० । दि २५ । अर्थ :-चमरेन्द्र और वैरोचन इन दो इन्द्रोंके एक हजार वर्ष बीतनेपर नियमसे पाहार होता है । इसके प्रागे भूतानन्दादिक छह इन्द्रोंके पच्चीस दिनोंके आधे ( १२३ ) दिनोंमें आहार होता है ।।११२॥ २. द. ब. णिवरुवमणं । क. णिवरुषमारण । ३. द. ज. ठ. १.द. पमाणाप्रो, ज.ठ, पमाणिक । ४. द.ज.द. बरस । चरमदुगे। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ११३-११६ ] तदिनो महाहियारो बारस-विणेसु जलपह-पहुदी-छण्हं पि भोयणावसरो। पण्णरस-वासर-दलं अमिदगदि-प्पमुह-छक्कम्मि ॥११३॥ । १२ । १५ । अर्थ : जलप्रभादिक छह इन्द्रोंके बारह दिनके अन्तरालसे और अमितगति आदि छह इन्द्रोंके पन्द्रहके आधे (७३ ) दिनके अन्तरलसे पाहारका अवसर प्राता है ॥११३॥ इंदादी पंचाणं सरिसो आहार-काल-परिमाणं । तणुरक्ख-प्पहुदीणं तस्सि उवदेस-उच्छिण्णो' ॥११४॥ प्रर्थ :-इन्द्रादिक पाँच (इन्द्र, प्रतीन्द्र. सामानिक, प्रायस्त्रिश और पारिषद) के आहारकालका प्रमाण सदृश है । इसके प्रागे तनुरक्षकादि देवोंके आहार-कालके प्रमाणका उपदेश नष्ट हो गया है 11११४॥ दस-यरिस-सहस्साऊ जो देवो तस्स भोयणावसरो। दोसु विवसेसु पंचसु पल्ल- पमाणाउ-जुत्तस्स ॥११५॥' अर्थ :-जो देव दस-हजार वर्षकी आयुवाला है उसके दो दिनके अन्तरालसे और पल्योपम-प्रमाणसे संयुक्त देवके पाँच दिनके अन्तरालसे भोजनका अवसर प्राता है ॥११५।। भवरावासियोंमे उच्छ्वासके समयका निरूपण चमर-दुगे उस्सासं पण्णरस-दिणाणि पंचवीस-दलं । पुह-पुह "मुहत्तयाणि भूदाणंदादि-छक्कम्मि ॥११६॥ । दि १५ । मु ३ । प्रय :-चमरेन्द्र एवं वैरोचन इन्द्रोंके पन्द्रह दिनमें तथा भूतानन्दादिक छह इन्द्रोंके पृथकपृथक् साढ़े बारह-मुहूर्तोमें उच्छ्वास होता है ।।११६।। १. ६. भ. क. ज ठ. उच्छिण्णा । २. प. पमाणावजुत्तस्स । ३. मूल प्रतिमें यह गाथा संरूपण ११७ है किन्नु विषय-प्रसंगके कारण यहाँ दी गई है। ४. ब. पणरस । ५. ब. मुहत्तयाग । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० ] तिलोय पण्णत्ती बारस-मुहुत्तयरिंग जलपह-पहुबी छस्तु उस्सासा । पण रस-मुहुत-दलं श्रमिदगदिपमुह-छहं । मु १२ । ' । अर्थ :- जलप्रभाविक छह इन्द्रोंके बारह मुहूर्तोंमें और अमितगति आदि छह इन्द्रोंके साढ़ेसात मुहूतों में उच्छ्रवास होता है ।। ११७ ।। [ गाथा : ११७-१२२ पि ।। ११७ ।। जो प्रजुदाश्रो देवो' उस्सासा तस्स सत्त-पाणेह | ते पंच मुहुरोहि पलिदोवम श्राउ- जुत्तस्स ॥ ११८ ॥ अर्थ : -जो देव प्रयुत ( दस हजार ) वर्ष प्रमाण आयुवाले हैं उनके सात स्वासोच्छ्वासप्रमाण कालमें और पल्योपम-प्रमाण प्रयुसे युक्त देवके पाँच मुहूर्त में उच्छ्वास होते हैं ।। ११८ ।। प्रतीन्द्रादिकोंके उच्छ्रवासका निरूपण पडियापिण्डं वस्तरा हवंति उत्तारू 1 तरवव-पहुदीसु उवएसो संपइ पणट्टो ॥ ११६ ॥ अर्थ :- प्रतीन्द्रादिक चार-देवों के उच्छ्वास इन्द्रोंके सहशही होते हैं । इसके आगे तनुरक्षकादि देवों में उच्छ्वास - काल के प्रमाणका उपदेश इस समय नष्ट हो गया है ।। ११९ ।। असुरकुमारादिकोंके वर्णों का निरूपण सच्चे असुरा किव्हा हवंति णागा वि कालसामलया । दीवकुमारा सामल - वण्णा सरीरेहिं ।।१२०।। गरुडा उदहि-त्थणिदकुमारा ते सन्वे कालसामलायारा । विज्जू विज्जु- सरिच्छा सामल-बपणा दिसकुमारा ॥१२१॥ कुमारा सन्बे जलंत - सिहिजाल-सरिस - दिति-धरा । जय कुवलय- सम भासा वादकुमारा वि णादव्या ॥ १२२ ॥ १. ब.उ. देश्रो, क. ज. देउ । २. ब. क. पलिदोवमयाबजुत्तस्स, द ज ठ पलिदोब मयाह जुत्तस्स | ३. द. ब. ज. ठ. उदधिरिद । Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १२३-१२७ ] तदियो महाहिमारी [ ३०१ अर्थ : सर्व असुरकुमार ( शरीर से ) कृष्णवर्ण, नागकुमार कालश्यामल, गरुड़कुमार एवं द्वीपकुमार श्यामलवर्ण वाले होते हैं । सम्पूर्ण उदधिकुमार तथा स्तनितकुमार कालश्यामल वर्णवाले, विद्यत्कुमार बिजली के सदृश और दिक्कुमार श्यामल वर्णवाले होते हैं । सब अग्निकुमार जलती हुई अग्निकी ज्वाला सदृश कान्तिको धारण करनेवाले तथा बातकुमार देव नवीन कुवलय ( नील कमल ) की सदृशता वाले जानने चाहिए ।। १२०-१२२ ॥ असुरकुमार श्रादि देवोंका गमन पंचसु कल्लाणेसु जिरिंगद-पडिमाण पूजा - णिमित्तं । गंदीसम्म दोबे इंदादी जांन्ति भत्तोए ॥१२३॥ अर्थ :- भक्ति से युक्त सभी इन्द्र पंचकल्याणकों के निमित्त ( ढ़ाई द्वीप में ) तथा जिनेन्द्रप्रतिमाओंकी पूजन के निमित्त नन्दीश्वर द्वीपमें जाते हैं ||१२३ || । पूजप- हेदु सीलादि-संजुवाणं परिवखण-रिणमित्तं रियमि-कीडण - कज्जे वइरि-समूहस्स मारपिच्छाए' ॥ १२४ ॥ असुर-पहुदी गदी उड़द-सरूवेण जाव ईसाणं । णिय-बसदो पर वसदो चुद कप्पायही होबि ।। १२५ ।। अर्थ :- शीलादिकसे संयुक्त किन्हीं मुनिवरादिककी पूजन एवं परीक्षा के निमित्त अपनीअपनी क्रीडा करने के लिए अथवा शत्रु समूहको नष्ट करनेकी इच्छासे असुरकुमारादिक देवोंकी गति ऊर्ध्वं रूपसे अपने वश ( अन्यको सहायता के बिना ) ईशान स्वर्ग - पर्यन्त और दूसरे देवोंकी सहायता से प्रच्युत स्वर्ग पर्यन्त होती है ।। १२४-१२५ ।। भवनवासी देव-देवियोंके शरीर एवं स्वभावादिकका निरूपण करणयं व णिरुवलेवा णिम्मल-कंती सुगंध - णिस्सासा | froaमय रूपरेखा समचउरस्संग-संठाणा लक्खण- वंजरण- जुत्ता, णिच्चं चेय कुमारा १. द. मारखिट्टाए । ॥ १२६॥ संपुष्णमियंक - सुन्दर - महाभा । देवा देवी प्रो तारिसया ॥१२७॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ ] तिलोय पण्णत्ती [ गाथा : १२८ - १३२ अर्थ :- ( वे सब देव ) स्वर्णके समान, मलके संसर्गसे रहित निर्मल कान्तिके धारक, सुगन्धितनिश्वास से संयुक्त, अनुपम रूपरेखा वाले समचतुरस्र नामक शरीर संस्थानवाले लक्षणों और व्यंजनोंसे युक्त, पूर्ण चन्द्र सदृश सुन्दर महाकान्ति वाले और नित्य ही ( युवा ) कुमार रहते हैं, वैसी ही उनकी देवियाँ होती हैं ।।१२६-१२७॥ रोग-जरा-परिहीणा स्पिरुषम-बल-वीरिएहि परिपुण्णा । भारत-पाणि-चरणा कदलीघादेण परिचत्ता ।। १२८ ॥ वर - रयण-मोडधारी' वर - विविह-विभूसणेहि सोहिल्ला । मंसट्टि - मेध - लोहिद-मज्ज बसा' - सुक्क परिहोणा 3 कररुह केस - विहीणा णिरुवम लावण्ण-विति परिपुष्णा । बहुवि विलास - सत्ता देवा देवीओ ते होंति ॥ १३० ॥ अर्थ :- वे देव देवियाँ रोग एवं जरासे विहीन, अनुपम बल-वीर्यसे परिपूर्ण, किंचित् लालिमा युक्त हाथ-पैरोंसे सहित कदलीघात ( अकालमरण ) से रहित, उत्कृष्ट रत्नोंके मुकुटको धारण करनेवाले, उत्तमोत्तम विविध प्रकार के आभूषणोंसे शोभायमान, मांस- हड्डी - मेद- लोहू-मज्जावसा और शुक्रादि त्रातुनोंसे विहीन, हाथोंके नख एवं बालोंसे रहित घनुपम लावण्य तथा दीप्तिसे परिपूर्ण और अनेक प्रकार के हाव भावों में प्रासक्त रहते ( होते ) हैं ।। १२८-१३० ।। सुरकुमार आदिकों में प्रवीचार असुरादी भवणसुरा सन्वे ते होंति काय पविचारा । वेदस्सुदीरणाए प्रणुभवणं * माणुस - समाणं ॥१३१॥ ॥ १२६॥ अर्थ : – वे सब असुरादिक भवनवासी देव काय- प्रवीचारसे युक्त होते हैं तथा वेदनोकषायकी उदोरणा होनेपर वे मनुष्यों के समान कामसुखका अनुभव करते हैं ।। १३१ ।। धादु-विहीणत्तादो रेद-विणिग्गमणमत्थि ण हु ताणं । संकष्प- सुहं जायदि वेदस्स उदीरणा विगमे ॥१३२॥ । १. ब. मेडधारी । २. द. मंसति । ३ द. क. ज ठ वसू । ५. द. न. वेदसुदीरय। ए । ६. द. व. क. ज. ठ. भाग्यस द. ब. के. ज. ठ. पडियारा। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १३३-१३६ ] तदियो महाहियारो [ ३०३ अर्थ : - सप्त-धातुप्रोंसे रहित होने के कारण निश्चयसे उन देवोंके वीर्यका क्षरण नहीं होता। केवल वेद-नोकषायकी उदीरगाके शान्त होनेपर उन्हें संकल्पसुख उत्पन्न होता है ॥१३२॥ इन्द्र-प्रतीन्द्रादिकोंकी छत्रादि-विभूतियाँ बहुविह-परिवार-जुदा देविदा विविह-छत्त-पहुदीहि । सोहंदि विभुदोनि पडिहंदाती य सत्तारो ॥१३३॥ पर्थ :-बहुत प्रकारकं परिवारसे युक्त इन्द्र और प्रतीन्द्रादिक चार ( प्रतीन्द्र, त्रायस्त्रिश, सामानिक और लोकपाल ) देव भी विविध प्रकारको छत्रादिरूप विभूतिसे शोभायमान होते हैं ॥१३३॥ पडिइंदादि चउण्हं सिंहासण-पादयत्त-चमराणि । णिय-णिय-इंद-समारिण पायारे होंति किचूणा ॥१३४।। अर्थः -प्रतीन्द्रादिक चार देवोंके सिंहासन, छत्र और चमर ये अपने-अपने इन्द्रोंके सदृश होते हुए भी आकार में कुछ कम होते हैं ।।१३४।। इन्द्र-प्रतीन्द्रादिकोंके चिह्न सव्र्योस इंदाणं चिण्हाणि तिरीटमेव मणि-खचिदं । पडिइंदादि-चउण्हं घिण्हं मउई मुणेदव्या ।।१३५॥ अर्थ :-सब इन्द्रोंका चिह्न मणियोंसे खचित किरीट ( तीन शिखर वाला मुकुट ) है और प्रतीन्द्रादिक चार देवोंका चिह्न साधारण मुकुट ही जानना चाहिए ।।१३।। पोलगशालाके प्रागे स्थित असुरादि कुलोंके चिह्न-स्वरूप वृक्षोंका निर्देश पोलगसाला-पुरवो चेत्त-दुमा होति विविह-रयणमया । असुर-प्पहुवि-कुलाणं ते चिण्हाई' इमा होति ॥१३६॥ १. ब. क. ज. ठ. चिण्हा इंदमाहोति । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ ] तिलोयपण्णत्ती अस्सत्थ-सत्तपण्णा संमलि-जंबू य वेदस- कडबा | 'तह पीयंपू सिरसा पलास - रायद्दुमा कमसो ॥१३७॥ [ गाथा : १३७ पर्य :- असुरकुमार आदि कुलोंकी प्रोलगशालानोंके श्रागे क्रमशः विविध प्रकारके रत्नोंसे निर्मित अश्वत्थ, सप्तपर्ण, शाल्मलि, जामुन, वेतस, कदम्ब, प्रियंगु, शिरीष, पलास और राजद्रुम ये दस चैत्यवृक्ष उनके चिह्न स्वरूप होते हैं ।। १३६-१३७ ।। [ भवनवासीदेवोंके आहार एवं श्वासोच्छ्वासका अन्तराल तथा चैत्य वृक्षादिका विवरण चित्र पृष्ठ ३०५ में देखिये | १. ब. क. ज. ठ. तय Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊर्य रूप भवनवासी देवोंके पाहार एवं श्वासोच्छ्वासका अन्तराल तथा चैत्य-वृक्षादिका विवरण च्छवासा शरीर का | ऊर्य रूप से गति का अन्तराल - वर्ण | कुलों के नाम ग्राहार का अन्तराल |का अन्तराल] वर्ण चैत्य-वृक्ष । गाथा : १३७ ] स्ववश १००० वर्ष १५ दिन । १२३ दिन | १२३ मु. कालश्याम श्याम " श्याम अश्वत्थ (पीपल) सप्तपर्ण शाल्मलि जामुन वेतस कदम्ब प्रियंगु शिरीष १२ दिन १२ मू० कालश्याम ७३ दिन असुरकुमार नागकुमार सुपर्णकुमार द्वीपकुमार उदधिकुमार स्तनितकुमार विद्य कुमार दिक्कुमार अग्निकुमार वायुकुमार इनके सामा०, त्रायः,पारिषद एवं प्रतीन्द्र ) देव १००० वर्ष आयु वाले देव १ पल्य के अायु वाले " विजलीवत् श्यामल | अग्निवत् ७: मु. स्व-मालम्बन से ईशान-स्वर्ग-पर्यन्त परावलम्बन रूप से अच्युत स्वर्ग पर्यन्त तदिमो महाहियारो समचतुरस्र-संस्थान कायप्रवीचार से युक्त पलास , नीलकमल राजद्रुम स्व इन्द्रवत् । स्व इन्द्रवत् ७ श्वासो ५ दिन | ५ मुहूर्त नोट: गाथानोंमें चमर-वैरोचन आदि इन्द्रोंके आहार एवं श्वासोच्छ्वासका अन्तराल कहा गया है । तालिकामें . कुलोंका जो अन्तराल दर्शाया है, वहीं उनके चमरादि इन्द्रोंका समझना चाहिए। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : १३८.१४३ चैत्यवृक्षोंके मूल में जिनप्रतिमाएँ एवं उनके प्रागे मानस्तम्भोंकी स्थिति चेत्त-दुमा-मूलेसु पत्ते वकं चउ-दिसासु चेट्टते'। पंच जिणिद-प्पडिमा पलियंक-ठिदा परम-रम्मा ॥१३।। अर्थ :-प्रत्येक चैत्यवृक्षके मूलभागमें चारों ओर पल्यंकासनसे स्थित परम रमणीय पांचपांच जिनेन्द्र प्रतिमाएँ विराजमान हैं ।।१३।। पउिमाणं अग्गेसु रयणत्थंभा हवंति वीस फुडं । पडिमा-पीढ-सरिच्छा पीडा थंभारण यादव्या ॥१३६॥ एक्केक्क-माणथंभे अट्ठाबीसं जिणिव-पडिमानो । चरम दिमास सिंहामणादि-विण्णास-जुत्तानो ॥१४०।। मर्थ :-प्रतिमानोंके प्रागे रलमय बीस मानस्तम्भ होते हैं । स्तम्भोंकी पीठिकाएँ प्रतिमाओंकी पोठिकानोंके सदृश जाननी चाहिए। एक-एक मानस्तम्भके ऊपर चारों दिशाओं में सिंहासन प्रादिके विन्याससे युक्त अट्ठाईस जिनेन्द्र-प्रतिमाएं होती हैं ॥१३६-१४०॥ सेसाप्रो वपणाम्रो चउ-वण-मझत्थ-चेसतरु-सरिसा'। छत्तादि-छत्त-पडवी-जुाण जिणणाह-पडिमाणं ॥१४१॥ पर्ष :-छत्रके ऊपर छत्र प्रादिसे युक्त जिनेन्द्र-प्रतिमानोंका शेष वर्णन चार पनोंके मध्यमें स्थित चैत्य वृक्षोंके सदृश जानना चाहिए ।।१४१॥ चमरेन्द्रादिकोंमें परस्पर ईर्षाभाव चरिंदो सोहम्मे ईसवि बइरोयणो य ईसाणे । भूदाणंदे' वेणू थरणाणंदम्मि "वेणुधारि ति ॥१४२॥ एदे अट्ठ सुरिंदा अण्णोण्णं बहुविहारो भूदीयो । वळूण मच्छरेणं ईसंति सहायदो केई ॥१४३॥ ॥ इंदविभवो समत्तो । १. ६. चेठ्ठलो। २. द. क. ज. उ. पुर्द । ३. द. छ. सहस्सा। ४. द. ब. क. ज. ठ. जुदाणि । ५. ब. ईसाणो। ६. ब. ईसाणंदे। ७, ब. क. वेणुधारि। ८. ६. इंदविभवे । ६. द. य, समत्ता । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १४४-१४६ ] तदिश्रो महाहियारो [ ३०७ अर्थ : चमरेन्द्र सौधर्मसे, वैरोचन ईशानसे, वेषु भूतानन्दसे श्रीर वेणुधारी धरणानन्दसे ईर्षा करता है । इसप्रकार ये आठ सुरेन्द्र परस्पर नानाप्रकारको विभूतियोंको देखकर मात्सर्यसे एवं कितने ही स्वभाव से ईर्षा करते हैं ।। १४२-१४३॥ ॥ इन्द्रोंका वैभव समाप्त हुआ । भवनवासियोंको संख्या भावण देवाण दस विकप्पाणं । बिगुल पढम-मूल-हूदा ।।१४४ ।। || संखा समत्ता | अर्थ :---दस भेदरूप भवनवासी देवोंका प्रसारण श्रसंख्यात जगच्छ्रे गोरूप है, उसका प्रमाण घनांगुलके प्रथम वर्गमूलसे गुणित जगच्छ्रेणी मात्र है ॥ १४४ ॥ संखातीदा सेढी तीए पाल || संख्या समाप्त हुई ॥ भवनवासियोंकी श्रायु ररणा करेक्क - उबमा चमर-दुगे होदि श्राउ परिमाणं । तिष्णि पलिदोषमाणि सूबारबादि- जुगलम्मि ।। १४५ ॥ सा १ । प ३ ।। वेणु-दुगे पंच-दलं पुण्ण-यसि सु दोणि पल्लाई । जलपहुवि - सेसयारां दिवड्ढ- पल्लं तु पत्ते ॥१४६॥ । ५ ५ । ५२ । प ३ | सेस १२ । श्रथं : – चमरेन्द्र एवं वैरोचन इन दो इन्द्रोंकी प्रायुका प्रमाण एक सागरोपम भूतानन्द एवं घररणानन्द युगलकी तीन पल्योपम, वेणु एवं वेणुधारी इन दो इन्द्रों की ढाई पत्योपम, पूर्ण एवं वशिष्ठकी दो पल्योपम तथा जलप्रभ आदि शेष बारह इन्द्रोंमेंसे प्रत्येककी प्रायुका प्रमारण डेढ पल्योपम है ।। १४५-१४६।। १. द. व. क. ज. उ. जिंदगुणगार । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : १४७.१५१ अह्वा उत्तर-इंदेसु पुच्च-णिदं हवेदि अदिरित्तं । पडिइंदादि-चउहं प्राउ-पमाणाणि इंद-समं ॥१४७॥ अर्थ :-प्रथवा-उत्तरेन्द्रों ( वैरोचन, धरणानन्द प्रादि ) को पूर्वमें जो प्रायु कही गयी है उससे कुछ अधिक होती है 1 प्रतीन्द्रादिक चार देवोंकी आयुका प्रमाण इन्द्रोंके सदृश है ।।१४७॥ एक्क-पलिदोषभाऊ सरीर-रक्खारण होवि चमरस्स । वइरोयणस्स' अहियं भूवाणंक्स्स कोडि-पुव्वाणि ॥१४८।। प१। प १ । पुको १1 अर्थ :-चमरेन्द्रके शरीर-रक्षकोंकी एक पल्योपम, वैरोचन इन्द्रके शरीर-रक्षकोंकी एक पल्योपमये प्रति तोर मतानन्द के शादी रक्षकोंकी प्राय एक पूर्वकोटि प्रमाण होती है ।।१४८॥ धरणिदे अहियाणि बच्छर-कोडी हदेवि वेणुस्स । तणुरक्खा-उवमाणं अदिरित्तो वेणुधारिस्स ॥१४॥ पुको १ । व को १ । व को १ । अर्थ :--धरणानन्दमें शरीर-रक्षकोंको एक पूर्वकोटिसे अधिक, वेणुके शरीर-रक्षकोंकी एक करोड़ वर्ष और वेणुधारीके शरीर-रक्षकोंकी आयु एक करोड़ वर्षसे अधिक होती है ।।१४।। पत्तेक्कमेक्क-लक्खं वासा पाऊ सरीर-रक्खाणं । सेसम्मि दखिणिदे उत्तर-इंदम्मि अदिरिता ॥१५०॥ व १ ल । व १ ल । अर्थ :-शेष दक्षिण इन्द्रोंके शरीर-रक्षकोंमेंसे प्रत्येककी एक लाख वर्ष और उत्तरेन्द्रोंके शरीर-रक्षकोंकी प्रायु एक लाख वर्षसे अधिक होती है ।।१५०।। अढाइज्जा दोणि य पल्लारिण दिवढ-प्राउ-परिमाणं । प्रादिम-मझिम बाहिर-तिप्परिस-सुराण चमरस्स ॥१५१॥ प । प २।प । १. द. बसरोयरस्स। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया : १५२-१५५ ] तदिनो महाहियारो [ ३०६ अर्थ :-चमरेन्द्रके प्रादि, मध्यम और बाह्य, इन तीन पारिषद देवोंकी प्रायुका प्रमाण क्रमशः ढाई पल्योपम, दो पल्योपम और डेढ़ पल्योपम है ।।१५१।। तिण्णि पलिदोवमाणि अड्ढाइज्जा दुवे कमा होदि । बहरोयणस्स प्राधिम-परिसप्पहुदोण जैट्ठाऊ ॥१५२॥ प३ ! प प २ । अर्थ : वैरोचन इन्द्रके प्रादिम प्रादिक पारिषद देवोंकी उत्कृष्ट प्रायु क्रमश: तीन पल्योपम, ढाई पल्योपम और दो पल्योपम है ॥१५२॥ प्रद सोलस-बत्तीसहोंतिपलिवोवमस्त भागाणि । भुवाणंदे प्रदियो भरणाणतम्स परिस-तिर-पाऊ ॥१५३॥ प।प ।प । अर्थ :-भूतानन्दके तीनों पारिषद देवोंकी प्रायु श्रमश: पल्योपमके आठवें, सोलहवें और बत्तीसवें-भाग प्रमाण, तथा धरणानन्दके तीनों पारिषद देवोंकी आयु इससे अधिक होती है ।।१५३॥ परिसत्तय-जेट्ठाऊ तिय-दुग-एक्का य पुथ्व-कोडीयो। वेणुस्स होदि कम्सो अदिरित्ता घेणुधारिस्स ॥१५४॥ पु को ३ । पु को २ । पु को १ । प्रथं :-वेणुके तीनों पारिषद देवोंकी उत्कृष्ट प्रायु क्रमश: तीन, दो और एक पूर्व कोटि तथा वेणुधारीके तीनों पारिषदोंकी इससे अधिक है ।।१५४।। तिप्परिसाणं आऊ तिय-दुग-एक्कानो वास-कोडीनो। सेसम्मि दखिणिदे अदिरित्तं उत्तरिदम्मि ॥१५५॥ व को ३ ।व को २ । व को १ । अर्थ :-- शेष दक्षिण-इन्द्रों के तीनों पारिषद देवोंको आयु क्रमशः तीन, दो और एक करोड़ वर्ष तथा उत्तर इन्द्रोंके तीनों पारिषद देवोंकी आयु इससे अधिक है ॥१५॥ .- - - - १. ब, क. अट्ठसोलस । अ. ठ. अट्ट सोलस । Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० ] तिलोयपण्णसी [ गाथा : १५६-१५९ एक्क-पलिदोवमाऊ सेणाधीसाण होदि चमरस्त । वइरोयणस्स अहियं भूदाणवस्य कोटि-पुथ्याणि ।।१५६॥ प ११ प १ । पुव्व को १। अर्थ :- चमरेन्द्र के सेनापति देवोंकी प्रायु एक पल्योपम, वैरोचन के सेनापति देवोंकी इससे अधिक और भूतानन्दके सेनापति देवोंकी आयु एक पूर्व-कोटि है ।।१५६।। धरणाणंदे अहियं वच्छर-कोडी हवेदि वेणुस्स । 'सेरणा-महत्तराऊ अदिरित्ता' वेणुधारिस्स ॥१७॥ पु० को० १ । १० को० १ । व० को० १ । मर्थ :-धरणानन्दके सेनापति देवोंकी प्रायु एक पूर्वकोटिसे अधिक, देणुके सेनापति देवोंकी एक करोड़ वर्ष और वेणुधारीके सेनापति देवोंकी प्रायु एक करोड़ वर्षसे अधिक है ।।१५७॥ पत्तेक्कमेक्क-लक्खं पाऊ सेरणावईण जावन्यो । सेसम्मि वििरणदे "अदिरित उत्तरदम्मि ॥१५८।। २० १ ल । व १ ल । पर्य :-शेष दक्षिणेन्द्रोंमें प्रत्येक सेनापतिकी प्रायु एक लाख वर्ष और उत्तरेन्द्रोंके सेनापतियोंकी आयु इससे अधिक जाननी चाहिए ।।१५८।। पलिदोवमद्धमाऊ प्रारोहक-वाहणाण चमरस्स । वइरोयणस्स अहियं भूवाणंदस्स कोडि-बरिसाइं ॥१५॥ प।५३ ।व को १। मर्थ :-चमरेन्द्रके प्रारोहक वाहनोंकी पापु अर्ध-पल्योपम, वैरोचनके प्रारोहक-बाहनोंकी अर्ध-पल्योपमसे, अधिक और भूतानन्दके प्रारोहक वाहनोंको आयु एक करोड़ बर्ष होती है ।।१५९।।। २., ब. क. ज.ठ. अधिरित्ता। ३.६. सेमाचईण। ४. ब, क. १.८. ब.ज.प. सेसा। अधिरित, ज, 3. अतिरित्त'। Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदिन महाहियारो धरणारगंदे श्रहियं वच्छर लक्खं हवेदि वेणुस्स । श्रारोह-वाहणाऊ तु श्रतिरिक्त वेणुधारिस्स ॥ १६० ॥ | व० को १३ व १ ल । व १ल । अर्थ :- घररणानन्दके श्रारोहक वाहनोंकी श्रायु एक करोड़ वर्ष से अधिक, वेणुके प्रारोहक वाहनों की एक लाख वर्ष श्रीर वेणुधारी के आरोहक वाहनोंकी आयु एक लाख वर्षसे अधिक होती है ।। १६० ।। गाथा : १६० १६२ ] पत्त वकमद्ध-लभखं आरोहक वाहणाण जेवाऊ । सेसम्म दक्खिदे श्रदिरित उत्तरवम्मि ।।१६१ ॥ ५०००० पर्य :- शेष दक्षिण इन्द्रोंमेंसे प्रत्येकके श्रारोहक वाहनोंकी उत्कृष्ट श्रायु अर्धलाखवर्ष और उत्तरेन्द्रोंके प्रारोहक वाह्नोंकी श्रायु इससे अधिक है ।। १६१। ठ उवए । जेतियमेत्त आऊ पट्टण अभियोग-किब्बिस-सुराणं । तप्परिमारण-परूवण - उबएसस्स पहि -3 पट्टो ॥ १६२॥ अर्थ :- प्रकीर्णक, अभियोग्य और किल्विषक देवोंकी जितनी जितनी प्रायु होती है. उसके प्रमाण के प्ररूपणके उपदेश इस समय नष्ट हो चुके हैं ।। १६२॥ १. ब. बाणाई । [ भवनवासी इन्द्रोंकी ( सपरिवार ) श्रायुके प्रमाणके विवरण की तालिका पृष्ठ ३१२- ३१३ में देखिये ] [ ३११ २. क. ब. वेणुदारिस्त । ३. द. मेत्तयाऊ, ज ठ मेत्तियाऊ । ४. द. अ. ज. Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपपणती [ गाथा : १६२ भवनवासी-इन्द्रोंकी ( सपरिवार) इन्द्रोंके नाम दक्षिणेन्द्र उत्तरेन्द्र उत्कृष्ट प्रायु प्रतीन्द्रों की त्रास्त्रिश की सामानिक देवों की लोकपालों की | तनुरक्षक देवोंकी चमर एक सागर एक पल्य. वैरोचन | उ. साधिक एक सा० साधिक एक पल्य भूतानन्द | द० | तीन पल्योपम एक पूर्व कोटि धरणानन्द | उ० | साधिक तीन पल्य . सा. एक पूर्व कोटि २३ पल्य | एक करोड़ वर्ष स्व-इन्द्रवत् स्व-इन्द्रवत् स्व-इन्द्रवत् स्व-इन्द्रवत् वेणुधारी साधिक २३ प० । सा. एक करोड़ वर्ष । २ पल्योपम एक लाख वर्ष वशिष्ठ साधिक २ पल्य सा. एक लाख वर्ष जलप्रभादि छह द. १३ पल्य एक लाख वर्ष | उ० जलकान्त आदि छह साधिक १३ पल्य साधिक एक लाख वर्ष Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १६२ ] श्रायुके प्रमाणका विवरण श्रादि २३ पल्योपम ३ पल्योपम पारिषद मध्य साधिक ३ करोड़ वर्ष २ पल्योपम २३ पल्योपम सदियो महाहियारो बाह्य १३ पल्योपम २ पत्योपम पत्य का भाग पल्य का पद भाग पत्य का भाग अनीक देवोंकी १ पल्य १ लाख वर्ष गाथा - १४४-१६० तक साधिक १ पल्य साधिक ३ पल्प १ पूर्वकोटि १ करोड़ वर्षे सा. पल्य का है भाग सा पल्यका द्वै भाग सा.पत्यका डे भाग साधिक १ पूर्वकोटि साधिक १ करोड़ वर्ष ३ पूर्व कोटि २ पूर्व कोटि १ पूर्व कोटि १ करोड़ वर्ष १ लाख वर्ष सा. ३ पूर्व कोटि सा. २ पूर्व कोटि साधिक १ पूर्वकोटि साधिक १ करोड़ वर्ष साधिक १ लाख वर्ष ३ करोड़ वर्ष २ करोड़ वर्ष एक करोड़ वर्ष १ लाख वर्ष २३ लाख वर्ष सा. ३ करोड़ वर्ष सा. २ करोड़ वर्ष सा. एक करोड़ वर्ष साधिक १ लाख वर्ष साधिक ३ लाख वर्ष ३ करोड़ वर्ष २ करोड़ वर्ष एक करोड़ वर्ष लाख वर्ष साधिक ३ लाख वर्ष [ ३१३ सा. २ करोड़ वर्ष सा. एक करोड़ वर्ष सा० एक लाख वर्ष वाहन देवोंकी ३ पल्य Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ ] तिलोयपत्ती [ गाथा : १६३-१६७ प्रायुको अपेक्षा भवनवासियोंका सामर्थ्य दस-बास-सहस्साऊ जो देवो' माणुसाण सयमेयकं । मारिदुमह-पोसेदु सो सक्कवि अप्प-सत्तीए ॥१६३॥ खेत्त दिवढ-सय-धणु-पमाण-प्रायाम-वास-बहलत्त। बाहाहि वेढे 'उष्पाडेदु पि सो सक्को ॥१६४॥ दं १५० । अर्थ :-जो देव दस हजार वर्षको प्रायुवाला है, वह अपनी शक्ति से एकसी मनुष्योंको मारने अथवा पोसने के लिए समर्थ है, तथा वह देव डेढ़सौ धनुष प्रमाण लम्बे, चौड़े और मोटे क्षेत्रको बाहुओंसे वेष्टित करने और उखाड़ने में भी समर्थ है ।।१६३-१६४।। एषक-पलिदोबमाऊ उप्पाडे' महीए छक्खड । तम्गद-पर-तिरियारणं मारे पोसिद् सक्को ॥१६॥ प्रर्थ :-एक पल्योषम प्रायु वाला देव पृथिबीके छह खण्डोंको उखाड़ने तथा वहाँ रहने बाले मनुष्य एवं तिर्यंचोंको मारने अथवा पोसने के लिए समर्थ है ॥१६॥ उहि-उवमाण-जीवी जंबदीवं समग्गमुक्खलिदु। तग्गद-पर-तिरियाणं मारेदु पोसिटु सक्को ॥१६६॥ प्रर्य :-एक सगरोपम काल तक जीवित रहनेवाला देव समग्र जम्बूद्वीपको उखाड़ फेंकने अर्थात् तहस-नहस करने और उसमें स्थित मनुष्य एवं तिर्यचोंको मारने अथवा पोसनेके लिए समर्थ है ॥१६६॥ पायुकी अपेक्षा भवनवासियोंमें विक्रिया दस-वास-सहस्साऊ सद-हवाणि विगुन्वणं कुणदि । उक्कस्सम्मि जहणे सग-रूवा मज्झिमे विविहां ॥१६७।। २. द. ज, 6. वेदेदु। ३. द. व ज. ४, उप्पादेदु । ४. द. ब. फ. ज. . १. ब. देवाउ। जंवूदीवस्स उग्गमे । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १६८-१७१ ] तदिनो महाहियारो अर्थ :-दस हजार वर्षकी आयुवाला देव उत्कृष्ट रूपसे सौ, जघन्य रूपसे सात और मध्यम रूपसे विविध रूपोंकी विक्रिया करता है ।।१६७।। अवसेस-सुरा सन्चे णिय-णिय-प्रोही' पमाण-खेत्ताणि । 'जेतियमेत्ताणि पुढं पूरंति 'विकुष्यणाए एदाई ॥१६८।। अर्थ :--अपने-अपने अवधिज्ञानके क्षेत्रोंका जितना प्रमाण है, उसने क्षेत्रोंको शेष सब देव पृथक्-पृथक् विक्रियासे पूरित करते हैं ।।१६८।। ___ आयुकी अपेक्षा गमनागमन-शक्ति संखेज्जाक जस्स य सो संखेज्जाणि जोयणागि सुरो । गच्छेवि एक्क-समए आमच्छदि तेत्तियाणि पि ॥१६॥ अर्थ :-जिस देवकी संख्यात वर्षकी आयु है, वह एक समय में संख्यात योजन जाता है और इतने ही योजन आता है ।।१६६।। जस्स असंखेज्जाऊ सो वि असंखेज्ज-जोयणाणि पुढं। गच्छेदि एक्क-समए पागच्छदि तेतियारिण पि ॥१७०।। अर्थ :-तथा जिस देवकी प्रायु असंख्यात वर्षकी है, वह एक समय में असंख्यात योजन जाता है और इतने ही योजन प्राता है ।।१७०।। भबनवासिनी-देवियोंकी आयु अड्ढाइज्जं पल्लं 'पाऊ देवीण होदि चमरम्म । वइरोयरगम्मि तिणि य भूदाणंदम्मि पल्ल-असो ॥११॥ प: । प ३ 1प। अर्थ :-चमरेन्द्रको देवियोंकी अायु ढाई फ्ल्योपम, वैरोचनकी देवियोंकी तीन पल्योपम और भूतानन्दकी देवियोंको प्रायु पल्योपमके आठवें भागमात्र होती है ।।१७१।। । १. द. ब. क.ब. छ. उहइपमारण। २. ब. क.ज.ठ. जित्तिय । ३. व.विउवणाए। ४.द. ब. क. ज. सुरा। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ | तिलोयपत्ती देवी' धरणार्णवे श्रहियं वेणुम्मि हवेदि पुष्वकोडि-तियं । श्राउसंखा श्रदिरितं प । पुको ३ । [ गाथा : १९७२ - १७६ वेणुधारिस्स || १७२ ॥ अर्थ :- धरणानन्दकी देवियोंकी आयु पल्यके श्रायें भागसे श्रधिक, बेणुकी देवियों की तीन पर्वकोटि और गुधारीकी देवियोंकी ग्रायु तीन पूर्व कोटियोंसे अधिक है ॥ १७२ ॥ पले कमाउसंखा देवी तिष्णि वरिस- कोडोश्रो । सम्मि प्रविरित उत्तरदम्मि ॥१७३॥ दक्aिfणवे व को ३ । अर्थ :- अवशिष्ट दक्षिण इन्द्रों में से प्रत्येकको तीन करोड़ वर्ष और उत्तर इन्द्रोंमेंसे प्रत्येक की देवियोंकी श्रायु इससे अधिक है ।। १७३ ॥ 'पडिइंदाबि चउण्हं श्राऊ देवीण होदि पत्तेक्कं । णिय-जिय-इंद-पविण्णद- देवी श्राउस्स सारिच्छो ॥ १७४॥ अर्थ :- प्रतीन्द्रादिक चार देवोंकी देवियोंमेंसे प्रत्येकको अपने अपने इन्द्रोंकी देवियोंकी कही गई प्रायुके सहश होती है ।। १७४ ।। जेत्तियमेत्ता श्राऊ सरीररक्खादियाण देवीणं । तस्स पमाण-शिरूयम उवदेसो णत्थि काल - वसा ॥ १७५ ॥ अर्थ :- अंगरक्षक श्रादिक देवोंकी देवियोंकी जितनी श्रायु होती है, उसके प्रमाणके कथनका उपदेश कालके बशसे इस समय नहीं है ।। १७५ ।। भवनवासियों की जघन्य-आयु प्रसुराविद ब- दस - कुलेसु सव्य- णिगिट्ठा र बस वास - सहस्साणि जहण्ण श्राजस्त || आउ परिमाणं समत्तं ४ || होवि देवरणं । परिमाणं ॥ १७६ ॥ १. द. ब. क. ज. उ. अंदेवी । २. द. ब. क. ज. पािदि । ३. ब. क. ज. ठ. गिरिद्वारा । ४. द. ब. क. ज. ल. सम्मत्ता । Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १७७-१७६ ] तदिश्रो महाहियारो [ ३१७ अर्थ :- असुरकुमारादिक दस निकायोंमें सर्वं निकृष्ट देवोंकी जधन्य श्रायुका प्रमाण दस हजार वर्ष है || १७६ ।। असुराण पंचवीस सेस सुराणं हवंति दस दंडा । एस सहा उच्छेहो विक्किरियंगेसु बहुमेया ॥ १७७॥ दं २५ । दं १० । ॥ उच्छेो गदो 11 प्रर्थ :-- प्रसुरकुमारोंकी पच्चीस धनुष और शेष देवोंकी ऊँचाई दस धनुष मात्र होती है. शरीर की यह ऊँचाई स्वाभाविक है किन्तु विक्रिया निर्मित शरीरोंकी ऊँचाई अनेक प्रकारकी होती है ।। १७७ ।। || आयुका प्रमाण समाप्त हुआ ।। भवनवासी देवोंके शरीरका उत्सेध हो धो । ॥ उत्सेधका कथन समाप्त हुआ || ऊर्ध्व दिशा में उत्कृष्ट रूपसे अवधिक्षेत्रका प्रमाण यि निय-भवण-ठिदाणं उक्कस्से भवणवासि देवाणं । उद्वेग होदि णाणं कंचरण गिरि - सिहर - परियंतं ॥ १७६ ॥ अर्थ :- अपने - अपने भवनमें स्थित भवनवासी देवोंका अवधिज्ञान ऊर्ध्वदिशामें उत्कृष्टरूप से मेरुपर्वत शिखरपर्यंन्त क्षेत्रको विषय करता है ।।१७८ ॥ घः एवं तिर्यग् क्षेत्र में अवधिज्ञानका प्रमाण तद्वाणादोधोधो थोवत्थोवं पयट्टदे श्रोही । तिरिय-सरूत्रेण पुरणो बहुत र बेत्तेसु प्रक्खलिवं ॥ १७६ ॥ १. व. रु. गदा | २ द तट्टारणादो दोहो, ब. तट्टारणादोद्दो, क. तट्ठारणादो दो धो, ज. ठ. तट्ठाणादो Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ ] तिलोयपण्णत्ती .[ गाथा : १८०-१८३ अर्थ :-भवनवासी देवोंका अवधिज्ञान अपने-अपने भवनोंके नीचे-नीचे थोड़े-थोड़े क्षेत्रमें प्रवृत्ति करता है परन्तु वही तिरछेरूपसे बहुत अधिक क्षेत्रमें अबाधित प्रवृत्ति करता है ॥१७॥ क्षेत्र एवं कालापेक्षा जघन्य अवधिज्ञान पणवीस जोयणाणि होदि जहणपण प्रोहि-परिमाणं । भाषणवासि-सुराणं एषक-विणभंतरे काले ॥१०॥ यो २५ । का दि १ । प्रयं :-भवनबासी देवोंके अवधिज्ञानका प्रमाण जघन्यरूपसे पच्चीस योजन है । पुनः कालकी अपेक्षा एक दिनके भीतरको बस्तुको विषय करता है ।।१८०॥ ___ असुरकुमार-देवोंके अवधिज्ञानका प्रमाण असुराणामसंखेज्जा जोयण-कोडीउ प्रोहि-परिमाणं । खेत्ते कालम्मि पुणो होंति असंखेज्ज-वासाणि ॥११॥ रि। क । जो। रि । व। अर्थ :--असुरकुमार देवोंके अवधिज्ञानका प्रमाण क्षेत्रकी अपेक्षा असंख्यात करोड़ योजन और कालकी अपेक्षा असंख्यात वर्षमात्र है ॥१८१।। शेष देवोंके अवधिज्ञानका प्रमाण संखातीद-सहस्सा उक्कस्से जोयणाणि सेसारणं । असुराणं कालादो संखेज्ज-गुरणेण हीणा य ॥१२॥ अर्थ :-शेष देवोंके अवधिज्ञानका प्रमाण उत्कृष्ट रूपसे क्षेत्रकी अपेक्षा असंख्यात हजार योजन और कालकी अपेक्षा असुरकुमारोंके अवधिज्ञानके कालसे संख्यातगुणा कम है ।।१८२॥ अवविक्षेत्र-प्रमाण विक्रिया णिय-णिय-पोहोक्खेत्तं णाणा-रुवाणि तह 'विकुव्वंता । पूरंति असुर पहुवी भावण-देवा दस-वियप्पा ॥१३॥ !! अोही गदा ॥ १. द. क. वकुष्यंता, ज. ६. बकुवंतो । Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १८४-१८७ ] तदिनो महाहियारो [ ३१६ अर्थ :-असुरकुमारादि दस-प्रकारके भवनवासी देव अनेक रूपोंको विक्रिया करते हुए अपने-अपने अवधिज्ञान के क्षेत्रको पूरित करते हैं ॥१८३।। || अवधिज्ञानका कथन समाप्त हुमा ।। भवनवासी-देवोंमें गुणस्थानादिका वर्णन गुरग-जीवा पज्जत्ती पाणा सण्णा य मग्गणा कमसो। उवजोगा कहिदव्या एदाण कुमार-देवाणं ॥१८४।। अर्थ :- अब इन कुमार-देवोंके क्रमश: गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा प्रादि चौदह मार्गणा और उपयोगका कथन करना चाहिए ।।१४।। भवण-सुराणं प्रवरे दो 'गुणठाणं च तम्मि चउसंखा । मिच्छाइट्ठी सासरा-सम्मो मिस्सो विरक्सम्मा ॥१८॥ मर्थ :-भवनबासी देवोंके अपर्याप्त अवस्थामें मिथ्यात्व और सासादन ये दो तथा पर्याप्त अवस्थामें मिथ्यादृष्टि, सासादन-सम्यक्त्व, मिश्र और अविरत सम्यग्दृष्टि ये चार गुणस्थान होते हैं ॥१८॥ उपरितन गुणस्थानोंकी विशुद्धि-विनाशके फलसे भवनवासियोंमें उत्पत्ति ताण अपच्चक्खाणावरणोदय-सहिद भवण-जीवाणं । विसयाणंद-जुदाणं गाणादिह राग-पारायं ॥१६॥ सघिरदावि उपरिम दसगुणदाणाण-हेदु भूदायो। जामो विसोहियानो कइया वि-ण-ताश्रो जायते ॥१७॥ अर्थ: अप्रत्याख्यानावरण कषायके उदय सहित, विषयोंके आनन्दसे युक्त, नानाप्रकारकी राग-क्रियाओंमें निपुण उन भवनवासी जीवोंके देशविरत-पादिक उपरितन दस गुणस्थानोंके हेतुभूत जो विशुद्ध परिणाम हैं, वे कदापि नहीं होते हैं ॥१८६-१८७॥ १. व. गुणाणं वउ । Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : १८८-१६४ जीवसमासा दो चिचय णिवित्तियपुण्ण-पुण्ण भेदेण । पज्जती छच्चेय य तेत्तियमेत्ता अपज्जत्ती ॥१८॥ प्रयं :-इन देवोंके नित्यपर्याप्त और पर्याप्तके भेदसे दो जीवसमास, छह पर्याप्तियाँ और इतने मात्र ही अपर्याप्तियाँ होती हैं ।।१८८॥ पंच य इंविय-पाणा मण-वय-कायाणि प्राउ-प्राणपाणाई। पज्जते दस पाणा इदरे मण-ययण-प्राणपाणूणा ॥१६॥ पर्ष :...पर्याप्त अवस्थामें पांचों इन्द्रियप्राण, मन, वचन और काय, प्रायु एवं प्रानप्राण ये दस प्राण तथा अपर्याप्त अवस्थामें मन, वचन और श्वासोच्छ्वाससे रहित शेष सात प्राण होते हैं ॥१८९॥ चउ सण्णा तानो भय-मेहुण-पाहारनाथ-णामाणि । नेवासी शाखा ताकामा एक्करस-जोगा ॥१६॥ चउ-मण-चउ-वयणाई बेगुन्व-दुगं तहेव कम्म-इयं । पुरिसिस्थी 'वेद-जुदा सयल-कसाएहि परिपुण्णा ॥१६१॥ सन्वे छण्णाण-जुदा मदि-सुद-णाणाणि ओहि-जाणं च । मदि-अण्णाणं तुरिमं सुद-अण्णाणं विभंग-णाणं पि ॥१६२॥ सव्ये असंजवा ति-इंसण-जुत्ता प्रचक्खु-चक्खोही । लेस्सा किण्हा गोला कउया पीता य 'मज्झिमंस-जुदा ॥१३॥ भव्याभव्या, "पंच हि सम्महि समण्णिदा सन्थे । उबसम-वेदग-मिच्छा-सासण -मिच्छाणि ते होंति ॥१४॥ अर्थ :-वे देव भय, मैथुन, आहार और परिग्रह नामबाली चारों संज्ञापोंसे, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति और त्रसकाय से चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, दो वैक्रियिक ( वैक्रियिक, वैक्रियिक १. द. व. संहूणा, ज. संडूम्या, ठ. संदूणा । २. द. ब. क. ज. स. असंजदाई-दसण-जुत्ता य चक्खुप्रचनाखोही । ३. द. क. मझिमस्स-जुदा, ब. मज्झिमस-जुदा । ज. 3. जिमस्सजुदा । ४. व. क. ज. . एच हि । ५.ब. सासासण् । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १६५-१६७ ] तदियो महाहियारो [ ३२१ मिश्र ) तथा कामण इन ग्यारह योगोंसे, पुरुष और स्त्री वेदोंसे, सम्पूर्ण कषायोंसे परिपूर्ण, मति. श्रुत, अवधि, मतिप्रज्ञान, श्रुताज्ञान और विभंग, इन सभी छह ज्ञानोसे, सब असंयम, अचक्षु, चक्षु एवं अवधि इन तीन दर्शनोंसे, कृष्णा, नील, कापोत और पीतके मध्यम अंशोंसे, भव्य एवं अभव्य तथा प्रोपरामिक, वेदक, मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र इन पांचों सम्यक्त्वोंसे समन्वित होते हैं ।।१६०-१६४।। सण्णी' य भवणदेवा हवंति पाहारिणो अणाहारा । सायार-अणायारा उवजोगा होंति सवाणं ॥१६॥ अर्थ :-भवनवासी देव संझो तथा पाहारक और अनाहारक होते हैं, इन सब देवोंके साकार ( ज्ञान ) और निराकार ( दर्शन ! ये दोनों ही उपयोग होते हैं ।१९५।। मभिम-विसोहि-सहिदा उदयागद-सत्य- पगिदि-सत्तिगदा । एवं गुणठाणावी जुत्ता देवा व होति देयोप्रो ॥१६६॥ ॥ गुणठाणादी समत्ता ! अर्थ :-बे देव मध्यम विशुद्धिसे सहित हैं और उदयमें पाई हुई प्रशस्त प्रकृतियोंकी अनुभाग-शक्तिको प्राप्त हैं । इसप्रकार गुणस्थानादिसे संयुक्त देवोंके सदृश देवियाँ भी होती हैं ॥१९६॥ गुणस्थानादिका वर्णन समाप्त हुया 1 एक समयमें उत्पत्ति एवं मरणका प्रमाण सेढी-प्रसंखभागो विदंगुल-पढम-बग्गमूल-हयो । भवणेसु एक्क-समए जायंति मरंति तम्मेत्ता ॥१९७।। | जम्म-मरण-जीवाणं संखा समत्ता ॥ अर्थ :- घनांगुलके प्रथम वर्गमूलसे गुणित जमलेणीके असंख्यातवें-भाग प्रमाण जीव भवनवासियों में एक समयमें उत्पन्न होते हैं और इतने ही मरते हैं । १९७।। ॥ उत्पन्न होने वाले एवं मरने वाले जीवोंकी संख्या समाप्त हुई ।। ३. द. ब. क. एवं गुण्ठागजुत्ता १. द. ब. क. ज. 8. सन्थे। २. द. ब. क. ज. ४. परिदि। देवं वा होइ देवीप्रो । ज. . एवं गुणगणजुता देवा दा होए देवीयो । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयएण्णत्ती [ गाथा : १९८-२०२ भवनबासियोंकी प्रागति निर्देश णियकता भवणादो गम्भे 'सम्मुच्छि कम्म-भूमीसु। पज्जचे उप्पज्जवि गरेसु तिरिएसु मिच्छभाव-जुदा ॥१६॥ अर्थ :--मिथ्यात्वभावसे युक्त भवनवासी देव भवनोंसे निकल (चय ) कर कर्मभूमियोंमें गर्भज या सम्मूच्र्छनज त ।। सन्ति मनुष्यों अथवा दिनों में उल्लन्न होते हैं ॥१९॥ सम्भाइट्ठी देवा गरेसु जम्मंति कम्म-भूमीए । गब्भे पज्जससुसलाग-पुरिसा ण होंति कइयाई॥१६६।। प्रर्य :-सम्यग्दृष्टि भवनवासी देव ( वहाँसे चयकर ) कर्मभूमियोंके गर्भज और पर्याप्त मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, किन्तु वे शलाका-पुरुष कदापि नहीं होते ।।१६६॥ तेसिमणंतर-जम्मे णिबुदि-गमणं हदि केसि पि । संजम-देसवाई गेण्हते केइ भव-भीरू ॥२००॥ ॥ आगमणं गदं ॥ अर्थ :-उनमेंसे किन्होंके आगामी भवमें मोक्षकी भी प्राप्ति हो जाती है और कितने ही संसारसे भयभीत होकर सकल संयम अथवा देशब्रतोंको ग्रहण कर लेते हैं ॥२०॥ । आगमनका कथन समाप्त हुमा ।। भवनवासी-देवोंको प्रायुके बन्ध-योग्य परिणाम 'प्रचलिद-संका केई गाण-चरित्त किलिट्र-भाव-जुदा । भवणामरेसु पाउं बंधति हु मिच्छ-भाव-जुदा ॥२०१॥ अर्थ :-ज्ञान और चारित्रमें दृढ़ शंका सहित, संक्लेश परिणामों वाले तथा मिथ्यात्व भावसे युक्त कोई ( जीव ) भवनवासी देवों सम्बन्धी प्रायुको बांधते हैं ॥२०१॥ सबल-चरित्ता केई उम्मग्गंथा णिदाणगव-भावा । पावग-पहदिम्हि मया भावणवासीसु जम्मते ॥२०२॥ -. -. १. द. ब. क्र. ज. ४ सम्मुच्छ। २. द. ब. क. प्रावलिदसंखा। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया: २०३ २०७ ] तदिश्रो महाहियारो [ ३२३ :- शबल ( दोष पूर्ण ) चारित्र वाले, उन्मार्ग-गामी, निदान - भावोंसे युक्त तथा पापों की प्रमुखता से सहित जीव भवनवासियोंमें उत्पन्न होते हैं || २०२ ॥ प्रविणय सत्ता केई कामिणि-विरहज्जरेण जज्जरिदा । कलहपिया पाविट्ठा जायंते 'भवण- देवेसु ॥२०३॥ अर्थ :- कामिनीके विरहरूपी ज्वरसे जर्जरित कलहप्रिय और पापिष्ठ कितने ही अविनयी जीव भवनवासी देवोंमें उत्पन्न होते हैं ||२०३ || सष्णि असण्णी जीवा मिच्छा-भावेण संजुदा केई । 'जायंति भावणे दंसण-सुद्धा रंग कइया वि ॥ २०४ ॥ श्रथं :- मिथ्यात्व भावसे संयुक्त कितने ही संज्ञी और प्रसंज्ञी जीव भवनवासियोंमें उत्पन्न होते हैं, परन्तु विशुद्ध सम्यग्दृष्टि (जीव ) इन देवोंमें कदापि उत्पन्न नहीं होते ॥२०४॥ देव - दुर्गतियोंमें उत्पत्ति के कारण मरणे विराहिबम्हि य केई कंदप्प किब्बिसा देवा । अभियोगा संमोह प्यहुदी - सुर- दुग्गदीसु जायंते ॥२०५॥ अर्थ :- ( समाधि ) मरा के विराधित करनेपर कितने ही जीव कन्दर्प, किल्विष, श्रभियोग्य और सम्मोह आदि देव दुर्गतियोंमें उत्पन्न होते हैं || २०५ ! कन्दर्प- देवोंमें उत्पत्तिके कारण जे सच्च-वयण होगा 'हस्सं कुव्वंति बहुजणे णियमा । कंदप्प-रत-हिवया ते कंदध्पेसु जायंति ॥ २०६॥ अर्थ :- जो सत्य वचनसे रहित हैं। बहुजनमें हंसी करते हैं और जिनका हृदय कामासक्त रहता है, वे निश्चयसे कन्दर्प देवों में उत्पन्न होते हैं ॥ २०६ ॥ वाहन - देवों में उत्पत्ति के कारण जे · भूदि-कम्म- मंता भिजोग को दूहलाइ - संजुत्ता । जण-वंचणे पयट्ठा याहरण- देवेसु ते होंति ॥२०७॥ १. द. भवरणादिवेसु । २. द जायंते । ३. द. ब, क, ज ठ हिंसं । Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ ] तिलोयपाएत्ती [ गाथा : २०८-२११ अर्थ:- जो भूतिकर्म, मन्त्राभियोग और कौतुहलादिसे संयुक्त हैं, तथा लोगोंकी वंचना करने में प्रवृत्त रहते हैं, वे वाहन देवोंमें उत्पन्न होते हैं ।।२०७॥ किल्विषिक-देवोंमें उत्पत्ति के कारण तित्थयर-संघ-पडिमा-प्रागम-नांथादिएस पडिफूला। दुरिवणया णिगदिल्ला जायंते किरिबस-सुरेसु ॥२०॥ अर्थ:-तथंकर, संघ-प्रतिमा एवं आगम-ग्रन्थादिकके विषय में प्रतिकूल, दुविनयी तथा प्रलाप करनेवाले ( जीव ) किल्विषिक देवोंमें उत्पन्न होते हैं ।।२०८।। सम्मोह-देवोंमें उत्पत्तिके कारण उप्पह-उपएसयरा विप्पडिवण्णा जिरिंगद-मग्गम्मि । मोहेणं संमूढा सम्मोह-सुरेसु जायते ॥२०६।। अर्थ :-उत्पथ-कुमार्गका उपदंश करनेवाले, जिनेन्द्रोपदिष्ट मार्गके विरोधी और मोहसे - मुग्ध जीव सम्मोह जाति के देषोंमें उत्पन्न होते हैं ।।२०६।। असुरोंमें उत्पन्न होने के कारण जे कोह-माण-माया-लोहासत्ता किलिट्र-चारित्ता । वइराणबद्ध-रुचिणो ते उप्पज्जंति असुरेसु ॥२१०॥ पर्थ :- जो क्रोध, मान, माया और लोभमें आसक्त हैं; दुश्चारित्रबाले ( कूराचारी) हैं तथा बैर-भावमें रुचि रखते हैं । वे असुरोंमें उत्पन्न होते हैं ।।२१०॥ उत्पत्ति एवं पर्याप्ति वर्णन उप्पज्जते भवणे उववादपुरे महारिहे सयणे । पावंति छ- पत्ति जादा अंतो-मुहत्तेण ॥२१॥ प्रर्य :-( उक्त जीव ) भवनवासियोंके भवनके भीतर उपपादशालामें बहुमूल्य शय्यापर उत्पन्न होते हैं और अन्तर्मुहूर्तमें ही छह पर्याप्तियाँ प्राप्त कर लेते हैं ।।२११।। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २१२-२१६ ] तदिनो महाहियारो [ ३२५ सप्तादि-धातुओंका एवं रोगादिका निषेध अट्ठि-सिरा-रुहिर-घसा-मुत्त-पुरीसाणि केस-लोमाई । 'चम्म-बह-मस-पहुवी ण होति देवारण संघडणे ॥२१२॥ अर्थ :-देवोंको शरीर रचनामें हड्डी, नस, रुधिर, चर्बी, मूत्र, मल, केश, रोम, चमड़ा, नख और मांस आदि नहीं होते हैं ॥२१२॥ वष्ण-रस-पंध-फासे' अइसय-बेकुब्ब-दि-ब-खंदा हि । णेदेसु रोयवावि-उपठिदी कम्माणुभावेण ॥२१३।। मर्थ :-उन देवोंके वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्शके विषयमें अतिशयताको प्राप्त वैऋियिक दिव्य-स्कन्ध होते हैं, अतः कर्मके प्रभावसे रोग आदिकी उत्पत्ति नहीं होती है ।।२१३॥ भवणवासियोंमें उत्पत्ति समारोह 'उप्पण्णे सुर-भवणे पुव्वमणुग्धाउिदं कयारण-जुगं । उघडदि तम्मि समए पसरदि पाणंद-भेरि-रयो ॥२१४॥ प्रायफ्णिय भेरि-रवं ताणं वासम्हि कय-जयंकारा । एंति परिवार-देवा देवीयो पमोद-भरिदाश्रो ॥२१५।। यायंता जयघंटा-पडह-पड़ा-किदिबसा य गायति । संगीय-गट्ट-मागध-देवा एदार देवीप्रो ॥२१६॥ अर्थ :-सुरभवनमें उत्पन्न होनेपर पहिले अनुद्घाटित दोनों कपाट खुलते हैं और फिर उसी समय प्रानन्द भेरीका शब्द फैलता है । भेरीके शब्दको सुनकर पारिवारिक देव और देवियाँ हर्षसे परिपूर्ण हो जयकार करते हुए उन देवोंके पास पाते हैं। उस समय किल्विषिक देव' जयघण्टा, पटह और पट बजाते हैं तथा संगीत एवं नाट्यमें चतुर मागध देव-देवियाँ गाते हैं ॥२१४-२१६।। १. द. व. के. चम्मह, ज. ठ. पंचमह। २. द. क. ज. ठ, पासे। ३. गेहेसु रोपवादि-उठिदि, क. ज. छ. गेण्हेसु रोयवादि उवविदि। ४. द. ब. क. ज. छ. उप्पण-सुर-विमाणे । Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ ]. तिलोयपण्णत्ती विभागज्ञान उत्पत्ति देवी-देव-समुहं दणं तस्स विम्हओ होदि । तक्काले उष्पज्जदि विब्भंगं योव-पच्चवखं ।।२१७।। [ गाथा : २१७-२२० अर्थ :- उन देव देवियोंके समूहको देखकर उस नवजात देवको प्राश्चर्य होता है, तथा उसी समय उसे प्रत्यक्षरूप प्रल्प-विभंग-ज्ञान उत्पन्न हो जाता है ।।२१७॥ नवजात देवकृत पश्चाताप माणुस - रिच्च भवम्हि पुचे लद्धी ण सम्मत्त मणी' पुरुवं । तिलप्यमाणस्स सुहस्स कज्जे चत्तं भए काम विमोहिदेण ॥२१८॥ अर्थ :- मैंने पूर्व काल में मनुष्य एवं तिर्यच भवमें सम्यक्त्वरूपी मरिणको प्राप्त नहीं किया और यदि प्राप्त भी किया तो उसे कामसे विमोहित होकर तिल प्रमाण अर्थात् किंचित् सुखके लिये छोड़ दिया ।।२१८ ।। जिणोवदिद्वागम-भासणिज्जं देसव्यदं गेरिहय सोक्ख-हेतु । मुक्कं मए दुव्विसयत्यमप्पस्सोक्खाणु-रसेण विचेदणेण ॥ २१६ ॥ अर्थ :- जिनोपदिष्ट आगम में कथित वास्तविक सुखके निमित्तभूत देशचारित्रको ग्रहण करके मेरे जैसे मूर्खेने अल्प सुखमें अनुरक्त होकर दुष्ट विषयोंके लिये उसे छोड़ दिया ॥ २१६ ॥ प्रपंत' णाणादि- चउक्क हेदु णिवारण- बीजं जिणणाह-लिंगं । पभूब- कालं धरितॄण चतं मए मयंधेण बहू-निमित्तं ॥ २२० ॥ अर्थ :- अनन्तज्ञानादिचतुष्टयके कारणभूत और मुक्तिके बीजभूत जिनेन्द्रनाथके लिंग ( कलचारित्र) को बहुत कालतक धारण करके मैंने मदान्ध होकर कामिनीके निमित्त छोड़ दिया ॥ २२० ॥ १. द. ब. क. अ. ठ मरणे । २. द. ब. क. ज ठ ण्ड्य । ३. द. ब. क. ज. व पाणारिए । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदिश्नो महाहियारो कोहेण लोहेण भयंकरेण माया-पवचेण समच्छरेण । माणेण 'वड्ढत महाविमोहो मेल्लाविदोहं जिणरगाह - लिंगं ।। २२१ ॥ गाथा : २२१-२२५ ] अर्थ :- भयंकर क्रोध, लोभ और मात्सर्यभावसहित माया-प्रपंच एवं मानसे वृद्धिगत ज्ञानभावको प्राप्त हुआ मैं जिनेन्द्र-लिंगको छोड़े रहा ||२२१॥ एवेति वोह सति णिवाण- फलम्हि विग्धं । तुच्छं फलं संपड़ जादमेदं एवं मणे वड्डिद तिथ्य - दुक्खं ।। २२२|| [ ३२७ अर्थ :- ऐसे दोषों तथा संक्लेशोंके कारण, निर्धारण के फलमें विघ्न डालकर मैंने यह तुच्छफल ( देव पर्याय ) प्राप्त कर तीव्र दुःखोंको बढ़ा लिया है; मैं ऐसा मानता हूं ||२२२|| । बुरंत संसार विणास हेदु रिव्याण-मम्मि परं पदी गेम्हंति सम्मत्तमत- सोक्खं संपादिणं इंडिय-मिच्छ - भावं ॥२२३॥ अर्थ :- (वे देव उसी समय ) मिथ्यात्वभावको छोड़कर दुरन्त संसारके विनाश के कारणभूत, निर्वाण मार्ग में परम प्रदीप, अनन्त सौख्यके सम्पादन करने वाले सम्यक्त्वको ग्रहण करते हैं ||२२३|| तादो देवी- णिवही प्राणंदेणं महाविभूदीए । सेसं भरति ताणं सम्मसग्गहण - तुट्टाणं ॥ २२४।। अर्थ :- तब महाविभूतिरूप प्रानन्दके द्वारा देवियोंके समूह और शेष देव, उन देवोंके सम्यक्त्व ग्रहणसे संतुष्टिको प्राप्त होते हैं ||२२४।। जिणपूजा - उज्जोगं कुणंति केई महाविसोहीए । केई पुयिल्लाणं देवाण पबोहण-वसेण ॥ २२५॥ | श्चर्य :-कोई पहले से वहां उपस्थित देवोंके प्रबोधन के वशीभूत हुए ( परिणामों की महाविशुद्धि पूर्वक जिन पूजाका उद्योग करते हैं ।। २२४ || १. द. पत्ते ण । २. द. ब. क्र. ज. ठ. बंदंत । Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ ] तिलोय पण्णत्ती पठम दहहदारणं तत्तो प्रभितेय मंडव - गवाण । सिंहासट्टिदाणं एदाण सुरा कुरांति अभिसेयं ॥ २२६ ॥ [ गाथा : २२६-२३० अर्थ :- सर्व प्रथम स्नान करके फिर अभिषेक मण्डपके लिए जाते हुए ( सद्योत्पन्न ) देवको सिंहासन पर बैठाकर ये ( ग्रन्य ) देव अभिषेक करते हैं ।। २२६ ॥ भूसणसालं पविसिय मउडाबि विभूसणाणि दिव्याई । गेण्यि विचित्त-वत्थं देवा कुच्वंति रोपत्थं ||२२७|| अर्थ :- फिर प्राभूषणशाला में प्रविष्ट होकर मुकुटादि दिव्य आभूषण ग्रहण करके अन्य देवगण प्रत्यन्त विचित्र ( सुन्दर ) वस्त्र लेकर उसका वस्त्र विन्यास करते हैं ।। २२७ ।। नवजात देव द्वारा जिलाभिषेक एवं पूजन आदि ततो यवसायपुरं पविसिय पूजाभिसेय-जोग्गाई । गहिव दवाई देवा देवीहि संजुत्ता ॥ २२८ ॥ पच्चिद-विचित्त- केदण-माला वर चमर- छ्स सोहिल्ला । रिब्भर - भक्ति-पसण्णा वच्चंते फूड - जिण - भवणं ॥ २२६॥ अर्थ :- पश्चात् स्नान आदि करके व्यवसायपुर में प्रवेश कर पूजा और अभिषेक के योग्य द्रव्य लेकर देव देवियों सहित झूलती हुई श्रद्भुत पताकाओं, मालाओं, उत्कृष्ट चमर और छत्रोंसे शोभायमान होकर प्रगाढ़ भक्तिसे प्रसन्न होते हुए वे नवजात देव कूटपर स्थित जिन भवनको जाते हैं ।। २२८-२२६।। पाविय जि-पासादं वर-मंगल-तूर रइवहलबोला । देवा देवी सहिदा कुत्वंति पदाहिणं णमिदा ||२३०|| अर्थ :- उत्कृष्ट माङ्गलिक वाद्योंके रवसे परिपूर्ण जिन भवनको प्राप्तकर वे देव, देवियों के साथ नमस्कार पूर्वक प्रदक्षिणा करते हैं ||२३०|| १. द. क. ततो वसाय । २. द. ब. फ. ज. उ. हि । Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २३१-२३७ ] तदियो महाहियारो सौहासण-छत्त-तय-भामंडल-चामरादि-चारूपो । बठूण जिणप्पडिमा जय-जय-सद्दा पकुवंति ॥२३१॥ योदूण थुदि-सएहि विचित्त-चित्तावली णिबद्ध हि । तत्तो जिणाभिसेए भत्तीए कुणंति उज्जोगं ॥२३२॥ खोरोवहि जल-पूरिद मणिमय-कलि मड-सहस्सेहिं । मंसुग्घोसणमुहला जिणाभिसेयं पकुव्यंति ॥२३३ ।। मर्थ :---( जिनमन्दिरमें ) सिंहासन, तीन छत्र, भामण्डल और चमर प्रादि ( पाठ प्रातिहार्यों ) से सुशोभित जिनेन्द्र मूर्तियोंका दर्शनकर जय-जय शब्द करते हैं, फिर विचित्र अर्थात् सुन्दर मनमोहक शब्दावली में निबद्ध अनेक स्तोत्रोंने स्तुति करके भक्ति सहित जिनेन्द्र भगवानका अभिषेक करनेका उद्योग करते हैं। क्षीरोदधिके जलसे परिपूर्ण १००८ मणिमय घटोंसे मन्त्रोच्चारण पूर्वक जिनेन्द्र भगवानका अभिषेक करते हैं ।।२३१-२३३।। पडु-पडह-संख-मद्दल-जयघंटा काहलादि बज्जेहिं । वाइज्जते हि सुरा जिणिव-पूजा पकुवंति ॥२३४।। अर्थ :-(पश्चात् ) वे देव उत्तम पटह, शङ्ख, मृदङ्ग जयघण्टा एवं काहलादि बाजोंको बजाते हुए जिनेन्द्र भगवानको पूजा करते हैं ।।२३४।। भिगार-कलस-इप्पण-छत्तत्तय-चमर-पहुवि- विहिं। पूजंति 'फलिय-दंडोवमाण-वर-वारि-धारहिं ॥२३५॥ गोसीस-मलय-चंदण-कुंकुम-पंकेहि परिमलिल्लेहि । मुत्ताफलुज्जलेहि सालीए तंवलेहिं 'सयलेहि ॥२३६॥ बर-विविह-कुसुम-माला-सएहि दूरंग-मत्तांधेहिं । प्रमियादो महुरेहिं गाणाविह-विश्व-भोहिं ॥२३७॥ १. ६. ब, क. ज. ठ. पलिह । २. द. सालेहि । Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० ] [ गाथा : २३८-२४१ तिलोय पण्णत्ती रयणुज्जल- दीवेहि सुगंध-धूवेहि मणहिरामेहि । पक्केहि फणस - कदली- दाडिम- दक्खादि य फलेहि ॥ २३८ ॥ अर्थ :- वे देव दिव्य झारी, कलश, दर्पण, तीन छत्र श्रौर चामरादिसे; स्फटिक मणिमय दण्डके तुल्य उत्तम जलधाराओंोंसे; सुगन्धित गोशीर मलय-चन्दन और केशरके पङ्कोंसे मोतियों के समान उज्ज्वल शालिधान्यके खण्डित तन्दुलोंसे, दूर-दूर तक फैलनेवाली मत्त गन्धसे युक्त उत्तमोत्तम fafa प्रकारकी सैकड़ों फूल मालाओंसे अमृत से भी मधुर नानाप्रकारके दिव्य नैवेद्योंसे मनको श्रत्यन्त प्रिय लगनेवाले रत्नमयी उज्ज्वल दीपकों से सुगन्धित धूप से और पके हुए कटहल, केला, दाड़िम एवं दाख' आदि फलोंसे ( जिनेन्द्र देवकी ) पूजा करते हैं ।। २३५-२३८ ।। पूजन के बाद नाटक पूजाए श्रवसाणे कुरुते गाडयाइ विविहारं । पवरच्छराप-जुत्ता- बहुरस-मायाभिषेशाई दादी अर्थ :- ( वे देव ) पूजाके ग्रन्तमें उत्तम अप्सरानों सहित बहुत प्रकारके रस, भाव एवं भिसे विविध प्रकार के नाटक करते हैं ।। २३९ ।। सम्यग्दृष्टि एवं मिथ्यादृष्टि देवके पूजन- परिणाममें अन्तर णिस्सेस-कम्मक्क्क' हेदु ं मण्णतया तत्थ जिणंद-पूजं । सम्मत्त जुसा विरयंति रिगच्चं देवा महाणंद - विसोहि पुषं ॥ २४० ॥ कुलाहिदेवा इव ममाणा पुराण- देवाण पबोहणेण । मिच्छा-जुदा ते य जिरिंग- पूजं भक्त्तीए णिच्वं शियमा कुर्णति ।। २४१ ॥ अर्थ :- अविरत - सम्यग्दृष्टि देव, समस्त कर्मोके क्षय करनेमें एक अद्वितीय कारण समझकर नित्य ही महान् अनन्तगुणी विशुद्धिपूर्वक जिनेन्द्र देवकी पूजा करते हैं किन्तु मिथ्यादृष्टि देव पुराने १. द. ब. क. ज. छ. क्खवहेदु । २. द. व. क. ज. अ. सम्मत्त विश्यं । ३. द. व. कुलाइदेवा | क. ज. द. कुलाई देवाई | ४ द. क. ज. ठ. भक्तीय | Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया : २४२-२४५ ] तदिन महाहियारी [ ३३१ देवोंके उपदेश से जिनप्रतिमाओं को कुलाधि देवता मानकर नित्य ही नियमसे भक्तिपूर्वक जिनेन्द्राचंन करते हैं ।। २४०-२४१ ।। जिनपूजा के पश्चात् कावूण दिव्य पूजं प्रागध्छिय निय-नियम्मि पासावे । सिंहासरणाहिरूदा 'अलग्गं देति देवा गं ॥ २४२ ॥ | अर्थ :- वे देव, दिव्य जिनपूजा करने के पश्चात् अपने-अपने भवन में श्राकर प्रोलगशाला ( परिचर्या गृह ) में सिंहासनपर विराजमान हो जाते हैं ।। २४२ || भवनवासी देवोंके सुखानुभव विविह - रतिकरण - भाविद विसुद्ध बुद्धीहि विव्य-रूहि । गाणा - विकुवां बहुविलास - संपत्ति जुत्ताह ॥२४३॥ मायाचार- विवज्जिद-पर्यादि-पसण्णाहि अच्छराहि समं । णिय- णिय- विभूवि-जोग्गं संकप्प- वसंगदं सोक्खं ॥ २४४ ॥ पड़-पह पहुवीहि सत्त सराभरण - महर - गीदेहि I यर - ललिव-गच्चह देवा भुजंति जयभोगं ।। २४५ ।। अर्थ :- ( पश्चात् वे देव ) विविध रूपसे रतिके प्रकटीकरण में चतुर, दिव्य रूपोंसे युक्त, नाना प्रकार की विक्रिया एवं बहुत विलास - सम्पत्तिसे सहित तथा मायाचारसे रहित होकर स्वभावसे ही प्रसन्न रहने वाली अप्सराओोंके साथ अपनी-अपनी विभूतिके योग्य एवं संकल्पमात्र से प्राप्त होने वाले सुख तथा उत्तम पटह आदि वादित्र, सप्त स्वरोंसे शोभायमान मधुर गीत तथा उत्कृष्ट सुन्दर नृत्यका उपभोग करते हैं ।।२४३-२४५।। १. [ श्रलगसालम्मि ] Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ ] तिलोयपण्णत्ती हि पि विजाणतो प्रष्णोष्णुप्पण्ण-पेम्म- मूळ सणा । कामंधा ते सव्वे गदं पि कालं ण जाणंति ॥ २४६ ॥ [ गाथा २४७-२४६ अर्थ :- अवधिज्ञानसे जानते हुए भी परस्पर उत्पन्न प्रेमसे मूढमनवाले मानसिक विचारोंसे युक्त वे सब देव कामान्ध होकर बीते हुए समयको भी नहीं जानते हैं ।। २४६ || वर-रयण-कंचणमये विचित्त-सयलुज्जलम्मि पासादे | काला गरु - गंध राग- णिहारणे रमंति सुरा ॥२४७॥ अर्थ :---वे देव उत्तम रत्न और स्वर्णसे विचित्र एवं सर्वत्र उज्ज्वल, कालागरुकी सुगन्धसे व्याप्त तथा रागके स्थानभूत प्रासादमें रमण करते हैं ।। २४७ || सयपाणि श्रासणाणि मउवारिण विचित्त- रूब- रइदारिं । तणु-मरण - नयणाणंदण - जणणाणि होंति देवाणं ॥ २४८ ॥ अर्थ : देवोंके शयन और श्रासन मृदुल, विचित्र रूपसे रचित तथा शरीर, मन एवं नेत्रोंके लिए आनन्दोत्पादक होते हैं || २४८ ॥ पास-रस- रूय' - सद्बुणि गंधेहि वढियाणि 'सोक्खाणि । 3 उबभुजंता देवा तिसि ण लर्हति णिमिसं पि ॥ २४६ ॥ अर्थ :- (वे देव ) स्पर्श, रस, रूप, सुन्दर शब्द और गन्धसे वृद्धिको प्राप्त हुए सुखोंका अनुभव करते हुए क्षणमात्र के लिए भी तृप्तिको प्राप्त नहीं होते हैं || २४६ ॥ १. द. क. ज. 5. रूववज्जूरिण गंधेहि, ब. रूवचक्र गंधेहि । २. द. ब. क. ज. ठ. सोज्जारिण । ३. द. ब. क. उवयंजुत्ता । ज. ठ. उत्रवयजुत्ता । Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३३ गाथा : २५०-२५२ ] तदिनो महाहियारो दीयेसु गिदेसु भोग-खिदोए वि गंदण-वणेसु। वर-पोक्खरिणी-पुलिणत्यलेसु कोडंति राएण ॥२५०॥ ॥ एवं 'सुहप्परूवणा समत्ता । अर्थ :-( वे कुमार देव ) रागसे-द्वीप, कुलाचल, भोगभूमि, नन्दनवन एवं उत्तम बावड़ी अथवा नदियोंके तट स्थानों में भी क्रीड़ा करते हैं ॥२५०।। इस प्रकार देवोंको सुख-प्ररूपणाका कथन समाप्त हुआ । सम्यक्त्वग्रहणके कारण भवरणेसु समुप्पण्णा पत्ति पाविदूरग छन्भेयं । जिण-महिम-वंसणेणं केई 'देविद्धि-दसणदो ॥२५१।। जादीए सुमरणेणं घर-धम्मप्पबोहणावलद्धीए। गेण्हते सम्मत्तं दुरंत-संसार-णासयरं ॥२५२।। ॥ सम्मत्त-महणं गदं ।। अर्थ :-भवनोंमें उत्पन्न होकर छह प्रकारको पर्याप्तियोंको प्राप्त करने के पश्चात् कोई जिन-महिमा ( पंचकल्याणकादि ) के दर्शनसे, कोई देवोंकी ऋद्धिके देखनेसे, कोई जातिस्मरणसे और कितने ही देव उत्तम धर्मोपदेशकी प्राप्तिसे दुरन्त संसारको नष्ट करनेवाले सम्यग्दर्शनको ग्रहण करते हैं ॥२५१-२५२॥ ॥ सम्यक्त्यका ग्रहण समाप्त हुभा ॥ १. द. ब. क. ज. उ. सस्वप्पं । २. द. ब. के. ज. ठ. देविंद। Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ ] [ गाथा : २५३-२५४ तिलोसपण्णत्ती भवनवासियोंमें उत्पत्तिके कारण जे केइ अण्णाण-तवेहि जुत्ता, णाणाविहुप्पाडिव-देह-दुक्खा । घेत्तूण सण्णाण-तवं पि पावा उज्झति जे दुविसयापसत्ता ।।२५३॥ विसुद्ध-लेस्साहि सुराउ-बंध 'काऊण कोहादिसु घाविवाऊ । सम्मत्त-संपत्ति-विमुक्क-बुद्धी जाति एदे भवरणेसु सव्वे ॥२५४।। अर्थ :-जो कोई अज्ञान-तपसे युक्त होकर शरीरमें नानाप्रकारके कष्ट उत्पन्न करते हैं, तथा जो पापी सम्यग्ज्ञानसे युक्त तपको ग्रहण करके भी दुष्ट विषयोंमें आसक्त होकर जला करते हैं, वे सब विशुद्ध लेश्याओंसे पूर्वमें देवायु बाँधकर पश्चात् क्रोधादि कषायों द्वारा उस प्रायुका घात करते हुए सम्यक्त्वरूप सम्पत्तिसे मनको हटा कर भवनवासियों में उत्पन्न होते हैं ॥२५३-२५४।। १. द. ब. कोअरण। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HORIRaaaaaaaaaaaaaaaaa00RORowane महाधिकारान्त मंगलाचरण सण्णारग-रयण-दीवं लोयालोयप्पयासरण-समत्थं । पणमामि सुमइ-सामि सुमइकरं भग्व-संघस्स ॥२५५॥ एवमाइरिय-परंपरागय-तिलोयपण्पत्तीए भवणवासिय-लोयसरूव-रिणरूवणं पण्णत्ती णाम-- । तदियो महाहियारो समतो ।। अर्थ :-जिनका सम्यग्ज्ञानरूपी रत्नदीपक लोकालोकके प्रकाशनमें समर्थ है एवं जो ( चतुर्विध ) भव्य संघको सुमति देने वाले हैं, उन सुमतिनाथ स्वामीको मैं नमस्कार करता हूं ॥२५॥ इसप्रकार प्राचार्य-परम्परागत-त्रिलोक-प्रज्ञप्तिमें भवनवासी-लोकस्वरूप निरूपण-प्रज्ञप्ति नामक तीसरा महाधिकार समाप्त हुआ। Boxxxmo0000000000000000000 Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती : प्रथम खण्ड ( प्रथम तीन महाधिकार ) अतित्तकडुकरि अह ह श्रग्गमहिसी ससमं श्रग्गिकुमारा सवे अग्गीवाणरणामो प्रचलित संका केई अजगज महिस तुरंगम अजगज महिस तुरंगम प्रजगज महिस तुरंगम अजियजिरणं जियमयणं अज्जखर करहसरिसा अगुणिदेव ढी अट्ठछच उदुगदे अट्टताले दलिद अत्तालं दुस अत्ती लक्खा अठ्ठरस महाभासा विसिहासनाणि अविकम्मवियला भ्र गाथानुक्रमणिका अधिकार/गाथा २ १ ३ ३ ३ २ २ २ docxxxx २ २ १ १ २ २ २ १ २ १ ३४६ १२० ६१ १२२ १६ २०१ * ३०६ ३४७ १ ३०७ १६५ २७९ ७१ १६१ ११५ ६१ २३२ १ साहिय बिसगं असगछक्क परणच उ असे जुदा अट्ठ सोलस बत्तीसहति श्रद्वाणउदिविहत्तो श्रद्वाणउदी जोयर अट्टाउदी सत्रसय अट्टाउदी णवसय अादि वित्ता अडाणवदि विहतं अड्डा पि दिसा अवारस ठाणेसु अङ्गारस लक्खारिए अडविण्णा दंडा सविता मेढी अट्ठावीसविता सेठी agraati लक्खा श्रट्टासट्टीही सिरारुहिर वसा अधिकार / गाधा १ २७० १ २१६ २ २८७ १ २०६ १५३ २११ १८४ १७७ १८५ २६० २४५ ५७ १२३ १३७ ३ १ २ २ २ १ १ २ १ २ २ १ १ २ २ ३ २५६ २४३ २४४ १२६ ६३ २१२ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिदे अगदी बाउदी अडवीस उणहरि sari छवीसं अड्वाइज्ज स्याणि अाइज्जं पल्लं अढाइज्जा दो य अतरणारएणादि चउक्क अनुभाग देसाई अण्णाधोरतिमिरे अहि अहि अग्लो बज्ते अदिकुरिणममसुमणं अद्धारपल्लछेदे अप्पमद्धिमज्झिम अप्पारणं मण्णता अन्नंतर दव्यमल अपि कजाकज्जो अयदंबत उरसासय अरिहारणं सिद्धाएं अवरं मज्झिमउत्तम अवसादि अवरज्जू अवसेस इंदा अक्सेससुरा स असिता केई असुरपदी गंदी असुरम्मि महिसतुरगा असुरारण पंचवीस अधिकार/गाथा 警 १०४ १ २४६ १ २४ε ३ ३ ३ ३ ३ १ १ १ २ २ १ ३ २ २ २ ? १ ( ३३८ ) १ २ ३ ३ ३ २ ७४ १०२ १.७१ १५१ २२० १२ ४ ७५ ३२५ ३४८ १३१ २४ ३०७ १३ ३०१ '१२ १६ १२.२ १६० -५४ १६८ २०.३ १२५ ७८ १७७ असुराणामसंखेज्जा असुरा गागसुवण्णा असुरादिदसकुसु असुरादिसकुलेसु असुरादी भवगासुरा अस्सल्यसन्तमण्णा अहवा उत्तरइंदेसु अहवा बहुमेari अवा मंगं सोक्ख गोगट्टी अंजामूलं अंक अंतादिमां आउस बंषसमए आतुरिमखिदी चरिमंग मदिरा होणा हो आणि आदिम संहारणजुदो आदी अंते सोहिय बदीओ णिद्दिद्वा आदी छोट्स आदेसमुत्तमुतो fore भेरि आ बारिंदर सिट्ठी श्रारो मारो तारो आहुट्ठ रज्जुवरणं अधिकार / गाथा १८१ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ १ १ २ २ १ २ ३ १ १ २ २ २ १ ३ २ २ १ १ १०८ १७६ १३१ १३७ १४७ १४ १५ ३३६ १७ ६८ २९४ २६३ ३६ १३३ ५७ २१६ ६.१ १५८ १०१ २१५ ५० ४४ १८८ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३६ ) अधिकार गाथा अधिकार गाथा ११४ १२३ २११ ११८ १०२ २ ६४ १८० १२१ १०७ ३५३ इगितीसं लपखाणि इगतीस उवहि उवमा इच्छे पदरविहीणा इविदयप्पमाणं इय णायं अवहारिय इय मूल तंतकत्ता इय सक्खापच्चक्खं इह खेत्ते जह मणुवा इह रयण सक्करावालु इंगालजाल मुम्मुर इंदपडिददिगिदय इंदपजिंदप्पहृदी इंदयसे ढीबद्धा इंदयसेठीबद्धा इंदयसेढीबद्धा इंदसमा पडिइंदा इंदादी पंचण्ण ईदा रायसरिच्छा १५२ ३२८ १४३ उरणदालं लक्वागि उणवणमजिदसे ही उणवण्णा दुसयाणि उणवीसजोयणेसु उत्तपइण्णयमज्झे उत्तमभोगखिदीए उदओ हवेदि पुब्बा उदहित्यणिदकुमारा सद पनि उद्दिठं पंचोणं उद्धियदिवढमुख उप्पज्जते भवणे उप्पण्णे सुरभवणे उप्पहउवएसयरा उभयेसि परिमाणं उवरिमखिदिजेडाऊ उपरिमलोयाआरो उववादमारणंतिय उबसणा सप्सो वि य उवहिउवमाणजीवी उस्सेहअंगुलेणं उस्सेहोहि पमारणं rom roor mmrom mm worrorm or ar २१४ २०६ ११७ ७२ २०६ १३८ ११४ १०३ २८० २६४ ऊरापमाणं दंडा उच्छेहजोयणारिण उड्ढजगे खलु वड्डी उड्दुड्ढं रज्जुघणं उण्णवदी तिणि सया उणतीसं लक्खारिण उरणदालं पण्णत्तरि १९८ | एक्कारसलक्खारिंग Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोणसहित्या एक्क ति सग दस सत्तरस एक्कत्तरिलक्खाfरंग एक्कत्तालं दंडा एक्कत्तालं लक्ष्खा एक्कत्ति िय सत्तं एक्कत्तीस दंडा एक्क दुतियंचसत्तय एक्मेक्कहत्थो एक्का हत्था एक्कपनिदोवमाऊ एक्कपलिदोवमाऊ एक्कलिदोषमाऊ एक्करसवण्णगंधं एक्कविहोगा जो एक्कसि गरिए एक्कसि गिरिगइए एक्कं कोदंउस एक्कं कोदंउस एक्कं जो णलवखा एक्कत तेरसादो एक्कायिखिदिसंख एक्कारसचावाणि एक्कासीदी लक्खा एक्केक्क माणथंभ एक्के करज्जुमेत्ता एक्कसि दे एक्केवक रोमम्म अधिकार/गाथा २ २४१ २ ३५४ ३ ८५ २६६ ११२ २०४ २५२ ३१२ २२१ २४३ १४८ १५६ १६५ २ २ २ २ २ २ २ ३ ३ ३ १ २ १ १ ક્ २ २ ( ३४० ) २ २ ३ ३ १ ३ १ ९७ १६९ २३६ २५२ २६४ २६५ १५५ ३९ १५७ २३६ ८ १ १४० १६२ ६२ १२५ एक्कोच उसयाई एकोणतीस दंडा एकोणतीसलखा एक्कोणमवणिइदय एक्करेणपणदंडा एकोणवीस दंडा एकोणवी सलक्खा एक्कोण सहि हत्था एक्कोरणा दोणि सा एमको हवेदि रज्जू एक्को वेदि रज्जू एक्को हवेदि रज्जू एतो दलरज्जूर्ण एतो चउचउहीसं एत्थावसप्पिणीए एक्स्स उदाहरणं एवं खेत्तपमाणं एदाए बहलतं एदारणं पल्लाणं एदाणं भवगाणं एदाणि य पत्तेक्कं दासि भासाणं ए. ट्ठ सुरिंदा एदेण पयारेण एदेणं पल्लेणं एस देवा एदेहि दोसेहि देह ह अविकार/गाथा १ २ २ २ २ २ २ २ १ २ २ २ १ १ १ १ १ २ १ ३ १ ? ३ १ १ ३ २२६ २५१ १२५ ६५ २५७ २४५ १३६ २४१ २३२ १७० १७२ १७४ २१४ २८२ ६८ २२ १८३ १५ १३० १२ १९६ ६२ १४३ १४८ १२८ ११.० २२२ ६४ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिकार/गाथा ४३ : ل ه م ३५.२ एबज्जिय अबसेसे एवमवसेसखेत्तं एवं अठ्ठवियप्पा एवं अट्ठवियप्पा एवं अणेयभेयं एवं पण्ण रसविहा एवं बहुविहदुखं एवं बहुविहरयण एवं रयणादीणं एवं वरपंचगुरू एवं सत्तखिदीणं له که له ( ३४१ ) अधिकार/गाथा करितुरयरहाहिवई १४७ कखापिपासणामा २३७ कादूरण दिव्वपूर्ज २५३ कापिट्ठ उपरिमंते कालग्गिमद्दणामा कालो रोरवणामो किण्हादितिलेस्स जुदा किण्हा प्रणीलकाऊ २७१ किण्हा रयणसुमेधा कुलदेवा इदि मपिणय कुलाहिदेवा इव मण्णमाणा कूडाण समंतादो कूडोवरि पत्तेवक केई देवाहितो ३ २४६ केवलणाणतिशेतं केवलणाणदिवायर केसवबलचक्काहरा कोसदुगमेककोसं कोहेण लोहेग भयंकरेश ५.४ २१६ سه سه لله به २४१ ५५ سه ن २६E भोलगसालापुरदो ओहि पि विजाणतो هه یه له , اسع २२१ कच्छुरिकरकचसूई करण्यधराधरधीरं कणर्य व णिरुवलेवा कत्तरि सलिलायारा कत्तारो दुनियप्पो कदलीधादेण विणा कम्ममहीए वाले कररुहकेसविहीणा करवत्तकं धुरीदो करवत्तसरिच्छाओ करवालपहरभिण्णं खरपंकप्पब्बहुला खरभागो णादवो खंदं सयलसमत्थं खीरोयहि जलपूरिद खे संठियच उखंड खेत्त जवे विदफलं ३४४ । खेत्तं दिवड्ढसयथणु x २३९ २ १६४ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गच्छ गुगाया रे गरगरायमंतितलवर गहिर बिलधूम मारुद गायदि विरणासयदे गिद्धा गरुडा काया गिरिकंदर विसंतो गुणगारा परणउदी गुरजीका पज्जत्ती गुणजीवा पज्जत्ती गुणपरिणदासणं परि वेज्ज वासि गोउरदारजुदाश्रो गोमुत्तमुग्गवण गोसीस मलय चंदरण गोहत्यितुरयमत्था ग फलकम्म धम्माए आहारो धम्माए गारइया धम्मादी खिदितिदए धम्मादी पुढवीणं धम्मासामेघा घ घरणधाइकम्म महणा घरणफल मुवरिमट्ठिम घरफलमेवम्मि जबे धफलकम्म जवे लोश्रो अधिकार/गाथा १ २ १ २ २ १ २ ३ १ १ ३ १ ३ २ १ १ १ ( ३४२ ) १ १ २ २ २ २ શ્ ८० ४४ ३२१ ३३८ ३३२ २४५ २७३ १८४ २१ १६२ २६ २७१ २३६ २०५ २ ૨૫૪ २२१ २४० २५७ ३४६ १६६ ३६२ ४६ १५३ चको सेहि जोयरण चउगोउरा ति साला चउजोयरण लमखारिंग चउठाणे सुष्णा ठाणे सुणा चउतीसं चचदालं ती लक्खारिंग तोरणा हिरामा दंडा इहित्य उदाल चावारिंग दुति इगितीसहि उपासारिंग सु चच मरण च वयगाइ उरस्सो पुब्वाए रुवाई आदि सोहि चवीस मुताि चवीसवीस बारस चवीससहस्सा हिय चउati लक्खा रंग चवीस लखारिण उस सारंग हिस्साणि चउसट्ठी चउसीदी उसण्णा ताम्रो भय चउसीदि चउसयाणं उदितिगुणिदरज्जू अधिकार/गाथा ? ३ र ३ ३ ३ २ ३ २ २ ३ ३ १ २ ? २ २ ३ २ 사 २ ३ ३ ३ १ १ ११६ ४३ १५२ ८४ 5 ܘܐ ११६ ३८ २५३ २५६ २२२ ६१ १९१ ६६ 50 ५९ २८८ ६८ ७३ σὲ १३० १९२ ७० ११ १६० २३१ २५६ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४३ ) अधिकार/गाथा अधिकार/गाथा ३३६ 8 ६६ १४१ २४० ७७ चेसमामूले बोत्तीस लक्खाणि घोदाल लक्खाणि चोद्दसजोयणलक्खा चोहसदंडा सोलस चोद्दसभजिदो तिगुणो चोहसभजिदो तिउणो चोद्दसरज्जुपमाणो चोदस जोयण लक्खा चोदसलक्खाणि तहा चोइस सयाणि छाहत्तरी चोद्दस सहस्सजोयण २६७ १५० १२५ २७४ ५४१ २६४ ११२ ११६ चक्कसरकण्यतोमर धाकसर सूल तोमर सत्तांरिच्चिय एदे अत्तारि लोयपाला चत्तारि सहस्साणि चत्तारि सहस्साणि बत्तारि सहस्सारिण चउ खत्तारो कोदंडा चत्तारो गुणठागा चत्तारो चावाणि समरगिममहिसीणं चमरदुगे अाहारो चमरदुगे उस्सासं चरिंदो सोहम्मे चयदलहदसंकलिदं चयहदमिच्छूणपदं चयहदमिट्ठाधियपद चामरदुंदुहि पीढ चालीस कोदंडा चालीसं लक्खाणि चालुत्तरमेक्कसयं चावसरिच्यो छिण्णो चुलसीदी लक्खाणं चूडामणिअहिगरुडा चे? दि जम्मभूमी चेत्ततरूणं मूले घेत्तद्दुमत्थलरुदं चेत्तद्दुममूले ८५ १८६ २२७ १५० १४२ छक्फदिहिदेवकरण उदी छमखंडभरहणाहो छञ्चिय कोदंडागि छज्जोयण लक्खारिण २५५ । छट्टमखिदिचरिमिंदय ११३ छाया उदि रणवसयाणि छत्तीरा लक्खाणि छइव्वणयपयत्थे छद्दोभूमुहरुंदा छप्पणहरिदो लोगो छप्पण्णसहस्साहिए छप्पण्णहिदो लोओ छप्पणा इगिसट्ठी ३७ । छप्पंचतिदुगलक्खा १०६ G MAN ३४ ३२ २०१ ३०४ ७२ २ २१४ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिकार गाथा अधिकार/गाथा १ २ २ २२८ २४६ १२८ १२ २५३ २१० १०६ १७५ छब्बीसबभयिसयं छन्वीसं चावाणि छब्बीसं लक्खाणि छस्सम्मत्ता ताई छह अंगुलेहि पादो छावट्टिछस्सयाणि छासट्ठीअहियसयं छाहतरि लस्वारिष छिण्णसिरा भिषणकरा छेत्त ण भित्ति वधिदूण पीयं छेत्त णं तसणालि छेत्त णं तसणालि जीवसमासा दो च्चिय जीवा पोग्गलधम्मा जे केइ अण्णाणतवेहिं जे कोहमारणमाया जेत्तियमेत आऊ जेतियमेत्ता पाऊ जे भूदिकम्म मंता जे सच्चवयणहीणा जो एपमारगणयेहि जो अजुदाओ देवो जोणीयो गारइयाणं जोयणपमाणसंदिद जीवशावीससहस्सा १६७ ३६५ १७२ ३४० मल्लरिमल्लयपत्थी २ ३०६ धावणमंगलमे ३३० १७० जइ बिलवयंति' करुणं जगसेदिघणपमाणो जम्मणखिदीण उदया जम्मणमरणाणंतर जम्माभिसेयभूसण जलयरकच्छव मंडूक जस्स असंखेज्जाऊ जस्सि जस्सि काले जादीए मुमरणेणं जादे अणंत गाणे जिरणदिटुपमाणाओ जिणपूजा उज्जोगं जिणोवदिट्टागमभासणिज्ज जिब्भाजिब्भगलोला १०६ २४७ २२६ १८० १८१ उदिपमाणा हत्था पच्चिदविचित्तकेदरण गवणउदिजुदचउस्सय रगवणउदिवसयारिण रावणउदिसहियरगवसय गावरण उदिजुदणचसय एव राव अट्ठ य बारस रणव रणवदिजुदचदुस्सय १०६ २२५ २१६ १६० २३३ १६७ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४५ ) अधिकार/गाथा विका र गाथा ! हिस्सेसकम्मक्खयणेक्कहे २३४ गेरइय णिवास खिदी ३ २४० १७७ १६३ १६२ १५५ M णवणवदिजुदचदुस्सय णवदंडा तिय हत्थं गवदंडा बाबीसं रणवरि विसेसो एसो णव लक्खा रणवरणउदी णवहिदबावीससहस्स वंदादिओ तिमेहल णाणं होदि पमाण पाणावरणप्पहुदी पाणाविहवाओ णामागिठावरणाओ गावा गरुडगइंदा णासदि विग्छ भेददि णिकता णिरयादो शिक्कता भवणादो णिण्णद्वरायदोसा रिणभूसरणायुहंबर रिगयरिणय इंदयसेही णियणियओहीक्वेत्त णियरिणयचरिमिदयधय गियरिणयचरिमिदयधरण णियरिण्यभवरणठिदारणं रिणरएसु रात्थि सोक्खं णिरयगदिआउबंधय गिरयगदीए सहिदा णिरयपदरेसु पाऊ गिरयबिलाणं होदि हु तक्खयवढिपमाणं तक्यवढिपमाणं तक्खयवढि विमाण तट्टाणादोधोघो तणुरक्खा सिप्परिसा तण्णामा वेरुलियं तत्तो उवरिमभागे तत्तो दोइदरज तत्तो य प्रद्धरज्जू तत्तो ववसायपुरं तत्तो तसिदो तवणो तत्थ वि विविहतरुणं तदिए भुयकोडीओ तब्बाहिरे असोयं तमकिंदए णिरुद्धो तमभमझसअद्धाविय तम्मि जवे विदफलं तम्मिस्ससुद्धसेसे तसरोण रथरेणू १७८ तस्स य एक्कम्मि दए तम्स य जवखेत्ताणं तस्साई लहुबाई २७९ सस्साई लहुबाहू तह अब्भवालुकाओ १०१ | तह य पहजणणामो १६१ २२८ ४३ ३३५ २५५ २१२ ७३ २६८ २३५ २५१ २ २ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तं चित्र पंचसयाई तं परणती सम्पदं तं म मुहमेव तं वग्गे पदरंगुल तं सोधिदू तत्तो ताण खिदोणं हेद्वा वाणअपच्चक्खाणा ताणापच्चक्खाणा ताणं मूले उरि वादो देवीणिवही दिवाणे सुष्णाणि तिट्ठाणे सुष्णाणि तिणि तडा भूवासो तिष्णि पलिदोवमारिण तिष्णिसहस्सा खस्सय तिष्णिसहस्सा गवसय तिथिण सहस्सा दुसया तित्थयर संघपडिमा तिहारतिकोणाओ तिप्परिसारणं आऊ तिगुणिदो सत्त हिंदो वियजोयरलक्खाणि तियदंडा दो हत्या तियपुढवीए इंदय तिरियकखेत्तपरिधि तिवियप मंगुलं तं विहिदो दुगुणिदरज्जू तीसं घट्ठावीस अधिकार / गाथा १ ? ५ १ २ २ ३ ३ ३ ३ ३ १ ३ २ २ २ रे २ ३ १ ت ( ३४६ } १ १. १ ३ १०८ २३४ १३६ १३२ २७८ १८ २७५ १८६ ४० २०४ F ८६ २६१ १५२ १७३ १७६ १७१ २०६ ३१३ १५५ १७१ १५.३ २२३ ६७ २७७ १-७ २५. ७५ तीसं इगिदालदलं तीसं चाल चडतीसं तीस परगवीसं च य तीसं विय लक्खारिंग तुरिमाए गारइया ते एव दिजुत्त दुसया तेतीसम्म हिस तेत्तीस लक्खारिंग तेदालं लवखारिंग तेरस एवकारसणव तेरस एनका रस रणव तेरसएवकारसरण तेरसजोयलक्खा तेरह वही पढ वाचावाणि ते वण्णारण हत्थाई तेवीस लक्खारिंग तेवीसं लक्खाणि तेसट्ठी लक्खाई ते सच्चे पारड्या सिमरणंतर जम्मे तेसीदि लक्खरिंग तेसु चसु दिसासु संभुच्छेहा पुब्वा बिरधरियसीलमाला तो देइधणं श्रो दि थ अधिकार/गाथा १ ३ २ २ २ २ ? २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ ३ २ ३ २ १ १ २ ३ २५३ २१ २७ १२४ १६६ ६२ १६१ १२१ ११० ३७ ६३ ७५ १४२ २१० २५८ २३९ १३१ १३२ ८७ २८ १ २०० ९४ २७ २०० ५ ३०२ २३२ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिकार/गाथा r २१७ १८७ २०५ G . ( ३४७ ) अधिकार गाथा देवमणुस्सादीहि देवीमो तिणि सया देवीदेवसमुहं देसविरदादि उपरिम देसविरदादि उवरिम देह अवट्ठिदकेवल २३५ देहोव्व मणो वाणी दो अट्ठसुण्ण तिमणह दो कोसा उचछेहा दो छब्बारसभाग दो जोयणलक्खारिंग दोषिणवियप्पा होति हु दोषिण सयाणि अट्ठा दोपिरासया देवीभो दो दंडा दो हत्था दोपस्खखेतमेत्तं दो भेदं च परोक्खं दोलक्खाणि सहस्सा दोहत्या वीसंगुल २०७ ११५ २८४ २ दक्षिणाईदा चमरो दक्षिणजसरदा ठूण मयसिलंब दसजोयणलक्खाणि दसराउदिसहस्सारिंग दसदंडा दोहत्या दसमसचउत्थस्स दसवरिससहस्साऊ दसवाससहस्साक दसवाससहस्साऊ दससुकुलेसु पुह पुह दहसेलदुमादीणं दंडपमाणंगुलए वंसरामोहे ण8 दारुणहुदासजाला दिप्तरयणदीचा दिसविदिसाणं मिलिदा दोविंदप्पहुदीणं दीवेसु गिदेसु दीवोदहिमेलाणं दुपखा य वेदणामा दुचयदं संकलिदं दुजुदारिंग दुसयारिण दुरंत संसार विणासहेदु दुविहो हवेदि हेदू दुसहस्सजोमणाधिय दुसहस्समउउबद्ध २६८ ७३ २ १ २२२ १४० r n mmmm irrrrror morror o.mor.. १ ५ २ २३१ ४8 २६७ २६५ १५७ २२३ अम्मदयापरिचत्तो धम्माधम्मणिबद्धा धरणाणंदे अहियं धरणाणंदे अहियं धरणाण धरणिदे अहियाणि धाविहीणत्तादो १७२ १६५ १४६ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिकार/गाथा अधिकार/गाथा २ १०५ धुवंतघयवडाया धूमपहाए हेट्टिम १४७ ६८ २७७ २६२ १७४ १०० १३४ २ १ २४५ १२९ २२३ २४२ १२४ १४० २६९ परादालं लक्खारिण पणबीससहस्साधिय पराबीससहस्साधिय पररासट्ठी दोपिएसया पणहत्तरिपरिमारणा पणिधीसु पारणच्चुद पणुवीसजोपणाणि पणुवीससहस्साधिय पणुवीसं लक्खारिंग १३६ पण्णरसहदा रज्जू २३४ पण्सारसं कोदंडा पण्णरसेहिगुरिगद २८५ पण्णारसलक्खारिण पपणासम्भहियारिण पत्तक्कं इदयार पत्तेक्कमद्धलक्खं पत्तेक्कमाऊसंखा पत्तक्कमेक्कलक्खं पत्ते क्कमेक्कलक्खं पतंरक रुखखाणं पत्त यं रयणादी पददलहदकपदा पददलहिदसंकलिदं ३१० पदवगं चयपहदं पदवगं पदरहिदं परमागृहि अणंता परवंचरणप्पमत्तो २२४ । परिणिक्कम केवल पउमापउमसिरीयो पज्जत्तापज्जत्ता पडिईदादिच उण्हं पडिइदादिचउण्हें पडिइ दादिचउण्हं पडिदादिचउण्हं पडिमाणं अगेसु पडपडहसंखमद्दल पडपडहप्पहुदीहिं पढमधरंतमसण्णी 'पढमबिदीयवगीणं पढमम्हि इंदम्हि य पढम दहण्हदारणं तत्तो पढमा इंदयसेही पढमादिबितिचउपके पढमे मंगलकरणे पढमो अणिच्चणामो पाठमो लोयाधारो पढमो हु चमरणामो पण अगमहिसियानो परणकोसवासजुत्ता पणगव दियधियचजदम पणतीसं दंडाई पणतीसं लक्खारिंग पणदालहदारज्जू ३८ १६१ १७३ १५८ १४ १ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिकार गाथा अधिकार/गाथा १६१ २२० ३६४ पुत्र बसुराऊ पुर्व व विरचिदेसा पुत्रावरदिनभाए पुबिल्लयरासीण पुचिलाइरिएहि उत्तो पुब्धिलाइरिएहि मंग पुह पुह से सिंदाणं पूजाए अवसाणे पूरति गलंति जदो पेच्छिय पलायमाणं २२६ २३६ २०० २८६ ३२ به परिवारसमारणा ते परिसत्तयजेट्ठाऊ पलिदोवमद्धमाऊ पल्लसमुद्दे उवमं पहदो पवेहि लोगो पंकपहापहुदीरणं पंकाजिरो य दीसदि पंचच्चिय कोदडा पंचमखिदिशारइया पंचमखिदिपरियंत पंचमहन्वयत्तुगा पंचमिखिदिए तुरिमे पंच य इंदियपारणा पंच वि इंदियपारणा पंचसयरायसामी पंचसु कल्लाणेसु पंचादी अवयं पंचुत्तर एक्कसयं पावं मलं ति भण्ण पाविय जिणपासावं पावणं रिगरयबिले 'पासरसरूवसधुरिण पीलिज्जते केई पुढमीए सत्तमिए पुण्णवसिद्धजलप्पह पुण्णं पूदपचित्ता पुत्त कलत्ते सजगम्मि मित्त पुग्यवपिणदखिदीणं ४५ که १२३ سه २६३ م २१० له १३३ له फालिज्जते केई १८६ २७८ बत्तीसट्टावोसं बसीसं तीसं दस बत्तीस लक्खारिंग बम्हुत्तरहेरि बहुविहपरिवारजुदा २३० चंबयबगमो असारम बाणउदिजुत्तदुसया २४६ बाणासरणारिण छच्चिय बादालरिदलोओ २७० बारसजोयणलक्खा १५ बारसजोयालक्खा बारसदिणेसु जलपह ३७० बारस मुहुत्तयामि २१५ | बारस सरासणाणि له ته २२८ ३२४ مه له له १४४ سد سه २ १ له २३७ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिकार/गाथा ३१५ २१८ १५१ बारस सरासणारिंग बारस सरासरणाणि बावण्णुवही उबमा बावीसं लक्खारिंग बाहत्तरि लक्खाणि बाहिर छन्भाएसु बाहिरमज्झन्भंतर बिदियादिसु इच्छंतो बेकोसा उच्छेहा बेरिवाहि दंडो prar mom v १ २२५ १४१ १५८ । ३५० ) अधिकार/गाथा मोदीर को गाला भुजकोडीवेदेसु २१२ भुजपडिभुजमिलिदद्ध १३३ भूमीए मुहं सोहिय भूमीन मुहं सोहिय १८७ भूमीअ मुहं सोहिय भूसरणसालं पविसिय १०७ मघवीए रणारइया ११५ मज पिबंता पिसिदं मज्झम्हि पंचरज्जू मज्झिमाजगस्स उबरिम मज्झिमजगस्स हेट्टिम २२ मज्झिमविसोहिसहिदा २५१ मगहरजालकवाडा मरणे विराहिदम्हि य ८७ महतमपहाअ हेट्ठिमअंते महमंडलिया रणामा महमंडलियाणं अद्ध महवीरभासियत्थो महुमज्जाहाराणं मंगलकारणहेदू मंगलपज्जाएहिं ७९ मंगलपहुदिच्छक्के २८२ मंदरसरिमम्मि जगे मंसाहाररदाणं ४८ माणुस्स तेरिच्चभवम्हि ३ २३५ । मायाचारविवज्जिद २०५ १६४ भवणसुराणं अवरे भवणं बेदीकूडा भवणा भवणपुराणि भवणेसु समुप्पण्णा भव्वजणमोस्खजरगणं भन्वजणाणंदयरं भब्वाण जेण एमा भब्वाभव्वा पंचहि भंभामुइंगमद्दल भावगणिवासखेतं भावणलोयस्साऊ भावणवेतरजोइसिय भावसुदं पज्जाएहि भावेसुतियलेस्सा भिंगारकलसदप्पण भिमारकलमदप्पण भिंगारकलसदप्पा ४१ . r Pr moir or or Marar Mar २३० ३४२ २१८ २४४ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहिद उवरिमं मुरजायारं उड़द समासमि मेघाए गारइया मेरुतलादो उवरि मेस्समलोह पिडं सीदं मेरुसमलोहपिडं उण्हं सरिच्छमि जगे रज्जुघणद्ध रावहद रज्जुषा ठाणदुगे रज्जुघरणा सत्तच्चिय रन्जुस्स सभागो रज्जुए सत्तभागं रज्जव तेभाग यह अवणीए गप्पचरमिंदय गप्पपदी पुढवीए रणक्खिदीए रावणी रणाकवकवमा रमणादिमंत रमणादिणारयाणं रज्जलदीवहि रोगजरापरिहीणा रोगए जेठाऊ अधिकार / गाथा १ १ १ २ २ २ १ १ १ १ १ १ १ २ २ ३ २ ( ३५१ ) ३ ३ २ ܽ SE १६५ १९८ २८१ ३२ ३३ २२७ १६० २१३ १८६ १८४ १६६ २४१ .१०८ १६८ ८२ २९८ २७२ ३ १४५ २ १५९ २ २८६ २३८ १२८ २०६ 67 लवणारांजाच्तुरहा खारि अटु जोग लक्खा र पंच जोय रण लज्जाए चत्ता मयषेण मना लडो जोयणसंखा लो बहुम लोयते रज्जुघणा लोयायासद्वाणं लोयालयाण तहा लोकाहा दि लोहकोहभयमोहबलेणं लमजुassi ल बइतरणी सलिलादो वरोरो य धरणाणंदो चक्केत अवक्कता वच्चदिदिवङ्करज्जू aurरसगंध फा रसगंधा वयवग्घतरच्छसिगाल वररयणकंचरणमये वररयणम उउधारी वररयणमउउधारी रविविकुसुममाला वबहाररोमरासि बबहारुद्वारद्धा बंद भिसेयणञ्चरण अधिकार/गाथा ३ २ २ २ २ १ १ १ २ २ ३ २ १ १ ३ २ ३ १ ३ ३ १ t ३ १२७ १४८ १५१ ३६६ १६२ ६ १८५ १३५. ७७ ३२७ ३६७ ३४१ ३३१ १८ ४१ १५.६ १०० २१३ ३२० २४७ ४२ १२६ २३७ १२६ ८४ ४६ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४३) अधिकार/गाथा अधिकार/गाथा १९७ १ २५५ २१६ २६१ १४६ ११६ २७४ २७५ १५६ १६८ ७८ १६५ १.५ वंसाए णारइया वादवरुद्धक्खेत्ते वायंता जयघंटा वालेसुदाढीसु वासट्ठी कोदंडा वासस्स पढममासे वासीदि लक्खाएं वासो जोयणलक्खो विउलसिलाविच्चाले विगुणियछच्चसट्ठी विमले गोदमगोत्ते विरिएण तहा खाइम विविहत्थेहि अगंतं विविहरतिकरणभाविद विविहवररयणसाहा विविहवियप्पं लोयं विविहंकुरचेंचया विसयासत्तो विमदी विसुद्धलेस्साहि सुराउबंधं विस्साणं लोयाएं विदफलं संमेलिय विसदिगुणिदो लोगो वीसए सिखासयारिंग वेणुदुगे पंचदलं वेदीणभंतरए धेदीणं बहुमज्झे वोच्छामि सयलभेदे सक्करवालुवर्षका सक्खापच्चक्खपरं सगजोयणलक्खारिंग सगतीसं लक्खारिण सगपणचउजोयणयं सगपंचच उसमाणा संगवण्णोवहि उवमा सगवीसगुरिणदलोओ सगसगपुढविगयाणं सट्टाणे विच्चाल सट्टाणे विच्चालं सट्टीजुदमेक्कसयं सट्टी तमणहाए सण्णाणरयणदीवं सपिणअसणीजीवा सण्णी य भवणदेवा सत्तघणहरिदलोयं सप्तच्चिय भूमीप्रो सत्तट्टणवदसादिय सत्तट्ठाणे रज्जू सत्ततिछदंडहत्थंगुलाणि सत्तमखिदिजीवाणं सत्तमखिदिरणार इया सत्तमखिदिबहुमज्झे सत्तमखिदीअ बहले सत्त य सरासणारिण सत्तरम चावारिंग २५५ २०४ १९५ १७९ २ २९८ २५४ २६२ २०२ २१७ २०२ २४६ १४६ ४१ २८ १६३ २२६ २४४ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिकार गाथा अधिकार/गाथा १३८ १३५. २४२ २०६ १८२ १४४ ܘ ܘܕ १०४ १६ सत्तरसं लक्खाणि सत्तरि हिद सेढिघणा सत्त विसिरवासणारिण सत्तहदबारसंसा सत्तहिददुगुणलोगो सत्ताहियवीसेहिं सत्तारा उदो हत्था सत्ताणउदी जोयण सत्ताणीया होति हु सत्तावीसं दंडा सत्तावीसं लक्खा सत्तासीदी दंडा सत्यादिमम्झभवसाग सत्येण सुतिक्खेणं सबलचरित्ता केई समचउरस्सा भवणा समयं पडि एमकेवर्क समवट्टवासवग्गे सम्मत्तरयरगजुत्ता सम्मत्तरयणपन्वद समत्तरयिचित्तो सम्मत्त देसजमें सम्मत्त सयलजमं सम्माइट्ठी देवा सयकदिरूका सयपाणि प्रासपाणि समलो एस य लोओ सब्वे असंजदा तिहसणा सव्वे असुरा किण्हा सच्चे छपणागजुदा सब्वेसिं इंदाणं सम्वेसु इंदेसु सहसारउवरिमंते संखातीदसहस्सा संखातीदासेढो संखेजमिदयाणं संखेज्ज रुद भवणेसु संखेज्जरु'दसंजुद संखेज्जवासजुत्त संखेज्जाऊ जस्सय संखेज्जा वित्थारा संसारण्णवमहणं सासगणा एक्केक्के सामण्णगभकदली सामण्णजगसरूवं सामागणं सेढिघणं सामो बिदफलं सामण्णे विदफलं सायर उवमा इगिदुति सायारअरणायारा सावरण बहुले पाडिव सासदपदमावणं सिकदारपणासिपत्ता सिद्धावं लोगो त्ति य सिरिदेवी सुददेवी सिंहासणादिसहिदा २०२ ३१८ २५. १२७ ११७ ८८ २१७ ३५८ २५४ २०८ २८४ ७० ३५६ ३६० १६६ १६६ २४८ ३५१ ३ - 2 १६३ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीमंतगो य पढमो सीलादिसंजुदा सिंहासरण छत्तत्तय सुदरपारणभावखाए सुरखेय रमणहरणे सुरखेवर मणुवारणं सुवरवसगिसोरिद सेढिपमारणायामं सेबी असंखभागो सेढीए सत्तभागो सेढीए सत्तभागो सेढीए सत्रांसो सेदजल रेणुकद्दम सेदरजाइमले साओ पाओ सेलाणं इंदारणं सो तित्थयराणं अधिकार/गाथा २ ३ १ १ १ २ १ ३ १ १ १ १ १ (३५४) ३ ३ १ ४० १२४ २३१ ५० ६५ ५२ ३२२ K १६७ १७० १६६ १६४ ११ ५६ १४१ ६७ ૪ सोलस जोयलक्खा सोलस सहस्रसमेत्ता सोलस सहस्रमेत्तो सोलसह छस्सय सोहम्मीसागोवर सोहम्मेदलजुत्ता हरिकरिवसहखगाहिव हाणिचयापमाण हिमइदयम्महोंति हु देहाती रज्जुम हेममज्झिमरिम हेमिलोएलोश्रो हेमलोयाआरो ghat मेलि होति पुंसयवेदा हतिया अधिकार/गाथा २ ३ ३ २ १ १ ३ २ २ १ १ १ १ १ २ ३ १३९ ६३ ८ १३४ २०३ २०६ ४५ २२० ५२ २४७ १५१ १६६ १३७ १४२ २८० ८६ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ********* * शुद्धि-पत्र पृष्ठ सं० पंक्तिसं. अभ्युदय वाण अब्भुदय बाग विसय यिसय भव्य भव किरण आठ-आठ गुरिणत रथ रेणु उस्सेहस्य चौथे भाग से अर्थात् अद्ध व्यास के वर्ग से परिधि को कर्मभूमि के बालाग्र, मध्यम भोगभूमि के बालान किर गए आठ-आठ गुणित क्रमश: रथरेगु उस्सेहस्स चौथे भाग से परिधि को कर्मभुमि के बालान, जधान्य भोगभूमि के वालान, मध्यम भोग भूमि के बालान ___ च चच" SLC गाथा २३४ संदृष्टि गाथा के बीच में दी गई है, उसे गाथा के बाद पढ़ना चाहिए। Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ सं० पंक्ति सं० शुद्ध ८६ गिरिगडरा कायत गिरिगडए ऊध्र्वायत विशेषार्थ ४ ०irx ५ धनराज घनफल ब्रह्मलोक के रज्जुस्सेघण रज्जुस्सेधेण बह्मस्वर्ग धनराजू घनफल ब्रह्मलोक से रजस्सेधेण रज्जूस्से घेण १२५ ब्रह्मस्वर्ग १२८ बाहल बाहल्लं १४८. १०-११ पर्यन्त के बिल पृथिवी के शेप बिलों के एक बटे चार भाग से पर्यन्त के सम्पूर्ण बिल पृथिवी के शेष एक वटे चार भाग बिलों से १८२ १८५ १० इन्द्रककों का इन्द्रकों का गाथा १३१ टिप्पण २. द. पुस्तक एव के स्थान पर 'ब प्रतो नास्ति' पढ़ना चाहिए। संदृशि का अन्तिम कॉलम प्रस्थान परस्थान ०१३ 31 २२० बिलों में भी आयु बिलों की भी आयु संयुक्त हैं। मंयुक्त होते हैं। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५७) पृष्ठ सं० पंक्ति सं० . अशुद्ध गाथा २८९ की संदृष्टि का शुद्ध मुद्रित रूप इस प्रकार है २४५ -२+ ] १२ । १५ रि | रि| रि | रि | ऽरि परि आगम का वर्णन आगमन का वर्णन २४८ समझता, समझता है, मुद्गलिका, मुद्गर मुगलिका, मुद्गर गाथा ३११ को संदृष्टि २५१ (४०००४५)२०००० कोस अथवा ५००० योजन (४०० ४५) -- २००० कोस अथवा ५०० योजन फल-पुजा फल-पूजा २६५ भव्य भव प्रमाणं पमाणं २७६ १६०८ और २१५६ में तथा पाँचव अधिकार की १९३२ और २१८३ में तथा छठे अधिकार को २८० कूद्धारा कडाण २८२ गाथा सं० ६३ के बाद गाथा क्रम संख्या ६४ लगना छूट गया है और ६५ से २५५ तक की संख्यायें लग गई हैं । अत: गाथा सं० ६३ को ही ६३.६४ समझे ताकि अन्य सन्दर्भ सही समझे जा सकें । २६६ गारिवादिक पारिषदादिक Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (358) पृष्ठ सं० पंक्तिसं० भूदाणंदस्स तीर्थकर विभंगज्ञान लिग तथंकर विभगशान लिंग्ग दिव्य केई 327 331 दिव केई