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तिलोयपत्ती
[ गाथा : ३६१-३६४ सम्मत्त-रहिय-चित्तो जोइस-मंताविएहि वतो । णिरयाविस बहुदुक्खं पात्रिय पविसइ णिगोदम्मि ॥३६१॥
। दुक्ख-सरूवं समत्तं ॥१३।। प्रर्थ :-सम्यग्दर्शनसे विमुख चित्तवाला, ज्योतिष और मंत्रादिकोंसे आजीविका करता हुआ जीव, नरकादिकमें बहुत दुःख पाकर ( परम्परासे ) निगोदमें प्रवेश करता है ॥३६१।।
॥ दु:खके स्वरूपका वर्णन समाप्त हुआ ।।१३।।
नरकोंमें सम्यक्त्व ग्रहणके कारण
घम्मादी-खिवि-तिवये गारइया मिच्छ-भाव-संजुत्ता । जाइ-भरणेण केई केई दुव्वार-वेदणाभिहदा ॥३६२॥ केई देवाहितो धम्म-णिबद्धा कहा व सोदूर्ण । गेहंते सम्मत्तं प्रणंत-भव-चूरण-णिमित्तं ॥३६३॥
प्रथं :-धर्मा प्रादि तीन पृथिदियोंमें मिथ्यात्वभावसे संयुक्त नारकियोंमेंसे कोई जातिस्मरणसे, कोई दुर्वार वेदनासे और कोई धर्मसे सम्बन्ध रखनेवाली कथानोंको देवोंसे सुनकर अनन्त भवोंको चूर्ण करने में निमित्तभूत सम्यग्दर्शनको ग्रहण करते हैं ॥३६२-३६३॥
पंकपहा'-पहुवोणं णार इया तिवस-बोहणेण बिणा । समरिदजाई दुक्खप्पहवा गेण्हंति' सम्मत्त ॥३६४॥
॥ सण-गहण समत्तं ॥१४|| अर्थ :-पंकप्रभादिक शेष चार पृथिवियोंके नारको जीव देवकृत प्रबोधके बिना जातिस्मरण और वेदनाके अनुभवसे सम्यग्दर्शन ग्रहण करते हैं ॥३६४॥
॥ सम्यग्दर्शनके ग्रहणका कथन समाप्त हुमा 11१४।।
१. क. मही।
२. द गे
ति ।
३. क, ३. मगदं । ६.ज. ठ. मगरणं ।