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गाथा : ३६५-३६८ ] विदुश्रो महाहियारो
[ २६३ नारकी-जीवोंकी योनियोंका कथन जोणीमो णारइयाणं उधरे सोद-उण्ह प्रचित्ता। संघडया सामण्णे चउ-लक्खे होंति हु विसेसे ॥३६५॥
॥ जोरणी समत्ता ॥१।। अर्थ :- सामान्यरूपसे नारकियोंकी योनियोंकी संरचना शीत, उष्ण और अचित्त कही गई हैं । विशेष रूपसे उनकी संख्या चार लाख प्रमाण है ॥३६५।।
11 इसप्रकार योनिका वर्णन समाप्त हुअा ॥१५॥
नरकगतिकी उत्पत्ति के कारण मज्जं पिबंता पिसिदं लसंता,
जीवे हणंता मिगयाणुरत्ता । णिमेस-मेत्तण' सुहेण पावं,
पावंति दुषखं णिरए अणंतं ॥३६६॥ प्रर्य :-मद्य पीते हुए, मांसको अभिलाषा करते हुए, जीवोंका धात करते हुए और मृगयामें अनुरक्त होते हुए जो मनुष्य क्षणमात्रके सुखके लिए पाप उत्पन्न करते हैं वे नरकमें अनन्त दुःख उठाते हैं ॥३६६॥
लोह-कोह-भय-मोह-बलेणं जे वदति वयणं पि असच्चं ।
तेणिरंतर-भये उरु-दुक्खे दारुणम्मिणिरम्मि पड़ते ॥३६७।।
अर्थ :-जो जीव लोभ, क्रोध, भय अथवा मोहके बलसे असत्य वचन बोलते हैं, वे निरन्तर भय उत्पन्न करने वाले, महान् कष्टकारक और अत्यन्त भयानक नरकमें पड़ते हैं ।।३६७।
छेत्त ण भित्ति वधिवूण पोयं,
पट्टादि घेत्त रा धणं हरता। अण्णेहि अण्णाप्रसएहि मूढा,
भुति दुक्खं गिरयम्मि घोरे ॥३६॥
४. द. क. ज. 3. पिपं, ब.
१. घ. क, ज. ठ. मोहेण । २. द. सुह रण पावंति। ३. भयं। ५. द. ब. क. ज. ठ. असहेइ ।
पियं ।