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तिलोयपणती
[ गाथा : ३६६-३७१ अर्थ :-भीतको छेदकर अर्थात् सेंध लगाकर प्रियजनको मारकर और पट्टादिकको ग्रहण करके, धनका हरण करने वाले तथा अन्य भी ऐसे ही सैकड़ों अन्यायोंसे, मूर्ख लोग भयानक नरकमें दुःख भोगते हैं 11३६८।।
लज्जाए चत्ता मयणेण मसा तारुण्ण-रत्ता परदार सत्ता।
रसी-दिरणं मेहुण-माचरंता पार्वति दुक्खं णिरएसु घोरं ॥३६६॥
प्रर्थ :-लज्जासे रहित, कामसे उन्मत्त, जवानीमें मस्त, परस्त्रीमें प्रासक्त और रात-दिन मैथुनका सेवन करने वाले प्राणी नरकोंमें जाकर घोर दुःख प्राप्त करते हैं ॥३६९॥
पुत्ते कलते सुजणमि मित्ते जे जीवणत्थं पर-पंचणेणं ।
वड्दति तिण्णा दविणं हरते ते तिव्य-दुक्खे रिगरयम्मि जति ॥३७०॥
अर्थ :-पुत्र, स्त्री, स्वजन और मित्रके जीवनाथं जो लोग दूसरोंको ठगते हुए अपनी तृष्णा बढ़ाते हैं तथा परके धनका हरण करते हैं, वे तीव्र दुःखको उत्पन्न करने वाले नरकमें जाते हैं ।।३७०॥
अधिकारान्त मङ्गलाचरण संसारण्णवमहणं तिहवण-भन्दाण 'पेम्म-सुह-जणणं ।
संदरिसिय-सयलट्ठ संभवदेवं णमामि तिविहेण ॥३७१॥ एवमाइरिय-परंपरा-गय-तिलोयपणत्तीए णारय-लोय-सरूव-रिणरूवण-पण्णत्ती
णाम
|| बिदुनो महाहियारो समत्तो ॥२।। अर्थ :-संसार समुद्रका मथन करने वाले ( बीतराम ), तीनों लोकोंके भव्य-जनोंको धर्म-प्रेम और सुखके दायक ( हितोपदेशक ) तथा सम्पूर्ण पदार्थोके यथार्थ स्वरूपको दिखलाने वाले { सर्वज्ञ ), सम्भवनाथ भगवानको मैं ( यतिवृषभ ) मन, बचन और कायसे नमस्कार करता हूं ।।३७१।
इसप्रकार प्राचार्य-परम्परागत त्रिलोक-प्रज्ञप्तिमें "नारक-लोक स्वरूप निरूपण-प्रज्ञप्ति" नामक द्वितीय महाधिकार समाप्त हुआ ।।२।।
१. द. पेममुह ।