________________
[ २६१
गाथा : ३५४-३६० ]
विदुषो महाहियारो अर्थ :-नारकियोंके शरीर कदलीघात ( अकालमरण ) के बिना पूर्ण प्रायुके अन्त में वायुसे ताड़ित मेघोंके सदृश सम्पूर्ण विलीन हो जाते हैं ।।३५६।।
एवं बहुविह-दुक्खं जीवा पावंति पुथ्व-कद-दोसा।
तदुक्खस्स सरूवं को सक्कइ वण्णिदु सयलं ॥३५७॥
कार्य :- मका: पूर्व में किये गये दोनों में जीव ( नरकोंमें ) नाना प्रकारके दुःख प्राप्त करते हैं, उस दुःखके सम्पूर्ण स्वरूपका वर्णन करनेमें कौन समर्थ है ? ॥३५७॥
नरकोंमें उत्पन्न होनेके अन्य भी कारण सम्मत्त-रयण-पव्वद-सिहरादो मिच्छभाव-खिदि-पडिदो।
णिरयाविसु अइ-दुक्खं पाविय' पविसइ णिगोदम्मि ॥३५॥
अर्थ : सम्यक्त्वरूपी रलपर्वतके शिखरसे मिथ्यात्व-भाव रूपी पृथिवीपर पतित हुआ प्राणी नारकादि पर्यायोंमें अत्यन्त दुःख-प्राप्त कर (परम्परासे ) निगोदमें प्रवेश करता है ।।३५८॥
सम्मतं देसजमं लहिरणं विसय हेदणा चलिदो।
णिरयादिसु अइ-बुक्खं पाविय पविसइ णिगोदम्मि ॥३५६।।
अर्थ :-सम्यक्त्व और देशचारित्रको प्राप्तकर जीव विषयसुखके निमित्त ( सम्यक्त्व और चारित्रसे ) चलायमान हुआ नरकोंमें अत्यन्त दुःख भोगकर (परम्परासे ) निगोदमें प्रविष्ट होता है ॥३५६।।
सम्मत्त सयलजम लहिणं विसय-कारणा चलिदो । णिरयादिसु अइ-दुक्खं पाविय पविसइ णिगोदम्मि ॥३६०।।
मर्थ : सम्यक्त्व और सकल संयमको भी प्राप्तकर विषयोंके कारण उनसे चलायमान होता हुआ यह जीव नरकोंमें अत्यन्त दुःख पाकर ( परम्परासे) निगोदमें प्रवेश करता है ।।३६०
- १. द. पावी पइस रिबनोदम्मि। २. द. क. ज, ठ. लघणं । ३, ६. ज. ठ. गिरयादी।