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तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : ३५२-३५६ कालग्गिरुद्द-णामा कुभो' वेतरणि-पहुवि-असुर-सुरा।
गंतूण वालुकंतं णारइयारणं' पकोपंति ॥३५२॥
अर्थ :--सिकतानन, असिपत्र, महाबल, महाकाल, श्याम, सबल, बद्र, अम्बरीष, विलसित, महारुद्र, महाखर, काल, अग्निरुद्र, कुम्भ और वैतरणी प्रादिक असुरकुमार जातिके देव तीसरी बालुका प्रभा पृथिवी तक जाकर नारको जीवोंको कुपित करते हैं ।।३५१-३५२।।
इह खेत्ते जह मणुवा पेच्छंते मेस-महिस-जुद्धादि ।
तह णिरये असुर-सुरा णारय-कलहं पतुट्ठ-मणा ॥३५३।। अर्थ :- इस क्षेत्र ( मध्यलोक ) में जैसे मनुष्य, मैले और भैसे आदिके युद्धको देखते हैं, उसीप्रकार नरकमें असुरकुमार जातिके देव नारकियोंके युद्धको देखते हैं और मनमें सन्तुष्ट होते
नरकोंमें दुःख भोगनेकी अवधि
एक्क ति सग दस सत्तरसतह बावीसं होंति तेत्तीसं । जा सायर-उवमाता पार्वते ताव मह-दुक्खं ।।३५४।।
अर्थ :-रत्नप्रभादि पृथिवियोंमें नारकी जीव जब तक ऋमशः एक, तीन, सात, दस, सत्तरह, बाईस और तैतीस सागरोपम पूर्ण होते हैं, तब तक बहुत भारी दु:ख उठाते हैं ॥३५४।।
गिरएस स्थि सोक्खं 'रिणमेस-मत्तं पि रणारयाण सदा ।
दुक्खाइ दारुणाई बढ़ते पच्चमाणाणं ॥३५५॥ अर्थ :-नरकोंके दुःखोंमें पचने वाले नारकियोंको क्षणमात्रके लिए भी सुख नहीं है । अपितु उनके दारुण-दुःख बढ़ते ही रहते हैं ।।३५५।।
कदलीघावण धिणा णारय-गत्ताणि प्राउ-अयसाणे । मारुद-पदभाइ व णिस्सेसाणि विलीयंते ॥३५६॥
४. द. जह भरउवमा,
१. द.ब.क.ज. ४. भो। २. दःणारयप्पकोपति । ३. द. तसय । ब. क. ज. ठ. जह परडवुमा। ५ द. ब. क. ज. 8. अणुमिसमेत्त पि ।