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पढमो महाहियारो
दोछार भागभहिश्रो कोसो कमेण वाउ-घणं ।
लोय - उरिमि एवं लोय-विभायम्मि पण्णसं ||२४||
गाथा : २८४-२८५ ]
| १३ | १३ | १२ई ।
पाठान्तरं
अर्थ :- सातवीं पृथिवी और ब्रह्मयुगल के पार्श्वभाग में तीनों वायुओंॉकी मोटाई क्रमशः तीस, इकतालीसके आधे और तोनसे भाजित उनचास कोस है || २८३ ॥
अर्थ :- लोकके ऊपर अर्थात् लोकशिखरपर तीनों बातवलयोंकी मोटाई क्रमश: दूसरे भागसे अधिक एक कोस, छठे भागसे अधिक एक कोस और बारहवें भागले अधिक एक कोरा है, ऐसा "लोकविभाग में" कहा गया है || २६४ || पाठान्तर
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विशेषार्थ :--- लोक विभागानुसार सप्तम पृथिवी और ब्रह्मयुगल के समीप घनोदधिवात ३० कोस, घनवात को और तनुवात कोस है तथा लोकशिखरपर चनोदधिवातकी मोटाई १३ कोस, धनवाकी ११ कोस पर तनुवालकी मोटाई १६३ कोस है ।
वायुरुद्धक्षेत्र ग्रादिके घनफलोंके निरूपणकी प्रतिज्ञा
विदफलं तह य अ -पुढवीए ।
'वाद-रुद्ध सुद्धायास-खिदीणं
अर्थ :- यहाँ वायुसे रोके गये लवमात्र (संक्षेप में ) कहते हैं ।। २६५ ।।
लव-मेत यत्तस्साम ।। २८५ ।।
क्षेत्र, माठ पृथिवियाँ और शुद्ध प्राकाश-प्रदेशके घनफलको
वातावरुद्ध क्षेत्र निकालने का विधान एवं घनफल
संपहि लोग पेरंत-दि-वादवलय' -रुद्ध खेत्ताणं प्राणयण" विधाणं उच्चदे
लोगस्स तले 'तिण्णि-वादाणं बहलं पत्ते ककं वीस-सहत्सा य जोयणमेतं । तं सथ्यमेग' कवे सद्वि- जोयण- सहस्स- बाहल्लं जगपवरं होदि ।
१. द. व प्रत्योः पाठान्तर' इति पद २००-२६१ गाथयोर्मध्य उपलभ्यते । २. द. वादरुद्ध, ब, २. द. ब. खिदिरणं । ४. द. ब. क. ज. उ. यारण्यण । ६. द. तिपण । ७. द. क. ज. . तं सम्मेगॣ,
वादवरुद्ध ।
वादंवलय रुंधविसारणं ।
५. द. ब. क. ज. ठ.
कदेगसट्टि, व. तेसमेगट्ठ कदे वासट्ठि