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का घनफल बतलाया है । वातवलयों को मोटाई दर्शाने के लिए ग्रंथकार ने 'लोकविभाग' ग्रंथ से एक पाठान्तर (गा. २८४) भी उद्धृत किया है । अन्त में कहा है कि वातरुद्ध क्षेत्र और पाठ पृथिवियों के घनफल को सम्मिलित कर उसे सम्पूर्ण लोक में से निकाल देने पर शुद्ध प्रकाश का प्रमाण प्राप्त होता है । मंगलाचरणपूर्वक ग्रन्थ का अंत होता है ।
इस अधिकार में ७ करण सूत्रों ( गा. ११७, १६५, १७६, १७७, ११, १६३, १९४) का उल्लेग्न हुआ है तथा गा. १६८-६९ और २६४-६६ के भावों को संक्षेप में व्यक्त करने वाली दो सारणियां बनाई गई हैं।
मुलबिद्री और जैनबद्री में उपलब्ध ताडपत्रीय प्रतियों में गाथा १३८ के बाद दो गाथाएँ और मिलती हैं किंतु, इनका प्रसंग बुद्धिगम्य न होने से इनका उल्लेख अध्याय के अन्तर्गत नहीं किया गया है । गाथाएं इस प्रकार हैं
वासुच्छोहायाम, सेहि-पमाणेण ठावये खेत । से माझे बहुलायो, एकपवेसेण मेहियो पदरं ॥ E। गहिदूण घबट्टावि य र सेविस्स सत्त भागोत्ति ।
तस्स य वासायामो कापम्या सत्त मणि ॥ (ख) द्वितीय महाधिकार :
नारकलोक नामके इस महाधिकार में कुल ३७१ पद्य हैं । गद्य-भाग नहीं है । चार इन्द्रवजा और एका स्वागता छन्द है शेष ३६६ गाथाएँ हैं। मंगलाचरण में अजितनाथ भगवान को नमस्कार कर ग्रंथकार ने आगे की चार गाथाओं में पन्द्रह अन्तराधिकारों का निर्देश किया है।
पूर्व प्रकाशित संस्करण से इस अधिकार में चार गाथाएँ विशेष हैं जो द और ब प्रतियों में नहीं हैं। ग्रंथकार के निर्देशानुसार १५ थे अन्तराधिकार में नारक जीवों में योनियों की प्ररूपणा वणित है, यह गाथा छुट गई थी। कानडी प्रतियों में यह उपलब्ध हुई है (गाथा सं० ३६५) । इसी प्रकार नरक के दुःखों के वर्णन में भी गाथा सं०३३१ और ३३२ विशेष मिली हैं।
पूर्व प्रकाशित संस्करण के पृ. १२. पर मुद्रित गाथा १८८ में अर्ध योजन के छह भागों में से एक भाग कम श्रेणीबद्ध बिलों का परस्थान अन्तराल कहा गया है । जो गणित की दृष्टि से वैसा नहीं है। कन्नड़ प्रति के पाठ भेद से प्रस्तुत संस्करण के पृ० २०८ पर इसे सही रूप में रखा गया है। छठी पृथ्वी के प्रकीर्णक बिलों के अन्तराल का कथन करने वाली गाथा भी पूर्व संस्करण में नहीं थी, वह भी कानड़ी प्रतियों में मिली है । (गाथा सं० १६४)। इस प्रकार कमियों की पूर्ति होकर यह अधिकार