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१६८ ] तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : १६२ अर्थ :-अपने-अपने पटलोंकी पूर्व-वरिंगत संख्यासे गुणित अपनी-अपनी पुथियोके इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलोंके बाहल्यको पूर्वोक्त राशिमेंसे ( दो हजार योजन कम बिबक्षित पृथिवीके बाहल्यके किए गये कोसोंमेंसे ) कम करके प्रत्येकमें एक कम अपने-अपने इन्द्रक प्रमाणसे गुणित चारका भाग देनेपर जो लब्ध प्रावे उतने योजन प्रमाण अपनी-अपनी पृथिवीके इन्द्रकादि बिलोंमें ऊध्वंग अन्तराल तथा परस्थान ( एक पृथिवीके प्रन्निम और पागली पुश्लिी में नमादिभुत इन्दकादि बिलों) में कुछ कम एक राजू प्रमाण अन्तराल समझना चाहिए ।।१६०-१६२॥
विशेषार्थ :-रत्नप्रभादि छहों पृथिवियोंकी मोटाई पूर्व में कही गई है, इन पृथिवियोंमें जपर नीचे एक-एक योजनमें बिल नहीं है, अतः पृथिवियोंकी मोटाईमेंसे २००० योजन घटानेपर जो शेष रहे, उसके कोस बनाने हेतु चारसे गुणितकर लब्धमेंसे अपनी-अपनी पृथिवीके इन्द्रक बिलोंका बाहल्य घटाकर एक कम इन्द्रक बिलोंसे गुणित चारका भाग देनेपर अपनी-अपनी पृथिवीके इन्द्रक बिलोंका ऊर्ध्व अन्तराल प्राप्त होता है । यथा
पहली पृथिवीके इन्द्रक बिलोंका ऊर्ध्व अन्तराल - _.. (८०००० - २०००)४४--(१४१३).-६४६६१ योजन ।
(१३ - १)४४ दूसरी पृथिबीके इन्द्रक बिलों का ऊर्ध्व अन्तराल-..
(३२००० -- २०००)x४ (३४ ११)-२६
२
६६६ योजन।
योजन।
. . . .(११-२४४
तीसरी पृथिवीके इन्द्रक बिलों का ऊवं अन्तराल---- = (२८००० - २०००)२४ = (२x६)-३२४९१ योजन।
चौथी पृथिवीके इन्द्रक बिलोंका ऊर्ध्व अन्तराल- (२४००० - २०००)४४ (३४७) =३६६५३३ योजन ।
पांचवीं पृथिबीके इन्द्रक बिलोंका ऊर्ध्व अन्तराल
(२००००-२०००)x४- ३४२ =४ायोजन ।
(५ – १)४४