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ओर संश्लेषण दृष्टिगत होता है दूसरी ओर विश्लेषण इस प्रकार की प्रक्रियाओं का उपयोग इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान रखता है । अर्द्धच्छेद प्रक्रिया से गुणन को योग में तथा भाग को घटाने में बदल दिया जाता है । वर्गण की प्रक्रिया भी गुएान में बदल जाती है। इस प्रकार धाराओं में आने बाली विभिन्न राशियों के बीच श्रद्धच्छेद एवं वर्गसलाका विधियों द्वारा एवं वर्गण विधियों द्वारा सम्बन्ध स्थापित किया जाता है ।
अंकगणित में ही समान्तर और गुणोत्तर श्रेणियों के योग निकालने के तिलोयपण्णत्ती में अनेक प्रकरण आये हैं । इस ग्रंथ में कुछ और नवीन प्रकार की श्रेणियों का संकलन किया गया है । दूसरे महाधिकार में गाथा २७ से लेकर गाथा १०४ तक नारक बिलों के सम्बन्ध में श्रेणिसंकलन है । उसी प्रकार पांचवें महाधिकार में द्वीप समुद्रों के क्षेत्रफलों का अल्पबहुत्व संकलन रूप में वणित किया गया है। श्रेणियों को इतने विस्तृत रूप में वर्णन करने का श्रेय जैनाचार्यों को दिया जाना चाहिए । पुन: इस प्रकार की प्ररूपणा सीधी अस्तित्व पूर्ण राशियों से सम्बन्ध रखती थी जिनका वोघ इन संश्लेषण एवं विश्लेषण विधियों से होता था |
यह महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि उपमा प्रमाण में एक सुच्यंगुल में स्थित प्रदेशों की संख्या उतनी ही मानी गयी जितनी पल्य की समय राशि की अद्धापत्य की समय राशि के अर्द्ध च्छेद बार स्वयं से स्वयं को गुणित किया जाये । प्रतीकों में
[ अापल्य के छेद
( अंगुल )
( पल्य )
साथ ही यह भी महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि एक प्रदेश में श्रमन्त परमाणुओंों को समाविष्ट करने की अवगाहन शक्ति श्राकाश में है और यही एक दूसरे में प्रविष्ट होने की क्षमता परमाणुधों में भी है।
समान्तर श्रेणियों और गुणोत्तर श्रेणियों का उपयोग तिलोयपण्णत्ती में तो आया ही है, साथ ही कर्म-ग्रन्थों में तो आत्मा के परिणाम और कर्मपुद्गलों के समूह के यथोचित प्रतिपादन में इन श्रेणियों का विशाल रूप में उपयोग हुआ है। श्रेणियों का आविष्कार कब, क्यों और क्या अभिप्राय लेकर हुआ, इसका उत्तर जैन ग्रन्थों द्वारा भलीभांति दिया जा सकता है। विश्व की दूसरी सभ्यताओं में इनके अध्ययन का उदय किस प्रकार हुआ तथा एशिया में भी इनका अध्ययन का मूल स्रोतादि क्या था, यह शोध का विषय बन गया है। अर्द्धच्छेद और वर्गशलाकाओं का धाराओं में उपयोग भी विश्लेषण विधियों में से एक अत्यन्त महत्वपूर्ण विधि है जिसका उपयोग आज लागएरिभ के रूप में विश्लेषण तथा प्रयोगात्मक विधियों में अत्यधिक बढ़ गया है। आधार दो को जैनाचार्यों ने