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तिलोयपगत्ती
[ गाथा : ३४५-३४६ अर्थ :-जिसप्रकार तलवारके प्रहारसे भिन्न हुआ कुएका जल फिरसे मिल जाता है, उसी प्रकार अनेकानेक शस्त्रोंसे छेदा गया नारकियोंका शरीर भी फिरसे मिल जाता है । अर्थात् अनेकानेक शस्त्रोंसे छेदनेपर भी मारकियोंका अकाल-मरण कभी नहीं होता ॥३४४।।
फच्छुरि-करकच-'सूई-खदिरंगारादि-विविह-भंगोहिं ।
अण्णोण्ण-जादणामो कुणंति गिरएस गारइया ॥३४५।। अर्थ :-तरकोंमें करि ( कपिकच्छु केवाँच अर्थात् खाज पैदा करने वाली औषधि ), करोंत, सुई और खैरकी प्राग इत्यादि विविध प्रकारोंसे नारकी परस्पर यातनाएँ दिया करते हैं ।।३४५।।
अइ-तित्त-कडुव-कार-सत्तीदो मट्टियं अणंतगुणं । घम्माए णारइया थोवं ति चिरेण भुजंति ॥३४६॥
अर्थ :-धर्मा पृथ्वीके नारकी अत्यन्त तिक्त और कड़वी कथरि ( कचरी या प्रचार?} की शक्तिसे भी अनन्तगुनी तिक्त और कड़वी थोड़ी-थोड़ी मिट्टी चिरकाल खाते रहते हैं ।।३४६।।
अज-गज-महिस-तुरंगम-खरोट्ट-मज्जार- मेस-पहुदीणं"।
कुहिताणं गंधादो प्रणंत-गुणिदो हवेदि प्राहारो ।।३४७॥ अर्थ :-नरकोंमें बकरी, हाथी, भैस, घोड़ा, गधा, ऊँट, बिल्ली और मेट् प्रादिके सड़े हुए शरीरोंकी गंधसे अनन्तगुनी गन्धवाला आहार होता है ।।३४७11
अदि-कुणिम-मसुह-मण्णं रयणप्पह-पहदि जाव चरिमखिदि । संखातीद-गुणेहिं दुगुच्छणिज्जो हु प्राहारो ॥३४८॥
अर्थ :--रत्नप्रभासे लेकर अन्तिम पृथिवी पर्यन्त अत्यन्त सड़ा, अशुभ और उत्तरोत्तर असंख्यात गुणा म्लानिकर अन्य प्रकारका ही प्राहार होता है ॥३४८।।
१. द. ब. क. ज. छ. सूजीए । २. द. ब. अथणण। ३. ६. संत्तीदोमंधिम, ब. क. ज. 3. संती. दोमंधियं । ४ द. ब. क. तुरग। ५. ज. ४. उपहुचीणं ।