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निलोयपत्ती
[ गाथा : १३-१६ अभंतर-वध्वमलं जीव-पदेसे रिणबद्धमिदि' हेदो।
नाक पलं सातत्यं प्रमाणादसणादि-परिणामो ॥१३॥
अर्थ :-स्बेद ( पसीना ), रेणु ( धूलि ), कर्दम ( कीचड़ ) इत्यादि द्रव्यमल कहे गये हैं अोर दृढ़रूपसे जीवके प्रदेशों एक क्षेत्रावगाहरूप अन्धको प्राप्स' तथा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश, बन्धके इन चश भेदों में से प्रत्येक भेटको प्राप्त होने वाला ऐसा ज्ञानस्वरणादि पाठ प्रकारका सम्पूर्ण कर्मरूपी पाप-रज जो जीवके प्रदेशोंसे सम्बद्ध है, ( इस हेतु से ) वह (ज्ञानावरणादि कमरज) आभ्यन्नर द्रव्यमल है। जीवके अज्ञान, प्रदर्शन इत्यादिक परिणामोंको भावमल समझना चाहिए ।।११-१३।।
मङ्गल-शब्दकी सार्थकता अहवा बह-भेयगयं णाणावरणादि-दव्व-भाव-मल-भैदा ।
ताई गालेइ पुढं जदो तदो मंगलं भणिबं ॥१४॥ अर्थ :-प्रथका ज्ञानाबरणादिक द्रव्यमलके और ज्ञानावरणादिक भाव मलके भेदसे मल के अनेक भेद हैं; उन्हें चूकि ( मङ्गल ) स्पष्ट रूपसे गलाता है अर्थात् नष्ट करता है, इसलिए यह मंगल कहा गया है ।।१४।।
मंगलाचरमकी सार्थकता अहया मंग* सोक्खं लादि हु मेण्हेकि मंगलं तम्हा ।
एवेण' कज्ज-सिद्धि मंगइ मच्छनि गंथ-कत्तस्रो ॥१५॥ अर्थ :-यह मंग ( मोद) को एवं सुखको लाता है, इसलिए भी मंगल कहा भाता है। इसीके द्वारा ग्रन्थकर्ता कार्य सिद्धिको प्राप्त करता है और प्रानन्दको उपलब्ध करता है ।।१५॥
पुश्विलाइरिएहि मंगं पुषणत्थ-वाचयं भणियं ।
तं लादि हु प्रादत्ते जदो तदो मंगलं परं ॥१६॥ अर्थ :-पूर्वाचार्योंके द्वारा मंग पुण्यार्थवाचक कहा गया है, यह यथार्थमें उसी (मंगल) को लाता है एवं ग्रहण कराता है, इसीलिए यह मंगल श्रेष्ट है ॥१६॥
२. द. क. मंगल ।
३ द.
क.उ. एदाए।
४.द.
१. द.द.ज.क.:. शिबंधमिदि। गत्येदिगंथ, ब. मंगल गस्थेदि ।