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गाथा : १७-२१ ]
पडमो महाहियारो
पावं मलं त्ति भण्णइ उययार-सख्घएण जीवाणे ।
तं गालेदि विणासं णेवित्ति' भर्णति मंगलं केई ॥१७॥
अर्थ :- जीवोंका पाप, उपचारसे मल कहा जाता है । मंगल उस ( पाप ) को गलाता है तथा विनाशको प्राप्त कराता है, इस कारण भी कुछ प्राचार्य इसे मंगल कहते हैं ॥१७॥
मंगलाचरणके नामादिक छह भेद सामाणिठावणामो दव-खेताणि काल-भावा य ।
इय छन्भेयं भणियं मंगलमाणंद-संजणणं ॥१८॥ मर्थ :-प्रानन्दको उत्पन्न करनेवाला मंगल नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके भेदसे छह प्रकारका कहा गया है ।।१८।।
नाममंगल अरिझणं सिद्धाणं पाइरिय-उधज्झयाइ साहूणं ।
णामाई णाम-मंगलमुट्ठि वीयराएहि ॥१६॥ अर्थ :--वीतराग भगवान् ने अरिहंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु, इनके नामों को नाममङ्गल कहा है ॥१९॥
_स्थापना एवं द्रव्य मङ्गल ठावण-मंगलमेदं प्रकट्टिमाकट्टिमारिण जिबिंबा ।
सूरि-उवज्झय'-साहू-देहारिण हु वय्व-मंगलयं ॥२०॥
अर्थ :-अकृत्रिम और कृत्रिम जिनबिम्ब स्थापना मङ्गल हैं तथा नाचार्य, उपाध्याय प्रौर साधुके शरीर द्रव्य-मङ्गल हैं ।।२०॥
क्षेत्रमङ्गल गुण-परिणदासणं परिणिक्कमणं केवलस्स गाणस्स ।
उप्पत्ती इय-पहुदी बहुभेयं खेत्त-मंगलयं ॥२१॥ अर्थ :--गुरणपरिणत ( गुणवान मनुष्यों का निवास ) क्षेत्र, परिनिष्क्रमण ( दीक्षा) क्षेत्र, केवलज्ञानोत्पत्ति क्षेत्र, इत्यादि रूपसे क्षेत्रमङ्गल अनेक प्रकारका है ॥२१॥
१ द. ज. क. 3. गद्देति । २. उपझाया। ३. ब. उवझायाइ।