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तिलोयपण्णती
[ गाथा : २२-२७
एदस्स उदाहरणं पायाणयरुज्जयंत-चंपावी । प्राउट्ट-हत्थ-पहुदी पणुवीसहिय-पणसय-धणूणि ॥२२॥ देह-अद्विद-केवलणाणावट्ठद्ध-गयण-देसो वा । सेढि'-घण-मेत्त अप्पप्पस-गव-लोय-पूरणा-पुण्णा ॥२३॥
विस्साण' लोयाण होदि परेसा वि मंगलं खेत्तं ।
अर्थ :-इस क्षेत्रमङ्गलके उदाहरण-पावानगर, ऊर्जयन्त ( गिरनार ) और चम्पापुर प्रादि हैं तथा साढ़े तीन हाथसे लेकर पाँच सौ पच्चीस घनुष प्रमाण शरीरमें स्थित और केवलज्ञानसे व्याप्त प्राकाश-प्रदेश तथा जगच्छ्रे पीके घनमात्र ( लोक प्रमाण ) प्रात्माके प्रदेशों से लोकपूरण-समुद्घात द्वारा पूरित सभी ( ऊवं, मध्य एवं अधो ) लोकोंके प्रदेश भी क्षेत्रमङ्गल हैं ।।२१-२३३।।
काल मंगल जस्सि काले केवलणाणादि-मंगलं परिणमदि ॥२४॥ परिणिक्कमणं केवलणाणुब्भव-णिस्वुदि-प्पबेसादी । पावमल-गालणादो पण्णत्तं फाल-मंगलं एवं ॥२५॥ एवं प्रणेय मेयं हवेदि तं काल-मंगलं पवरं ।
जिण-महिमा-संबंधं णंदीसर-दिवस-पहवीओ ॥२६॥
अर्थ :-जिस काल में जीव केवलज्ञानादिरूप मंगलमय पर्याय प्राप्त करता है उसको तथा परिनिष्क्रमण ( दीक्षा ) काल, केबलजानके उद्भवका काल और निति ( मोक्षके प्रवेश का) काल, इन सबको पापरूपी मलके गलाने का कारण होनेसे काल-मंगल कहा गया है। इसी प्रकार जिन-महिमासे सम्बन्ध रखने वाले बे नन्दीश्वर दिवस ( अष्टाह्निका पर्व) आदि भी श्रेष्ठ काल मंगल हैं ॥२३३-२६॥
भावमंगल मंगल-पज्जाहि उदलक्खिय-जीव-दव्य-भेतं च । भावं मंगलमेदं पढियं* सत्यादि-मज्झतेसु ॥२७॥
१. द, सेविघरपमित्त प्रप्पपदेसजद । २. ब. पूरण पुण्णं। ३. द. ब. क. विण्णासं। ४, द. ज. क.उ. दीव पदी यो। ५. द.पच्चियपच्छादि, ब. पग्वियसत्यादि।